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प्रेमकविता

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श्वासों की आयु है सीमितये नयन भी बुझ ही जाएँगे !उर में संचित मधुबोलों केसंग्रह भी चुक ही जाएँगे !संग्रह भी च

- कफ़स में कैद।मेरे आंगन में, कराहता रहा वो पंछी।हाँ,करता भी क्या?तोड़ डाले थे उसने पंख,उड़ने की चाहत में।सुन पाता हूँ साफ साफ,उसके कलरव में उठते दर्द को।अक्सर महसूस करता हूँ,उसके चीत्कार को अपने भीतर।एक पिंजरा और भी है,तुम्हारी यादों का।उसी के मानिंद कैद है एक पंछी यहां भी।तोड़ लिए हैं उड़ने की चाहत

तुम खुश हो तो अच्छा है मुस्कानों का करके गर आखेट तुम खुश हो तो अच्छा है मरु हृदय में ढूँढता छाया तृण तरु झुलसा दृग भर आया सींच अश्रु से "स्व" के सूखे खेत तुम खुश हो तो अच्छा है कोरे कागद व्यथा पसीजी बाँच प्रीत झक चुनरी भींजी बींधें तीर-सी प्रखर शब्द की बेंत तुम खुश हो तो अच्छा है मन लगी मेंहदी गह

मदिर प्रीत की चाह लिये हिय तृष्णा में भरमाई रे जानूँ न जोगी काहे सुध-बुध खोई पगलाई रे सपनों के चंदन वन महके चंचल पाखी मधुवन चहके चख पराग बतरस जोगी मैं मन ही मन बौराई रे "पी"आकर्षण माया,भ्रम में तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी राह ठिठकी मैं चकराई रे उड़-उड़कर हुये पंख शिथिल

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