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1919 की एक बात

23 अप्रैल 2022

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ये 1919 ई. की बात है भाई जान, जब रूल्ट ऐक्ट के ख़िलाफ़ सारे पंजाब में एजिटेशन हो रही थी। मैं अमृतसर की बात कर रहा हूँ। सर माईकल ओडवायर ने डिफ़ेंस आफ़ इंडिया रूल्ज़ के मातहत गांधी जी का दाख़िला पंजाब में बंद कर दिया था। वो इधर आ रहे थे कि पलवाल के मुक़ाम पर उनको रोक लिया गया और गिरफ़्तार कर के वापस बम्बई भेज दिया गया। जहां तक मैं समझता हूँ भाई जान, अगर अंग्रेज़ ये ग़लती न करता तो जलियाँवाला बाग़ का हादिसा उसकी हुक्मरानी की स्याह तारीख़ में ऐसे ख़ूनीं वर्क़ का इज़ाफ़ा कभी न करता।


क्या मुसलमान, क्या हिंदू, क्या सिख, सबके दिल में गांधी जी की बेहद इज़्ज़त थी। सब उन्हें महात्मा मानते थे। जब उनकी गिरफ़्तारी की ख़बर लाहौर पहुंची तो सारा कारोबार एक दम बंद हो गया। यहां से अमृतसर वालों को मालूम हुआ, चुनांचे यूं चुटकियों में मुकम्मल हड़ताल हो गई।


कहते हैं कि नौ अप्रैल की शाम को डाक्टर सत्यपाल और डाक्टर किचलू की जिला वतनी के अहकाम डिप्टी कमिशनर को मिल गए थे। वो उनकी तामील के लिए तैयार नहीं था। इसलिए कि उसके ख़याल के मुताबिक़ अमृतसर में किसी हैजानख़ेज बात का ख़तरा नहीं था।


लोग पुरअम्न तरीक़े पर एहतिजाजी जलसे वग़ैरा करते थे जिनसे तशद्दुद का सवाल ही पैदा नहीं होता था। मैं अपनी आँखों देखा हाल बयान करता हूँ। नौ को रामनवमी था। जलूस निकला मगर मजाल है जो किसी ने हुक्काम की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ एक क़दम उठाया हो, लेकिन भाई जान, सर माईकल अजब औंधी खोपरी का इंसान था।


उसने डिप्टी कमिशनर की एक न सुनी। उस पर बस यही ख़ौफ़ सवार था कि ये लीडर महात्मा गांधी के इशारे पर सामराज का तख़्ता उलटने के दर पे हैं और जो हड़तालें हो रही हैं और जल्से मुनअक़िद होते हैं उनके पस-ए-पर्दा यही साज़िश काम कर रही है।


डाक्टर किचलू और डाक्टर सत्यपाल की जिला वतनी की ख़बर आनन-फ़ानन शहर में आग की तरह फैल गई। दिल हर शख़्स का मुकद्दर था। हर वक़्त धड़का सा लगा रहता था कि कोई बहुत बड़ा हादसा बरपा होने वाला है, लेकिन भाई जान, जोश बहुत ज़्यादा था। कारोबार बंद थे। शहर क़ब्रिस्तान बना हुआ था, पर इस क़ब्रिस्तान की ख़ामोशी में भी एक शोर था।


जब डॉ. किचलू और सत्यपाल की गिरफ़्तारी की ख़बर आई तो लोग हज़ारों की तादाद में इकट्ठे हुए कि मिल कर डिप्टी कमिशनर बहादुर के पास जाएं और अपने महबूब लीडरों की जिला वतनी के अहकाम मंसूख़ कराने की दरख़ास्त करें। मगर वो ज़माना भाई जान दरख़ास्तें सुनने का नहीं था। सर माईकल जैसा फ़िरऔन हाकिम-ए-आला था। उसने दरख़ास्त सुनना तो कुजा लोगों के इस इजतिमा ही को ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया।


अमृतसर... वो अमृतसर जो कभी आज़ादी की तहरीक का सबसे बड़ा मर्कज़ था जिसके सीने पर जलियाँवाला बाग़ जैसा क़ाबिल-ए-फ़ख़्र ज़ख़्म था। आज किस हालत में है? लेकिन छोड़ीए इस क़िस्से को। दिल को बहुत दुख होता है। लोग कहते हैं कि इस मुक़द्दस शहर में जो कुछ आज से पाँच बरस पहले हुआ उसके ज़िम्मेदार भी अंग्रेज़ हैं। होगा भाई जान, पर सच पूछिए तो इस लहू में जो वहां बहा है हमारे अपने ही हाथ रंगे हुए नज़र आते हैं। ख़ैर!


डिप्टी कमिशनर साहब का बंगला सिविल लाईन्ज़ में था। हर बड़ा अफ़सर और हर बड़ा टोडी शहर के इस अलग थलग हिस्से में रहता था... आपने अमृतसर देखा है तो आपको मालूम होगा कि शहर और सिविल लाईन्ज़ को मिलाने वाला एक पुल है जिस पर से गुज़र कर आदमी ठंडी सड़क पर पहुंचता है। जहां हाकिमों ने अपने लिए ये अर्ज़ी जन्नत बनाई हुई थी।


हुजूम जब हाल दरवाज़े के क़रीब पहुंचा तो मालूम हुआ कि पुल पर घोड़ सवार गोरों का पहरा है। हुजूम बिल्कुल न रूका और बढ़ता गया। भाई जान, मैं उस में शामिल था। जोश कितना था, मैं बयान नहीं कर सकता, लेकिन सब निहत्ते थे। किसी के पास एक मामूली छड़ी तक भी नहीं थी।


असल में वो तो सिर्फ़ इस ग़रज़ से निकले थे कि इजतमाई तौर पर अपनी आवाज़ हाकिम-ए-शहर तक पहुंचाएं और उससे दरख़ास्त करें कि डाक्टर किचलू और डाक्टर सत्यपाल को ग़ैरमशरूत तौर पर रिहा करदे। हुजूम पुल की तरफ़ बढ़ता रहा। लोग क़रीब पहुंचे तो गोरों ने फ़ायर शुरू करदिए। इससे भगदड़ मच गई। वो गिनती में सिर्फ़ बीस-पच्चीस थे और हुजूम सैंकड़ों पर मुश्तमिल था, लेकिन भाई गोली की दहश्त बहुत होती है। ऐसी अफ़रातफ़री फैली कि अल अमां। कुछ गोलियों से घायल हुए और कुछ भगदड़ में ज़ख़्मी हुए।


दाएं हाथ को गंदा नाला था। धक्का लगा तो मैं उसमें गिर पड़ा। गोलियां चलनी बंद हुईं तो मैंने उठ कर देखा। हुजूम तितर-बितर हो चुका था। ज़ख़्मी सड़क पर पड़े थे और पुल पर गोरे खड़े हंस रहे थे। भाई जान, मुझे क़तअन याद नहीं कि उस वक़्त मेरी दिमाग़ी हालत किस क़िस्म की थी।


मेरा ख़याल है कि मेरे होश-ओ-हवास पूरी तरह सलामत नहीं थे। गंदे नाले में गिरते वक़्त तो क़तअन मुझे होश नहीं था। जब बाहर निकला तो जो हादिसा वक़ूअ पज़ीर हुआ था, उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल आहिस्ता आहिस्ता दिमाग़ में उभरने शुरू हुए।


दूर शोर की आवाज़ सुनाई दे रही थी जैसे बहुत से लोग ग़ुस्से में चीख़-चिल्ला रहे हैं। मैं गंदा नाला उबूर करके ज़ाहिरा पीर के तकिए से होता हुआ हाल दरवाज़े के पास पहुंचा तो देखा कि तीस-चालीस नौजवान जोश में भरे पत्थर उठा उठा कर दरवाज़े के घड़ियाल पर मार रहे हैं। उसका शीशा टूट कर सड़क पर गिरा तो एक लड़के ने बाक़ीयों से कहा, “चलो... मलिका का बुत तोड़ें!”


दूसरे ने कहा, “नहीं यार... कोतवाली को आग लगाऐं!”


तीसरे ने कहा, “और सारे बैंकों को भी!”


चौथे ने उनको रोका, “ठहरो... इससे क्या फ़ायदा... चलो पुल पर उन लोगों को मारें।”


मैंने उसको पहचान लिया। ये थैला कंजर था... नाम मोहम्मद तुफ़ैल था मगर थैला कंजर के नाम से मशहूर था। इसलिए कि एक तवाइफ़ के बतन से था। बड़ा आवारागर्द था। छोटी उम्र ही में उसको जुए और शराबनोशी की लत पड़ गई थी।


उसकी दो बहनें शमशाद और अलमास अपने वक़्त की हसीन-तरीन तवाइफ़ें थीं। शमशाद का गला बहुत अच्छा था। उसका मुजरा सुनने के लिए रईस बड़ी बड़ी दूर से आते थे। दोनों अपने भाई के करतूतों से बहुत नालां थीं। शहर में मशहूर था कि उन्होंने एक क़िस्म का उसको आक़ कर रखा है।


फिर भी वो किसी न किसी हीले अपनी ज़रूरियात के लिए उनसे कुछ न कुछ वसूल कर ही लेता था। वैसे वो बहुत ख़ुशपोश रहता था। अच्छा खाता था, अच्छा पीता था। बड़ा नफ़ासतपसंद था। बज़्लासंजी और लतीफ़ा गोई मिज़ाज में कूट कूट के भरी थी। मीरासियों और भांडों के सोक़यानापन से बहुत दूर रहता था। लंबा क़द, भरे भरे हाथ-पांव, मज़बूत कसरती बदन। नाक-नक़्शे का भी ख़ासा था।


पुरजोश लड़कों ने उसकी बात न सुनी और मलिका के बुत की तरफ़ चलने लगे। उसने फिर उनसे कहा, “मैंने कहा मत ज़ाए करो अपना जोश। इधर आओ मेरे साथ... चलो उनको मारें जिन्होंने हमारे बेक़सूर आदमियों की जान ली है और उन्हें ज़ख़्मी किया है... ख़ुदा की क़सम हम सब मिल कर उनकी गर्दन मरोड़ सकते हैं... चलो!”


कुछ रवाना हो चुके थे, बाक़ी रुक गए। थैला पुल की तरफ़ बढ़ा तो उसके पीछे चलने लगे। मैंने सोचा कि माओं के ये लाल बेकार मौत के मुँह में जा रहे हैं। फव्वारे के पास दुबका खड़ा था। वहीं मैंने थैले को आवाज़ दी और कहा, “मत जाओ यार... क्यों अपनी और उनकी जान के पीछे पड़े हो।”


थैले ने ये सुन कर एक अजीब सा क़हक़हा बुलंद किया और मुझ से कहा, “थैला सिर्फ़ ये बताने चला है कि वो गोलियों से डरने वाला नहीं।” फिर वो अपने साथियों से मुख़ातिब हुआ, “तुम डरते हो तो वापस जा सकते हो।”


ऐसे मौक़ों पर बढ़े हुए क़दम उल्टे कैसे हो सकते हैं और फिर वो भी उस वक़्त जब लीडर अपनी जान हथेली पर रख कर आगे आगे जा रहा हो। थैले ने क़दम तेज़ किए तो उसके साथियों को भी करने पड़े।


हाल दरवाज़े से पुल का फ़ासिला कुछ ज़्यादा नहीं होगा कोई... साठ-सत्तर गज़ के क़रीब... थैला सब से आगे आगे था। जहां से पुल का दो रोंया मुतवाज़ी जंगला शुरू होता है, वहां से पंद्रह-बीस क़दम के फ़ासले पर दो घुड़सवार गोरे खड़े थे। थैला नारे लगाता जब बंगले के आग़ाज़ के पास पहुंचा तो फ़ायर हुआ, मैं समझा कि वो गिर पड़ा है... लेकिन देखा कि वो उसी तरह... ज़िंदा आगे बढ़ रहा है। उसके बाक़ी साथी डर के भाग उठे हैं। मुड़ कर उसने पीछे देखा और चिल्लाया, “भागो नहीं... आओ!”


उसका मुँह मेरी तरफ़ था कि एक और फ़ायर हुआ। पलट कर उसने गोरों की तरफ़ देखा और पीठ पर हाथ फेरा... भाई जान, नज़र तो मुझे कुछ नहीं आना चाहिए था, मगर मैंने देखा कि उसकी सफ़ेद बोसकी की क़मीज़ पर लाल लाल धब्बे थे।


वो और तेज़ी से बढ़ा, जैसे ज़ख़्मी शेर... एक और फ़ायर हुआ। वो लड़खड़ाया मगर एक दम क़दम मज़बूत करके वो घुड़ सवार गोरे पर लपका और चश्म ज़दन में जाने क्या हुआ... घोड़े की पीठ ख़ाली थी। गोरा ज़मीन पर था और थैला उसके ऊपर... दूसरे गोरे ने जो क़रीब था और पहले बौखला गया था, बिदकते हुए घोड़े को रोका और धड़ा धड़ फ़ायर शुरू कर दिए... इसके बाद जो कुछ हुआ मुझे मालूम नहीं। मैं वहां फव्वारे के पास बेहोश हो कर गिर पड़ा।


भाई जान, जब मुझे होश आया तो मैं अपने घर में था। चंद पहचान के आदमी मुझे वहां से उठा लाए थे। उनकी ज़बानी मालूम हुआ कि पुल पर से गोलियां खा कर हुजूम मुश्तइल होगया था। नतीजा इस इश्तिआल का ये हुआ कि मलिका के बुत को तोड़ने की कोशिश की गई। टाउन हाल और तीन बैंकों को आग लगी और पाँच या छः यूरोपीयन मारे गए। ख़ूब लूट मची।


लूट-खसूट का अंग्रेज़ अफ़सरों को इतना ख़याल नहीं था। पाँच या छः यूरोपीयन हलाक हुए थे, उसका बदला लेने के लिए, चुनांचे जलियाँ वाला बाग़ का ख़ूनीं हादिसा रूनुमा हुआ।


डिप्टी कमिशनर बहादुर ने शहर की बाग-डोर जनरल डायर के सपुर्द करदी। चुनांचे जनरल साहिब ने बारह अप्रैल को फ़ौजियों के साथ शहर के मुख़्तलिफ़ बाज़ारों में मार्च किया और दर्जनों बेगुनाह आदमी गिरफ़्तार किए। तेरह को जलियाँ वाला बाग़ में जलसा हुआ। क़रीब-क़रीब पच्चीस हज़ार का मजमा था।


शाम के क़रीब जनरल डायर मुसल्लह गोरों और सिखों के साथ वहां पहुंचा और निहत्ते आदमियों पर गोलियों की बारिश शुरू कर दी।


उस वक़्त तो किसी को नुक़्सान जान का ठीक अंदाज़ा नहीं था। बाद में जब तहक़ीक़ हुई तो पता चला कि एक हज़ार हलाक हुए हैं और तीन या चार हज़ार के क़रीब ज़ख़्मी... लेकिन मैं थैले की बात कर रहा था... भाई जान, आँखों देखी आप को बता चुका हूँ... बेऐब ज़ात ख़ुदा की है।


मरहूम में चारों ऐब शरई थे। एक पेशा तवाइफ़ के बतन से था मगर जियाला था। मैं अब यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि इस मलऊन गोरे की पहली गोली भी उसके लगी थी। आवाज़ सुन कर उसने जब पलट कर अपने साथियों की तरफ़ देखा था और उन्हें हौसला दिलाया था।


जोश की हालत में उसको मालूम नहीं हुआ था कि उसकी छाती में गर्म-गर्म सीसा उतर चुका है। दूसरी गोली उसकी पीठ में लगी। तीसरी फिर सीने में... मैंने देखा नहीं, पर सुना है जब थैले की लाश गोरे से जुदा की गई तो उसके दोनों हाथ उसकी गर्दन में इस बुरी तरह पैवस्त थे कि अलाहिदा नहीं होते थे... गोरा जहन्नुम वासिल हो चुका था।


दूसरे रोज़ जब थैले की लाश कफ़न-दफ़न के लिए उसके घर वालों के सपुर्द की गई तो उसका बदन गोलियों से छलनी होरहा था। दूसरे गोरे ने तो अपना पूरा पिस्तौल उस पर ख़ाली कर दिया था।


मेरा ख़याल है उस वक़्त मरहूम की रूह क़फ़स-ए-उंसुरी से परवाज़ कर चुकी थी। उस शैतान के बच्चे ने सिर्फ़ उसके मुर्दा जिस्म पर चांद मारी की थी।


कहते हैं जब थैले की लाश मुहल्ले में पहुंची तो कुहराम मच गया। अपनी बिरादरी में वो इतना मक़बूल नहीं था, लेकिन उसकी क़ीमा-क़ीमा लाश देख कर सब धाड़ें मार मार कर रोने लगे। उसकी बहनें शमशाद और अलमास तो बेहोश होगईं। जब जनाज़ा उठा तो उन दोनों ने ऐसे बैन किए कि सुनने वाले लहू के आँसू रोते रहे।


भाई जान, मैंने कहीं पढ़ा था कि फ़्रांस के इन्क़िलाब में पहली गोली वहां की एक टखयाई के लगी थी। मरहूम मुहम्मद तुफ़ैल एक तवाइफ़ का लड़का था। इन्क़िलाब की इस जद्द-ओ-जहद में उसको जो पहली गोली लगी थी दसवीं थी या पचासवीं। इसके मुताल्लिक़ किसी ने भी तहक़ीक़ नहीं की। शायद इसलिए कि सोसाइटी में इस ग़रीब का कोई रुतबा नहीं था। 


मैं तो समझता हूँ पंजाब के इस ख़ूनीं ग़ुसल में नहाने वालों की फ़हरिस्त में थैले कंजर का नाम-ओ-निशान तक भी नहीं होगा और ये भी कोई पता नहीं कि ऐसी कोई फ़हरिस्त तैयार भी हुई थी।


सख़्त हंगामी दिन थे। फ़ौजी हुकूमत का दौर-दौरा था। वो देव जिसे मार्शल ला कहते हैं, शहर के गली-गली, कूचे-कूचे में डकारता फिरता था। बहुत अफ़रा तफ़री के आलम में उस ग़रीब को जल्दी जल्दी यूं दफ़न किया गया जैसे उसकी मौत उसके सोगवार अज़ीज़ों का एक संगीन जुर्म थी जिसके निशानात वो मिटा देना चाहते थे।


बस भाई जान, थैला मर गया। थैला दफ़ना दिया गया और... और ये कह कर मेरा हमसफ़र पहली मर्तबा कुछ कहते-कहते रुका और ख़ामोश हो गया।


ट्रेन दनदनाती हुई जा रही थी। पटड़ियों की खटाखट ने ये कहना शुरू कर दिया। थैला मर गया... थैला दफ़ना दिया गया... थैला मर गया ... थैला दफ़ना दिया गया। इस मरने और दफ़नाने के दरमियान कोई फ़ासला नहीं था, जैसे वो इधर मरा और उधर दफ़ना दिया गया।


और खट-खट के साथ इन अलफ़ाज़ की हम-आहंगी कुछ इस क़दर जज़्बात से आरी थी कि मुझे अपने दिमाग़ से उन दोनों को जुदा करना पड़ा। चुनांचे मैंने अपने हम सफ़र से कहा, “आप कुछ और भी सुनाने वाले थे?”


चौंक कर उसने मेरी तरफ़ देखा, “जी हाँ... उस दास्तान का एक अफ़सोसनाक हिस्सा बाक़ी है।”


मैंने पूछा, “क्या?”


उसने कहना शुरू किया, “मैं आपसे अर्ज़ कर चुका हूँ कि थैले की दो बहनें थीं, शमशाद और अलमास। बहुत ख़ूबसूरत थीं। शमशाद लंबी थी। पतले पतले नक़्श, ग़लाफ़ी आँखें। ठुमरी बहुत ख़ूब गाती थी। सुना है ख़ां साहब फ़तह अली ख़ां से तालीम लेती रही थी।


दूसरी अलमास थी। उसके गले में सुर नहीं था, लेकिन बतावे में अपना सानी नहीं रखती थी। मुजरा करती थी तो ऐसा लगता था कि उसका अंग-अंग बोल रहा है। हर भाव में एक घात होती थी... आँखों में वो जादू था जो हर एक के सर पर चढ़ के बोलता था।” मेरे हम सफ़र ने तारीफ़-ओ-तौसीफ में कुछ ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त लिया। मगर मैंने टोकना मुनासिब न समझा।


थोड़ी देर के बाद वो ख़ुद इस लंबे चक्कर से निकला और दास्तान के अफ़सोसनाक हिस्से की तरफ़ आया, “क़िस्सा ये है भाई जान कि इन आफ़त की परकाला दो बहनों के हुस्न-ओ-जमाल का ज़िक्र किसी ख़ुशामदी ने फ़ौजी अफ़सरों से कर दिया... बलवे में एक मेम... क्या नाम था उस चुड़ैल का? मिस... मिस शरवड मारी गई थी... तय ये हुआ कि उनको बुलवाया जाये और... और... जी भर के इंतिक़ाम लिया जाये।आप समझ गए न भाई जान?”


मैंने कहा, “जी हाँ!”


मेरे हमसफ़र ने एक आह भरी, “ऐसे नाज़ुक मुआमलों में तवाइफ़ें और कस्बीयाँ भी अपनी माएं-बहनें होती हैं... मगर भाई जान, ये मुल्क अपनी इज़्ज़त-ओ-नामूस को मेरा ख़याल है पहचानता ही नहीं।


जब ऊपर से इलाक़े के थानेदार को आर्डर मिला तो वो फ़ौरन तैयार हो गया। चुनांचे वो ख़ुद शमशाद और अलमास के मकान पर गया और कहा कि साहब लोगों ने याद किया है। वो तुम्हारा मुजरा सुनना चाहते हैं।भाई की क़ब्र की मिट्टी भी अभी तक ख़ुश्क नहीं हुई थी। अल्लाह को प्यारा हुए उस ग़रीब को सिर्फ़ दो दिन हुए थे कि ये हाज़िरी का हुक्म सादिर हुआ कि आओ हमारे हुज़ूर नाचो।


अज़ियत का इससे बढ़ कर पुरअज़ियत तरीक़ा क्या हो सकता है? मुस्तबइद तमस्खुर की ऐसी मिसाल मेरा ख़याल है शायद ही कोई और मिल सके... क्या हुक्म देने वालों को इतना ख़याल भी न आया कि तवाइफ़ भी ग़ैरत मंद होती है? हो सकती है... क्यों नहीं हो सकती?” उसने अपने आपसे सवाल किया, लेकिन मुख़ातिब वो मुझ से था।


मैंने कहा, “हो सकती है!”


“जी हाँ”... थैला आख़िर उनका भाई था। उसने किसी क़िमारख़ाने की लड़ाई-भिड़ाई में अपनी जान नहीं दी थी। वो शराब पी कर दंगा-फ़साद करते हुए हलाक नहीं हुआ था। उसने वतन की राह में बड़े बहादुराना तरीक़े पर शहादत का जाम पिया था। वो एक तवाइफ़ के बतन से था। लेकिन वो तवाइफ़ माँ थी और शमशाद और अलमास उसी की बेटियां थीं और ये थैले की बहनें थीं... तवाइफ़ें बाद में थीं... और वो थैले की लाश देख कर बेहोश हो गई थीं। जब उसका जनाज़ा उठा था तो उन्होंने ऐसे बैन किए थे कि सुन कर आदमी लहू रोता था।


मैंने पूछा, “वो गईं?”


मेरे हम सफ़र ने इसका जवाब थोड़े वक़फ़े के बाद अफ़सुरदगी से दिया, “जी हाँ... जी हाँ गईं... ख़ूब सज-बन कर।”


एक दम उसकी अफ़सुरदगी तीखापन इख़्तियार कर गई, “सोलह सिंगार करके अपने बुलाने वालों के पास गईं... कहते हैं कि ख़ूब महफ़िल जमी... दोनों बहनों ने अपने जौहर दिखाए... ज़र्क़-बर्क़ पेशवाज़ों में मलबूस वो कोह-ए-क़ाफ़ की परियां मालूम होती थीं।


शराब के दौर चलते रहे और वो नाचती गाती रहीं। ये दोनों दौर चलते रहे और कहते हैं कि रात के दो बजे एक बड़े अफ़सर के इशारे पर महफ़िल बरख़ास्त हुई।” वो उठ खड़ा हुआ और बाहर भागते हुए दरख़्तों को देखने लगा।


पहियों और पटड़ियों की आहनी गड़गड़ाहट की ताल पर उसके आख़िरी दो लफ़्ज़ नाचने लगे, “बरख़ास्त हुई... बरख़ास्त हुई।”


मैंने अपने दिमाग़ में उन्हें, आहनी गड़गड़ाहट से नोच कर अलाहिदा करते हुए उससे पूछा, “फिर क्या हुआ?”


भागते हुए दरख़्तों और खंबों से नज़रें हटा कर उसने बड़े मज़बूत लहजे में कहा, “उन्होंने अपनी ज़र्क़-बर्क़ पेशवाज़ें नोच डालीं और अलिफ़ नंगी होगईं और कहने लगीं... लो देख लो... हम थैले की बहनें हैं। उस शहीद की जिसके ख़ूबसूरत जिस्म को तुमने सिर्फ़ इसलिए अपनी गोलियों से छलनी छलनी किया था कि उसमें वतन से मोहब्बत करने वाली रूह थी। हम उसी की ख़ूबसूरत बहनें हैं... आओ, अपनी शहवत के गर्म-गर्म लोहे से हमारा ख़ुशबूओं में बसा हुआ जिस्म दागदार करो... मगर ऐसा करने से पहले सिर्फ़ हमें एक बार अपने मुँह पर थूक लेने दो।”


ये कह कर वो ख़ामोश हो गया, कुछ इस तरह कि और नहीं बोलेगा। मैंने फ़ौरन ही पूछा, “फिर क्या हुआ?”


उसकी आँखों में आँसू डबडबा आए, “उनको... उनको गोली से उड़ा दिया गया।”


मैंने कुछ न कहा। गाड़ी आहिस्ता होकर स्टेशन पर रुकी तो उसने क़ुली बुला कर अपना अस्बाब उठवाया। जब जाने लगा तो मैंने उससे कहा, “आपने जो दास्तान सुनाई, उसका अंजाम मुझे आप का ख़ुद साख़्ता मालूम होता है।”


एक दम चौंक कर उसने मेरी तरफ़ देखा, “ये आपने कैसे जाना?”


मैंने कहा, “आपके लहजे में एक नाक़ाबिल-ए-बयान कर्ब था।”


मेरे हम सफ़र ने अपने हलक़ की तल्ख़ी थूक के साथ निगलते हुए कहा, “जी हाँ... उन हराम...” वो गाली देते-देते रुक गया, “उन्होंने अपने शहीद भाई के नाम पर बट्टा लगा दिया।” ये कह कर वो प्लेटफार्म पर उतर गया। 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की इरोटिक कहानियाँ
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सवाल यह हैं की जो चीज जैसी हैं उसे वैसे ही पेश क्यू ना किया जाये मैं तो बस अपनी कहानियों को एक आईना समझता हूँ जिसमें समाज अपने आपको देख सके.. अगर आप मेरी कहानियों को बर्दास्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह हैं की ये ज़माना ही नक़ाबिल-ए-बर्दास्त हैं||
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दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे उसके गाहक थे। उन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उनको वो आम गुफ़्तगु में इस्तेमाल नहीं करती थी लेकिन जब

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खोल दो

23 अप्रैल 2022
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अमृतसर से स्शपेशल ट्रेन दोपहर दो बजे को चली और आठ घंटों के बाद मुग़लपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। मुतअद्दिद ज़ख़्मी हुए और कुछ इधर उधर भटक गए। सुबह दस बजे कैंप की ठंडी ज़मीन पर जब सिराजुद

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टोबा टेक सिंह

23 अप्रैल 2022
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बटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदोस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुसलमान पागल, हिंदोस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें पाकिस

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1919 की एक बात

23 अप्रैल 2022
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ये 1919 ई. की बात है भाई जान, जब रूल्ट ऐक्ट के ख़िलाफ़ सारे पंजाब में एजिटेशन हो रही थी। मैं अमृतसर की बात कर रहा हूँ। सर माईकल ओडवायर ने डिफ़ेंस आफ़ इंडिया रूल्ज़ के मातहत गांधी जी का दाख़िला पंजाब में

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बेगू

24 अप्रैल 2022
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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप क

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बाँझ

24 अप्रैल 2022
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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की त

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बारिश

24 अप्रैल 2022
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मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो अपने कमरे में बैठा जल-थल देख रहा था... बाहर बहुत बड़ा लॉन था, जिसमें दो दरख़्त थे। उनके सब्ज़ पत्ते बारिश में नहा रहे थे। उसको महसूस हुआ कि वो पानी की इस यूरिश से ख़ुश ह

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औलाद

24 अप्रैल 2022
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जब ज़ुबैदा की शादी हुई तो उसकी उम्र पच्चीस बरस की थी। उसके माँ-बाप तो ये चाहते थे कि सतरह बरस के होते ही उसका ब्याह हो जाये मगर कोई मुनासिब-ओ-मौज़ूं रिश्ता मिलता ही नहीं था। अगर किसी जगह बात तय होने प

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उसका पति

24 अप्रैल 2022
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लोग कहते थे कि नत्थू का सर इसलिए गंजा हुआ है कि वो हर वक़्त सोचता रहता है। इस बयान में काफ़ी सदाक़त है क्योंकि सोचते वक़्त नत्थू सर खुजलाया करता है। उसके बाल चूँकि बहुत खुरदरे और ख़ुश्क हैं और तेल न

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नंगी आवाज़ें

24 अप्रैल 2022
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भोलू और गामा दो भाई थे, बेहद मेहनती। भोलू क़लईगर था। सुबह धौंकनी सर पर रख कर निकलता और दिन भर शहर की गलियों में “भाँडे क़लई करा लो” की सदाएं लगाता रहता। शाम को घर लौटता तो उसके तहबंद के डब में तीन चार

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आमिना

24 अप्रैल 2022
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दूर तक धान के सुनहरे खेत फैले हुए थे जुम्मे का नौजवान लड़का बिंदु कटे हुए धान के पोले उठा रहा था और साथ ही साथ गा भी रहा था; धान के पोले धर धर कांधे भर भर लाए खेत सुनहरा धन दौलत रे बिंदू

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हतक

24 अप्रैल 2022
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दिन भर की थकी मान्दी वो अभी अभी अपने बिस्तर पर लेटी थी और लेटते ही सो गई। म्युनिसिपल कमेटी का दारोग़ा सफ़ाई, जिसे वो सेठ जी के नाम से पुकारा करती थी, अभी अभी उसकी हड्डियाँ-पस्लियाँ झिंझोड़ कर शराब के

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आम

24 अप्रैल 2022
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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वज

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वह लड़की

24 अप्रैल 2022
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सवा चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उसने बालकनी में आकर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक सायादार दरख़्त की छांव में आलती पालत

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असली जिन

24 अप्रैल 2022
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लखनऊ के पहले दिनों की याद नवाब नवाज़िश अली अल्लाह को प्यारे हुए तो उनकी इकलौती लड़की की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा आठ बरस थी। इकहरे जिस्म की, बड़ी दुबली-पतली, नाज़ुक, पतले पतले नक़्शों वाली, गुड़िया सी। नाम

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जिस्म और रूह

24 अप्रैल 2022
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मुजीब ने अचानक मुझसे सवाल किया, “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?” गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इनकी तक़

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बादशाहत का ख़ात्मा

24 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और क

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ऐक्ट्रेस की आँख

24 अप्रैल 2022
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“पापों की गठड़ी” की शूटिंग तमाम शब होती रही थी, रात के थके-मांदे ऐक्टर लकड़ी के कमरे में जो कंपनी के विलेन ने अपने मेकअप के लिए ख़ासतौर पर तैयार कराया था और जिसमें फ़ुर्सत के वक़्त सब ऐक्टर और ऐक्ट्रसें

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अल्लाह दत्ता

24 अप्रैल 2022
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दो भाई थे। अल्लाह रक्खा और अल्लाह दत्ता। दोनों रियासत पटियाला के बाशिंदे थे। उनके आबा-ओ-अजदाद अलबत्ता लाहौर के थे मगर जब इन दो भाईयों का दादा मुलाज़मत की तलाश में पटियाला आया तो वहीं का हो रहा। अल

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झुमके

24 अप्रैल 2022
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सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तर

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गुरमुख सिंह की वसीयत

24 अप्रैल 2022
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पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी

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इश्क़िया कहानी

24 अप्रैल 2022
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मेरे मुतअ’ल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इ’श्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इसलिए वो बिल्कुल सपाट होते हैं। मैं अब ये इ’श्क़िया कहानी लि

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बाबू गोपीनाथ

24 अप्रैल 2022
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बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था।

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मोज़ेल

24 अप्रैल 2022
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त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आ

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एक ज़ाहिदा, एक फ़ाहिशा

24 अप्रैल 2022
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जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर। हम हर रोज़ क़रीब-क़रीब दस-बारह घंटे साथ साथ रहते। वो अपने रिश्तेदारों स

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बुर्क़े

24 अप्रैल 2022
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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है। वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड

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आँखें

24 अप्रैल 2022
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ये आँखें बिल्कुल ऐसी ही थीं जैसे अंधेरी रात में मोटर कार की हेडलाइट्स जिनको आदमी सब से पहले देखता है। आप ये न समझिएगा कि वो बहुत ख़ूबसूरत आँखें थीं, हरगिज़ नहीं। मैं ख़ूबसूरती और बदसूरती में तमीज़ क

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अनार कली

24 अप्रैल 2022
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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तन

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टेटवाल का कुत्ता

24 अप्रैल 2022
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कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिनकी आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में

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धुआँ

24 अप्रैल 2022
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वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था

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आर्टिस्ट लोग

24 अप्रैल 2022
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जमीला को पहली बार महमूद ने बाग़-ए-जिन्ना में देखा। वो अपनी दो सहेलियों के साथ चहल क़दमी कर रही थी। सबने काले बुर्के पहने थे। मगर नक़ाबें उलटी हुई थीं। महमूद सोचने लगा। ये किस क़िस्म का पर्दा है कि बुर

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