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आखिरी सैल्यूट

24 अप्रैल 2022

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ये कश्मीर की लड़ाई भी अजीब-ओ-ग़रीब थी। सूबेदार रब नवाज़ का दिमाग़ ऐसी बंदूक़ बन गया था। जंग का घोड़ा ख़राब हो गया हो। पिछली बड़ी जंग में वो कई महाज़ों पर लड़ चुका था। मारना और मरना जानता था। छोटे बड़े अफ़सरों की नज़रों में उसकी बड़ी तौक़ीर थी, इसलिए कि वो बड़ा बहादुर, निडर और समझदार सिपाही था। प्लाटून कमांडर मुश्किल काम हमेशा उसे ही सौंपते थे और वो उनसे ओह्दा बरआ होता था। मगर इस लड़ाई का ढंग ही निराला था।

दिल में बड़ा वलवला, बड़ा जोश था। भूक-प्यास से बेपर्वा सिर्फ़ एक ही लगन थी, दुश्मन का सफ़ाया कर देने की, मगर जब उससे सामना होता, तो जानी-पहचानी सूरतें नज़र आतीं। बा’ज़ दोस्त दिखाई देते, बड़े बग़ली क़िस्म के दोस्त, जो पिछली लड़ाई में उसके दोश बदोश, इत्तिहादियों के दुश्मनों से लड़े थे, पर अब जान के प्यासे बने हुए थे। सूबेदार रब नवाज़ सोचता था कि ये सब ख़्वाब तो नहीं। पिछली बड़ी जंग का ऐलान। भर्ती, क़दर आवर छातियों की पैमाइश, पी टी, चांद मारी और फिर महाज़। उधर से इधर, इधर से उधर, आख़िर जंग का ख़ातमा। फिर एक दम पाकिस्तान का क़ियाम और साथ ही कश्मीर की लड़ाई। ऊपर तले कितनी चीज़ें। रब नवाज़ सोचता था कि करने वाले ने ये सब कुछ सोच समझ कर किया है ताकि दूसरे बौखला जाएं और समझ न सकें। वर्ना ये भी कोई बात थी कि इतनी जल्दी इतने बड़े इन्क़िलाब बरपा हो जाएं।

इतनी बात तो सूबेदार रब नवाज़ की समझ में आती थी कि वो कश्मीर हासिल करने के लिए लड़ रहे हैं। कश्मीर क्यों हासिल करना है, ये भी वो अच्छी तरह समझता था इसलिए कि पाकिस्तान की बक़ा के लिए उसका इलहाक़ अशद ज़रूरी है, मगर निशाना बांधते हुए उसे जब कोई जानी पहचानी शक्ल नज़र आ जाती थी तो वो कुछ देर के लिए भूल जाता था कि वो किस ग़रज़ के लिए लड़ रहा है, किस मक़सद के लिए उसने बंदूक़ उठाई है। और वो ये ग़ालिबन इसीलिए भूलता था कि उसे बार बार ख़ुद को याद कराना पड़ा था कि अब की वो सिर्फ़ तनख़्वाह ज़मीन के मुरब्बों और तमगों के लिए नहीं बल्कि अपने वतन की ख़ातिर लड़ रहा है।

ये वतन पहले भी उसका वतन था, वो इसी इलाक़े का रहने वाला था जो अब पाकिस्तान का एक हिस्सा बन गया था। अब उसे अपने उसी हमवतन के ख़िलाफ़ लड़ना था जो कभी उसका हमसाया होता था, जिसके ख़ानदान से उसके ख़ानदान के पुश्त-हा-पुश्त के देरीना मरासिम थे। अब उसका वतन वो था जिसका पानी तक भी उसने कभी नहीं पिया था, पर अब उसकी ख़ातिर, एक दम उसके कांधे पर बंदूक़ रख कर ये हुक्म दे दिया गया था कि जाओ, ये जगह जहां तुमने अभी अपने घर के लिए दो ईंटें भी नहीं चुनीं, जिसकी हवा और जिसके पानी का मज़ा अभी तक तुम्हारे मुँह में ठीक तौर पर नहीं बैठा, तुम्हारा वतन है… जाओ उसकी ख़ातिर पाकिस्तान से लड़ो… उस पाकिस्तान से जिसके ऐन दिल में तुम ने अपनी उम्र के इतने बरस गुज़ारे हैं।

रब नवाज़ सोचता था कि यही दिल उन मुसलमान फ़ौजियों का है जो हिंदुस्तान में अपना घर बार छोड़कर यहां आए हैं। वहां उनसे सब कुछ छीन लिया गया था यहां आकर उन्हें और तो कुछ नहीं मिला। अलबत्ता बंदूक़ें मिल गई हैं। उसी वज़न की, उसी शक्ल की, उसी मार्के और छाप की। पहले सब मिल कर एक ऐसे दुश्मन से लड़ते थे जिनको उन्होंने पेट और इनाम-ओ-इकराम की ख़ातिर अपना दुश्मन यक़ीन कर लिया था। अब वो ख़ुद दो हिस्सों में बट गए थे। पहले सब हिंदुस्तानी फ़ौजी कहलाते थे। अब एक पाकिस्तानी था और दूसरा हिंदुस्तानी। उधर हिंदुस्तान में मुसलमान हिंदुस्तानी फ़ौजी थे। रब नवाज़ जब उनके मुतअल्लिक़ सोचता तो उसके दिमाग़ में एक अजीब गड़बड़ सी पैदा हो जाती और जब वो कश्मीर के मुतअल्लिक़ सोचता तो उसका दिमाग़ बिल्कुल जवाब दे जाता. पाकिस्तानी फ़ौजी कश्मीर के लिए लड़ रहे थे या कश्मीर के मुसलमानों के लिए? अगर उन्हें कश्मीर के मुसलमानों ही के लिए लड़ाया जाता था तो हैदराबाद, और जूनागढ़ के मुसलमानों के लिए क्यों उन्हें लड़ने के लिए नहीं कहा जाता था और अगर ये जंग ठेट इस्लामी जंग थी तो दुनिया में दूसरे इस्लामी मुल्क हैं वो उसमें क्यों हिस्सा नहीं लेते। रब नवाज़ अब बहुत सोच-बिचार के बाद इस नतीजे पर पहुंचा था कि ये बारीक बारीक बातें फ़ौजी को बिल्कुल नहीं सोचना चाहिऐं। उसकी अक़ल मोटी होनी चाहिए क्योंकि मोटी अक़ल वाला ही अच्छा सिपाही हो सकता है, मगर फ़ित्रत से मजबूर कभी कभी वो चोर दिमाग़ से उन पर ग़ौर कर ही लेता था और बाद में अपनी इस हरकत पर ख़ूब हँसता था।

दरियाए किशनगंगा के किनारे इस सड़क के लिए जो मुज़फ़्फ़राबाद से करन जाती है। कुछ अर्से से लड़ाई हो रही थी अजीब-ओ-गरीब लड़ाई थी। रात को बा’ज़ औक़ात आसपास की पहाड़ियां फ़ायरों के बजाय गंदी-गंदी गालियों से गूंज उठती थीं। एक मर्तबा सूबेदार रब नवाज़ अपनी प्लाटून के जवानों के साथ शब ख़ून मारने के लिए तैयार हो रहा था कि दूर नीचे एक खाई से गालियों का शोर उठा। पहले तो वो घबरा गया। ऐसा लगता था कि बहुत से भूत मिल कर नाच रहे हैं और ज़ोर-ज़ोर के क़हक़हे लगा रहे हैं, वो बड़बड़ाया, “ख़िनज़ीर की दुम… ये क्या हो रहा है।”

एक जवान ने गूंजती हुई आवाज़ों से मुख़ातिब हो कर ये बड़ी गाली दी और रब नवाज़ से कहा, “सूबेदार साहब गालियां दे रहे हैं। अपनी माँ के यार।” रब नवाज़ ये गालियां सुन रहा था जो बहुत उकसाने वाली थीं। उसके जी में आई कि बज़न बोल दे मगर ऐसा करना ग़लती थी, चुनांचे वो ख़ामोश रहा। कुछ देर जवान भी चुप रहे, मगर जब पानी सर से गुज़र गया तो उन्होंने भी गला फाड़ फाड़ के गालियां लुढ़काना शुरू कर दीं… रब नवाज़ के लिए इस क़िस्म की लड़ाई बिल्कुल नई चीज़ थी।

उसने जवानों को दो तीन मर्तबा ख़ामोश रहने के लिए कहा, मगर गालियां ही कुछ ऐसी थीं कि जवाब दिए बिना इंसान से नहीं रहा जाता था। दुश्मन के सिपाही नज़र से ओझल थे। रात को तो ख़ैर अंधेरा था, मगर वो दिन को भी नज़र नहीं आते थे। सिर्फ़ उनकी गालियां नीचे पहाड़ी के क़दमों से उठती थीं और पत्थरों के साथ टकड़ा टकड़ा कर हवा में हल हो जाती थीं। रब नवाज़ की प्लाटून के जवान जब उन गालियों का जवाब देते थे तो उसको ऐसा लगता था कि वो नीचे नहीं जातीं, ऊपर को उड़ जाती हैं। इससे उसको ख़ासी कोफ़्त होती थी… चुनांचे उसने झुँझला कर हमला करने का हुक्म दे दिया।

रब नवाज़ को वहां की पहाड़ीयों में एक अजीब बात नज़र आई थी। चढ़ाई की तरफ़ कोई पहाड़ी दरख़्तों और बूटों से लदी फंदी होती थी और उतराई की तरफ़ गंजी। कश्मीरी हितो के सर की तरह। किसी की चढ़ाई का हिस्सा गंजा होता था और उतराई की तरफ़ दरख़्त ही दरख़्त होते थे। चीड के लिए लंबे तनावर दरख़्त जिनके बटे हुए धागे जैसे पत्तों पर फ़ौजी बूट फिसल फिसल जाते थे।

जिस पहाड़ी पर सूबेदार रब नवाज़ की प्लाटून थी, उसकी उतराई दरख़्तों और झाड़ियों से बेनयाज़ थी। ज़ाहिर है कि हमला बहुत ही ख़तरनाक था मगर सब जवान हमले के लिए बखु़शी तैयार थे। गालियों का इंतिक़ाम लेने के लिए वो बेताब थे। हमला हुआ और कामयाब रहा। दो जवान मारे गए। चार ज़ख़्मी हुए। दुश्मन के तीन आदमी खेत रहे। बाक़ी रसद का कुछ सामान छोड़कर भाग निकले। सूबेदार रब नवाज़ और उसके जवानों को इस बात का बड़ा दुख था कि दुश्मन का कोई ज़िंदा सिपाही उनके हाथ न आया जिसको वो ख़ातिर ख़्वाह गालियों का मज़ा चखाते। मगर ये मोर्चा फ़तह करने से वो एक बड़ी अहम पहाड़ी पर क़ाबिज़ होगए थे।

वायरलैस के ज़रिये से सूबेदार रब नवाज़ ने प्लाटून कमांडर मेजर असलम को फ़ौरन ही अपने हमले के इस नतीजे से मुत्तला कर दिया था और शाबाशी वसूल करली थी। क़रीब-क़रीब हर पहाड़ी की चोटी पर पानी का एक तालाब सा होता था। इस पहाड़ी पर भी तालाब था, मगर दूसरी पहाड़ीयों के तालाबों के मुक़ाबले में ज़्यादा बड़ा। उसका पानी भी बहुत साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ था। गो मौसम सख़्त सर्द था, मगर सब नहाए। दाँत बजते रहे मगर उन्होंने कोई परवाह न की। वो अभी इस शग़ल में मस्रूफ़ थे कि फ़ायर की आवाज़ आई। सब नंगे ही लेट गए।

थोड़ी देर के बाद सूबेदार रब नवाज़ ख़ां ने दूरबीन लगा कर नीचे ढलवानों पर नज़र दौड़ाई, मगर उसे दुश्मन के छुपने की जगह का पता न चला। उसके देखते देखते एक और फ़ायर हुआ। दूर उतराई के फ़ौरन बाद एक निस्बतन छोटी पहाड़ी की दाढ़ी से उसे धुआँ उठता नज़र आया। उसने फ़ौरन ही अपने जवानों को फ़ायर का हुक्म दिया। उधर से धड़ा धड़ फ़ायर हुए। इधर से भी जवाबन गोलियां चलने लगीं… सूबेदार रब नवाज़ ने दूरबीन से दुश्मन की पोज़ीशन का बग़ौर मुताला किया।

वो ग़ालिबन बड़े बड़े पत्थरों के पीछे महफ़ूज़ थे। मगर ये मुहाफ़िज़ दीवार बहुत ही छोटी थी। ज़्यादा देर तक वो जमे नहीं रह सकते थे। इनमें से जो भी इधर उधर हटता, उसका सूबेदार रब नवाज़ की ज़द में आना यक़ीनी था। थोड़ी देर फ़ायर होते रहे। इसके बाद रब नवाज़ ने अपने जवानों को मना कर दिया कि वो गोलियां ज़ाए न करें सिर्फ़ ताक में रहें। जूंही दुश्मन का कोई सिपाही पत्थरों की दीवार से निकल कर इधर या उधर जाने की कोशिश करे उसको उड़ा दें।

ये हुक्म दे कर उसने अपने अलिफ़ नंगे बदन की तरफ़ देखा और बड़बड़ाया, “ख़िनज़ीर की दुम… कपड़ों के बग़ैर आदमी हैवान मालूम होता है।” लंबे लंबे वक़्फ़ों के बाद दुश्मन की तरफ़ से इक्का दुक्का फ़ायर होता रहा। यहां से उसका जवाब कभी कभी दे दिया जाता। ये खेल पूरे दो दिन जारी रहा… मौसम यकलख़्त बहुत सर्द हो गया। इस क़दर सर्द कि दिन को भी ख़ून मुंजमिद होने लगता था, चुनांचे सूबेदार रब नवाज़ ने चाय के दौर शुरू करा दिए।

हर वक़्त आग पर केतली धरी रहती। जूंही सर्दी ज़्यादा सताती एक दौर इस गर्म-गर्म मशरूब का हो जाता। वैसे दुश्मन पर बराबर निगाह थी। एक हटता तो दूसरा उसकी जगह दूरबीन लेकर बैठ जाता। हड्डीयों तक उतर जाने वाली सर्द हवा चल रही थी। जब उस जवान ने जो पहरेदार था, बताया कि पत्थरों की दीवार के पीछे कुछ गड़बड़ हो रही है। सूबेदार रब नवाज़ ने उससे दूरबीन ली और ग़ौर से देखा। उसे हरकत नज़र न आई लेकिन फ़ौरन ही एक आवाज़ बुलंद हुई और देर तक उसकी गूंज आस पास की पहाड़ियों के साथ टकराती रही। रब नवाज़ उसका मतलब न समझा। उसके जवाब में उसने अपनी बंदूक़ दाग़ दी।

उसकी गूंज दबी तो फिर उधर से आवाज़ बुलंद हुई, जो साफ़ तौर पर उनसे मुख़ातिब थी। रब नवाज़ चिल्लाया, “ख़िंज़ीर की दुम। बोल क्या कहता है तू!” फ़ासला ज़्यादा नहीं था। रब नवाज़ के अल्फ़ाज़ दुश्मन तक पहुंच गए, क्योंकि वहां से किसी ने कहा, “गाली न दे भाई।” रब नवाज़ ने अपने जवानों की तरफ़ देखा और बड़े झुंझलाए हुए तअज्जुब के साथ कहा, “भाई?…” फिर वो अपने मुँह के आगे दोनों हाथों का भोंपू बना कर चिल्लाया, “भाई होगा तेरी माँ का जना… यहां सब तेरी माँ के यार हैं! ” एक दम उधर से एक ज़ख़्मी आवाज़ बुलंद हुई, “रब नवाज़! ”

रब नवाज़ काँप गया… ये आवाज़ आस-पास की पहाड़ियों से सर फोड़ती रही और मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में, रब नवाज़… रब नवाज़, दोहराती बिलआख़िर ख़ून मुंजमिद कर देने वाली सर्द हवा के साथ जाने कहाँ उड़ गई। रब नवाज़ बहुत देर के बाद चौंका, “ये कौन था।” फिर वो आहिस्ते से बड़बड़ाया, “ख़िंज़ीर की दुम! ” उसको इतना मालूम था टेटवाल के महाज़ पर सिपाहियों की अक्सरियत 6/9 रेजिमेंट की है। वो भी उसी रेजिमेंट में था। मगर ये आवाज़ थी किस की? वो ऐसे बेशुमार आदमियों को जानता था जो कभी उसके अज़ीज़ तरीन दोस्त थे। कुछ ऐसे भी जिनसे उसकी दुश्मनी थी, चंद ज़ाती अग़राज़ की बिना पर। लेकिन ये कौन था जिसने उसकी गाली का बुरा मान कर उसे चीख़ कर पुकारा था।

रब नवाज़ ने दूरबीन लगा कर देखा, मगर पहाड़ी की हिलती हुई छिद्री दाढ़ी में उसे कोई नज़र न आया। दोनों हाथों का भोंपू बना कर उसने ज़ोर से अपनी आवाज़ उधर फेंकी, “ये कौन था?… रब नवाज़ बोल रहा है… रब नवाज़… रब नवाज़।” ये रब नवाज़, भी कुछ देर तक पहाड़ियों के साथ टकराता रहा। रब नवाज़ बड़बड़ाया, “ख़िंज़ीर की दुम!” फ़ौरन ही उधर से आवाज़ बुलंद हुई, “मैं हूँ… मैं हूँ राम सिंह!” रब नवाज़ ये सुन कर यूं उछला जैसे वो छलांग लगा कर दूसरी तरफ़ जाना चाहता है। पहले उसने अपने आपसे कहा, “राम सिंह?” फिर हलक़ फाड़ के चिल्लाया, “राम सिंह?… ओए राम सिन्घा… ख़िंज़ीर की दुम!”

ख़िंज़ीर की दुम अभी पहाड़ियों के साथ टकरा टकरा कर पूरी तरह गुम नहीं हुई थी कि राम सिंह की फटी फटी आवाज़ बुलंद हुई, “ओए कुम्हार के खोते!” रब नवाज़ फ़ूं फ़ूं करने लगा। जवानों की तरफ़ रोबदार नज़रों से देखते हुए वो बड़बड़ाया, “बकता है… ख़िंज़ीर की दुम!” फिर उसने राम सिंह को जवाब दिया, “ओए बाबा टल के कड़ाह प्रशाद… ओए ख़िंज़ीर के झटके।”

राम सिंह बेतहाशा क़हक़हे लगाने लगा। रब नवाज़ भी ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा। पहाड़ियां ये आवाज़ें बड़े खलंडरे अंदाज़ में एक दूसरे की तरफ़ उछालती रहीं… सूबेदार रब नवाज़ के जवान ख़ामोश थे। जब हंसी का दौर ख़त्म हुआ तो उधर से राम सिंह की आवाज़ बुलंद हुई, “देखो यार। हमें चाय पीनी है!” रब नवाज़ बोला, “पियो… ऐश करो।” राम सिंह चिल्लाया, “ओए ऐश किस तरह करें… सामान तो हमारा उधर पड़ा है।” रब नवाज़ ने पूछा, “किधर।” राम सिंह की आवाज़ आई, “उधर… जिधर तुम्हारा फ़ायर हमें उड़ा सकता है।”

रब नवाज़ हंसा, “तो क्या चाहते हो तुम… ख़िंज़ीर की दुम!” राम सिंह बोला, “हमें सामान ले आने दे।” “ले आ!” ये कह कर उसने अपने जवानों की तरफ़ देखा। राम सिंह की तशवीश भरी आवाज़ बुलंद हुई, “तू उड़ा देगा, कुम्हार के खोते!” रब नवाज़ ने भन्ना कर कहा, “बक नहीं, ओए संतोख सर के कछुवे।” राम सिंह हंसा, “क़सम खा नहीं मारेगा!” रब नवाज़ ने पूछा, “किसकी क़सम खाऊं!”राम सिंह ने कहा, “किसी की भी खा ले!” रब नवाज़ हंसा, ”ओए जा… मंगवा ले अपना सामान।” चंद लम्हात ख़ामोशी रही। दूरबीन एक जवान के हाथ में थी। उसने मानी ख़ेज़ नज़रों से सूबेदार रब नवाज़ की तरफ़ देखा। बंदूक़ चलाने ही वाला था कि रब नवाज़ ने उसे मना किया, “नहीं… नहीं!”

फिर उसने दूरबीन लेकर ख़ुद ही देखा। एक आदमी डरते डरते पंजों के बल पत्थरों के अक़ब से निकल कर जा रहा था। थोड़ी दूर इस तरह चल कर वो उठा और तेज़ी से भागा और कुछ दूर झाड़ियों में ग़ायब होगया। दो मिनट के बाद वापस आया तो उसके दोनों हाथों में कुछ सामान था। एक लहज़े के लिए वो रुका। फिर तेज़ी से ओझल हुआ तो रब नवाज़ ने अपनी बंदूक़ चला दी। तड़ाख़ के साथ ही रब नवाज़ का क़हक़हा बुलंद हुआ। ये दोनों आवाज़ें मिल कर कुछ देर झनझनाती रहीं। फिर राम सिंह की आवाज़ आई, “थैंक यू।”

“नो मेंशन।” रब नवाज़ ने ये कह कर जवानों की तरफ़ देखा, “एक राउंड हो जाये।” तफ़रीह के तौर पर दोनों तरफ़ से गोलियां चलने लगीं। फिर ख़ामोशी होगई। रब नवाज़ ने दूरबीन लगा कर देखा। पहाड़ी की दाढ़ी में से धुआँ उठ रहा था। वो पुकारा, “चाय तैयार करली राम सिन्घा?” जवाब आया, “अभी कहाँ ओए कुम्हार के खोते!”

रब नवाज़ ज़ात का कुम्हार था। जब कोई उसकी तरफ़ इशारा करता था तो ग़ुस्से से उसका ख़ून खौलने लगता था। एक सिर्फ़ राम सिंह के मुँह से वो इसे बर्दाश्त कर लेता था इसलिए कि वो उसका बेतकल्लुफ़ दोस्त था। एक ही गांव में वो पल कर जवान हुए थे। दोनों की उम्र में सिर्फ़ चंद दिन का फ़र्क़ था। दोनों के बाप, फिर उनके बाप भी एक दूसरे के दोस्त थे। एक ही स्कूल में प्राइमरी तक पढ़ते थे और एक ही दिन फ़ौज में भर्ती हुए थे और पिछली बड़ी जंग में कई महाज़ों पर इकट्ठे लड़े थे।

रब नवाज़ अपने जवानों की नज़रों में ख़ुद को ख़फ़ीफ़ महसूस करके बड़बड़ाया, “ख़िंज़ीर की दुम… अब भी बाज़ नहीं आता।” फिर वो राम सिंह से मुख़ातिब हुआ, “बक नहीं ओए खोते की जूँ।” राम सिंह का क़हक़हा बुलंद हुआ। रब नवाज़ ने ऐसे ही शिस्त बांधी हुई थी। तफ़रीहन उसने लबलबी दबा दी। तड़ाख़ के साथ ही एक फ़लक शिगाफ़ चीख़ बुलंद हुई। रब नवाज़ ने फ़ौरन दूरबीन लगाई और देखा कि एक आदमी, नहीं, राम सिंह पेट पकड़े, पत्थरों की दीवारों से ज़रा हट कर दोहरा हुआ और गिर पड़ा।

रब नवाज़ ज़ोर से चीख़ा, “राम सिंह! और उछल कर खड़ा होगया,” उधर से बयक वक़्त तीन चार फ़ायर हुए। एक गोली रब नवाज़ का दायां बाज़ू चाटती हुई निकल गई। फ़ौरन ही वो औंधे मुँह ज़मीन पर गिर पड़ा। अब दोनों तरफ़ से फ़ायर शुरू होगए। इधर कुछ सिपाहियों ने गड़बड़ से फ़ायदा उठा कर पत्थरों के अक़ब से निकल कर भागना चाहा। उधर से फ़ायर जारी थे मगर निशाने पर कोई न बैठा। रब नवाज़ ने अपने जवानों को उतरने का हुक्म दिया। तीन फ़ौरन ही मारे गए, लेकिन उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां बाक़ी जवान दूसरी पहाड़ी पर पहुंच गए।

राम सिंह ख़ून में लत पत पथरीली ज़मीन पर पड़ा कराह रहा था। गोली उसके पेट में लगी थी। रब नवाज़ को देख कर उसकी आँखें तमतमा उठीं। मुस्कुरा कर उसने कहा, “ओए कुम्हार के खोते, ये तू ने क्या किया।” रब नवाज़, राम सिंह का ज़ख़्म अपने पेट में महसूस कर रहा था, लेकिन वो मुस्कुरा कर उसपर झुका और दोज़ानू हो कर उसकी पेटी खोलने लगा, “ख़िंज़ीर की दुम। तुमसे किसने बाहर निकलने को कहा था।” पेटी उतारने से राम सिंह को सख़्त तकलीफ़ हुई। दर्द से वो चिल्ला चिल्ला पड़ा। जब पेटी उतर गई और रब नवाज़ ने ज़ख़्म का मुआइना किया जो बहुत ख़तरनाक था तो राम सिंह ने रब नवाज़ का हाथ दबा कर कहा, “मैं अपना आप दिखाने के लिए बाहर निकला था कि तू ने… ओए रब के पुत्तर, फ़ायर कर दिया।”

रब नवाज़ का गला रुँध गया, “क़सम वहदहु ला शरीक की… मैंने ऐसे ही बंदूक़ चलाई थी… मुझे मालूम नहीं था कि तू खोते का सिंह बाहर निकल रहा है… मुझे अफ़सोस है!” राम सिंह का ख़ून काफ़ी बह निकला था। रब नवाज़ और उसके साथी कई घंटों के बाद वहां पहुंचे थे। इस अर्से तक तो एक पूरी मशक ख़ून की ख़ाली हो सकती थी। रब नवाज़ को हैरत थी कि इतनी देर तक राम सिंह ज़िंदा रह सका है। उसको उम्मीद नहीं थी कि वो बचेगा। हिलाना जुलाना ग़लत था, चुनांचे उसने फ़ौरन वायरलैस के ज़रिये से प्लाटून कमांडर से दरख़ास्त की कि जल्दी एक डाक्टर रवाना किया जाये। उसका दोस्त राम सिंह ज़ख़्मी हो गया है।

डाक्टर का वहां तक पहुंचना और फिर वक़्त पर पहुंचना बिल्कुल मुहाल था। रब नवाज़ को यक़ीन था कि राम सिंह सिर्फ़ चंद घड़ियों का मेहमान है। फिर भी वायरलैस पर पैग़ाम पहुंचा कर उसने मुस्कुरा कर राम सिंह से कहा, “डाक्टर आ रहा है… कोई फ़िक्र न कर!” राम सिंह बड़ी नहीफ़ आवाज़ में सोचते हुए बोला, “फ़िक्र किसी बात की नहीं… ये बता मेरे कितने जवान मारे हैं तुम लोगों ने?”

रब नवाज़ ने जवाब दिया, “सिर्फ़ एक!” राम सिंह की आवाज़ और ज़्यादा नहीफ़ होगई, “तेरे कितने मारे गए?” रब नवाज़ ने झूट बोला, “छः!” और ये कह कर उसने मानी ख़ेज़ नज़रों से अपने जवानों की तरफ़ देखा। “छः… छः!” राम सिंह ने एक-एक आदमी अपने दिल में गिना, “मैं ज़ख़्मी हुआ तो वो बहुत बददिल होगए थे… पर मैंने कहा… खेल जाओ अपनी और दुश्मन की जान से… छः… ठीक है!” वो फिर माज़ी के धुंदलकों में चला गया, “रब नवाज़… याद हैं वो दिन तुम्हें”

और राम सिंह ने बीते दिन याद करने शुरू कर दिए। खेतों खलियानों की बातें। स्कूल के क़िस्से 6/9 जाट रेजिमेंट की दास्तानें… कमांडिंग अफ़सरों के लतीफ़े और बाहर के मुल्कों में अजनबी औरतों से मुआशक़े। उनका ज़िक्र करते हुए राम सिंह को कोई बहुत दिलचस्प वाक़िया याद आगया। हँसने लगा तो उसके टीस उठी मगर उसकी परवाह न करते हुए ज़ख़्म से ऊपर ही ऊपर हंस कर कहने लगा, “ओए सुअर के तिल… याद है तुम्हें वो मेडम”

रब नवाज़ ने पूछा, “कौन?” राम सिंह ने कहा, “वो… इटली की… क्या नाम रखा था हमने उसका… बड़ी मार खोर औरत थी!” रब नवाज़ को फ़ौरन ही वो औरत याद आगई, “हाँ, हाँ… वो… मेडम मनीता फ़नतो… पैसा ख़त्म, तमाशा ख़त्म… पर तुझसे कभी कभी रिआयत कर देती थी मसोलीनी की बच्ची!” राम सिंह ज़ोर से हंसा… और उसके ज़ख़्म से जमे हुए ख़ून का एक लोथड़ा बाहर निकल आया। सरसरी तौर पर रब नवाज़ ने जो पट्टी बांधी थी, वो खिसक गई थी। उसे ठीक करके उसने राम सिंह से कहा, “अब ख़ामोश रहो।”

राम को बहुत तेज़ बुख़ार था। उसका दिमाग़ उसके बाइस बहुत तेज़ होगया था। बोलने की ताक़त नहीं थी मगर बोले चला जा रहा था। कभी कभी रुक जाता। जैसे ये देख रहा है कि टंकी में कितना पैट्रोल बाक़ी है। कुछ देर के बाद उस पर हिज़यानी कैफ़ियत तारी होगई, लेकिन कुछ ऐसे वक़्फ़े भी आते थे कि उसके होश-ओ-हवास सलामत होते थे। इन्ही वक़्फ़ों में उसने एक मर्तबा नवाज़ से सवाल किया, “यारा सच्चो सच बताओ, क्या तुम लोगों को वाक़ई कश्मीर चाहिए!”

रब नवाज़ ने पूरे ख़ुलूस के साथ कहा, “हाँ, राम सिन्घा!” राम सिंह ने अपना सर हिलाया, “नहीं… मैं नहीं मान सकता… तुम्हें वरग़लाया गया है।” रब नवाज़ ने उसको यक़ीन दिलाने के अंदाज़ में कहा, “तुम्हें वरग़लाया गया है… कसम पंजतन पाक की…”राम सिंह ने रब नवाज़ का हाथ पकड़ लिया, “क़सम न खा यारा… ठीक होगा।” लेकिन उसका लहजा साफ़ बता रहा था कि उसको रब नवाज़ की क़सम का यक़ीन नहीं।दिन ढलने से कुछ देर पहले प्लाटून कमांडैंट मेजर असलम आया। उसके साथ चंद सिपाही थे, मगर डाक्टर नहीं था। राम सिंह बेहोशी और नज़ा की हालत में कुछ बड़बड़ा रहा था। मगर आवाज़ इस क़दर कमज़ोर और शिकस्ता थी कि समझ में कुछ नहीं आता था।

मेजर असलम भी 6/9 जाट रेजिमेंट का था और राम सिंह को बहुत अच्छी तरह जानता था। रब नवाज़ से सारे हालात दर्याफ़्त करने के बाद उसने राम सिंह को बुलाया, “राम सिंह… राम सिंह!”राम सिंह ने अपनी आँखें खोलीं, लेटे लेटे अटेंशन हो कर उसने सेलूट किया। लेकिन फिर आँखें खोल कर उसने एक लहज़े के लिए ग़ौर से मेजर असलम की तरफ़ देखा। उसका सेलूट करने वाला अकड़ा हुआ हाथ एक दम गिर पड़ा। झुँझला कर उसने बड़बड़ाना शुरू किया, “कुछ नहीं ओए राम सय्यां… भूल ही गया तू सुअर के नल्ला… कि ये लड़ाई… ये लड़ाई?” राम सिंह अपनी बात पूरी न कर सका। बंद होती हुई आँखों से उसने रब नवाज़ की तरफ़ नीम सवालिया अंदाज़ मैं देखा और सर्द होगया।

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की लघु कथाएँ
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मंटो ने लम्बे समय तक एक बेहतर दुनिया की ओर ले जाने वाली रचनाएँ लिखीं। आज भी बहुत से लोग लघु कथाएँ लिख रहे हैं। जहाँ कुछ-कुछ या सब कुछ लघु कथा से जुड़ रहा है। पाठक पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिये बिना सच्ची और अच्छी कहानियों को बयाँ किया जा रहा है।
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पेश-बंदी

7 अप्रैल 2022
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पहली वारदात नाके के होटल के पास हुई। फ़ौरन ही वहां एक सिपाही का पहरा लगा दिया गया।  दूसरी वारदात दूसरे ही रोज़ शाम को स्टोर के सामने हुई। सिपाही को पहली जगह से हटा कर दूसरी वारदात के मक़ाम पर मुतअय्यन क

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निगरानी में

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'अ' अपने दोस्त 'ब' को अपना हम-मज़हब ज़ाहिर करके उसे महफ़ूज़ मक़ाम पर पहुंचाने के लिए मिल्ट्री के एक दस्ते के साथ रवाना हुआ।  रास्ते में 'ब' ने जिसका मज़हब मस्लिहतन बदल दिया गया था। मिल्ट्री वालों से पूछा, 

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सफ़ाई पसंदी

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गाड़ी रुकी हुई थी। तीन बंदूक़्ची एक डिब्बे के पास आए।  खिड़कियों में से अंदर झांक कर उन्हों ने मुसाफ़िरों से पूछा,  “क्यूँ जनाब कोई मुर्ग़ा है।”  एक मुसाफ़िर कुछ कहते कहते रुक गया। बाक़ियों ने जवाब दिया

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करामात

7 अप्रैल 2022
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लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए।  लोग डरके मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे।  कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पा कर अपने से अलाहिदा कर दिया त

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आँखों पर चर्बी

7 अप्रैल 2022
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“हमारी क़ौम के लोग भी कैसे हैं…  पचास सुवर इतनी मुश्किलों के बाद तलाश करके इस मस्जिद में काटे हैं।  वहां मंदिरों में धड़ाधड़ गाय का गोश्त बिक रहा है।  लेकिन यहां सुवर का मास ख़रीदने के लिए कोई आता ही

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इस्लाह

7 अप्रैल 2022
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“कौन हो तुम?”  “तुम कौन हो?”  “हरहर महादेव... हरहर महादेव?”  “हरहर महादेव?”  “सुबूत क्या है?”  “सुबूत... मेरा नाम धर्मचंद है?”  “ये कोई सुबूत नहीं?”  “चार वेदों से कोई भी बात मुझ से पूछ लो।” 

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हैवानियत

7 अप्रैल 2022
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बड़ी मुश्किल से मियां-बीवी घर का थोड़ा असासा बचाने में कामयाब हुए। जवान लड़की थी, उसका कोई पता न चला। छोटी सी बच्ची थी उसको माँ ने अपने सीने के साथ चिमटाये रखा। एक भूरी भैंस थी उसको बलवाई हाँक कर ले गए।

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जेली

7 अप्रैल 2022
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सुबह छः बजे पेट्रोल पंप के पास हाथ गाड़ी में बर्फ़ बेचने वाले के छुरा घोंपा गया…  सात बजे तक उसकी लाश लुक बिछी सड़क पर पड़ी रही और उस पर बर्फ़ पानी बन बन गिरती रही।  सवा सात बजे पुलिस लाश उठा कर ले गई।

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सॉरी

7 अप्रैल 2022
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छुरी पेट चाक करती हुई नाफ़ के नीचे तक चली गई।  इज़ार-बंद कट गया।  छुरी मारने वाले के मुँह से दफ़्अतन कलमा-ए-तास्सुफ़ निकला,  “चे चे चे चे… मिश्टेक हो गया।” 

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तआवुन

7 अप्रैल 2022
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चालीस पचास लठ्ठ बंद आदमियों का एक गिरोह लूट मार के लिए एक मकान की तरफ़ बढ़ रहा था। दफ़्अतन उस भीड़ को चीर कर एक दुबला पतला अधेड़ उम्र का आदमी बाहर निकला। पलट कर उसने बलवाइयों को लीडराना अंदाज़ में मुख़ातब क

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पठानिस्तान

7 अप्रैल 2022
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“ख़ू, एक दम जल्दी बोलो, तुम कौन ऐ?”  “मैं... मैं...”  “ख़ू शैतान का बच्चा जल्दी बोलो... इंदू ऐ या मुस्लिमीन?”  “मुस्लिमीन।”  “ख़ू तुम्हारा रसूल कौन है?”  “मोहम्मद ख़ान।”  “टीक ऐ...जाओ।” 

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इश्तिराकियत

7 अप्रैल 2022
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वो अपने घर का तमाम ज़रूरी सामान एक ट्रक में लदवा कर दूसरे शहर जा रहा था कि रास्ते में लोगों ने उसे रोक लिया।  एक ने ट्रक के माल-ओ-अस्बाब पर हरीसाना नज़र डालते हुए कहा, “देखो यार किस मज़े से इतना माल अक

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मज़दूरी

7 अप्रैल 2022
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लूट खसूट का बाज़ार गर्म था। इस गर्मी में इज़ाफ़ा होगया। जब चारों तरफ़ आग भड़कने लगी। एक आदमी हारमोनियम की पेटी उठाए ख़ुश ख़ुश गाता जा रहा था...  'जब तुम ही गए परदेस लगा कर ठेस ओ पीतम प्यारा, दुनिया में कौ

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सफ़ेद झूठ

7 अप्रैल 2022
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मैं एक ऐसा इन्सान हूँ जो ऐसे रिसालों और ऐसी किताबों में लिखता हूँ और इसलिए लिखता हूँ कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं जो कुछ देखता हूँ, जिस नज़र और जिस ज़ाविए से देखता हूँ, वही नज़र, वही ज़ाविया मैं दूसरों

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एक अश्क आलूद अपील

7 अप्रैल 2022
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अमृतसर की तंग-गलियों और उसके ग़लीज़ बाज़ारों से भाग कर जब मैं बंबई पहुंचा तो मेरा ख़्याल था कि इस ख़ूबसूरत और वसीअ शहर की फ़िज़ा फ़िरका-वाराना झगड़ों से पाक होगी मगर मेरा ये ख़्याल ग़लत साबित हुआ। चंद महीनो

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अगर

7 अप्रैल 2022
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’अगर' की बेशुमार ऐसी शक्लें हो सकती हैं क्योंकि अब तक जो कुछ हुआ है इस को हर रंग में देखा जा सकता है। 'अगर' के मैदान में ऐसे कई घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर अगर हकीम सुक़रात इस मार-धाड़ में

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मुझे शिकायत है

7 अप्रैल 2022
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मुझे शिकायत है उन सरमायादारों से जो एक पर्चा रुपया कमाने के लिए जारी करते हैं और उसके एडिटर को सिर्फ पच्चीस या तीस रुपये माहवार तनख़्वाह देते हैं। ऐसे सरमाया-दार ख़ुद तो बड़े आराम की ज़िंदगी बसर करते है

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मुझे कहना है

7 अप्रैल 2022
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मैं एक ऐसा इन्सान हूँ जो ऐसे रिसालों और ऐसी किताबों में लिखता हूँ और इसलिए लिखता हूँ कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं जो कुछ देखता हूँ, जिस नज़र और जिस ज़ाविए से देखता हूँ, वही नज़र, वही ज़ाविया मैं दूसरों

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तहदीद-ए-असलहा

7 अप्रैल 2022
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तहदीद-ए-असलहा के मुताल्लिक़ आपने बीसियों मर्तबा अख़बारों में पढ़ा होगा मगर सच कहिए कि आपने इसके मुताल्लिक़ क्या समझा? लेकिन मैं आपकी अक़ल-ओ-दानिश का इम्तिहान लेना नहीं चाहता। मैंने इसके मुताल्लिक़ जो कुछ

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सुरमा

8 अप्रैल 2022
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फ़हमीदा की जब शादी हुई तो उस की उम्र उन्नीस बरस से ज़्यादा नहीं थी। उस का जहेज़ तैय्यार था। इस लिए उस के वालदैन को कोई दिक़्क़त महसूस न हुई। पच्चीस के क़रीब जोड़े थे और ज़ेवरात भी, लेकिन फ़हमीदा ने अपनी म

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हुस्न कि तख़लीक़

8 अप्रैल 2022
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कॉलिज में शाहिदा हसीन-तरीन लड़की थी। उस को अपने हुस्न का एहसास था। इसी लिए वो किसी से सीधे मुँह बात न करती और ख़ुद को मुग़्लिया ख़ानदान की कोई शहज़ादी समझती। Gस के ख़द्द-ओ-ख़ाल वाक़ई मुग़लई थे। ऐसा लगता था

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एक ख़त

8 अप्रैल 2022
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तुम्हारा तवील ख़त मिला जिसे मैंने दो मर्तबा पढ़ा। दफ़्तर में इस के एक एक लफ़्ज़ पर मैंने ग़ौर किया। और ग़ालिबन इसी वजह से उस रोज़ मुझे रात के दस बजे तक काम करना पड़ा, इस लिए कि मैंने बहुत सा वक़्त इस गौर-ओ

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क़ादिरा क़साई

8 अप्रैल 2022
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ईदन बाई आगरे वाली छोटी ईद को पैदा हुई थी, यही वजह है कि उस की माँ ज़ुहरा जान ने उस का नाम इसी मुनासबत से ईदन रख्खा। ज़ुहरा जान अपने वक़्त की बहुत मशहूर गाने वाली थी, बड़ी दूर दूर से रईस उस का मुजरा सुनने

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किताब का ख़ुलासा

8 अप्रैल 2022
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सर्दियों में अनवर ममटी पर पतंग उड़ा रहा था। उस का छोटा भानजा उस के साथ था। चूँकि अनवर के वालिद कहीं बाहर गए हुए थे और वो देर से वापस आने वाले थे इस लिए वो पूरी आज़ादी और बड़ी बेपर्वाई से पतंग बाज़ी में मश

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खुद फ़रेब

8 अप्रैल 2022
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हम न्यू पैरिस स्टोर के प्राईवेट कमरे में बैठे थे। बाहर टेलीफ़ोन की घंटी बजी तो इस का मालिक ग़यास उठ कर दौड़ा। मेरे साथ मसऊद बैठा था इस से कुछ दूर हट कर जलील दाँतों से अपनी छोटी छोटी उंगलीयों के नाख़ुन का

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कुत्ते की दुआ

8 अप्रैल 2022
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“आप यक़ीन नहीं करेंगे। मगर ये वाक़िया जो मैं आप को सुनाने वाला हूँ, बिलकुल सही है।” ये कह कर शेख़ साहब ने बीड़ी सुलगाई। दो तीन ज़ोर के कश लेकर उसे फेंक दिया और अपनी दास्तान सुनाना शुरू की। शेख़ साहब के म

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गुस्लख़ाना

8 अप्रैल 2022
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सदर दरवाज़े के अंदर दाख़िल होते ही सड़ियों के पास एक छोटी सी कोठड़ी है जिस में कभी उपले और लकड़ियां कोइले रखे जाते थे। मगर अब इस में नल लगा कर उस को मर्दाना ग़ुस्लख़ाने में तबदील कर दिया गया है। फ़र्श वग़ैरा

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चोर

8 अप्रैल 2022
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मुझे बेशुमार लोगों का क़र्ज़ अदा करना था और ये सब शराब-नोशी की बदौलत था। रात को जब मैं सोने के लिए चारपाई पर लेटता तो मेरा हर क़र्ज़ ख्वाह मेरे सिरहाने मौजूद होता...... कहते हैं कि शराबी का ज़मीर मुर्दा

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टेढ़ी लकीर

8 अप्रैल 2022
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अगर सड़क सीधी हो......... बिलकुल सीधी तो इस पर उस के क़दम मनों भारी हो जाते थे। वो कहा करता था। ये ज़िंदगी के ख़िलाफ़ है। जो पेच दर पेच रास्तों से भरी है। जब हम दोनों बाहर सैर को निकलते तो इस दौरान में वो

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डाक्टर शिरोडकर

8 अप्रैल 2022
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बंबई में डाक्टर शिरोडकर का बहुत नाम था। इस लिए कि औरतों के अमराज़ का बेहतरीन मुआलिज था। उस के हाथ में शिफ़ा थी। उस का शिफ़ाख़ाना बहुत बड़ा था एक आलीशान इमारत की दो मंज़िलों में जिन में कई कमरे थे निचली मंज़

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ताँगे वाले का भाई

8 अप्रैल 2022
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सय्यद ग़ुलाम मुर्तज़ा जीलानी मेरे दोस्त हैं। मेरे हाँ अक्सर आते हैं घंटों बैठे रहते हैं। काफ़ी पढ़े लिखे हैं उन से मैंने एक रोज़ कहा! “शाह साहब! आप अपनी ज़िंदगी का कोई दिलचस्प वाक़िया तो सनाईए!” शाह साहब

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दूदा पहलवान

8 अप्रैल 2022
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स्कूल में पढ़ता था तो शहर का हसीन तरीन लड़का मुतसव्वर होता था। उस पर बड़े बड़े अमर्द परस्तों के दरमियान बड़ी ख़ूँख़्वार लड़ाईयां हुईं। एक दो इसी सिलसिले में मारे भी गए। वो वाक़ई हसीन था। बड़े मालदार घराने का

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नफ़सियात शनास

8 अप्रैल 2022
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आज मैं आप को अपनी एक पुर-लुत्फ़ हिमाक़त का क़िस्सा सुनाता हूँ। करफियों के दिन थे। यानी उस ज़माने में जब बंबई में फ़िर्का-वाराना फ़साद शुरू हो चुके थे। हर रोज़ सुबह सवेरे जब अख़बार आता तो मालूम होता कि मुतअ

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बारिदा शिमाली

8 अप्रैल 2022
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दो गॉगल्स आईं। तीन बुश शर्टों ने उन का इस्तिक़बाल किया। बुश शर्टें दुनिया के नक़्शे बनी हुई थीं, उन पर परिंदे, चरिंदे, दरिंदे, फूल बूटे और कई मुल्कों की शक्लें बनी हुई थीं। दोनों गॉगल्स ने अपनी किताब

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भंगन

8 अप्रैल 2022
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“परे हटिए.......” “क्यों?” “मुझे आप से बू आती है।” “हर इंसान के जिस्म की एक ख़ास बू होती है....... आज बीस बरसों के बाद तुम्हें इस से तनफ़्फ़ुर क्यों महसूस होने लगा?” “बीस बरस.......अल्लाह ही जानता ह

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शेर आया शेर आया दौड़ना

9 अप्रैल 2022
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ऊंचे टीले पर गडरिए का लड़का खड़ा, दूर घने जंगलों की तरफ़ मुँह किए चिल्ला रहा था। “शेर आया शेर आया दौड़ना।” बहुत देर तक वो अपना गला फाड़ता रहा। उस की जवाँ-बुलंद आवाज़ बहुत देर तक फ़िज़ाओं में गूंजती रही। जब च

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शलजम

9 अप्रैल 2022
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“खाना भिजवा दो मेरा। बहुत भूक लग रही है” “तीन बज चुके हैं इस वक़्त आप को खाना कहाँ मिलेगा?” “तीन बज चुके हैं तो क्या हुआ। खाना तो बहरहाल मिलना ही चाहिए। आख़िर मेरा हिस्सा भी तो इस घर में किसी क़दर है।

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बदसूरती

20 अप्रैल 2022
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साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी। उनके माँ-बाप को ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश शक्

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तमाशा

20 अप्रैल 2022
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दो तीन रोज़ से तय्यारे स्याह उक़ाबों की तरह पर फुलाए ख़ामोश फ़िज़ा में मंडला रहे थे। जैसे वो किसी शिकार की जुस्तुजू में हों सुर्ख़ आंधियां वक़तन फ़वक़तन किसी आने वाली ख़ूनी हादिसे का पैग़ाम ला रही थीं। सुनसान

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आखिरी सैल्यूट

24 अप्रैल 2022
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ये कश्मीर की लड़ाई भी अजीब-ओ-ग़रीब थी। सूबेदार रब नवाज़ का दिमाग़ ऐसी बंदूक़ बन गया था। जंग का घोड़ा ख़राब हो गया हो। पिछली बड़ी जंग में वो कई महाज़ों पर लड़ चुका था। मारना और मरना जानता था। छोटे बड़े अफ़सरों की

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