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आमुख

12 अगस्त 2023

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जीवन एक कहानी है। मनुष्य में जब पहली बार चेतनता जागी होगी तब शायद उसने सोचा होगा— 'मैं कौन हूँ? कहाँ से और क्यों आया हूँ ? यह मेरे चारों तरफ क्या फैला पड़ा है ?” फिर इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसने अपने आप ही उत्तर देना भी शुरू कर दिया होगा । वह क्रम आज तक चला आ रहा है परन्तु न तो प्रश्न समाप्त होते हैं और न उनका उत्तर हर एक उत्तर में से एक नया प्रश्न पैदा हो जाता है और इसी प्रश्नोत्तर में से निकलकर यह विराट् जीवन चारों और बिखर गया है । इसमें जानने की इच्छा अर्थात् जिज्ञासा भी है और अपनी बात कहने की, अपने को प्रकट करने की भावना अर्थात् आत्माभिव्यक्ति भी। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मनुष्य अपनी बात करता है और अपने चारों ओर जो संसार फैला हुआ है उसको जानना चाहता है। इसी कहने और जानने में कहानी का जन्म होता है । जिज्ञासा और आत्माभिव्यंजना की जो दो प्रवृत्तियाँ हैं वे कहानी कला की सृजन शक्तियां हैं। इसीलिए कण्ठ फूटते ही बच्चा कहानी सुनना चाहता है और यदि उसकी कल्पना शक्ति तनिक भी जागृत है तो वह कहानी सुनाना भी चाहता है।

यह क्रम चेतनता के जन्मकाल से ही चला आ रहा है। संसार के प्राचीन से प्राचीन साहित्य में कहानी का अस्तित्व मिलता है। वेदों में कथानक ही नहीं सम्वाद और चरित्र भी है। उनका रूप वह नहीं है जो आधुनिक कहानी का है; पर जो कुछ है वह कम रोचक नहीं है। ब्राह्मण, दर्शन, उपनिषत्, सूत्र और पुराणादि सभी धर्म-ग्रन्थों में कहानियों के द्वारा अपनी बात समझाने का प्रयत्न किया गया है । रामायण और महाभारत तो स्वयं महाकथाएं हैं। जैनधर्म में कथाओं का अक्षय भंडार है । बौद्ध-कालीन कथा-साहित्य में 'जातक' प्रसिद्ध हैं। एशिया और यूरोप के प्राचीन कथा-साहित्य पर जातक कथाओं का बहुत प्रभाव माना जाता है। दूसरे देशों का पौराणिक साहित्य (माइथालाजी) भी कथाओं का संग्रह मात्र हैं। बाइबल में तो अनेक सुन्दर कहानियाँ हैं। अरस्तु ने ग्रीस देश के दुखान्त नाटकों का मुख्य उद्देश्य कहानी कहना ही निश्चिति किया था । पैशाची की वृहत्कथा और संस्कृत के पंचतंत्र और हितोपदेशादि कुछ और प्रसिद्ध कथा संग्रह हैं। संस्कृत में इस प्रकार का अन्तिम संग्रह “दशकुमारचरित्र” है ।

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इन कथाओं में मनोरंजन के साथ-साथ तत्कालीन युग के आदर्शों, आकांक्षाओं और भावनाओं का चित्रण है। इनमें उपदेश, ज्ञान, चातुर्य, नीति, व्यंग, साहसिक कार्यों और यात्राओं का वर्णन तथा समाज की आलोचना सब कुछ है । साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। कहानी साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। एक दृष्टि से उसके दूसरे अंग इतिहास, निबन्ध, कवितादि से वह अधिक महत्त्वपूर्ण है । महत्त्व का यही अन्तर कहानी की लोकप्रियता का कारण है । बहना पानी का स्वभाव है और वह सदा नीचे की ओर बहता है अर्थात्, जिधर वह आसानी से बह सकता है उधर ही बहता है । यही मनुष्य का स्वभाव है। वह सदा इस प्रयत्न में रहता है कि उसकी जिज्ञासा का समाधान इतना सरल हो कि उसे समझने के लिए बुद्धि पर कम-से-कम जोर लगाना पड़े। इतिहास में अधिकतर राजनैतिक और वह भी कुछ विशिष्ट श्रेणियों के विशिष्ट व्यक्तियों की चर्चा होती है। वह अपने काल के समाज का दर्पण नहीं होता । निबन्ध में केवल सिद्धान्त और तथ्य की बात बताई जाती है, इसके विपरीत कविता की अतिरंजित भावना तथ्य को बहुत कुछ छिपा लेती है परन्तु कहानी में वस्तु के उस रूप के दर्शन होते हैं जो वास्तविक ही नहीं बल्कि सत्य भी है । कहानी की घटनाओं और उनके विश्लेषण से मनुष्य जीवन को समझने में जल्दी सफल हो जाता है। कहानी में राजनीति, धर्म, विज्ञान और दर्शन सभी का वर्णन होता है, पर वह जीवन से व्यावहारिक सम्बन्ध के रूप में होता है। वह किसी सिद्धान्त का व्यावहारिक पक्ष है। इसी को उदाहरण कहते हैं ।

मनुष्य में एक और प्राकृतिक गुण है। वह है उसका सौन्दर्य-प्रेम । उसके सौन्दर्य का आधार अच्छा लगना है। अच्छा लगने में रोचकता और उपयोगिता दोनों हैं। यहीं पर साहित्य के साथ कला का सम्बन्ध जुड़ता है। कला सजाने का काम करती है । वह उपयोगिता और रोचकता दोनों दृष्टियों से साहित्य को सुन्दर बनाती है ।

हुआ तब कहानी की परिभाषा यह हुई— "कहानी में मनुष्य की जिज्ञासा का समाधान इतनी रोचकता से व्यक्त होता है कि वह जीवन के विकास को गति देता उसे अधिक से अधिक बोधगम्य और व्यापक बना देता है ।" यहाँ पर कुछ और परिभाषाएँ देना अप्रासंगिक न होगा। फोस्टर के मत में "कहानी घटनाओं का वह सम्बद्ध क्रम है जो किसी परिणाम पर पहुँचा दे ।” एडगर एलन पो ने लिखा है— "कहानी एक प्रकार का वर्णनात्मक गद्य है जिसके पढ़ने में आध घण्टे से लेकर एक घण्टे तक का समय लगे ।" ह्यूवाकर ने दो शब्दों में कहानी की कहानी कही है- " जो मनुष्य करे वही कहानी ।” इलाचन्द्र जोशी के मतानुसार - "जीवन का चक्र नाना परिस्थितियों के संघर्ष से उल्टा सीधा चलता रहता है। इस सुवृहत चक्र की किसी विशेष परिस्थिति की स्वाभाविक गति का प्रदर्शन ही कहानी होता है ।"

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इन परिभाषाओं में कहानी के बाह्यरूप को अधिक छुआ गया है। जोशीजी की सुन्दर परिभाषा भी फोटोग्राफी से आगे नहीं बढ़ती । प्रेमचन्दजी ने परिवर्तित होते हुए मूल्यों का सदा ध्यान रखा था । इसीलिए उन्होंने अन्त में कहानी की परिभाषा इस प्रकार निश्चिति की थी--"कहानी अब जीवन के बहुत निकट आ गई है ।...उसका आधार अब घटना नहीं मनोविज्ञान की अनुभूति है । आज का लेखक केवल रोचक दृश्य देखकर कहानी लिखने नहीं बैठ जाता । उसका उद्देश्य स्थूल सौन्दर्य नहीं । वह तो कोई ऐसी प्रेरणा चाहता है जिसमें सौन्दर्य की झलक हो और इसके द्वारा वह पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पर्श कर सके ।"

कहानी की यह एक सुन्दर व्याख्या है परन्तु उन्होंने जिस मनोविज्ञान की बात कही है उसके बारे में एक बात ध्यान में रखनी आवश्यक है । वह यह कि मनोवैज्ञानिक अध्ययन ऐसा नहीं होना चाहिए कि कहानी - साहित्य उसका लक्षण ग्रंथ • बन जाए । मनोविज्ञान अस्वस्थ मन और मस्तिष्क की परीक्षा के लिए ठीक है पर वह उनका इलाज नहीं कर सकता। यदि हम मनोविज्ञान को ही आधार मानकर चलेंगे तो हमारे साहित्य में अस्वस्थ मन और अर्द्धविक्षिप्त चरित्रों का बाहुल्य हो जावेगा। इसके अतिरिक्त इससे एक और हानि होती है; कहानी केवल व्यक्ति तक सीमित रह जाती है । वह व्यक्तियों का अर्थात् समूचे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। ऐसा होने पर उसे समाज का दर्पण कहलाने का अधिकार नहीं रहता ।

कहानी की परिभाषा के विकास को और अच्छी तरह समझने के लिए प्राचीन और नवीन कहानी के अन्तर को समझना भी आवश्यक है। प्राचीन कहानी में अलौकिक और आकस्मिक घटनाओं की प्रधानता रहती थी। घटना - चमत्कार, उपदेश, अभौतिक और अतिभौतिक सत्ता का उपयोग तथा निर्णयात्मक प्रवृत्ति आदि कुछ तत्त्व प्राचीन कहानी के लिए अनिवार्य थे। मनोरंजन उनका एकमात्र लक्ष्य था परन्तु जैसे युग बदला भौतिक विचारधारा प्रबल हुई तो जनता की रुचि, भावना और आदर्श सभी बदल गए । भारत में यह परिवर्तन बीसवीं सदी के आरम्भ में हुआ क्योंकि इसी समय उसका सम्पर्क पाश्चात्य संस्कृति और विचारों से हुआ। 

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अलौकिक से हटकर हमारा विश्वास भौतिक सत्ता में जमने लगा। मनुष्य का मूल्य बढ़ गया और उससे अधिक मूल्य बढ़ा मनुष्य के मन और मस्तिष्क का । प्राचीन कहानी में मनोरंजन की सृष्टि संयोग के कारण होती थी, अब मनोवैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा होती है । प्राचीनकाल की कहानियों में मनुष्य की बाह्य प्रवृत्ति का चित्रण होता था, आधुनिक कहानी में अन्तः प्रवृत्ति का चित्रण होता है । प्राचीन कहानी के पात्र राजा, रानी और राजकुमारादि होते थे, आधुनिक कहानी में झगडू साहू, जुम्मन शेख, घीसू चमार और मुन्नू मेहतर प्रमुख हैं। प्राचीन कहानी का आरम्भ प्रायः “एक था राजा......" से होता था और अन्त में नाटक के भरत - वाक्य की भांति "जैसे उनके दिन बीते वैसे सब के बीतें" ऐसी कोई शुभ कामना रहती थी; आधुनिक कहानी का आरम्भ कथानक के उस स्थल से होता है जो सब से अधिक रोचक और मार्मिक है । अन्त की आज किसी को चिन्ता नहीं; कथाकर पाठक को एक ऐसे क्लाइमैक्स ( पराकाष्ठा) पर ले जाकर छोड़ देता है जहाँ पहुँचकर उसकी निरन्तर बढ़ती हुई उत्सुकता शान्त हो जाती है। और इधर तो कहानी की परिभाषा इतनी व्यापक हो गई है कि घटना और पराकाष्ठा विहीन रेखा चित्र भी उसके अन्तर्गत माने जाने लगे हैं ।

यह परिवर्तन एकदम नहीं हो गया है और न अभी बन्द ही हुआ है। प्रेमचन्दजी ने लिखा था - "आधुनिक कहानी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ चित्रण को अपना ध्येय समझती है ।" परन्तु आज वह इस सीमा रेखा को भी लाँघ चुकी है । कथाकार केवल यथार्थ का चित्रण ही नहीं करता बल्कि उस यथार्थ को जन्म देने वाली परिस्थितियों का वैज्ञानिक विश्लेषण भी करता है। क्या यह स्थिति ठीक है ? यदि नहीं तो, क्या होनी चाहिए ? इन प्रश्नों से आज का कथाकर मुंह नहीं मोड़ना चाहता । यह उचित ही है परन्तु इस प्रवृति से एक बहुत बड़ी हानि होने की संभावना है और वह हो भी रही है। आज इस पथ के कुछ पथिक कलाकार के स्थान पर प्रचारक बन गये हैं। तार्किक का तर्क है कि लेखक मात्र प्रचारक है । प्रचारक होना अपने आप में कोई पाप नहीं है परन्तु जब ऐसे लेखकों की कहानियाँ किसी दल विशेष की नारेबाज़ी बन कर रह जाती हैं तो यह नारेबाज़ी कलाकार के दिवालिएपन का नारा बुलन्द करती है । राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु और सुधारक ये सब प्रचारक हैं परन्तु कलाकार किसी दल या व्यक्ति का आदेश नहीं मान सकता और न ही उसकी कला का उद्देश्य किसी को आदेश देना है। 

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कलाकार पर केवल एक ही बंधन है कि वह अपनी अनुभूति तथा अपनी कला की अभिव्यक्ति के प्रति ईमानदार बना रहे अर्थात् वह अपनी भावना और अपने पात्रों में समा जाए। जब ऐसा हो जाता है तो सहानुभूति अर्थात् अपने से परे दूसरे को समझने की वृत्ति जागृत होती है। कला और जीवन एक हो जाते हैं । कलाकार अपनी बात पाठक के हृदय तक पहुंचाकर भी प्रचारक नहीं बनता। क्योंकि तब उसके विचार केवल उसके नहीं रहते। यथार्थ और आदर्श के इस समिश्रण से ही कहानी कला सशक्त होती है।

कहानी की चर्चा करते-करते टेकनीक ( लिखने की कला) की याद आ जाना स्वाभाविक ही है लेकिन जैसे छन्द घोट-घोट कर कोई कवि नहीं बन जाता उसी तरह टेकनीक याद करके कोई कहानी लिखना नहीं सीख सकता। वह तो अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रश्न है । जिस केथाकार ने जीवन की गहराई को आंका है, जो आँख खुली रख कर जीता है अर्थात् जिसकी दृष्टि व्यापक है उसे पग-पग पर कहानी के प्लाट मिल सकते हैं । तब उनके हृदय से जो कुछ भी कहानी के रूप में निकलेगा वह कहानी की 'दी गई टेकनीक पर अवश्य पूरा उतरेगा। नहीं उतरेगा तो नई टेकनीक का निर्माण करेगा। वैसे टेकनीक का प्रश्न कला के अन्तर्गत आता 1 वह कहानी के शरीर को सँवारने और सजाने का काम करती है। रोचकता उसकी सफलता की कसौटी है। जो कहानी अपने को पढ़वा लेती है उसीकी टेकनीक सर्वश्रेष्ठ है, भले ही उसका विषय कुछ भी हो। कहानी पर विषय का कोई प्रतिबन्ध नहीं है पर युग के साथ वह बदलता रहता है। प्राचीन और आधुनिक कहानी की तुलना करते समय ऊपर उसका विवेचन हो चुका है । अलौकिक, आकस्मिक और बाह्य जीवन के कथानक आज लोकप्रिय नहीं हैं। बुद्धि जिनको स्वीकार करती है वे ही मनोवैज्ञानिक, लोक कल्याणकारी, मनुष्य के अन्तर्जीवन; अन्तःप्रवृत्तियों की झाँकी देने वाले कथानक आज की कहानी के आधार हैं। चरित्र - प्रधान और वातावरण- प्रधान कहानी से अधिक आज प्रभाववादी कहानी अधिक लोकप्रिय हैं। भावनाओं की जितनी सूक्ष्म व्यंजना होती है, प्रभाव जितना व्यापक होता है कहानी उतनी ही सफल मानी जाती है । सामयिक सत्य की व्यंजना प्रभाववादी कहानी के अतिरिक्त व्यंगात्मक कहानी से भी सफलतापूर्वक हो सकती है।

कथानक के लिए दो-तीन बातें जाननी काफी हैं। वह अधिक से अधिक रोचक, स्वाभाविक और लोककल्याण की भावना से ओतप्रोत हो । उसका प्रारम्भ पकड़ने वाला हो, उसका विकास उत्सुकता को बनाए रखे और उसकी पराकाष्ठा (क्लाईमैक्स) पर पहुंचकर पाठक की उत्सुकता शान्त हो जाए। 

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आज की कहानी में अनेक रस और अनेक घटनाओं के लिए स्थान नहीं है। स्थल, समय और कार्य के सामंजस्य ने अर्थात् एक प्रसंग और एक तथ्य के चित्रण ने आज की कहानी के कथानक को तीव्र और सशक्त बना दिया है। मनोवैज्ञानिक अध्ययन के कारण चरित्र-चित्रण की समस्या भी सुलझ गई है । वह अब अधिक स्वाभाविक और सजीव होता है। एक और प्रवृत्ति इधर बढ़ रही है। लेखक कम-से-कम शब्दों में चित्र खींच देता है । वह अब व्याख्या नहीं करता केवल संकेत करता है। चित्रकला में 'पेन्सिल स्केच ' और यातायात के साधनों में 'हवाई जहाज़' से उसकी तुलना की जा सकती है । वर्तमान जीवन कितना सिमटता जा रहा है यह उसीका प्रभाव है । कथानक के अतिरिक्त कथोपकथन का भी कहानी में गौण स्थान नहीं है। चरित्र-चित्रण, घटनाओं की गतिशीलता और भाषा की तीव्रता के लिए वह अनिवार्य है । स्वाभाविक, भावप्रधान, सरल और चुस्त वार्तालाप कहानी की शक्ति है ।

कहानियाँ लिखने की प्रणालियाँ भी बहुत हैं । ऐतिहासिक शैली की कहानियों में लेखक इतिहासकार की भांति तटस्थ होकर घटनाओं का वर्णन करता है । यथार्थवादी कहानियों में इस शैली का सुन्दर विकास हुआ है। आत्मचरित्र शैली की कहानी में प्रधान पात्र अपनी कथा कहता है। जो कहानियाँ पत्रों के रूप में लिखी जाती हैं वे पत्र शैली के अन्तर्गत आती हैं। डायरी शैली जिसमें किसी पात्र की डायरी से कहानी का विकास होता है हिन्दी में बहुत कम प्रचलित हैं। एक और शैली है जिसमें केवल वार्तालाप ही रहता है । इसे कथोपकथन शैली कहते हैं। यह भी बहुत कम लोकप्रिय है ।

भाषा भी कहानी की सफलता और असफलता का एक बड़ा कारण है । जिस कथाकार का जीवन और जनता से जितना अधिक सम्पर्क होगा उसकी भाषा उतनी ही सबल और स्वाभाविक होगी, वह उतना ही अधिक पढ़ा जाएगा। पाण्डित्य का प्रदर्शन कहानी कला का गला घोटने जैसा है। रोचकता के लिये मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग किया जाता है परन्तु प्राचीन काल के अलंकार आज कहानी का बल नहीं दुर्बलता माने जाते हैं। विराम चिन्हों का प्रयोग कहानी को उन से कहीं अधिक सशक्त बना देता है। अर्थ और भाव की रक्षा के लिए तथा कहानी में लालित्य पैदा करने के लिए उनका सही प्रयोग अनिवार्य है। हिन्दी के लेखक ने अभी इस ओर बहुत कम ध्यान दिया है ।

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फिर भी भाषा हो या कला के तत्त्व, लेखक सभी क्षेत्रों में नए-नए प्रयोग करने के लिए स्वतन्त्र है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है उस पर केवल एक ही बन्धन है— उसके साहित्य का जीवन से संबंध न टूटे अर्थात् उसकी कहानी में अनुभूति, अभिव्यक्ति और सहानुभूति तीनों तत्त्व वर्तमान रहें। किसी भी एक का अभाव कला को खंडित करने के लिए यथेष्ट है ।

अन्त में हिन्दी कहानी के विकास पर एक दृष्टि डाल लेना अनुपयुक्त न होगा । हिन्दी में कहानी का आरम्भ वैतालपचीसी, सिंहासन बत्तीसी, शुक बहत्तरी आदि अनुदित कहानियों से हुआ माना जाता है । कुछ लोगों का विचार है कि इन्शाअल्ला खां की 'रानी केतकी की कहानी' हिन्दी की पहली मौलिक कहानी है । मुसलमानों से सम्पर्क होने के बाद उनके प्रेमाख्यानों ने यहां के साहित्य में जो क्रान्ति पैदा की उसका स्पष्ट प्रभाव इस कहानी पर है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब छापेखाने का जादू सर पर चढ़ कर बोलने लगा तब इसी परम्परा की कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुए । किस्सा तोता मैना, किस्सा साढ़े तीन यार, गुलबकावली कुछ ऐसे ही संग्रह थे जो बड़े चाव से पढ़े जाते थे । इन्शाअल्ला खां के आसपास ही लल्लूलाल ने 'प्रेमसागर', मुन्शी सदासुख ने 'सुखसागर' और सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' की रचना की । उन्नीसवीं सदी में ही आगे चलकर राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने 'राजा भोज का सपना' प्रकाशित किया । भारतेन्दु ने स्वयं एक अधूरी कहानी 'कुछ आप बीती कुछ जग बीती' लिखी पर इस समय तक कोई मौलिक उल्लेखनीय काम नहीं हुआ। अनुवाद ही बहुत हुए, विशेष कर बंगला से श्री गोपालराम गहमरी के पत्र 'जासूस' में बंगला से अनुदित छोटी-छोटी जासूसी कहानियां छपा करती थीं।

आधुनिक हिन्दी कहानी का वास्तविक जन्म, अंग्रेजी शिक्षा के व्यापक प्रचार के बाद, बीसवीं सदी के आरम्भ में हुआ । सन् १६०० में 'सरस्वती' और 'सुदर्शन' का प्रकाशन एक क्रान्तिकारी घटना है। इससे एक वर्ष पूर्व सन् १८६६ में गुणाढ्य की वृहत्कथा के आधार पर कुछ कहानियां 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित हुई परन्तु 'सरस्वती' में अंग्रेजी कथाओं के तथा 'सुदर्शन' में पौराणिक आख्यायिकाओं के नियमित रूप से अनुवाद और रूपान्तर प्रकाशित होने के साथ हिन्दी कहानी क्षेत्र में नया युग शुरू हुआ। जून १६०० ई० की सरस्वती में शेक्सपियर के नाटक 'टेम्पेस्ट' की छाया लेकर लिखी हुई एक कहानी 'इन्दुमती' प्रकाशित हुई । इसके लेखक गोस्वामी किशोरीलालजी थे, कुछ लोग इसे मौलिक कहानी मानते हैं क्योंकि इसका कथानक और वातावरण बिलकुल भारतीय है ।

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हमारे विचार में इस कहानी को अनुवाद तो किसी भी अवस्था में नहीं कहा जा सकता । तत्कालीन परिस्थितियों में उससे अधिक मौलिक कहानी लिखना शायद सम्भव नहीं था। उस काल के अनुवादकों में अंग्रेजी से अनुवाद करनेवालों में श्री गिरिजाकुमार घोष उपनाम ला० पार्वती नन्दन तथा संस्कृत से अनुवाद करनेवालों में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी प्रमुख थे । मिर्जापुर की श्रीमती बंगमहिला ने भी बंगला से काफी कहानियां अनुदित कीं । सन् १६१० तक यही परीक्षण चलता रहा, इस काल में न कोई निश्चित परम्परा भी न कोई निश्चित आदर्श, पर इस काल के लेखकों में हिन्दी के कुछ महारथियों के नाम सामने आते हैं। प्रसिद्ध आलोचक श्री रामचन्द्र शुक्ल, व्याकरण के विद्वान श्री कामताप्रसाद गुरु, ( उपनाम विद्यानाथ शर्मा) आज के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री वृन्दावनलाल वर्मा, श्री माथव मिश्र और श्री गिरिजादत्त बाजपेयी ने इस काल में कहानियां लिखीं। इसी काल में श्री मैथिलीशरण गुप्त की कुछ छन्दबद्ध कहानियां प्रकाशित हुईं। पर इस युग की सबसे महत्त्वपूर्ण कहानी श्रीमती बंग महिला की 'दुलाईवाली' थी । यह मई १६०७ की सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। यह एक सुन्दर यथार्थवादी कहानी है और आज की कहानी के बहुत पास है । परन्तु यह एक घटना बनकर रह गई । सन् १६११ तक कोई इस परम्परा को आगे बढ़ाने वाला आगे नहीं आया । हां, इस वर्ष जब श्री जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा से काशी से 'इन्दु' वर्तमान हुआ का प्रकाशन शुरू हुआ तो मानो कथा-साहित्य का भाग्योदय मौलिक कहानी की अविच्छिन्न धारा बह निकली । सन् १६११ में ही श्री जयशंकरप्रसाद की सर्वप्रथम मौलिक कहानी 'ग्राम' इन्दु में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष श्री जी० पी० श्रीवास्तव तथा श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानियाँ 'इन्दु' में छपीं । इस प्रकार आधुनिक कहानी का जन्म १६११ में हुआ। इसके बाद के दस वर्ष हिन्दी कहानी के विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। सन् १६१२ में श्री विश्वम्भरनाथ जिज्जा और सन् १६१३ में श्री विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक का उदय हुआ । 'कौशिक' जी की पहली कहानी 'रक्षाबन्धन' सरस्वती में छपी थी। इसी वर्ष 'इन्दु' में राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की कहानी 'कानो का कंगना' छपी । सन् १९१४ में 'सरस्वती' द्वारा श्री ज्वालादत्त शर्मा तथा 'गृह लक्ष्मी' द्वारा श्री चतुरसेन शास्त्री कहानी क्षेत्र में आए। इसी वर्ष श्री बदरीनाथ भट्ट और श्री शिवपूजन सहाय ने लिखना शुरू किया ।

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गुलेरीजी की सुप्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था' सन् १६१५ में सरस्वती में प्रकाशित हुई और सन् १६१६ में श्री प्रेमचन्द के रूप में एक दूसरी ऐसी महान् प्रतिभा का उदय हुआ जिसके प्रकाश से समूचा हिन्दी संसार जगमगा उठा। इसके बाद हिन्दी कहानी द्रुतगति से दौड़ने लगी । सन् १६२० तक रायकृष्णदास तथा श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (सन् १६१७) श्री बालकृष्णशर्मा नवीन (सन् १६१८) श्री चण्डीप्रसाद हृदयेश तथा श्री गोविन्दवल्लभ पन्त (सन् १६१६ ) और सुदर्शन (सन् १६२०) जैसे महान् कथाकारों का उदय हो चुका था ।

सन् १६२० से सन् १६५० तक के तीस वर्षों में हिन्दी कहानी आदर्शवाद और यथार्थवाद के पथ से आगे बढ़ती हुई आज जीवन-दर्शन बन गई है। मानव जीवन के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के कारण जीवन का कोई भेद उससे छिपा नहीं रहा है । प्रेमचन्द इस कला में बहुत कुशल थे। उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में सर्व श्री जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय, विनोदशंकर व्यास, भगवती प्रसाद वाजपेयी तथा इन पंक्तियों के लेखक का नाम लिया जा सकता है। इधर वादों और विचारों के घात - प्रतिघात के कारण जीवन दर्शन को एक विशिष्ट दृष्टिकोण से देखने के कारण आज जो प्रगतिशील नाम की कहानी की एक और धारा चली है उसके प्रमुख लेखकों सर्व श्री यशपाल, पहाड़ी, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, रामवृक्ष बेनीपुरी, अमृतराय, मन्मथनाथ गुप्त तथा रांगेय राघव आदि के नाम लिए जाते हैं। लेकिन यह विभेद रुचिकर नहीं है । सफल कलाकार सदा प्रगतिशील है । सर्व श्री इलाचन्द जोशी, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, उग्र, भगवतीचरण वर्मा, यमुनादत्त वैष्णव, कमलाकान्त वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, कमल जोशी, वीरेन्द्रकुमार, रामचन्द्र तिवारी आदि अनेक सर्वतोमुखी प्रतिभा वाले लेखक हैं जो इस युग का सफल प्रतिनिधित्व करते हैं। हाँ, हिन्दी में हास्यरस की सफल रचना वाले बहुत कम हैं, जो हैं; वे या तो हास्य लिखते हैं या फिर व्यंग लिखकर अपना दिवालियापन घोषित करते हैं। फिर भी सर्व श्री बद्रीनाथ भट्ट, अन्नपूर्णानन्द, बेढ़ब, राधाकृष्ण और अमृतलाल नागर आदि सुलेखकों के नाम इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। श्री श्रीराम शर्मा की शिकार सम्बन्धी कहानियाँ चित्रण की दृष्टि से सजीव हैं । हमारे कुछ कवियों ने भी सफलतापूर्वक कहानी को अपनाया है। उन में सर्व श्री पन्त, निराला, सियारामशरण गुप्त तथा श्री उदयशंकर भट्ट प्रमुख हैं। आजकल तो रेखा - चित्र भी कहानी की परिभाषा के अन्तर्गत आ गए हैं इसलिए श्रीमती महादेवी वर्मा का नाम भी इस श्रेणी के लेखकों में सादर लिया जा सकता है। 

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स्त्री लेखिकाओं में श्रीमती शिवरानी प्रेमचन्द, कमला चौधरी, सुभद्राकुमारी चौहान, उषादेवी मित्रा, होमवती देवी, सत्यवती मल्लिक, चन्द्रावती और चन्द्रकिरण सौनरेक्सा विशेष उल्लेखनीय हैं । वैसे तो पुराने लेखकों में से श्री वाचस्पति पाठक तथा श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे कथाकार भी आज मौन हैं परन्तु इस बीच में और ऐसे उदीयमान लेखक सामने आए थे जिनकी कला में शक्ति थी पर वे दो चार कहानियाँ लिखकर मौन हो गए; श्रीमती माधवी, श्रीमती निर्मला मित्रा, सर्व श्री शांतिप्रसाद वर्मा, रामकृष्ण देव गर्ग, बलराज साहनी, वीरेश्वर, धर्मप्रकाश आनन्द, हरदयाल मौजी कुछ ऐसे नाम हैं जिनसे बहुत आशाएं थीं। इनमें श्री हरदयाल मौजी तो अभावों से संघर्ष करते हुए सदा के लिए मौन हो चुके हैं।

प्रस्तुत संग्रह में सभी प्रकार की कहानियाँ देने का प्रयत्न था पर वह सम्भव नहीं हो सका, पर फिर भी उसे यथाशक्ति प्रतिनिधि संग्रह बनाया गया है। इसलिए पाठकों को उसमें कुछ वे नाम मिलेंगे जो प्रायः कहानी संग्रहों में नहीं मिलते, जैसे राधाकृष्ण, हरदयाल मौजी, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, रांगेयराघव, रामचन्द्र तिवारी और यशपाल जैन । हाँ प्रयत्न करने पर भी कुछ नाम हमें नहीं मिल सके उसका हमें खेद है ।

उपरोक्त विवेचन से, यद्यपि वह अधूरा ही है, यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि कहानी साहित्य की प्रगति गर्व के योग्य है। ऊपर सभी नाम नहीं आ पाए हैं परन्तु उनमें से बीस-पच्चीस कलाकार तो निस्सन्देह ऐसे हैं जिनकी रचनाएं विश्व साहित्य की स्थायी निधि बन सकती है। इसके अतिरिक्त दूसरी अनेक नवोदित प्रतिभाएँ तीव्र गति से आगे बढ़ रही हैं। साहित्य की इन आशा किरणों को देखते हुए भविष्य की उज्ज्वलता में विश्वास होता है ।

पो० बा० ११६७ दिल्ली

ता० ११ मई, १६५१

— विष्णु प्रभाकर



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रचनाएँ
सप्तदशी
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सप्तदशी विष्णु प्रभाकर का एक उपन्यास है, जो 1947 में प्रकाशित हुआ था. यह उपन्यास भारत के विभाजन के दौरान एक परिवार के जीवन का वर्णन करता है. उपन्यास का मुख्य पात्र, जयदेव, एक युवा व्यक्ति है जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल है. जब भारत का विभाजन होता है, तो जयदेव का परिवार विभाजन के दो पक्षों में बंट जाता है| जयदेव अपने परिवार के साथ भारत में रहने का फैसला करता है, जबकि उसके भाई-बहन पाकिस्तान चले जाते हैं| उपन्यास जयदेव और उसके परिवार के जीवन में विभाजन के बाद आने वाले परिवर्तनों का वर्णन करता है| सप्तदशी एक महत्वपूर्ण उपन्यास है, क्योंकि यह भारत के विभाजन के दौरान एक परिवार के जीवन का यथार्थवादी चित्रण करता है| यह उपन्यास यह भी दिखाता है कि विभाजन ने भारतीय समाज को किस तरह से प्रभावित किया है|
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 मैं बरामदे में टहल रहा था। इतने में मैंने देखा कि बिमला दासी अपने आंचल के नीचे एक प्रदीप लेकर बड़ी भाभी के कमरे की ओर जा रही है। मैंने पूछा - "क्यों री ! यह क्या है ?" वह बोली - "झलमला ।" मैंने फिर

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अध्याय 4: आत्म-शिक्षण

13 अगस्त 2023
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महाशय रामरत्न को इधर रामचरण के समझने में कठिनाई हो रही है। वह पढ़ता है और अपने में रहता है। कुछ कहते हैं तो दो-एक बार तो सुनता ही नहीं । सुनता है तो जैसे चौंक पड़ता है। ऐसे समय, मानो विघ्न पड़ा हो इ

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अध्याय 5: निंदिया लागी

13 अगस्त 2023
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कालेज से लौटते समय मैं अक्सर अपने नये बंगले को देखता हुआ घर आया करता । उन दिनों वह तैयार हो रहा था । एक ओवरसियर साहब रोजाना, सुबह-शाम, देख-रेख के लिए आ जाते थे । वे मझले भैया के सहपाठी मित्रों में स

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अध्याय 6: प्रायश्चित्त

13 अगस्त 2023
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अगर कबरी बिल्ली घर-भर में किसीसे प्रेम करती थी तो रामू की बहू से, और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी तो कबरी बिल्ली से । रामू की बहू दो महीना हुआ, मायके से प्रथम बार ससुराल आई थी, पति

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अध्याय 7: पटाक्षेप

13 अगस्त 2023
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सी० आई० डी० विभाग में मेरा यथेष्ट मान था। अपने आश्चर्यजनक कार्यों से मैंने अपने डिपार्टमेंट में खलबली मचा दी थी। चारों ओर मेरी धूम थी। मैंने ऐसे-ऐसे गुप्त भेद खोले थे जिनके कारण मेरी कार्यपटुता और बु

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अध्याय 8: शत्रु

13 अगस्त 2023
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ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान् ने स्वप्न-दर्शन दिए और कहा – “ज्ञान मैंने तुम्हें अपना प्रतिनिधि बना कर संसार में भेजा है। उठो, संसार का पुनर्निर्माण करो ।” ज्ञान जाग पड़ा । उसने देखा, संसार अन्धकार

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अध्याय 9 : मास्टर साहब

13 अगस्त 2023
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न जाने क्यों बूढ़े मास्टर रामरतन को कुछ अजीब तरह की थकान - सी अनुभव हुई और सन्ध्या-प्रार्थना समाप्तकर वे खेतों के बीचोंबीच बने उस छोटे-से चबूतरे पर बिछी एक चटाई पर ही लेट रहे । सन् १६४७ के अगस्त मास

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अध्याय 10 : मैना

14 अगस्त 2023
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अलियार जब मरा तो दो पुत्र, छोटा-सा घर और थोड़ी-सी ज़मीन छोड़कर मरा । दसवें के दिन दोनों भाई क्रिया-कर्म समाप्त करके सिर मुंडाकर आये, तो आने के साथ ही बटवारे का प्रश्न छिड़ गया, और इस समस्या के समाधान

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अध्याय 11: खिलौने

15 अगस्त 2023
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 जब सुबह का धुंधला प्रकाश आसपास के ऊंचे मकानों को पार करके अहाते में से होता हुआ उसकी अंधेरी कोठरी तक पहुंचा, तो बूढ़े खिलौने वाले ने आंखें खोली । प्रभात के भिनसारे में उसके इर्द-गिर्द बिखरे हुए खि

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अध्याय 12: नुमायश

15 अगस्त 2023
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नुमायश का अहाता बनकर तैयार हो चुका था । बीच-बीच में फुलवारी की क्यारियां लग चुकी थीं । दुकानों और बाज़ारों की व्यवस्था भी करीब-करीब हो ही गई थी । कुछ सजधज का काम अभी कहीं-कहीं बाकी था। मिस्त्री बिजल

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अध्याय 13: जीजी

15 अगस्त 2023
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“यही हैं ?” आश्चर्य से इन्दु ने पूछा । "हां" उपेक्षा से गर्दन हिलाकर सुरेखा ने उत्तर दिया । " अरे !" इन्दु ने एक टुकड़ा समोसे का मुंह में रखते-रखते कहा – “अच्छा हुआ सुरेखा तुमने मुझे बता दिया, नही

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अध्याय 14: ज्योति

15 अगस्त 2023
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विधाता ने पदार्थ को बनाया, उसमें जड़ता की प्रतिष्ठा की और फिर विश्व में क्रीड़ा करने के लिए छोड़ दिया। पदार्थ ने पर्वत चिने और उखाड़ कर फेंक दिये, सरितायें गढ़ीं, उन्हें पानी से भरा और फूंक मार कर सुख

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अध्याय 15: चोरी !

15 अगस्त 2023
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 कमरे को साफ कर झाड़ू पर कूड़ा रखे जब बिन्दू कमरे से बाहर निकला तो बराण्डे में बैठी मालती का ध्यान उसकी ओर अनायास ही चला गया । उसने देखा कि एक हाथ में झाड़ू है; पर दूसरे हाथ की मुट्ठी बंधी है और कुछ

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अध्याय 16: जाति और पेशा

15 अगस्त 2023
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अब्दुल ने चिन्ता से सिर हिलाया । नहीं, यह पट्टी उसीकी है। वह रामदास को उसपर कभी भी कब्जा नहीं करने देगा । श्याम जब मरा था तब वह मुझसे कह गया था । रामदास तो उस वक्त नहीं था । उसका क्या हक है ? आया बड़ा

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अध्याय 17: आपरेशन

15 अगस्त 2023
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डा० नागेश उस दिन बड़ी उलझन में पड़ गये। वह सिविल अस्पताल के प्रसिद्ध सर्जन थे । कहते हैं कि उनका हाथ लगने पर रोगी की चीख-पुकार उसी प्रकार शान्त हो जाती थी जिस प्रकार मा को देखते ही शिशु का क्रन्दन बन्

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