पीड़ाओं को अपने जीवन का कल्याण बना बैठा हूं.
टूटी आशाओं को सपनो का महमान बना बैठा हूं।
उलझन की हर लहर चूमकर अपने पास बुला लेता हूं,
झरते आंसू से ही अपने सब त्योहार मना लेता हूं।
हर पत्थर को अपने मंदिर का भगवान बना बैठा हूं।
पीड़ाओं को अपने जीवन का कल्याण बना बैठा हूं.
राह चलूंगा मैं जीवन भर अब मंजिल की चाह नहीं है,
प्रेम अंधेरी से कर लूंगा किसी चांद की चाह नहीं है।
तड़पन को ही अब मन की वीणा की तान बना बैठा हूं।
पीड़ाओं को अपने जीवन का कल्याण बना बैठा हूं.
साथ चली है घोर निराशा इसका दामन छूट न जाए,
ओ विषाद की बीन तुम्हारा कोई भी स्वर टूट न जाए।
मन की सिसकन घोल आंसुओं में मधुगान बना बैठा हुं
मन की सिसकन घोल आंसुओं में मधुगान बना बैठा हुं।
गहन तिमिर में पलता आया ऊषा का वक्तित्व धरा पर,
पतझड़ में ही पलता है मधुमासों का अस्तित्व धरा पर।
लेकर मौत हाथ में जीने का अरमान बना बैठा हूं।।
पीड़ाओं को अपने जीवन का कल्याण बना बैठा हूं.
-- महेन्द्र पाल सिंह