‘संस्मरण’ को मैं रेखा चित्र से भिन्न साहित्यिक विधा मानती हूं। मेरे विचार में यह अन्तर अधिक न होने पर भी इतना अवश्य है कि हम दोनों को पहचान सकें।
‘रेखाचित्र’ एक बार देखे हुए व्यक्ति का भी हो सकता है जिसमें व्यक्तिव की क्षणिक झलक मात्र मिल सकती है। इसके अतिरिक्त इसमें लेखक तटस्थ भी रह सकेंगे। यह प्रकरण हमारी स्मृति में खो भी सकता है, परन्तु ‘संस्मरण’ हमारी स्थायी स्मृति से सम्बन्ध रखने के कारण संस्मण के पात्र से हमारे घनिष्ठ परिचय की अपेक्षा रखता है, जिसमें हमारी अनुभूति के क्षणों का योगदान भी रहा है। इसी कारण स्मृति में ऐसे क्षणों का प्रत्यावर्तन भी सहज हो जाता है और हमारा आत्मकथ्य भी आ जाता है।
यदि हम किसी से प्रगाढ़ और आत्मीय परिचय रखते हैं, तो उसे व्यक्ति को अनेक मनोवृत्तियों तथा उनके अनुसार आचरण करते देखना भी सहज हो जाता है और अपनी प्रतिक्रिया की स्मृति रखना भी स्वाभाविक हो जाता है। इन्हीं क्षणों का सुखद या दुःखद प्रत्यावर्तन ‘संस्मरण’ कहा जा सकता है। मेरे अधिकांश रेखाचित्र कहे जाने वाले शब्द-चित्र ‘संस्मरण’ की कोटि में ही आते हैं, क्यों कि किसी भी क्षणमात्र की झलक पाकर मैं उसके सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया प्रायः अपने लेखों में व्यक्त कर देती हूं।
मेरे संस्मरणों के पात्र सामान्य जन तथा पशु-पक्षी ही रहते हैं और उनसे घनिष्ठ आत्मीयता का बोध मेरे स्वभाव का अंग ही कहा जा सकता है। पालित पशु-पक्षी तो जन्म से अन्त तक मेरे पास रहते ही हैं, अतः उनकी स्वभावगत विशेषताएँ जानकर ही उन्हें संरक्षण दिया जा सकता है। नित्य देखते-ही–देखते मैं उनके सम्बन्ध में बहुत कुछ जान जाती हूँ और उन पर कुछ लिखना सहज हो जाता है। रहे सामान्य जन तो उनसे सम्पर्क बनाये रखना मुझे मन की तीर्थ यात्रा लगती है। उनके सम्बन्ध में जो कुछ जान सकती हूं, उसे जानना सौहार्द की शपथ है, पर लिखना अपनी इच्छा पर निर्भर है।
मेरा यह सौभाग्य रहा है कि अपने युग के विशिष्ठ व्यक्तियों का मुझे साथ मिला और मैंने उन्हें निकट से देखने का अवसर पाया। उनके जीवन के तथा आचरित आदर्शों ने मुझे निरन्तर प्रभावित किया है। उन्हें आशा-निराशा, जय-पराजय, सुख-दुःख के अनेक क्षणों में मैंने देखा अवश्य, पर उनकी अडिग आस्था ने मुझ पर जीवनव्यापी प्रभाव छोड़ा है। उनके सम्बन्धों में कुछ लिखना उनके अभिन्नदन से अधिक मेरा पर्व-स्नान है। हम सूर्य की पूजा सूर्य को दिखाकर करते हैं। गंगाजल से गंगा को अर्घ्य देते हैं, क्योंकि यह पूजा हमारी उस कृतज्ञता की स्वीकृति है, जो उनके प्राप्त शक्ति से उत्पन्न हुई है।
महादेवी
महादेवी वर्मा की अन्य किताबें
महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद में सन (२६ मार्च १९०७ — ११ सितंबर १९८७) ईस्वी में एक संपन्न कायस्थ परिवार में हुआ था. इनके पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राचार्य थे. माता विदुषी और धार्मिक स्वभाव की महिला थी. इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में और उच्च शिक्षा प्रयाग के क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में हुई थी. अत्यधिक परिश्रम के फल स्वरुप इन्होंने मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्ष 1933 में इन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्या पद को सुशोभित किया। इन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए काफी प्रयास किया साथ ही नारी की स्वतंत्रता के लिए ये सदैव संघर्ष करती रही। महादेवी वर्मा हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाज सुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे।
महादेवी वर्मा रहस्यवाद और छायावाद की कवयित्री थीं, अतः उनके काव्य में आत्मा-परमात्मा के मिलन विरह तथा प्रकृति के व्यापारों की छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। वेदना और पीड़ा महादेवी जी की कविता के प्राण रहे। उनका समस्त काव्य वेदनामय है। ये 'चांद' पत्रिका की संपादिका भी रहीं। इनकी साहित्य साधना के लिए भारत सरकार ने इन्हें पदम भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें 'सेकसरिया' तथा 'मंगला प्रसाद' पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 1983 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा इन्हें एक लाख रुपए का भारत-भारती पुरस्कार दिया गया तथा इसी वर्ष काव्य ग्रंथ यामा पर इन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' पुरस्कार प्राप्त हुआ। ये जीवन पर्यंत प्रयाग में ही रहकर साहित्य साधना करती रहीं। आधुनिक काव्य के साथ साज-श्रंगार में इनका अविस्मरणीय योगदान है। इनके काव्य में उपस्थित विरह-वेदना अपनी भावनात्मक गहनता के लिए अमूल्य मानी जाती है। करुणा और भावुकता इनके काव्य की पहचान है। 11 सितंबर, 1987 को यह महान कवयित्री पंचतत्व में विलीन हो गई। महादेवी वर्मा की विभिन्न रचनाएं इसप्रकार है ,दीपशिखा, रश्मि, नीरजा, श्रृंखला की कड़ियां, निहार, यामा, सांध्य गीत, भाव पक्ष आदि D