मुरझा रही हैं उम्मीद कलियाँ,
गिर रही हैं बिखरकर,
कब आओगे तुम प्रियवर?
हो रही हूँ मैं अब विकल।
चातक पंक्षी सी,टकटकी लगाये,
निहारूँ कब तलक मैं नभ?
कब प्रणय जल से तृप्त होंगे,
मेरे ह्रदय के ये तृषालु अधर?
तिमिराच्छादित सघन कानन,
प्रतीत हो रहा अब जीवन,
बज रही जिसमें विछोह रागिनी,
घोलती तप्त लावा सा, कर्ण में प्रतिपल।
कब प्रभास के खग आकर,
चहकेंगे मन शाख पर?
एकाकीपन से हो रही हूँ कातर,
कब आओगे तुम प्रियवर?
प्रभा मिश्रा 'नूतन'