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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022

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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता है, उधर यार लोग उसका तोड़ सोच लेते हैं, इसके इलावा अपने बचाओ की कई सूरतों पैदा कर लेते हैं।

किसी अख़बार पर आफ़त आनी हो तो आया करे, उसका मालिक महफ़ूज़-ओ-मामून रहेगा, इसलिए कि प्रिंट लाईन में किसी क़साई या धोबी का नाम बहैसियत प्रिंटर पब्लिशर और एडिटर के दर्ज होगा। अगर अख़बार में कोई ऐसी तहरीर छप गई जिस पर गर्वनमेंट को ए’तराज़ हो तो असल मालिक के बजाय वो धोबी या क़साई गिरफ़्त में आ जाएगा। उसको जुर्माना होगा या क़ैद।

जुर्माना तो ज़ाहिर है अख़बार का मालिक अदा कर देगा, मगर क़ैद तो वो अदा नहीं कर सकता। लेकिन इन दो पार्टियों के दरमियान इस क़िस्म का मुआ’हिदा होता है कि अगर क़ैद हुई तो वो उसके घर इतने रुपये माहवार पहुंचा दिया करेगा। ऐसे मुआ’हिदे में ख़िलाफ़वर्ज़ी बहुत कम होती है।

जो लोग नाजायज़ तौर पर शराब बेचते हैं, उनके पास दो-तीन आदमी ऐसे ज़रूर मौजूद होते हैं जिन का सिर्फ़ ये काम है कि अगर पुलिस छापा मारे तो वो गिरफ़्तार हो जाएं और चंद माह की क़ैद काट कर वापस आ जाएं। इसका मुआ’वज़ा उनको मा’क़ूल मिल जाता है।

छापा मारने वाले भी पहले ही से मुत्तला कर देते हैं कि हम आ रहे हैं, तुम अपना इंतज़ाम कर लो... चुनांचे फ़ौरन इंतज़ाम कर लिया जाता है, या’नी मालिक ग़ाइब ग़ल्ला हो जाता है और वो किराए के आदमी गिरफ़्तार हो जाते हैं। ये भी एक क़िस्म की मुलाज़मत है लेकिन दुनिया में जितनी मुलाज़मतें हैं कुछ इसी क़िस्म की होती हैं।

मैं जब अमीन पहलवान से मिला तो वो तीन महीने की क़ैद काट कर वापस आया था। मैंने उससे पूछा, “अमीन! इस दफ़ा कैसे जेल में गए?”

अमीन मुस्कुराया, “अपने कारोबार के सिलसिले में।”

“क्या कारोबार था?”

“जो रहा, वही है।”

“भई बताओ तो?”

“बताने की क्या ज़रूरत है? आप अच्छी तरह जानते हैं मगर ख़्वाह-मख़्वाह मुझ से पूछ रहे हैं।”

मैंने थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद उससे कहा, “अमीन! तुम्हें आए दिन जेल में जाना क्या पसंद है?”

अमीन पहलवान मुस्कुराया, “जनाब, पसंद और नापसंद का सवाल ही पैदा नहीं होता... लोग मुझे पहलवान कहते हैं, हालाँकि मैंने आज तक अखाड़े की शक्ल नहीं देखी। अनपढ़ हूँ, कोई और हुनर भी मुझे नहीं आता... बस, जेल जाना आता है। वहां मैं ख़ुश रहता हूँ। मुझे कोई तकलीफ़ महसूस नहीं होती... आप हर रोज़ दफ़्तर जाते हैं, क्या वो जेल नहीं?”

मैं लाजवाब हो गया, “तुम ठीक कहते हो अमीन, लेकिन दफ़्तर जाने वालों का मुआ’मला दूसरा है... लोग उन्हें बुरी निगाहों से नहीं देखते।”

“क्यों नहीं देखते! ज़िला कचहरी के जितने मुंशी और क्लर्क हैं उन्हें कौन अच्छी नज़र से देखता है? रिश्वतें लेते हैं, झूट बोलते हैं और परले दर्जे के मक्कार होते हैं। मुझ में ऐसा कोई ऐ’ब नहीं, मैं अपनी रोज़ी बड़ी ईमानदारी से कमाता हूँ।”

मैंने उससे पूछा, “किस तरह?”

उसने जवाब दिया, “इस तरह कि अगर किसी का काम करता हूँ और क़ैद काटता हूँ, जेल में मेहनत मशक़्क़त करता हूँ और बाद में उस शख़्स से जिसकी ख़ातिर मैंने सज़ा भुगती थी, मुझे दो-तीन सौ रुपया मिलता है तो ये मेरा मुआ’वज़ा है, इस पर किसी को क्या एतराज़ हो सकता है? मैं रिश्वत तो नहीं लेता, हलाल की कमाई खाता हूँ। लोग मुझे गुंडा समझते हैं... बड़ा ख़तरनाक गुंडा, लेकिन मैं आपको बताऊं कि मैंने आज तक किसी के थप्पड़ भी नहीं मारा। मेरी लाईन बिल्कुल अलग है।”

उसकी लाईन वाक़ई दूसरों से अलग थी। मुझे हैरत थी कि तीन-चार मर्तबा क़ैद काटने के बावजूद उसमें कोई तबदीली वाक़े नहीं हुई। वो बड़ा संजीदा मगर गंवार क़िस्म का आदमी था जिसको किसी की पर्वा नहीं थी। क़ैद काटने के बाद जब भी आता तो उसका वज़न कम अज़ कम दस पाऊंड ज़्यादा होता।

एक दिन मैंने उससे पूछा, “अमीन क्या वहां का खाना तुम्हें रास आता है?”

उसने अपने मख़सूस अंदाज़ में जवाब दिया, “खाना कैसा भी हो, उसको रास करना आदमी का अपना काम है। मुझे दाल से नफ़रत थी, लेकिन जब पहली मर्तबा मुझे वहां कंकरों भरी दाल दी गई और रेत मिली रोटी तो मैंने कहा, अमीन यार, ये सब से अच्छा खाना है, खा, डिनर पेल और ख़ुदा का शुक्र बजा ला। चुनांचे मैं एक दो रोज़ ही में आदी होगया। मशक़्क़त करता, खाना खाता और यूं महसूस करता जैसे मैंने गंजे के होटल से पेट भर कर खाना खाया है।”

मैंने एक दिन उससे पूछा, “तुमने कभी किसी औरत से भी मुहब्बत की है?”

उसने अपने दोनों कान पकड़े, “ख़ुदा बचाए इस मुहब्बत से, मुझे सिर्फ़ अपनी माँ से मुहब्बत है।”

मैंने उससे पूछा, “तुम्हारी माँ ज़िंदा है?”

“जी हाँ, ख़ुदा के फ़ज़्ल-ओ-करम से... बहुत बूढ़ी है लेकिन आप की दुआ से उसका साया मेरे सर पर देर तक क़ायम रहेगा और वो तो हर वक़्त मेरे लिए दुआएं मांगती रहती है कि ख़ुदा मुझे नेकी की हिदायत करे।”

मैंने उससे कहा, “ख़ुदा तुम्हारी माँ को सलामत रखे! पर मैंने ये पूछा था कि तुम्हें किसी औरत से मुहब्बत हुई या नहीं देखो, झूट नहीं बोलना!”

अमीन पहलवान ने बड़े तेज़ लहजे में कहा, “मैंने अपनी ज़िंदगी में आज तक कभी झूट नहीं बोला... मैंने किसी औरत से मुहब्बत नहीं की।”

मैंने पूछा, “क्यों?”

उसने जवाब दिया, “इसलिए कि मुझे उससे दिलचस्पी ही नहीं।”

मैं ख़ामोश हो रहा।

तीसरे रोज़ उसकी माँ पर फ़ालिज गिरा और वो राहि-ए-मुल्क-ए-अदम हुई। अमीन पहलवान के पास एक पैसा भी नहीं था। वो सोगवार, मग़्मूम और दिल शिकस्ता बैठा था कि शहर के एक रईस की तरफ़ से उसे बुलावा आया। वो अपनी अ’ज़ीज़ माँ की मय्यत छोड़कर उसके पास गया और उससे पूछा, “क्यों मियां साहब, आपने मुझे क्यों बुलाया है?”

मियां साहिब ने कहा, “तुम्हें क्यों बुलाया जाता है, एक ख़ास काम है।”

अमीन ने जिस के दिल-ओ-दिमाग़ में अपनी माँ का कफ़न-दफ़न तैर रहा था पूछा, “हुज़ूर, ये ख़ास काम क्या है?”

मियां साहब ने सिगरेट सुलगाया, “ब्लैक मार्कीट का क़िस्सा है। मुझे मालूम हुआ है कि आज मेरे गोदाम पर छापा मारा जाएगा सो मैंने सोचा कि अमीन पहलवान बेहतरीन आदमी है जो उसे निमटा सकता है।”

अमीन ने बड़े मग़्मूम और ज़ख़्मी अंदाज़ में कहा, “आप फ़रमाईए, मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ?”

“भई, ख़िदमत-विदमत की बात तुम मत करो। बस सिर्फ़ इतनी सी बात है कि जब छापा पड़े तो गोदाम के मालिक तुम होगे, गिरफ़्तार हो जाओगे। ज़्यादा से ज़्यादा जुर्माना पाँच हज़ार रुपय होगा और एक दो बरस की क़ैद!”

“मुझे क्या मिलेगा?”

“जब वहां से रिहा हो कर आओगे तो मुआ’मला तय कर लिया जाएगा।”

अमीन ने मियां साहब से कहा, “हुज़ूर, बहुत दूर की बात है जुर्माना तो आप अदा कर देंगे, लेकिन क़ैद तो मुझे काटनी पड़ेगी। आप बाक़ायदा सौदा करें।”

मियां साहब मुस्कुराए, “तुम से आज तक मैंने कभी वा’दा ख़िलाफ़ी की है? पिछली दफ़ा मैंने तुम से काम लिया और तुमको तीन महीने की क़ैद हुई, तो क्या मैंने जेलख़ाने में हर क़िस्म की सहूलत बहम न पहुंचाई। तुम ने बाहर आकर मुझ से कहा कि तुम्हें वहां कोई तकलीफ़ नहीं थी। अगर तुम कुछ अ’र्से के लिए जेल चले गए तो वहां तुम्हें हर आसाइश होगी।”

अमीन ने कहा, “जी, ये सब दूरुस्त है... लेकिन।”

“लेकिन क्या?”

अमीन की आँखों में आँसू आगए, “मियां साहब! मेरी माँ मर गई है।”

“कब?”

“आज सुबह।”

मियां साहब ने अफ़सोस का इज़हार किया, “कफ़ना-दफ़ना दिया होगा।”
 

अमीन की आँखों में से आँसू टप-टप गिरने लगे, “मियां साहब, अभी तो कुछ भी नहीं हो सका। मेरे पास तो अफ़ीम खाने के लिए भी कुछ नहीं है।”

मियां साहब ने चंद लम्हात हालात पर ग़ौर किया और अमीन से कहा, “तो ऐसा करो... मेरा मतलब है कि तजहीज़-ओ-तकफ़ीन का बंदोबस्त मैं अभी किए देता हूँ। तुम्हें किसी क़िस्म का तरद्दुद नहीं करना चाहिए। तुम गोदाम पर जाओ और अपनी ड्यूटी सँभालो।”

अमीन ने अपनी मैली क़मीस की आस्तीन से आँसू पोंछे, “लेकिन मियां साहब मैं... मैं अपनी माँ के जनाज़े को कंधा भी न दूं!”

मियां साहिब ने फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में कहा, “ये सब रस्मी चीज़ें हैं, मरहूमा को दफ़नाना है। सो ये काम बड़ी अच्छी तरह से हो जाएगा, तुम्हें जनाज़े के साथ जाने की क्या ज़रूरत है। तुम्हारे साथ जाने से मरहूमा को क्या राहत पहुंचेगी। वो तो बेचारी इस दुनिया से रुख़्सत हो चुकी है। उसके जनाज़े के साथ कोई भी जाये, क्या फ़र्क़ पड़ता है।

असल में तुम लोग जाहिल हो... मैं अगर मर जाऊं तो मुझे क्या मालूम है कि मेरे जनाज़े में किस किस अ’ज़ीज़ और दोस्त ने शिरकत की थी। मुझे अगर जला भी दिया जाये तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। मेरी लाश को चीलों और गिद्धों के हवाले कर दिया जाये तो मुझे उसकी क्या ख़बर होगी। तुम ज़्यादा जज़्बाती न हो, दुनिया में सबसे ज़रूरी चीज़ ये है कि अपनी ज़ात के मुतअ’ल्लिक़ सोचा जाये। मैं पूछता हूँ, तुम्हारी कमाई के ज़राए क्या हैं?”

अमीन सोचने लगा। चंद लम्हात अपनी बिसात के मुताबिक़ ग़ौर करने के बाद उसने जवाब दिया, “हुज़ूर! मेरी कमाई के ज़राए आपको मालूम हैं, मुझसे क्यों पूछते हैं।”

“मैंने इसलिए पूछा था कि तुम्हें मेरा काम करने में क्या हील-ओ-हुज्जत है। मैं तुम्हारी माँ की तजहीज़-ओ-तकफ़ीन का अभी बंदोबस्त किए देता हूँ और जब तुम जेल से वापस आओगे तो...”

पहलवान ने बड़े बेंडे अंदाज़ में पूछा,“तो आप मेरा भी बंदोबस्त कर देंगे।”

मियां साहिब बौखला गए, “तुम कैसी बातें करते हो अमीन पहलवान!”

अमीन पहलवान ने ज़रा दुरुश्त लहजे में कहा, “अमीन पहलवान की ऐसी की तैसी। आप ये बताईए कि मुझे कितने रुपये मिलेंगे? मैं एक हज़ार से कम नहीं लूंगा।”

“एक हज़ार तो बहुत ज़्यादा हैं।”

अमीन ने कहा, “ज़्यादा है या कम... मैं कुछ नहीं जानता। मैं जब क़ैद काट कर आऊँगा तो अपनी माँ की क़ब्र पुख़्ता बनाऊंगा, संग-ए-मरमर की। वो मुझ से बहुत प्यार करती है।”

मियां साहब ने उससे कहा, “अच्छा भई, एक हज़ार ही ले लेना।”

अमीन ने मियां साहब से कहा, “तो लाईए इतने रुपये दीजिए कि मैं कफ़न-दफ़न का इंतज़ाम कर लूं। इसके बाद मैं आपकी ख़िदमत के लिए हाज़िर हो जाऊंगा।”

मियां साहब ने अपनी जेब से बटुवा निकाला, “लेकिन तुम्हारा क्या भरोसा है!”

अमीन को यूं महसूस हुआ जैसे उसको किसी ने माँ-बहन की गाली दी है, “मियां साहब! आप मुझे बे-ईमान समझते हैं। बेईमान आप हैं, इसलिए कि अपने फ़े’लों का बोझ मेरे सर पर डाल रहे हैं।”

मियां साहब मौक़ा शनास थे। उन्होंने समझा कि अमीन बिगड़ गया है, चुनांचे उन्होंने फ़ौरन अपनी चर्ब ज़बानी से राम करने की कोशिश की लेकिन अमीन पर कोई असर न हुआ।

जब वो घर पहुंचा तो देखा कि गुस्साल उसकी माँ को आख़िरी ग़ुस्ल दे चुके हैं। कफ़न भी पहनाया जा चुका है। अमीन बहुत मुतहय्यर हुआ कि उसपर ये मेहरबानी किसने की है? मियां साहब ने... लेकिन वो तो सौदा करना चाहते थे।

उसने एक आदमी से जो ताबूत को सजाने के लिए फूल गूँध रहा था, पूछा, “ये किस आदमी ने इतना एहतिमाम किया है?”

फूल वाले ने जवाब दिया, “हुज़ूर! आपकी बीवी ने।”

अमीन चकरा गया... वो अपने शदीद तअ’ज्जुब का मुज़ाहिरा करता मगर ख़ामोश रहा। फूल वाले से सिर्फ़ इतना पूछा, “कहाँ हैं वो...?”

फूल वाले ने जवाब दिया, “जी अंदर हैं, आपका इंतिज़ार कर रही थीं।”

अमीन अंदर गया तो देखा कि एक नौजवान, ख़ूबसूरत लड़की उसकी चारपाई पर बैठी है। अमीन ने उससे पूछा, “आप कौन हैं, यहां क्यों आई हैं?”

उस लड़की ने जवाब दिया, “मैं आपकी बीवी हूँ, यहां क्यों आई हूँ, ये आपका अ’जीब-ओ-ग़रीब सवाल है।”

अमीन ने उससे पूछा, “मेरी बीवी तो कोई भी नहीं। बताओ तुम कौन हो?”

लड़की मुस्कुराई, “मैं... मियां दीन की बेटी हूँ। उनसे जो आपकी गुफ़्तुगू हुई, मैंने सब सुनी... और... और...”

अमीन ने कहा,“अब और कहने की ज़रूरत नहीं...”
 

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

20 अप्रैल 2022
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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

20 अप्रैल 2022
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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

20 अप्रैल 2022
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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

20 अप्रैल 2022
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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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