गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी, बदन पर चाइना कोट, कोई भी देखकर बता सकता था कि यह व्यक्ति शहरी नहीं हैं।
इस बार खोज-खोजकर उसने मित्रों से भेंट की। सौरीन्द्रमोहन मुकर्जी 'भारती' का सम्पादन कर रहे थे। वह उनसे मिलने के लिए गया । कलकत्ता छोड़ने के बाद यह शायद उनकी पहली भेंट थी। दोनों ने एक-दूसरे को बहुत कुछ कहा-सुना। शरत् ने कहा, ने “चिकित्सा के लिए मैं कलकत्ता आया था। तुम्हारी बहुत खोज की, लेकिन भेंट न हो सकी।"
सौन्द्रमोहन ने कहा, "तुमने लिखना क्यों छोड़ दिया? समझ में नहीं आता। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे लिखने से बंगला साहित्य की कितनी समृद्धि होगी ? तुम्हारे भाग्य में महान होना लिखा है। 'भारती' में जब 'बडी दीदी' छपी थी तो बहुत शोर मचा था कि वह रवीन्द्रनाथ की रचना है।"
उन्होंने विस्तार से वह कहानी पढ़ सुनाई । यह भी बताया कि रवीन्द्रनाथ ने क्या कहा था। शरत् जानता न हो यह बात नहीं, लेकिन विश्वस्त रूप में एक मित्र के मुख से सुनना और ही बात है। बोला, “जहां जा पड़ा हूं और रोजगार की चेष्टा में जिस प्रकार फंस गया हूं, उससे अब मन टूट गया है।”
मुकर्जी महोदय बड़े आग्रह के साथ उसे घर ले गए। मामा उपेन्द्रनाथ गांगुली, एक युवक साहित्यिक फणीन्द्रनाथ पाल तथा और कई व्यक्ति भी आ जुटे थे। कालीपूजा का पर्व था। दोपहर के दो बज चुके थे। घर के बच्चे आतिशबाज़ी लेकर धमाचौकड़ी मचा रहे थे। लेकिन शरत् ने सौरीन्द्रमोहन से कहा, “एक बार 'बड़ी दीदी' पढ़ो तो सुनूंगा। ठीक याद नहीं, क्या कहानी लिखी थी।
उसके बाद बैठक में बिछे तख्तपोश 2 पर लेट गया और बोला, “तुम पढ़ो, मैं सुनता हूं।"
सौरीन्द्रमोहन कहानी पढ़ने लगे। सुनते-सुनते शरत् अभिभूत हो उठा। आंखों में पानी भर आया। बीच-बीच में बोल उठता, “रुको-रुको क्या यह मेरा ही लिखा हुआ है? बहुत खराब तो नहीं लिखा। सुनकर मन भर आया है। यह कहानी मैंने अपनी ही हाथ से लिखी है ! आश्चर्य होता है। "
मुकर्जी बोले, "यही तो, लोग ऐसा लिख पाते हैं वे ही यदि लिखना छोड़कर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं तब उनका अपराध क्षमा नहीं किय जा सकता। तुम अगर नहीं लिखोगे तो मैं समझता हूं कि आत्महत्या करोगे । रवीन्द्रनाथ ने कहा था, 'तुम यदि नहीं लिखते तो निष्ठुरता ही होगी।”
कहानी में जिस जगह रोग - शय्या पर लेटे हुए सुरेन्द्रनाथ ने अपनी स्त्री शान्ति की दीवार पर टंगी हुई अपनी छवि दिखाकर कहा था, “यह तस्वीर अगर चार ब्राह्मणों के द्वारा नदी के किनारे जला सको, नाम की कीमत समझने के लिए.. " उस स्थान पर जब मुकर्जी पढ़ रहे थे, तब आखें बन्द किए शरत् पागलों की तरह उठ बैठा। और उसका हाथ पकड़कर बोला, रुको।'
उसे कण्ठावरोध हो आया था। कई क्षण वह चुपचाप बैठा रहा। उसके बाद दीर्घ निःश्वास छोड़कर बोला, “अब पढ़ो।”
मुकर्जी ने फिर पढ़ना शुरू किया। वह लेट गया और लेटे-लेटे आखें बन्द किए उसने बाकी कहानी सुनी। समाप्त होने पर बोला, “अच्छा तो लिखा है। हां, अब मैं फिर लिखूंगा। तुम लोगों का विश्वास है कि मैं अच्छी कहानी लिखता हूं?”
मुकर्जी बोल, फणीन्द्र पाल ने इस वर्ष बी०ए० पास किया है, सरकारी नौकरी नहीं करना चाहता । 'यमुना नाम की एक पत्रिका निकालने का विचार कर रहे हैं। उसी के संपादन में जीवन समर्पण कर देने कई कामना है। इनके पत्र में तुम्हें लिखना होगा।”
शरत् बोला, "हां, लिखूंगा, यदि तुम लोग भी लिखो। तुम लोग यानी निरुपमा, सुरेन, गिरीन विभूति, तुम, तुम्हारी छोटी बहन और उपेन, तब मैं भी निश्चय ही लिखूंगा। मैंने एक अद्भुत रचना लिखी थी, 'नारी का इतिहास' । लगभग पांच सौ पन्ने फुलस्केप साइज़ के थे। घर जल जाने पर सब राख हो गया। कहानी नहीं थी, लेकिन गल्प - उपन्यास से भी बहुत अधिक रोचक थे। अनेक इतिहास और पुरातत्व की पुस्तकें तथा अनेक जीवनियों का अनुशीलन करके उसे लिखा था। उसके भस्मसात् हो जाने पर मन को बड़ी चोट लगी है।" मुकर्जी ने कहा, “क्या कुछ भी याद नहीं ?"
शरत् बोला, "कुछ-कुछ याद है।”
मुकर्जी ने कहा, “जितना याद है, उसी के आधार पर लिखना शुरू कर दो!”
शरत् बोला, “लिखूंगा। एक और कहानी लिखी है। वह प्रकाण्ड उपन्यास होगा। चौथाई हिस्सा लिखा पड़ा है। वह भी तुमको पढ़ने को दूंगा। कहानी का नाम है 'चरित्रहीन' । यदि उसे पूरा कर सका तो वह एक नई चीज़ होगी। दो-तीन महीने बाद फिर एक बार कलकत्ता आना ही है। साथ लेता आऊंगा। यदि 'नारी का इतिहास' लिख सका, तो उसके भी लेता आऊंगा। इस बार आकर कुछ दिन कलकत्ता रहूंगा।”
'चरित्रहीन' के कुछ पृष्ठ वह अपने साथ लाया भी था। उस समय 'साहित्य' पत्रिका बड़ी धूम थी । समाजपति महोदय उसके सम्पादक थे। वे पृष्ठ लेकर शरत् उपेन्द्र मामा के साथ उनसे भी मिला। फणीन्द्रनाथ से भी चर्चा हुई। लेकिन अभी तक उसकी पूरी रूपरेखा स्पष्ट नहीं हुई थी । शरत् स्वयं भी कुछ नहीं कह सकता था। इसलिए कोई अन्तिम निर्णय नही हो सका। और फिर से लिखने का आश्वासन देकर वह रंगून लौट गया। आने से पूर्व इस बार बहरामपुर जाकर विभूतिभूषण भट्ट और निरुपमा देवी से भी मिलना वह नहीं भूला।
शीघ्र ही छुट्टी लेकर वह फिर कलकत्ता आया। यद्यपि मित्रों से परिचय हो गया था लेकिन इस बार भी वह किसी के पास नहीं ठहरा। वहीं ठहरा जहां भले आदमी नहीं ठहरा करते। पिछली बार वह हावड़ा के एक वेश्यालय में ठहरा था। खोजते खोजते जब मामा उपेन्द्रनाथ वहां पहुंचे तो देखा पास ही एक मकान में शीशे के सामने खड़ी एक स्त्री बाल संवार रही है। उसी से पूछा, क्या यहां कोई शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय ठहरे है? वे रंगून से आये हैं"।
स्त्री ने उत्तर दिया, “ओह, दादा ठाकुर के बारे में पूछते है? “वे ना ऊपर है। यह जो जीना है, इससे आप ऊपर चले जाएं। सामने ही मिलेंगे।”
ऊपर जाकर उपेन्द्रनाथ ने देखा कि शरत् 'चरित्रहीन' लिखने में व्यस्त है।
बहुत दिनों बादबहुत दिनों बाद फणीन्द्रनाथ पाल ने लिखा, “उस दिन की बात याद आती है। श्रीयुत उपेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय ने सूचना दी - शरत् कलकत्ता आया है। कल वह मेरे घर आया था, कहां ठहरा है बताकर नहीं गया। उसे कैसे खोजा जाय, इस पर बहुत सोचा। जो भी हो अनन्तः हमने उसे खोज ही लिया।”
इस बार वह 'चरित्रहीन' की पाण्डुलिपि साथ लेकर आया था। बादामी रंग के फुलस्केप नाप के कोई 70-80 पृष्ठ होंगे। मुकर्जी से उसने कहा, “पढ़कर देखो, चल सकता है या नहीं। प्रकाण्ड उपन्यास होगा। तुम लोगों की राय जानने के बाद ही इसे पूरा करूंगा। अभी तक तो कथा में नायिका का प्रवेश ही नहीं हुआ है। इसकी नायिका 'किरणमयी' है। यह एक नयी चीज़ होगी।"
. वे पृष्ठ उसने यमुना' के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल को भी पढ़कर सुनाए थे। सुनते- सुनते पाल महाशय तन्मय हो उठे और बार बार उसे पूरा करने का अनुरोध करने लगे। कहा, “मैं इस उपन्यास को निश्चय ही 'यमुना' में प्रकाशित करना चाहता हूं।”
'भारती' और 'साहित्य' के संपादकों, से भी उसके प्रकाशन की चर्चा हुई। किसी कारणवश उस समय साहित्य के संपादक उसे स्वीकार नहीं कर सके। 'भारती' का दावा सबसे पहला था, क्योंकि प्रकाश मे आनेवाली, उसकी एकमात्र रचना 'बड़ी दीदी' उसी में छपी थी। कहना चाहिए कि 'भारती' के संपादक सबसे पहले शरत् को प्रकाश में लाए थे। मुकर्जी महाशय ने 'चरित्रहीन' के वे अंश स्वयं पढ़े और फिर स्वर्णाकुमारी देवी को दिए । वह तो पढ़कर गद्गद हो उठी। बोली, “रचना चमत्कार है। लेकिन पूरी पढ़ लेने पर ही कुछ कहा जा सकेगा। उसके बाद मुझे देना। मैं इसके लिए 100 रुपये पेशगी दे सकती हूं।”
इस प्रस्ताव से शरत् तनिक भी उत्साहित नहीं हुआ। कहा “यह रचना जल्दी में पूरी नहीं हो सकती, बहुत सोच समझकर लिखता हूं।” लेकिन किरणमयी की कथा जब लिखी जायेगी तब क्या यह एक महिला द्वारा सम्पादित साहित्य में प्रकाशित करने योग्य रह जायेगी ? शायद नहीं।”
अब केवल यमुना ही शेष रह गई थी। निश्चय हुआ कि इसे धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया जाए। फणीन्द्रनाथ पत्रिका में पृष्ठ संख्या बढ़ाने के लिए राज़ी हो गए। लेकिन अभी तो रचना पढ़ी नहीं हुई थी। इसलिए यमुना में उसकी एक पुरानी कहानी 'बोझा' प्रकाशित हुई । 'बड़ी दीदी' के बाद उसके नाम से किसी पत्र में प्रकाशित होने वाली उसकी यह सर्वप्रथम रचना थी। लेकिन इसके लिए भी किसी ने उससे नहीं पूंछा था था। सुरेन्द्रनाथ से लेकर सौरीन्द्रमोहन ने यह रचना 'यमुना' के लिए दे दी थी इस बात से शरत् बहुत दुखी हुआ। उसने तुरन्त अपने मित्रो को लिखा, “अब बिना मेरी अनुमति के मेरी कोई पुरानी रचना प्रकाशित नहीं की जानी चाहिए।”
वह अपनी पुरानी रचनाओं को अच्छा नहीं समझता था और उसके मित्र उन्हें प्रकाश में लाने के लिए कटिबद्ध हो चुके थे। लेकिन यह समझ नहीं आता कि पांच वर्ष पूर्व 'बड़ी दीदी' प्रकाशन के अवसर पर वे सब लोग क्यों चुप रहे। न तो उन्होंने शरत् की तलाश की और न स्वयं शरत् ने ही लिखने की पहल की। क्या वह आश्चर्य की बात नहीं कि 'बड़ी दीदी' के अभूतपूर्व स्वागत और रवीन्द्रनाथ की प्रशंसा की बात सुनकर भी नई रचनाएं लिखने या पुरानी छपवाने की प्रवृत्ति उसमें नहीं जागी ।
ऐसा लगता है तब तक भी वह अपने लिखने के बारे में आश्वस्त नहीं हा पाया था। संभवत: रवीन्द्रनाथ द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर उसके मन में, उनके जैसा लिखने की प्रवृत्ति और भी सघन हो उठी। कुछ दिन पूर्व ही उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल चुका था। और उनकी इस अभूतपूर्व ख्याति ने देश का मस्तक ऊंचा किया था। शरत् के सामने वही ऊंचा लक्ष्य रहा होगा। 'चरित्रहीन' की रचना के पीछे साधना का जो इतिहास है, वह उसकी इस कामना का साक्षी है।
इस बार कलकत्ता आने के बाद उसका अज्ञातवास प्रायः समाप्त हो चुका था । और वह अपरिचय के अन्धकार से बाहर आ गया था। होनहार लेखक के रूप में उसकी प्रतिष्ठा भी हो चुकी थी। यहां तक कि उसने नौकरी छोड़ देने का विचार कर लिया। कहा, “यदि लिखने से सौ रुपये मासिक का भी प्रबन्ध हो सकता है, तो मैं नौकरी छोड़कर कलकत्ता आ बसूंगा।"
'भारती' की संपादिका स्वर्णकुमारी देवी और ‘यमुना' के संपादक फणीन्द्रनाथ पाल इतना प्रबन्ध करने के लिए सहमत हो गए। पाल महाशय शरत् के पूर्ण भक्त हो गए थे। उसके लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उनकी मां भी उससे स्नेह करने लगी थीं। सामने बिठाकर खाना खिलाती थीं। अपनी मां की मृत्यु के 15-16 वर्ष बाद उसे ऐसा प्यार मिला था। उसने कहा, “फणीन्द्र, तुम्हारी मां के रूप में मानो मैंने अपनी मां का स्नेह फिर पा लिया है।”
उसके रंगून लौट जाने पर जब उसकी बीमारी की सूचना मिली तो मां कुशल- समाचार पाने को बड़ी व्यग्र हो उठी। तब फिर शरत् ने फणि को लिखा, “आपकी माता मेरे बारे में पूछताछ करती हैं, मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। उनसे कह दें, मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। मेरे बारे में पूछताछ करनेवाला संसार में एक प्रकार से कोई नहीं है। इसलिये अगर कोई मेरे बारे में भला-बुरा जानना चाहता है तो सुनकर हृदय कृतज्ञता से भर जाता है। मेरे जैसे हतभाग्य संसार में बहुत ही कम हैं ....
इसके कुछ दिन बाद ही, उसने रंगून से अपने मित्र प्रमथनाथ को एक पत्र लिखा। उससे भी स्पष्ट होता है कि उसने अपनी शक्ति को पहचान लिया था और नियमित रूप से लिखने का मार्ग प्रशस्त हो गया था। उसने लिखा, “प्रमथ, एक अहंकार की बात कहता हूं। माफ करना, यदि करो तो कहूं। मुझसे अच्छे उपन्यास और कहानी रवि बाबू को छोड़कर और कोई नहीं लिख सकेगा। जब यह बात समझ लो, उसी दिन मुझसे लिखने के लिए कहना, उससे पहले नहीं । तुमसे मेरा यही अनुरोध है। इस विषय में मैं किसी की झूठी खातिरदारी नहीं चाहता, सच्ची चाहता हूं।”
मामा उपेन्द्रनाथ को और भी स्पष्ट शब्दों में लिखा, “मुझसे अच्छा मर्मज्ञ आज के युग एक रवि बाबू को छोड़कर और कोई नहीं है। यह मत सोचना कि मैं गर्व कर रहा हूं। लेकिन चाहे मेरी निर्भरता कहा, चाहे गर्व ही कहो, मेरी धारणा यही है।”
और उसकी यह धारणा अन्त तक बनी रही। बहुत वर्षों बाद कथाशिल्पी शरत्चन्द्र ने कहा था, “मेरी उमर हो गई। रवीन्द्रनाथ की भी उमर हो गई। बीच-बीच में आशंका होती है। कि इसके बाद बंगला भाषा के उपन्यास साहित्य का स्थान शायद नीचा हो जाए।”
इसी समय बंगला साहित्य जगत् में एक क्रान्तिकारी घटना का सूत्रपात हुआ। सूचना प्रसारित हुई कि शीघ्र ही 'भारतवर्ष नाम का एक पत्र प्रकाशित होने जा रहा है। सुप्रसिद्ध नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय उसके संपादक मनोनीत हुए और उसका वार्षिक मूल्य रखा गया 6 रुपये। उस समय तक किसी भी पत्रिका का वार्षिक मूल्य तीन रुपये छः आने से अधिक नहीं था। अपने मूल्य मात्र से ही 'भारतवर्ष' ने विस्मय और कौतूहल पैदा कर दिया।
कुछ वर्ष पूर्व कलकत्ता में 'इवनिंग क्लब' नाम से एका सांध्य समिति स्थापित हुई थी। इसके सभापति थे द्विजेन्द्रलाल राय और संपादक पद पर प्रतिष्ठित हुए प्रमथनाथ भट्टाचार्य । प्रसिद्ध प्रकाशक गुरुदास चट्टोपाध्याय एण्ड सन्स के मालिक श्री हरिदास चट्टोपाध्याय इसके प्रधान सभ्य और पृष्ठपोषक बने। दूसरे सदस्यों में अनेक गण्यमान्य विद्वान थे। प्रमथ ने प्रस्ताव किया कि समिति की ओर से एक पत्रिका प्रकाशित की जाए।
अध्यक्ष द्विजेन्दलालराय ने कहा, “लेकिन इससे तो क्लब की हानि होगी। जब सदस्य संख्या सौ तक सीमित हो तब पत्र निकालना मूर्खता है।”
दूसरे सदस्यों ने भी उनका समर्थन किया। किन्तु प्रमथ बाबू तो हठी थे। न सही क्लब की ओर से लेकिन पत्र तो निकल सकता है। बस, उन्होंने निश्चय किया कि राय महोदय के संपादकत्व में 'भारतवर्ष' नाम का एक पत्र प्रकाशित किया जाए। उन्होंने अपने सहपाठी और मित्र श्री हरिदास चट्टोपाध्याय को शामिल होने के लिए राज़ी कर लिया। विश्वास दिलाया कि यदि शरत् को लिखने के लिए विवश करने में सफल हो गया तो फिर चिन्ता की कोई बात नहीं। कोई दूसरी पत्रिका इसका मुकाबल नहीं कर सकेगी।
शरत् की लेखनी में जब उसके मित्रों को इतना विश्वास था तब यदि उसके मन में रवीन्द्रनाथ के जैसा लिखने की भावना पैदा हुई तो स्वाभाविक ही है। प्रमथ उसके परम मित्र थे और उनके दल के पास धन भी था। इस बात से फणीन्द्र पाल डर गए। शरत् यदि 'भारतवर्ष' में लिखने लगा तो 'यमुना' का क्या होगा? क्या वह बिना पैसा लिए यमुना' में लिख सकेंगे?
शरत् को जब इस बात का पता लगा तो उसने फणि को विश्वास दिलाया कि वह 'यमुना' में लिखेगा। पैसे का गुलाम नहीं होगा। 'भारतवर्ष' का तो प्रकाशन भी अभी नहीं हुआ है।