“यही हैं ?” आश्चर्य से इन्दु ने पूछा ।
"हां" उपेक्षा से गर्दन हिलाकर सुरेखा ने उत्तर दिया ।
" अरे !" इन्दु ने एक टुकड़ा समोसे का मुंह में रखते-रखते कहा – “अच्छा हुआ सुरेखा तुमने मुझे बता दिया, नहीं सच जानो मैं तो कहने वाली थी कि मिश्रानीजी समोसे तो तुम बढ़िया बना लेती हो ।”
"ऊंह तो क्या होता — इन्हें कोई देखनेवाला इससे अधिक समझ भी क्या सकता है ? दिन भर हाथ में झाडू लिये घर की सफाई में जुटी रहती है। पोज़ीशन का ख्याल तो इन्हें कतई है ही नहीं, मुझे तो बड़ी शरम लगती है इन्हें अपनी नन्द बताते ।” " शायद गांव में रही है ?"
"कोई भी नहीं” – सुरेखा ने मुंह बिचकाकर कहा, – “ शहर में पैदा हुई, शहर में पली, विवाह बेशक गांव में हुआ, किन्तु वहां रही कितने दिन ! जभी विधवा हो गई और तब से बारह साल होने आये यहीं हैं। पर इस घर का तो वातावरण ही बिगड़ा हुआ है । लीला ही को लो, उसे कोई कहेगा भला कि 'नाइंथ' में पढ़ती है । नारायण और जगदीश को तो कुछ पूछो मत, ढंग से कपड़े पहनने भी नहीं आते”
" पर मिस्टर गिरीश तो ऐसे नहीं हैं । "
"वह तो इलाहाबाद में रहे हैं । नहीं तो शायद अपनी इन जीजी रानी के 'अण्डर' में रहकर वह भी 'बछिया के ताऊ' ही रह जाते... ।”
इन्दु धीरे-धीरे हंसने लगी ।
बाहर से लक्ष्मी ने पुकार कर कहा - "बहू ! कुछ चाहिए तो मोहना से कह देना । मैं ज़रा जप करने बैठती हूं ।”
सुरेखा के माथे पर बल पड़ गए। बोली - "कितनी बार कह चुकी हूं कि मुझे बहू न कहा करो, मानती ही नहीं !"
"तो क्या हरज़ है, कहने दे। लेकिन यह ठीक दोपहर को जप कैसे होगा ?"
" इनकी लीला ही निराली है। यही जानें” – सुरेखा ने उपेक्षा से कहा – “ईश्वर जाने किस धातु की बनी है। दिसम्बर की इस भरी सरदी में चार बजे सवेरे बर्फ - जैसे ठण्डे पानी से नहाती हैं । फिर तीन घण्टे जप करती हैं। आज मोहना को बुखार था । इसीसे गाय की सानी-पानी के झंझट में आधा जप ही कर पाई थीं ।"
इन्दु ने आश्चर्य से लम्ब सांस छोड़ी — “बाप रे ठण्डे पानी से नहाना !”
“बस कुछ पूछे मत । चाहे सारा दिन बीत जाय, पर जबतक उस शालिग्राम की बटिया को दो लोटे जल में डुबकी न दे लें, मजाल क्या जो पानी की एक बूंद भी गले के नीचे उतारती हो। दो-दो नौकर हैं, मिश्रानी है, फिर भी खिटपिट कर सारा दिन जाने किन कामों में गंवा देती हैं और हर तीसरे दिन एकादशी, पूरनमासी के व्रत करती रहती हैं.........'
"तेरे रंग-ढंग तो इन्हें काहे को पसन्द आते होंगे” – इन्दु ने मुस्कराकर पूछा ।
" न आवें, मेरी बला से। यहां परवाह कौन करता है ! मैं तो वही आठ बजे सो कर उठती हूं, तबतक सब काम हुआ पाती हूं, मेरी चाय एक टेबिल पर रखी होती है--बात यह है कि होती कोई अनपढ़ गंवार लड़की, तो यह उसे ज़रूर दबा लेतीं..........!”
“पर यहां तो श्रीमती सुरेखा रानी आई. ए. से पाला पड़ा है न इन्दु बीच में ही बोल उठी 'चल' कुकर बहुत अच्छी है, मुझे तो फायदा ही है !"
"फायदा क्या मिश्रानी तो रखनी ही पड़ती है । पर जबतक चार तरकारियां अपने हाथ से न बना लें, तबतक इन्हें चैन थोड़े ही पड़ता है। मुझे तो बड़ा गुस्सा आता है, सारे नौकरों की आदतें ख़राब कर दी हैं, आधा काम बंटा लेती हैं। उनका ! दो-दो नौकर हैं, फिर भी जगदीश और नारायण को अपना दोपहर का भोजन करने स्कूल से आना पड़ता है। माना स्कूल दस कदम पर है। लेकिन नौकर होते आखिर किस मर्ज की दवा हैं। लीला को देखो संस्कृत के सैंकड़ों श्लोक रटे बैठी है। तुलसी और सूर को घोटकर पी गई है। लेकिन इंग्लिश इतनी भी नहीं कि एक मामूली लेटर तो लिख ले....!"
इन्दु थोड़ी देर और बैठी । फिर चली गई। मामा के यहां आई हुई थी, इसलिए सुरेखा से मिलने चली आई। पारसाल तक दोनों एक ही कालिज में पढ़ती रही थीं ।
"वे कौन होती हैं नौकरी से हटानेवाली । मैं न चाहूंगी, तो वे कैसे निकाल देंगी तुम्हें ?" सुरेखा ने प्लेट एक तरफ हटा कर रुमाल से मुंह पोंछते हुए कहा । "सो तो ठीक है बहूजी — "मिश्रानी का स्वर धीमा पड़ा - " पर बहूजी हुकम तो वह ऐसा ही चलाती हैं-भला इतना परहेज़ कौन निभा सकता है ? तुम्हें तो जैसे वे खेत की मूली भी नहीं गिनतीं ।"
"नीचे तो आओ ज़रा — !”
सुरेखा की इच्छा हुई न जाय। फिर जाने क्या सोचकर शीशे के सामने आ खड़ी हुई । बाल संवारे । मुंह पर ज़रा-सी क्रीम मली और नीचे उतर आई ।
"क्या काम है ?" कुछ तिनककर, कुछ ठसककर जैसे बोली ।
"काम तो कुछ नहीं,” लक्ष्मी गाय के लिए दाना दलते-दलते बोली - "संध्या- बेला बहू-बेटियों को लेटे न रहना चाहिए। आरती का समय भी होने आया । "
" आरती !” – सुरेखा तिनककर बोली “बस इसीलिए मुझे कच्ची नींद जगाकर सिर में दर्द कर दिया । "
सारा चौका दुबारा धुला, चूल्हा पोता गया । फिर गंगाजल छिड़कने के बाद चूल्हे में आंच जली । तवे को चिमटे सहित उठाकर लक्ष्मी ने दूर फेंक दिया। और मिश्रानी से बोली “अब से मेरी कच्ची रसोई में कभी हाथ मत लगाना । समझी !”
मिश्रानी चिड़ उठी — “जीजी ! तो मुझपर क्यों बिगड़ रही हैं ? बहूरानी ने कहा तो मैंने अण्डे बना दिए ।"
"बहूरानी ने कहा और तूने बना दिए । भली ब्राह्मणी है तू तो । यह काम मोहना नहीं कर सकता था क्या ? और फिर रसोईघर में बनाने की क्या ज़रूरत थी ? अलहदा अंगीठी रख कर क्यों न बनाए ।"
मिश्रानी मुंह भारी करके ऊपर चली गई ।
सुरेखा बैठी हुई आमलेट खा रही थी । नीचे की कुछ-कुछ भनक उसके कानों भी पड़ गई थी ।
"क्या हुआ मिश्रानीजी ?"
"हुआ क्या बहूरानी, तुम मेरी नौकरी छुड़वाओगी । देखो, जीजी कितनी बिगड़ रही हैं ?'
"वे कौन होती हैं नौकरी से हटानेवाली । मैं न चाहूंगी, तो वे कैसे निकाल देंगी तुम्हें ?" सुरेखा ने प्लेट एक तरफ हटा कर रुमाल से मुंह पोंछते हुए कहा । "सो तो ठीक है बहूजी — "मिश्रानी का स्वर धीमा पड़ा - " पर बहूजी हुकम तो वह ऐसा ही चलाती हैं-भला इतना परहेज़ कौन निभा सकता है ? तुम्हें तो जैसे वे खेत की मूली भी नहीं गिनतीं ।"
सुरेखा झमक कर भुनभुनाती हुई नीचे उतरी। लक्ष्मी उस समय भारी मुंह किए तवे पर कूटू के परांवठे उतार रही थी; आज पूरनमासी का व्रत जो रखा था । "जीजी !” – सुरेखा ने तीखे स्वर में कहा – “क्या कह दिया मिश्रानी को ? ऐसे कहीं नौकर टिकते हैं !"
लक्ष्मी सन्न रह गई । इतना कड़ा स्वर आज पहली बार ही उसने सुना था । यकायक वह कुछ सहम-सी गई ! एक क्षण चुप रहकर बोली, “टिके या न टिके, पर मैं तो अपना धर्म-कर्म नष्ट नहीं कर सकती !”
"नानसेन्स ! बड़ा सुन्दर धर्म है— हाथ लगते ही छुई-मुई हो जाय !"
लक्ष्मी बहुत नहीं बोलती है। इस घर में वह जन्म से ही है । अम्मा और बाबूजी ने कभी उसकी बात नहीं टाली । उसकी बात सदैव रखी गई है । रखने की बात भी थी । इसी घर और घर के प्राणियों के पीछे अपनी ससुराल के भरे-पूरे घर की उपेक्षा कर दी थी उसने । इन्हीं छोटे भाई-बहनों के स्नेह से बंधकर वह अपनी जान को जान नहीं समझती थी । उसीके हाथों से सब पले थे। दो दिन की आई बहू के वचन तीर से लगे । तवे का परांवठा उतार कर वह वैसे ही रसोई छोड़कर उठ गई ।
सुरेखा ऊपर चली जा चुकी थी ।
दोपहर होने को आई । लीला ने ऊपर आकर कहा – “भाभी, नीचे जीजी बुला रही है !"
"क्यों ?"
"कोई दो-तीन औरतें आई हैं !”
"अच्छा ! अभी मेरी 'मुंह दिखाई' से उनका मन नहीं भरा ! चल आती हूं !" और सुरेखा साड़ी बदलने लगी ।
पूरे आधे घंटे में ड्रेस करके सुरेखा नीचे उतरी ।
“बहू, यह तुम्हारी चाची लगती हैं, और यह भाभी' - लक्ष्मी ने स्निग्ध स्वर में कहा, "पैर छू लो इनके !"
सुरेखा के भवों पर बल पड़ गये । दमभर चुप रहकर धीरे से उन स्त्रियों से बोलीं, – “नमस्ते !" फिर कुर्सी पर कोहनी टेक कर खड़ी हो गई ।
लक्ष्मी का मुंह लाल हो गया । सुरेखा दो मिनट खड़ी रही । फिर लीला से बोली-"लीला चलती हो हमारे साथ, मिसेज़ शुक्ला के यहां जाना है मुझे ।" लीला चुप रही । उसने बहिन की ओर देखा । लक्ष्मी से अब रहा न गया ।
भारी स्वर में बोली, " वह न जायगी ।"
"जायगी कैसे !" सुरेखा ने तिनक कर कहा, – “ बाहर की हवा लगेगी तो लड़की बिगड़ न जायगी !"
"यही समझ लो, " - लक्ष्मी ने वैसे ही स्वर में उत्तर दिया, "जब हमारे घर दो स्त्रियां बैठी हैं, तो उन्हें छोड़कर वह कहीं नहीं जायगी ।"
कुछ लोगों को दूसरों की बुराई करने में मज़ा आता है । उस बुराई भलाई में अपना निजी स्वार्थ चाहे न भी हो, किन्तु बिना इधर की उधर लगाए जैसे उनकी रोटी हज़म नहीं होती । मिश्रानी कुछ ऐसे ही जीवों में से थी । उसे लक्ष्मी से चिड़ थी । जबतक वह नियमपूर्वक सुरेखा से उसकी बुराई न कर लेती, उसे कल न पड़ती यूं तो लक्ष्मी अब सुरेखा से अधिक सम्पर्क ही न रखती थी । अपने काम से काम । फिर भी सुरेखा को ननद का कोई भी काम हो, यहां तक कि उठना-बैठना सभी कुछ गंवारपन दिखाई देता था ।
लक्ष्मी मोहना को गाय के लिए भूसा देने गई थी । मिश्रानी ने अकेला पाकर सुरेखा को सुना कर कहा - " बिना पैसे की गरमी पाए भला किसीमें इतनी तेजी हो सकती है ? और जब सदा से ताली - कुंजी इन्हींके पास रही हो !”
अकस्मात् मिश्रानी का मुंह फ़क़ हो गया । लक्ष्मी की धोती का आंचल दीख पड़ गया था उसे ! सुरेखा ने उसे चुप होते देख मुड़कर देखा और सिक्त स्वर में बोली- “छिप कर किसी की प्राइवेट बातें सुनने की सभ्यता इसी घर में देखी है ।"
लक्ष्मी ने सतेज स्वर में उसी तीव्रता से उत्तर दिया----" और छिप कर दूसरों की बुराई करना शायद आजकल की शिक्षा में शामिल है। मैं बातें सुनने नहीं, तुमसे चाय पीने को पूछने आईं थी ।” — और कमर से तालियों का गुच्छा निकाल कर उसने झम से कमरे के फर्श पर फैंक दिया – “लो सम्भालो अपना ख़ज़ाना ।”
“गिरीश, मैं थोड़े दिन के लिए जगतपुर जाऊंगी । रमेश की चिट्ठी आई है कि बहू बीमार है।"
"तो जीजी !” गिरीश ने इतस्ता करके कहा - " फिर यहां का काम कैसे चलेगा ?"
“सब चल जायगा । अब तो बहू आ गई हैं न, आप सम्भाल लेंगी ।" बहू यानी सुरेखा घर चलाएगी। गिरीश चुप हो गया।
गिरीश की चुप्पी चिटक कर सुरेखा को जैसे चिनगारी सी लगी, बोली – “नहीं जीजी, जाना मत हरगिज़ भी, नहीं तो देख लेना इस घर में कोई जीता न बचेगा ।"
लक्ष्मी ने उत्तर नहीं दिया । अपने ठाकुरजी को पोटली में बांध कर रखने गिरीश आफिस चला गया ।
और दो बजे की ट्रेन से लक्ष्मी मोहना को लेकर अपनी ससुराल चली गई ।
साढ़े तीन बजे बच्चे स्कूल से लौटे। घर में एक अस्तव्यस्तता - सी फैली थी । लीला ने रसोईघर झांका, पूजा की कोठरी देखी और फिर बैठ कर रोने लगी उसकी जीजी कहीं नहीं थी ।
सुरेखा माथे पर हाथ रखे लेटी थी । उसे रोते देखकर बोली—“इतनी अधिक भावुकता संचित है, तो फिर उपन्यास लिख डालो न । कुछ काम ही आएगी ।” लीला भाभी के भय से चुप हो गई । नारायण और जगदीश रसोईघर में बैठे सवेरे की रोटी खा रहे थे, क्योंकि आज जीजी तो थी नहीं, जो पहले से ही ताज़ा हलुवा बनाए रखती ।
नौकर ने आकर पुकारा- "बहूजी ! गाय की सानी का सामान निकाल दो ।" सुरेखा ने ताली फेंक कर कहा - "जा निकाल ले ।”
नौकर घबरा गया, बोला--"जी, सानी तो मोहना करता था, मुझे मालूम नहीं कि क्या- क्या देना होगा ? "
सुरेखा अजब मुश्किल में फँसी । गाय का भूसा - दाना तो दूर, उसने आज तक किसी को रसोई का आटा-दाल तो दिया ही न था; किन्तु अपनी यह अज्ञता वह नौकर को कैसे दिखाती । “अच्छा ठहरो” कहकर वह ऊपर पहुंची। पुस्तकों की आलमारी में "हमारे पशु” की एक प्रति पड़ी थी, उसे ढूंढ निकाला और पढ़ने लगी ।
लीला ने तब तक दाना और भूसा निकाल कर नौकर को दे दिया था, जब कि पूरे आध घण्टे बाद सुरेखा ने पुस्तक से एक सूची उतारी और लीला को पुकार कर कहा, "इतना - इतना सामान गनेशी को दे दो ।"
लीला ने एक बार परचा पढ़ा, फिर दीवार की ओट में मुंह करके हंसने लगी ।
"हंसी क्यों ?” सुरेखा ने कुछ गुस्सा होकर पूछा, “कौन बात गलत है ? जरा बताओ न ।”
"यह सेर भर बिनौले खिला कर क्या गाय को मारोगी ?"
लीला ने किसी तरह हंसी बन्द कर उत्तर दिया – “ गाय के सब थन सूज जायंगे ।”
"जी हां, बस एक आप ही तो अक्लमन्द की दुम हैं । वह इतना बड़ा राइटर तो गधा ही है ।" सुरेखा ने तेजी से कहा और फिर झमक कर गनेशी को और कहा—“पांच सेर भूसा, सेर भर दाल, सेर भर बिनौले ।”
नौकर ने अचकचा कर पूछा ।
"हाँ, हाँ सेर भर ! सुनाई नहीं देता क्या ।” सुरेखा का स्वर बहुत कड़ा हो गया
लीला ने नौकर को आंख मारकर इशारा किया। वह सुनकर चुपका चला
लीला टेबिल साफ करने लगी। गिरीश के आने का समय जो हो गया था । इतने में नीचे से मिश्रानी ने पुकारा--" बहूजी ! आज बाबूजी को चाय के साथ क्या दोगी ? मठरी तो परसों ही खत्म हो गई थी ?"
"कल क्या दिया था ?” सुरेखा ने खीज कर पूछा ।
"कल तो जीजी ने ताज़े समोसे बना दिए थे।"
“अब”--सुरेखा कुछ सोचकर बोली – “तुम चाय बनाओ । आज बिस्कुट रख देंगे ।” फिर बड़बड़ाई — “सारे घर की आदत खराब कर गई हैं महारानीजी ! किसी के गले से बाज़ार का मीठा नमकीन भी नहीं उतरता और ज़रा इन बच्चों को तो देखो कि सवेरे की रोटी तो खाई, पर बाजार से कुछ न लाया गया ।"
गिरीश आ गया । कपड़े उतारने पर जब चाय सामने आई, तो प्लेट में बिस्कुट और थोड़ा हलवा रखा देखा, बोला – “यह क्या लीला ? आज नई बात क्यों ?"
लीला जैसे शर्म से पानी-पानी हो गई। धीरे से बोली "भइया ! जीजी तो हैं नहीं, और मिश्रानी तो वही अपने समय से आई; सो मैंने जल्दी से हलवा ही कर लिया ।
गिरीश को मीठा नहीं भाता, न बिस्कुट ही । वह चुपचाप खाली चाय पीकर उठ गया । सुरेखा एक तो घण्टे भर तक गाय के खल-भूसे की खोज में अध्ययन करते-करते थक चुकी थी, उसपर गिरीश का सब छोड़कर उठ जाना । — पूरी जलती कढ़ाई का बैंगन हो गई । बिना चाय पिए ही उठ पड़ी ।
“तो जीजी चली ही गई......." -- गिरीश ने सोचा और चुपचाप पलंग पर उदास मन लेट रहा ।
अब मिश्रानी की पूरी आफत आ गई। गिरीश चार शाक- तरकारियों के बिना टुकड़ा नहीं तोड़ता था । लक्ष्मी ने कभी सादी थाली परोस कर खिलानी नहीं जानी, उसपर दही-बड़ा, अचार, चटनी अलग, मिश्रानी खाली फुलके सेंक देती थी। बहुत हुआ तो दो-एक सब्जी भी उतार देती । संध्या को भी दूध चढ़ाकर चौका छोड़ देती थी और लक्ष्मी स्वयं ही मीठा मिलाकर सबको पिलाती और बचा हुआ जमा देती थी ।
अब सब काम मिश्रानी पर था। दो दिन में ही उसके हाथ-पैर फूलने लगे- सुरेखा को भी कम मुसीबत न थी, दम दम पर नौकर कहता - "बहूजी आज यह नहीं है, आज वह नहीं है, धोबी का हिसाब जोड़ दो और बनिये के सामान के पर्चे पर दस्तखत कर दो ।"
हर दूसरे दिन मिश्रानी कहती - "बहूजी घी निबट गया... लकड़ी नहीं है ।"
गिरीश ने अलग उसका नाक में दम कर रखा था। वह हमेशा का ही लापरवाह है। अपनी किसी चीज़ की सम्हाल नहीं कर पाता, अब रोज आफिस जाने के टाइम पर पुकार पड़ती- “लीला ! ज़रा मेरी कमीज़ में एक बटन तो लगाओ, और यह लो मेरा रुमाल कहाँ गया, सुरेखा ज़रा एक रुमाल तो निकाल दो और हत्तेरे की एक इलास्टिक ही गायब है..... "
पूरे तीन घण्टे में सुरेखा ने मीमू तैयार किया पाँच पृष्ठ रंगकर । उफ सिर में म्हें आदमी किसने बनाया था.......?”
तब गिरीश धीरे से कहता - "क्या वतायें हमारी सम्हाल तो जीजी कर लेती थीं ।"
और सुरेखा के आग जो एड़ी से लगती, तो चोटी पर जाकर बुझती - "तो फिर जीजी को ही घर में....। मुझे क्यों लाये थे....।”
उस दिन गिरीश जब आफिस चला गया, तब सुरेखा काग़ज़ - कलम लेकर मीमू बानने बैठी । अब वह हमेशा का झगड़ा निपटा देगी; जिस मौसम में जो तरकारियां होती हैं, उन्हें इस हिसाब से बांटेगी कि कम-से-कम तीन दिन तक पहली सब्जी न बन पाये । गनेशी को पुकार कर पूछा – “गनेशी इन दिनों क्या-क्या मिलता है बाजार में ?"
“जी”—कहकर गनेशी ने सोचा, "इन्हें इतना भी नहीं मालूम ?" फिर बोला 'आलू, गोभी, मटर, शलगम ।”
" एक-एक करके बोलो जी" नौकर चुप हो गया——
पूरे तीन घण्टे में सुरेखा ने मीमू तैयार किया पाँच पृष्ठ रंगकर । उफ सिर में दर्द होने लगा उसके । गनेशी ने स्वस्ति की सांस ली और नीचे भागा, किन्तु सुरेखा को अभी छुटकारा कहाँ । गाय के बच्चा होनेवाला है, ग्वाला कह रहा था; सो अभी 'पशु-चिकित्सा' आदि देखने थे। एस्प्रीन की एक टेबिलैट निगलकर वह फिर कुर्सी पर आ बैठी । अभी दो ही पृष्ठ पढ़े थे कि नीचे कि चिल्ल-पुकार ने उसका ध्यान भङग कर दिया । गनेशी चीख-पुकार रहा था – “बहूजी ! लाली लौट आई !”
सुरेखा पुस्तक पटक कर नीचे उतरी । देखा गाय बुरी तरह डकरा रही थी, मछली-सी तड़प-तड़प कर पटखियाँ ले रही थी । सुरेखा को तो फिट पड़ जाने का सन्देह होने लगा अपने ऊपर "राम करे मर जाय यह मोहना ! गया सो लौटा ही नहीं !”
ग्वाला पास ही खड़ा था । बोला, – “बहूजी ! बुलाओ किसी को नहीं तो लाली बचती नहीं दीखती, पेट में ही उलटा हो गया है बच्चा !"
“क्या करूँ ?” – सुरेखा सोचने लगी ।
"बहूजी ! रामचरन को बुला लूँ ?”
“हिश ! वह क्या करेगा ? ठहरो मैं डाक्टर चटरजी को फोन करती हूँ- बराबर में टेलीफोन इन्सपैक्टर रहते थे। सुरेखा ने वहीं से फोन किया । डाक्टर नहीं मिले अब बड़ी मुश्किल पड़ी ।
ग्वाला रामचरन को बुला लाया ।
रामचरन मुहल्ले में मवेशियों का डाक्टर था --- वे पढ़ा-लिखा; उसका तो यह पुश्तैनी पेशा था । उसके खान्दान का हरएक बाप अपने बेटे को इसे सिखा जाता था और आशीर्वाद के रूप में हाथ शफा दे जाता था। सो रामचरन के हाथ में भी शफा थी । घरेलू दवाइयाँ जानता था, अक्ल से नहीं विश्वास से काम लेता था। देख-भाल कर रामचरन ने कहा—“गरम चीज़ देनी होगी, गैया शीत में आ गई है। थोड़ा गुड़ मँगाओ, उसे पकाकर........."
"गुड़-घी ! इससे तो ब्रांडी ही ठीक रहेगी, गर्मी ही तो पहुंचानी है न, सो ब्रांडी फौरन पहुंचाएगी -- और फिर उसके नशे में इसका दर्द भी हल्का पड़ जाएगा......”
बात-की-बात में एक बोतल ब्रांडी भी आ गई । और आधी बोतल बलात् लाली के गले से उतार दी गई.... ! उफ....! लाली ने दस मिनट में सारा घर सिर पर उठा लिया । ग्वाले और रामचरन की आफत आ गई। सुरेखा का जी कह रहा था कि घर छोड़कर भाग जाय और इस मोहना और जीजी को.......! राम-राम करके लाली ने बछड़ा दिया । कई दिन बाद स्वस्थ हुई । ब्रांडी ने बुरी दशा जो कर दी थी ।
आज मिश्रानी ने जवाब दे दिया । "यह रोग मेरे बस का नहीं है, आठ रुपये में इतना काम ! सारा दिन यहां खप जाता है। "
गिरीश ने नाराज़ होकर कहा – “तो जाओ न ! हमें क्या नौकर नहीं मिलेंगे ?"
सुरेखा भी मिश्रानी से खुश नहीं थी । इतना सामान आता था घर में, फिर भी हर समय तङगी बनी रहती थी । उसने भी कह दिया – “जाओ, तुम नहीं होगी, तो क्या हमें खाना न मिलेगा ?"
मिश्रानी कहाँ की भली थी ! जब नौकरी ही छोड़नी, तब दबे क्यों ? बोली- " मिला बस खाना ! दाल में नमक छोड़ना तो आता नहीं ।"
गज़ब ! सुरेखा तिलमिला गई ।
गिरीश ने कोट पहनते - पहनते कहा--"अच्छा तो सुरेखा आज शाम को होटल में खा लेंगे। कल तक कोई मिसर मिल ही जायगा, क्या बताएँ लीला भी कैसे समय बीमार पड़ी है ।"
सुरेखा अब सह नहीं पाई । भरे हुए स्वर में बोली- “होटल - वोटल की बात गलत है । चार आदमियों का खाना ही क्या ? सब बन जायगा-"
जब गिरीश आफिस चला गया, तब सुरेखा सागूदाना पकाने बैठी । डाक्टर ने लीला को बताया था । जाने कैसा सागूदाना था कि दूध में पड़ते ही जम गया । चमचा मारते-मारते सुरेखा तङग आ गई; पर उसमें से पड़ी गुठलियें न खुलीं, न खुलीं । गरम-गरम कई छींटे सुरेखा के मुँह पर उचट कर आ पड़े । चीखकर नौकर से बोली- “गधे ! कैसा सागूदाना लाया है ? नकली है एक दम !”
गनेशी सिटपटा कर बोला- “जी ! वही तो है, जो परसों छोटी बीबी ने मुन्ने के लिए पकाया था-"
सुरेखा के तब धीरे से होंठ हिले - “पुराना हो गया शायद इसी से – " लीला ने जब सागूदाना देखा, तो हँसी से उसका बुरा हाल हो गया । जैसे-तैसे दो चम्मच खाए, फिर कटोरा पलंग के नीचे सरका कर लेट गई ।
सुरेखा दोपहर से ही रसोईघर की शोभा बढ़ा रही थी, पाक-शिक्षा, पाक-चन्द्रिका, गृहणी-शिक्षा, की जिल्दें क्रम से खुली हुई थीं और हाथ में तराजू-बाट। और सब सामान तोल कर हिसाब से वह ऐसा भोजन तैयार करेगी कि खानेवाले भी उँगलियाँ चाटें । सेर भर आलू में दो तोला नमक, सवा तोला धनिया, एक तोला हल्दी और. .......पर हवा के झोंके से पृष्ठ हिल गये । सुरेखा तराजू रख कर पुस्तक फिर सम्हाली ।
तीन बजे तक उसने सब तरकारियों के मसाले और समोचे का सामान छांट कर रख लिया । साढ़े तीन बजे स्टोव और अँगीठी सुलगा कर वह रसोई बनाने लगी । बड़ी मुसीबत थी । प्याज़ काटने से आँखें बीरबहूटी बन गई थीं; मसाला अलग हाथों में जलन पैदा कर रहा था, ऐनक की कमानी स्टोव की तेजी से गरम हो उठी तो उसे उतारते समय हाथ की चिकनाई से फिसल कर कढ़ाही में जा पढ़ी -! उफ बैठे-बिठाये सोलह रुपये का यह नुकसान हो गया ।
सुरेखा ने अफ़सोस से दोनों हाथ मले । पर अब हो ही क्या सकता था । साड़ी में हल्दी के धब्बों की तो कुछ पूछो मत – इतनी गन्दी धोती उसने अपनी 'लग्न' के दिनों में भी न पहनी थी ।
दस समोसे बनाए और पूरा डेढ़ पाव घी फुक गया ! जाने जीजी कैसे रोज़ बनाती थी, ऐसे तो दिवाला निकल जाय ।
छः बजे तक सुरेखा ने कई तरकारियाँ बना डालीं । बस सूखे आलू ज़रा जल गये थे; मटर में थोड़ा शोरबा अधिक हो गया था; परवल जाने बासी थे क्या, कि दो घण्टे भूनने पर भी गीले ही रह गये थे । समोसे भी ठण्डे होकर जाने क्यों ऐंठ से गये थे । बात यह थी कि मोयन डालना भूल गई थी । क्या-क्या याद रखे सुरेखा ! दर्द से माथा फटा जा रहा था सो अलग; आज गिरीश अभी तक आफिस से न लौटा था । चाय रखी रखी काली पड़ गई, सुरेखा की भुनभुनाहट से रसोई मुखरित हो रही थी । गनेशी और दूसरे नौकरों की टाँगें बाज़ार जाते-जाते तोबा बोल रही थीं ।
साढ़े छः बजे गिरीश आया । चाय और बिस्कुट भेजकर सुरेखा समोसे बनाने बैठी ।
गिरीश ने कहा – “क्या होगा समोसों का, अब खाना ही खा लूँगा ।" किन्तु वह मानी नहीं । बानगी जो दिखानी थी उसे !
दो मिनट बाद उसने गिरीश की तश्तरी में दो समोसे रख दिये ।
गिरीश ने चाय का एक सिप लेकर समोसे का टुकड़ा तोड़ा ही था कि “ओ !" करके वह कुर्सी से उछल पड़ा, फिर थू-थू करता बाहर आ गया ।
क्यों क्या हुआ ?” सुरेखा ने उसे आंगन में नाचते हुए देखकर पूछा । “क्या डाल दिया समोसे में ? मालूम होता है जैसे टारटैरिक एसिड में पकाए हैं ।"
“तुम भी खूब हो—" सुरेखा चिटख पड़ी - "पहले खाना सीख लो ! मैं तो खटाई से वैसे ही दूर भागती हूं, कसम खाने को तो डाली नहीं ।"
गिरीश चुपचाप कुल्ला करके कमरे में चला गया ।
इतनी सरदर्दी का यह पुरस्कार ! सुरेखा के तन-बदन में आग लग गई । भुनभुनाती हुई कमरे में आंचल लपेट कर पूरियाँ उतारने लगी । कमबख्त आधी से अधिक थाल में ही चिपट गई थी, जो छूटी उनमें से भी मुश्किल से दो-चार फूली । खैर बन गईं किसी तरह ।
सुरेखा ने थाल परोसकर नौकर के हाथ भेजा और कढ़ाई चूल्हे पर ही छोड़कर कमरे में पलंग पर आ लेटी । इतनी मुसीबत कभी न उठाई थी उसने हाथ में कई जगह छाले पड़ गये थे, गरम घी आ पड़ा था; सो जलन हो रही थी। जब लेटा न गया, तो उठकर दूसरे कमरे में चली, जहाँ गिरीश भोजन करने बैठा था......कि अकस्मात गिरीश ने थाल झन्न से नीचे पटक दिया । फूल का थाल गिर कर खील- खील हो गया । कटोरियाँ आंगन में जा पड़ीं.......
“सब चीजों में खटाई भरी पड़ी है। पूरियाँ जल गईं, सो अलग।” गिरीश ने आँगन में आकर कहा ।
सुरेखा और गिरीश में तर्क- युद्ध छिड़ गया । वह कहता था कि खटाई भरी पड़ी है, और वह कहती थी कि खटाई मैंने आँख से भी नहीं देखी आज, डालने की बात रही अलग । लीला की ज़रा आँख लग गई थी । गर्जन- तर्जन सुनकर लीला जाग पड़ी, फिर भाई- भावज की गरम-गरम बात सुनने लगी ।
देर तक सुनने के बाद उसने पुकार कर कहा – “भाभी ! तुमने क्या मसालदानी में जो डिबिया थी, उसमें से डली निकाली थी ?"
“हाँ, नमक थोड़ा था, सो कूट कर मिला ली थी.....”
"अरे !" - लीला ने कहा--" वह तो टाटरी थी ।"
रात को सुरेखा को ज्वर चढ़ आया ।
सवेरे गिरीश ने गनेशी से कहा – “जा डाक्टर चटर्जी से सब हाल कहकर दवा ले आ और सुन ले यह अर्जी श्यामसुन्दर बाबू को दे आ, दो दिन की छुट्टी ली है मैंने.........
और दोपहर की गाड़ी से गिरीश जीजी को लिवाने चला- ।