केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे।
बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आमंत्रित करते और उनका जन्मदिन मनाते ।
इन अवसरों पर जो गोष्ठियां होती थी उनमें साहित्यिक बन्धु बान्धव घरेलू वाततावरण में उनसे दिन खोलकर बात कर सकते थे। वे भी वहां मुक्त मन से अपनी मान्यताओं का विवेचन करते - न कुछ छिपाने का प्रयत्न न अपने को रहस्यमय बनाने का आयोजन । ऐसी ही एक गोष्ठी हुई थी मेदिनीपुर में, जिसमें उन्होंने केवल सतीत्व और नारीत्व संबंधी अपनी मान्यता का ही विश्लेषण नहीं किया था और भी अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर दिए थे। एक बन्धु ने पूछा, "आपने सतीत्व की प्राचीन धारणा के विरुद्ध एक रिवोल्ट खड़ा कर दिया। क्यों ? यह समझाइए ।"
शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, "मैंने रिवोल्ट खड़ा नहीं किया। यह तो युग का प्रभाव है। कोई धारणा या वस्तु बहुत प्राचीन काल से चली आई है, इसी कारण वह सही नहीं है । कुछ भी हमेशा के लिए सही नहीं हो सकता । सतीत्व परिपूर्ण मनुष्यता का एक अंग है । वह मनुष्यता पर हावी नहीं हो सकता । कर्तव्य और अधिकार का संबंध ऐसा अविच्छिन्न हे कि एक न रहे तो दूसरा निरर्थक हो जाता है। मैं शास्त्र का ज्ञाता होने का दावा नहीं करता । मेरा कोई धर्म ही नहीं है, पर जो कुछ मैं देखता आरहा हूं उससे लगता है कि शास्त्रों में पुरुषों के लिए किसी कर्तव्य की चर्चा नहीं है। उनके अधिकार ही अधिकार बताये गए हैं। पुरुषों के लिए कुछ वर्जित नहीं, पर किसी युवती का ज़रा पैर फिसल जाए तो फिर उसकी मुक्ति नहीं। ऐसा क्यों ? उसके लिए समाज में फिर से लौटकर सम्मान का स्थान प्राप्त करना क्यों बन्द हो जाता है ? क्या उसके प्राण नहीं हैं ? मैं तो यह जानता हूं कि उसमें उतना बड़ा प्राण है जितना किसी गृहस्थ सती में दुर्लभ है ।"
"पुरुष जो चाहे करके अपने को पतित कर लेता है, पर क्या आप इसी कारण स्त्री को भी पतित होने देंगे ?"
"देंगे का क्या अर्थ है ? मेरा केवल इतना कहना है कि आप जिस कसौटी पर स्वयं खरे नहीं उतर पाते, उस पर नारी को कसने की ज़बर्दस्ती क्यों करते हैं ?"
"क्या अन्याय या पाप के प्रति घृणा की भावना उत्पन्न करना उचित नहीं है ?"
"शायद उचित है, पर मनुष्य मनुष्य से घृणा करे यह विचार भी मेरे लिए कष्टकर है। तारक गांगुली की 'सरला' नामक पुस्तक की प्रमदा को देखिए । उतनी बड़ी स्काउण्डल देखने में नहीं आती । फिर भी वह आपके सनातनी मानदण्ड से सती है। क्या दैहिक शुद्धि इतना बड़ा गुण है कि जो पत्नी पति को जेल जाने से बचाने के लिए भी गहने नहीं देती, रुपये नहीं निकालती, वह भी सती है ? उसके सतीत्व का क्या मूल्य हे, मेरी समझ में नहीं आता ?"
"क्या पाप का ऐसा चित्र खींचना कर्तव्य नहीं, जिससे भय उत्पन्न हो ? क्या पाप के भय का प्रयोजन आप अस्वीकार करते हैं ?"
"भय से क्या सिद्ध होगा ? वह तो हमेशा रहा है। फांसी दी जाती है फिर भी लोग हत्या करते हैं ।" एक सज्जन ने कहा, "यदि आप वेश्या में कोई सद्गुण दिखाएं तो क्या वह लोगों की दृष्टि में वेश्यावृत्ति के दोष घटाने के समान नहीं होगा ?"
शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, "शायद होगा। पर उसमें क्या हानि है ? मैं प्राचीन काल के राजकुमार और राक्षस की कहानी नहीं लिखता । राजकुमार में गुण ही गुण और राक्षस में दोष ही दोष । जो सच्चाई है उसे मैं क्यों न कहूं ? आपने यह मान रखा है कि जो चला आया है, वही अच्छा है। मैं जहां भी उस मानदण्ड से हटा, वहीं आप मेरी कलम पकड़ लेने को तैयार है । क्या जो कुछ भी प्राचीन से मेल नहीं खाता, वह गलत है ?"
एक मित्र बोले, "बंकिमचन्द्र ने शैवलिनी को सज़ा दी। क्या उसी प्रकार सज़ा देना उचित नहीं ?"
"मैं किसी को सज़ा नहीं दे सकता ।"
" पर आपने विराजबहू को तो सज़ा दी है।"
"विराज की बात अलग है। उसकी सज़ा स्वेच्छाकृत है। वह उसके अन्तर्लोक की सज़ा है । वह अपने पति को प्राण-मन से प्यार करती थी वह कभी चन्द्रशेखर से प्यार रहीं करती थी । उसकी सज़ा पिक्यूलियर है और फोर्स्ट है । मन पर उसका ज़ोर नहीं। बंकिम बाबू को अनेक प्रकार की साइकिक शक्तियों की सहायता लेकर अपने समय के समाज के साथ निभाना पड़ा । मेरा कहना यह है कि मैं अपनी रचना के द्वारा मनुष्य की आत्मा का अपमान नहीं करना चाहता । पुरुष हो या स्त्री गिरकर उठने का रास्ता सबके लिए खुला होना चाहिए । हिन्दुओं का समाज बड़ा निष्ठुर है। मुस्लिम समाज तुलनात्मक रूप से अच्छा है। ईसाई समाज उससे भी अच्छा है। मेरे 'पल्ली समाज' की रमा और रमेश को लीजिए। दोनों महाप्राण हैं। दोनों में मंगल करने की कितनी आपार शक्ति है । पर दोनों के जीवन किस प्रकार नष्ट हो गये ! इन दोनों का मिलन एक रिलीजस यूनिटी नहीं हो पाया । ऐसा क्यों हुआ, क्या यह सोचना वर्जित है ? इतने बड़े प्राण नष्ट हो गये, पर क्या किसी दूसरे समाज में ऐसा होता ? मैं तो केवल चिन्तन के मार्ग का संकेत देकर चुप हो जाता हूं । आप लोग समस्या का समाधान करें। हम जो बाहर हैं उससे उलझकर रह जाते है।
आन्तरिक भी तो है। प्रेम कितनी बड़ी वस्तु है। उसकी शक्ति इतनी अपार है। इसे बताना सम्भव नहीं । इससे सारे दोष और सारी त्रुटियां ढक जाती हैं।"
यहां मानो शरत् बाबू कहना चाहते हैं कि समाज की बाधा अमानुषिक है। उसे दूर करना ही चाहिए, परन्तु समाज जब तक अन्तर से सहज रूप में बाधाओं को दूर नहीं करता तब तक बाधा के बन्द द्वार पर सिर फोड़ते रहना ही होगा ।
किसी ने पूछा, "आत्मत्याग वाले हमारे प्राच्य आदर्श को आपकी रचना में कितना स्थान मिला ?" शरतचन्द्र ने उत्तर दिया, "आत्मत्याग अवश्य है, आप लोगों में बहुतों को मालूम नहीं। वह सुविधा आपको नहीं मिली । मैंने बहुत भटककर देखा है कि दूसरे समाजों में विवाह से पहले स्त्री-पुरुष एक-दूसरे का हृदय जीतने के लिए कितना विराट आत्मत्याग करते हैं। प्रेम से बढ़कर आत्मत्याग की प्रेरणा और शिक्षा देने वाला और क्या है ? मैंने एक बर्मी लड़की को अपने प्रेमी से दो बातें कर पाने के अज्ञात आनन्द के निमित्त कई रात तक सांपों से भरे अंधेरे जंगल में प्रतीक्षा करते देखा है। मैं यौन मिलन के पहले की बात कह रहा हूं । प्रेमिका के मन को जीतने के लिए कितनी विपुल चेष्टा, कितनी आन्तरिक साधना करनी पड़ती है और उसमें कितना माधुर्य है, वह मैंने प्रत्यक्ष किया है । उसे मैं भूल नहीं सकता । इस प्राप्ति के लिए जितना त्याग, चेष्टा और साधना करती पड़ती है, उससे मनुष्य नोबल और बड़ी सीमा तक महान् हो जाता है। हमारे यहां विवाहित जोड़े
कुछ भी सम्भावना नहीं। जीतने में जो आनन्द है, जीवन पर उसका जो महान प्रभाव पड़ता है, उससे वे वंचित रह जाते हैं। जय के लिए कितनी व्यग्रता तथा आकुलता मैंने देखी है ! वे इस प्रक्रिया से शक्ति संचित करते हैं। अपनी योग्यता बढ़ाते हैं और ज़रूरत पड़ने पर द्वन्द्व युद्ध में उतर पड़ते हैं। वे प्रेम की मर्यादा जानते हैं। उन्हें उसका सम्मान रखना आता है। यहां क्या होता है, समाज उन्हें पकड़ बांधकर कुछ मन्त्र पढ़वाकर एक कर देता है। उन्हें एक साथ रहना- सोना होगा, स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता । अच्छी-खासी गृहस्थी जम जाती है। बच्चे होते हैं। कभी-कभी झगड़े भी हो जाते है पर उन्हें प्रेम का जीता-जागता आनन्द प्राप्त नहीं होता
पशुओं में व्यग्रता और आकुलता देखी जाती है। तो क्या वे इससे श्रेष्ठ हो गये ?"
"कह सकते हैं कि यह पाशव है, पर इसी कारण हेय नहीं। उसमें जो आनन्द है वह दुर्लभ है। वह क्षणिक हो सकता है, पर है बहुत प्रभावशाली जय का आनन्द कम नहीं होता । स्वयं निर्मित मनुष्य जिस प्रकार महान है, उसी प्रकार जो अपनी प्रेमिका की जीतते हैं, वे भी महान हैं। पर मैं सदाचार को भी मानता हूं। सौन्दर्य की चर्चा ही सब कुछ नहीं हैं
|"
" पर क्या ऐसे विचार हिन्दू धर्म के प्रतिकूल नहीं हैं ?"
"किसी विशेष धर्म के संबंध में मैं न तो कभी कुछ कहता हूं, न कहना चाहता हूं। शायद मैं किसी धर्म में आस्था नहीं रखता, पर इतना तो कहूंगा, जिसे आप हिन्दू धर्म कहते हैं उसी पर हमें पंगु और जड़ बनाने की सबसे अधिक ज़िम्मेदारी है । इस्लाम में मनुष्यता का कहीं अधिक आदर है। ईसाइयत में उससे भी कहीं अधिक है। मेरी कृतियों में मेरे पात्र बोलते हैं । उनमें से किसी के वक्तव्य में मेरा वक्तव्य नहीं आता । मैं उन बातों को न तो मानता हूं और न मान सकता हूं। मेरे निकट जीवन ही सब कुछ है। जीवन के बाद जीवन है या नहीं, मैं नहीं जानता। रहने दीजिए, यह सब सुनना आपको अच्छा नहीं लगेगा । मैंने जो अभी हृदय जीतने की बात कही थी, वह शायद पहले भी थी। अपनी योग्यता दिखाकर नारी के हृदय को जीतना पड़ता था । ऐसा सब जातियों और सब समाजों में होता था । किसी तरह घुटकर सावधानी से लक्ष्मण रेखा के अन्दर ज़िन्दगी काट देना उन्हें नहीं रुचता था। इस कारण उनमें से बहुतेरे जीवन में वास्तविक आनन्द के खोजी थे।"
शरत् बाबू भी आनन्द के उपासक हैं पर उनका आनन्द संयम के बिना कुछ नहीं है । यही उनकी साहित्यिक अभिव्यक्ति का प्राण है। अगले वर्ष चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने इस संयम की तो चर्चा की ही अपने साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि और परिवेश पर भी प्रकाश डाला।
स्थानीय प्रवर्तक संघ के निमन्त्रण पर वे वहां गये थे। विप्लवी युग के नेता चारुचन्द्र राय, मतिलाल राय तथा बसन्त बन्दोपाध्याय आदि बहुत सक्रिय थे। मुक्त राजबन्दी श्री बलाई चन्द्र उन्हें पाणित्रास से स्वयं अपने साथ चन्दन नगर ले गये। यह गोष्ठी बहुत ही अन्तरंग थी । परिवार की तरह सब लोग शरत् बाबू को घेरकर बैठ गये और प्रश्नों के द्वारा एक-दूसरे को समझने की चेष्टा करने लगे। प्रारम्भ हुआ शरत् बाबू के वंश परिचय से । वे बोले, "सुनकर दुख होगा, वंश का कोई गौरव मेरे पास नहीं है। जिन लोगों ने हमारे इतिहास का ईट-पत्थर खोजकर ढूंढ निकाला है, और कहते हैं, 'यह देखों हमारा यह था, वह था,' मैं उनकी बात सुनकर खुश नहीं होता । मैं तो कहता हूं कि हमारे यहां कुछ भी नहीं था, इसलिए दुख करने की कोई बात नहीं । प्राचीन वस्तुओं को लेकर गर्व करने से बात नहीं बनती। नूतन गढ़ डालो ।
"मति बाबू की पुस्तकें मैं खूब पढ़ता हूं । वे इस देश को फिर पुराने ढंग पर खड़ा करना चाहते हैं । नया की गढ़ना चाहते हैं । किन्तु आधार हुआ धर्म, भगवत्भक्ति, यही सब । शास्त्रों में बहुत-सी साधना की बातें हैं। दुर्भाग्य से मेरा मन उलटी दिशा में गया है। मैं साधना का कोई मूल्य ही नहीं खोज पाता । शास्त्र - साधना यदि इतनी महान थी तो हम इतने छोटे कैसे हो गये ? नाना लोग नाना बातें कहेंगे। सभी जातियां जिनमें आत्मसम्मान की अनुभूति बहुत है वे लोग स्वाधीन कहकर संसार को अपना परिचय देते हैं । हम लोग इतने बड़े होकर भी पठानों, मुगलों और फिर अंग्रेज़ों के जूतों तले रोंदे गये । हमारा आध्यात्मिक जीवन बहुत ऊंचा है किन्तु यदि इतने ही बड़े थे तो छोटे क्यों हुए जा रहे हैं । देश जिस त्याग के बीच से गुजर रहा है, मुझे लगता है कि ठीक इसी में कोई गलती छिपी हुई है। उसे खोज भी नहीं पाते । क्रमशः अवनति की ओर चले जा रहे हैं। चार जनों को सुनाकर कहता हूं बताएं, यह हजार वर्ष से ही हमारी दुर्दशा क्यों हुई? यह क्यों कर सम्भव हुआ? कोई यदि इसका कारण खोज सके तो देश का महान उपकार होगा |
"असल बात यह है कि मै मंस्कार का पक्षपाती नहीं हूं । पुराण नामक वस्तु की पोशाक-भर बदल देना मैं नहीं चाहता । 'पहर दाबी' में मैंने समझाया है कि संस्कार का अर्थ क्या है । वह अच्छा कुछ नही है। जो वस्तु खराब है, बहुत दिन चलने के कारण ढीली- ढाली हेकर हिलने-जुलने लगी है, उमे सुधारकर खड़ा करना है जिस प्रकार गवर्नमेण्ट का शासन सुधार । दूसरा दल जो क्रांति चाहता है, उसका अर्थ और कुछ नहीं केवल आमूल परिवर्तन है। हम बूढ़ों का दल यह नहीं चाहता। वे लोग सुधार करना चाहते हैं। मुझे लगता है, मरम्मत करने से चीजें अच्छी नहीं बनतीं। जो निश्चल हो चुका है जो खराब है उसे सुधाकर फिर से खड़ा करना उचित नहीं । मति बाबू ने शायद सोचा है कि अपने धर्म क्त संस्कार कर अर्थात् उसी को सुधार करके फिर से खड़ा करेंगे। मैं कहता हूं, सुधार नहीं, इस धर्म को छोड़ दो। इसका जीर्णोद्धार कर पुनर्जीवित करने की क्या आवश्यकता?.
प्रवर्तक संघ के लिए इस धारणा को स्वीकार करना सम्भव नहीं था पर उस समय अधिक वाद-विवाद में पड़ने को भी वे प्रस्तुत नहीं थे, क्योंकि उनके साहित्यिक जीवन के विकास के बारे में जानने की व्यग्रता उनमें अधिक थी।
शरत् बाबू पहले तो अपने को माहित्यिक ही मानने को तैयार नहीं थे। बोले 'मैं तो पेट की खातिर साहित्यिक बना हूं।.
लेकिन फिर गम्भीर होकर उन्होंने कहा, 'साहित्य का मूल है सहित से, अर्थात् सबके सहित सहानुभूति रखना आवश्यक है। घर बैठ आरामकुर्सी पर पड़े रहकर साहित्य सृष्टि नहीं होती। हां, नकल की जा सकती है। साहित्यकार यदि मानव को न देखें तो साहित्य नहीं होता। ये लोग करते क्या है कि पुस्तक के किसी एक कैरेक्टर को लेकर उसी में कुछ रहो-बदलकर एक नवीन कैरेक्टर की सृष्टि कर डालते हैं। मानव क्या है, यह मानव को देखे बिना नहीं समझा जा सकता । अत्यन्त कुत्सित गन्दगी के भीतर भी मैंने इतनी मानवता देखी है कि उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। मेरी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी है। जानने की इच्छा मेरी बराबर बनी रहती है। मानव के भीतर की सत्ता को जानना ही मेरा उद्देश्य है। जो तनिक फिसल गया मनुष्य उसे बिलकुल फेंक दें, यह क्या बात है?
त्रै निरन्तर मनुष्य का अंतरंग ही देखता हूं। इसने कहा, उसने कहा, दूसरे के कंधे से बदूक चलाना, अन्यकी अभिज्ञता को अपना बनाना, यह मैंने कभी नहीं किया। बहुत ही अभागा यह करेगा। वास्तविक जीवन को देखना चाहने पर शुचिता - अशुचिता के चक्कर में पड़ने से बात नहीं बनेगी । अभिज्ञता के कारण ही गोर्की, टात्काय, शेक्सपियर आदि शुचिता के फेर में नहीं पड़े। मूर्त रचना करना चाहने पर कल्पना से काम नहीं चलता, अपनी अभिज्ञता चाहिए। दूसरों की रचनाएं मैंने बहुत कम पड़ी हैं। मेरे घर पर जो पुस्तकें है उनमें अधिकांश साइंस की पुस्तकें हैं। इसलिए मेरी रचनाओं में युक्तियों का प्रयोग या समन्वयात्मक परिणाम अधिक है। रूप और स्वभाव का वर्णन प्रायः नहीं है। वह सब मैं दो चार वाक्यों में ही निबटा देता हूं उस पर अधिक ध्यान नहीं देता। असली चीज है उसकी सत्ता व मन, चाहे जो कहिए, मनुष्य का अन्तरंग । उसी को प्राप्त करने के लिए गहरी अभिज्ञता चाहिए। मैंने अपनी अभिज्ञता किस प्रकार बढ़ाई उसका विवरण देने की आवश्यकता नहीं, सब बताने लायक भी नहीं। मानव स्वभाव-वश अथवा दुर्बलता के कारण यह सब सहन नहीं कर सकता। रवीन्द्रनाथ के उस गीत में जैसा है, जो विष है, वह मेरे ही हिस्से में पड़ा। उससे जो अमृत निकला वह अपनी रचनाओं द्वारा सबको दिया है। बहुत से लोग कहते हैं और ठीक कहते हैं 'आपके चरित्रों को पढ़ने पर लगता है मानो वे काल्पनिक नहीं है।' पर मेरे नब्बे प्रतिशत चरित्रों का आधार सत्य है। किन्तु यह भी ध्यान में रखना होगा कि सत्य मात्र साहित्य नहीं है। ऐसी अनेक सत्य घटनाएं है जिन्हें साहित्य की संज्ञा नहीं दी जा सकती। किन्तु बुनियाद सत्य पर न खड़ी करने से पात्र प्राणवान नहीं हो पाता । नीव पक्की होने पर कोई भय नहीं। मैंने जो चरित्र देखे हैं, पारिपार्श्विक घात- प्रतिघातों के कारण उनकी जो परिणति हुई, वही चित्रित की है। इसीसे मुझे डरने का कोई कारण नहीं। लोगों के उन्हें अस्वाभाविक कह देने भर से मैं नहीं मानूंगा।'
'आपकी जो गम्भीरतर साहित्यिक उपलब्धि हे, उसकी प्राप्ति किस प्रकार हुई ? आप भाव को किस प्रकार मूर्त रूप देते हैं? कहने का जो ढंग, जो गठन, आद्योपान्त जो रस, जो आकांक्षा, जो लालित्य है, यह सब आपने कहां से पाया? आपकी बोलचाल की भाषा के साथ आपकी पुस्तकीय भाषा का कोई मेल नहीं। न तो यह पथेर दाबी की भाषा है और न किसी अन्य रचना की ही।'
यह मैं नहीं कह सकता। भाषा तो अपने आप ही आती है। मेरा लिखने का ढंग साधारण से अलग है। मैंने पहले ही कहा, मेरी स्मरण शक्ति बहुत तेज है। बचपन से जो देखा-सुना है, वह सबका सब हर समय मन में बना रहता है, ऐसा नहीं, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर याद आ जाता है। मैं सर्वप्रथम पात्र ठीक कर लेता हूं-एक, दो, तीन, क्रमशः । कहानी आरम्भ करना अथवा पात्र० लाकर खड़ा कर बहुत सहज बहुत ००० प्लाट ' ०, इसलिए लिखते नहीं।' मैं अवाक् रह जाता हूं। इतनी विशाल धरती पड़ी है, इतना वैचिन्य है, और ये लोग प्लाट नहीं खोज पाते। इसका कारण है कि वे मानवता को नहीं खोजते, अपनी कथा को लेकर ही व्यग्र रहते हैं। किससे लोगों का मनोरंजन हो, मैं यह नहीं करता। किसी पात्र का व्यक्तित्व भी नष्ट नहीं होने देता और घटनाक्रम को भी नहीं लगता है साइंस की पुस्तकें पढ़ने के कारण मेरी भाषा भी उसी तरह की हो जाएगी। मैं भाषा अच्छी नही जानता| शब्दावली बहुत क्य है, फिर भी यह लोगों को क्यों अच्छी लगती है, मैं नहीं जानता। जो कुछ कहना या समझना चाहता हूं यही मन में रखता हूं और इसके लिए बहुत परिश्रम करता हूं। 'चह' और 'उन' का प्रयोग बहुत सावधानी से करना होता है। रचना को बहुत घिसना-मांजना पड़ता है, निर्झर-सी स्वतः फूट नहीं पड़ती। जो लोग कहते हैं कि जो लिखूंगा वही उकृष्ट है, ये लोग भयंकर भूल करते है। मनुष्य की बातचीत की तरह लिखने में भी बहुत-सी असम्बद्ध बातें रहती हैं। उस ओर नजर रखनी होगी। मैं जैसे-तैसे कोई काम नहीं करता। इसलिए भूमिका लिखकर मुझे समझाना नहीं पड़ता। मेरी किसी पुस्तक में भूमिका नहीं है।
“और एक बात बराबर देखता आ रहा हूं। साहित्य-रचना के भी कुछ कायदे-कानून हैं। ध्यान रखना होता है कि रस-वस्तु अअलिता की सीमा में न चली जाए। श्लीलता- अश्शीलता के बीच ऐसी एक सूक्ष रेखा है कि जिसके एक इंच उधर पांव पड़ जाने से ही सब अश्लील होकर नष्ट हो जाता है। जरा-सा पांव फिसला तो फिर बचना मुश्क्ति है। अवश्य ही मै रसिकों के बारे में कह रहा हूं। अअलि साहित्य सर्वदा वर्जनीय है। मनोरंजन ई खातिर मैं कभी झूठ नहीं बोलूंगा । यथासाध्य मै ऐसा नही करता ।
"वेरी कठोर आलोचना हुई है। गाली-गलौज कई बीह्मर निकल गई। देश नहीं जानता कि ग्रंथकार, कवि, चित्रकार, इनका जीवन सर्वसाधारण से भिन्न होता है। यहां के लोग यह नहीं जानते कि इनको स्नेह की छया में ही रखना पड़ता है। लोग चाहते हैं, इन्हें अभिज्ञता भी प्राप्त हो और हमारी तरह शान्त, शिष्ट, भद्र र्ज । न भी यापन करें। ऐसा नहीं हो सकता। यह दुख का विषय है कि हमारे देश में जो आलोचना होती है उसमें बारह आने व्यक्तिगत आक्षेप होते है। यह सारी आलोचना व्यक्ति की होती है पुस्तक की नही। इसी कारण बहुत- से लोग भयभीत हो उठते है।.
प्रश्नों का कोई अन्त नहीं था लेकिन शरत् बाबू जुरा भी नहीं थके उत्युन्न मन अन्त में उन्होंने कहा, “इग्स चर्चा में आनन्द आया । केवल मनोरंजन के लिए नहीं, वास्तव में इस प्रकार की गोष्ठियों की आवश्यकता भी है। देश को क्कि प्रकार अगे बढ़ाकर उठाया जा सकता है, इस संबंध में विभिन्न लोगों के विभिन्न मत हैं। बीच-बीच में इसी प्रकार पाठकों और लेखकों को एकत्रित होकर विभिन्न प्रयत्नों में सामंजस्य बनाए रखने की आवश्यक्ता है। इसमें बहुत लाभ है। आजकल बहुत से लोग लिखते है, किन्तु उनमें से बहुतों को ठीक लेखक नहीं क्का जा सकता। उनकी रचनाओं में संयम नहीं होता। वे लोग यौन संबंध के बारे में ऐसा गोलमाल करते हैं कि उनकी रचनाएं साहित्य कहलाने की अधिकारिणी हैं या नहीं इसमें सन्देह है। इन सारी रचनाओं में अधिकांश बाहर से उड़ाया हुआ है, अपनी खुद की अभिज्ञता नहीं। इसीलिए दूसरे से उधार ली हुई चीज को चलाने जाकर एक अशोभनीय काण्ड कर बैठते है। किसी के कुछ कहने पर वे लोग जिद करते हुए कहते हैं- खूब करेंगे, कहेंगे, लिखेंगे। किन्तु यह ठीक नहीं। इस प्रकार की गोष्ठियों और तभा समितियों का आयोजन स् यदि उनके साथ वार्तालाप की व्यवस्था क्तई जाए तो इससे अन परिणाम निकल सक्ता है।"
इस गोष्ठी में एक बात उन्होंने खूब जोर देकर कही, “मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूं। उसे छोटा करके नहीं मान पाता।”
लिंकन ने भी एक दिन धोषणा की थी, “मैं किसी व्यक्ति को पतित देखना नहीं चाहता।"
साबार ऊपर मानुष सत्य, ताहार ऊपरे नाई । चण्डीदास सुनो रे मानुष भाई इन गोष्ठियों के अतिरिक्त उनकी जन्म जयन्ती के अवसर पर जो सम्मेलन होते थे, वे एक और दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। इनके साथ अनायास ही कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर का संबंध जुड़ गया है। यह क्रम सम्भवतः उनके 42 वें जन्मदिन से आरम्भ हुआ। उस वर्ष हावड़ा शिवपुर साहित्य संसद में उनका सम्मान किया गया था।
अगले वर्ष उनके 43 दें जन्मदिन के अवसर पर यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट में प्रसिद्ध लेखक श्री प्रमथ चौधरी के सभापतित्व में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया | संयोजकों की बड़ी इच्छा थी कि इस सभा की अध्यक्षता श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर करें, लेकिन वे यह निमन्त्रण स्वीकार नहीं कर सके। उन्होंने महाराजा जगदीन्द्रनाथ का नाम सुझाया और उसके लिए आग्रह करते हुए स्वयं पत्र भी लिख दिया, लेकिन अन्त में अस्वस्थ हो के कारण वे भी नहीं आ सके और इसीलिए प्रमथ चौधरी अध्यक्ष हुए।
गुरुदेव स्वयं तो नहीं आ सके थे, लेकिन उन्हें आशीर्वाद देते हुए एक पत्र उन्होंने अवश्य लिख भेजा, 'श्रीयुत शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय का सम्मान करने वाली सभा में बंगाल के सभी पाठकों के साथ मैं भी अपना अभिनन्दन जताता हूं। आज भी सशरीर पूछी पर हूं इससे समय-लंघन का अपराध प्रतिक्षण प्रबल होता है, यह याद दिलाने के लिए नाना उपलक्ष्य सदा ही होते रहते हैं। आज सभा में सशरीर उपस्थित होकर सबके आनन्द में योग न दे सकूंगा, यह भी उन्हीं में से एक है। वस्तुतः मैं आज अतीत से आकर इस प्रदोषाधक्यर में अपना दुर्बल हाथ फैलाकर उनको आशीर्वाद दिए जाता हूं जिन्होंने बंगला साहित्य के उदय शिखर पर अपनी प्रभा की ज्योति फैलाई है।'
अभिनन्दन का देते हुए बहुत-सी बातों के अतिरिक्त शरत् बाबू ने कहा, - विभिन्न परिस्थितियों के विपर्यय के बीच एक दिन विभिन्न व्यक्तियों के सम्पर्क में आना पड़ा था । इससे कुछ नुकसान नहीं हुआ, ऐसा नहीं। लेकिन इस अवधि में जिन लोगों से साक्षाक्सर हुआ था, उन्होंने मेरे सारे नुकसानों को पूरा कर दिया है। वे मेरे मन पर यह अनुभूति छोड़ गये हैं कि त्रुटि-स्थलन, अपराध, अधर्म ही मनुष्य का सब कुछ नहीं है। उसके बीच जो वस्तु वास्तव में मनुष्य है, जिसे आत्मा भी क्का जा सकता है, वह उसके सब अभावों, सब अपराधों से बरी है। अपनी साहित्य-रचना में मैं इसका अपमान नहीं करूंगा, लेकिन बहुतों इसे मेरा अपराध मान लिया है। पापी का चित्र मेरी तूलिका से मनोहर हो उठा, मेरे विरुद्ध उनका सबसे बड़ा अभियोग यही है।
-यह भला है या बुरा मैं नहीं जानता। इससे मानव के कल्याण की अपेक्षा अकल्याण अधिक होता है या नहीं इस पर भी मैंने विचार नहीं किया है। उस दिन जिस चीज को सत्य समझा था उसी को निष्कपट रूप से प्रकट किया था। वह सत्य चिरंतन और शाश्वत है या नहीं, यह मेरे सोचने की बात नहीं है। अगर यह बात मिथ्या भी हो जाती है, तो मैं किसी से लड़ने नहीं जाऊंगा।. प्रेसिडेंसी कालेज की बंकिम - शरत् समिति आदि और भी अनेक संस्थाओं नें उनका अभिनन्दन किया। उनके जन्मस्थान देवानन्दपुर में शरत्चन्द्र पाली में पाठागार' नई स्थापना हुई। इसके लिए उन्होंने स्वयं एक अलमारी, अपने सारे उपन्यास और अन्य पुस्तकें दीं। वे अपने जन्मस्थान को कभी भूल नहीं सके। जब-तब वहां जाकर पुराने घाटों को देख आते थे और दूर-दूर तक नदी किनारे एकाकी घूमते-घूमते शैशव में खो जाते थे। वे अपना पैतृक भवन भी खरीदना चाहते थे। परन्तु किसी कारणवश यह सम्भव नहीं हो सका।
चंकिम- शरत् समिति' इसके बाद प्रतिवर्ष उनका जन्मोत्सव मनाने लगी। तरुणों से उन्हें विशेष स्नेह जो था । उनके प्र दें जन्मदिन के अवसर पर समिति ने कई अधिवेशनों में शरत् साहित्य की आलोचना की और एक पुस्तिका भी प्रकाशित की तूंं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला उपन्यासों पर एक लेख विशेष रूप से उस पुस्तिका के लिए लिखा था । उस विकस क्तई परिणति शरतचन्द्र के उपन्यासों में कैसे हुई इसकी समुचित आलोचना करते हुए कविगुरु ने कहा, विषवृक्ष' और कृष्णकान्त का वसीयतनामा' के बाद बहुत दिन बीत गये। फिर देखता हूं गल्प साहित्य में एक और युग आया अर्थात् एक और पर्दा उठ गया। उस दिन जिस प्रकार अनिमंत्रित लोर्गा का दल साहित्य के प्रांगण में आ जुटा था, वह आज भी वैसा ही है । वैसा ही उत्साह, वैसा ही आनन्द, वैसी ही जनता इस बार निमन्त्रणकर्ता है। शरतचन्द्र । उन्होंने अपनी कहानियों में जिस रस की सघनता से सृष्टि की है, वह है सुपरिचय का रस । उनकी रचना पहले से और अधिक पाक्कों के पास आ गई है। उन्होंने अपने को देखा है विकृत करके, स्पष्ट करके और उसी प्रकार स्पष्ट करके दिखाया है। उन्होंने रंगमंच का पर्दा उठाकर बंगाली परिवार के जिस आलोकित स्टझा का उद्घाटन किया है, उसमें आधुनिक लेखकों का प्रवेश सहज हो गया है। एक दिन वे शायद इस बात को भूल जाएंगे किन्तु आशा करता हूं कि पाठक नहीं भूलेंगे। यदि भूल जाएंगे तो यह उनकी अकृतज्ञता होगी। यदि ऐसा भी होता है तो दुख की बात नहीं है। काम समाप्त हो गया है, यही यथेष्ट है। कृतज्ञता तो मात्र ऊपरी प्राप्ति है।.. .......लेखक की मृत्यु के बाद काल ही उसकी कृतियों की रक्षा करता है।.
अगले वर्ष 57 वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर उनके मित्रों और भक्तों ने यह उत्सव बड़े पैमाने पर मनाने का प्रस्ताव किया। बंगाल की महिलाओं और छात्र-छात्राओं ने भी इस अवसर पर अलग-अलग उनका हार्दिक अभिनन्दन किया।
लेकिन जो मुख्य उत्सव टाउन हाल में होने वाला था वह ठीक समय पर एक कुचक्र के कारण भंग हो गया। बेहाला 'के जमींदार मणीन्द्रनाथ राय उनके परम भक्त थे। उन्होंने ही इस सभा का आयोजन किया। सभापति चुने गये इस बार फिर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टाकुर। लेकिन इस बार भी वे नहीं आ सके। इस समय बंगाल कांग्रेस में दो दल थे। शरतचन्द्र सुभाषचन्द्र बसु के समर्थक थे। इसलिए उनका झुकाव फार्वर्ड दल की ओर था। अभिनन्दन समिति में संयोग से उन्ही का बहुमत था। इसी बात को लेकर उनके विरोधी एडवान्स दल के लोग नाराज हो गये और उन्होंने इस 6 को पंगु बनाने की पूरी कोशिश की। ऐसा करने का उन्हें अवसर भी मिल गया। संयोग से इम वर्ष शरतचन्द्र की जन्मतिथि जिस दिन पड़ी, उस दिन पिछले वर्ष हिजली जेल में पुलिस की गोली से दो बन्दियों की मृत्यु हो गई थी। इसी को उपलक्ष मानकर एडवान्स दल ने साहित्य के हीरो की अभ्यर्थना को धूमिल कर दिया।
जो उनके मित्र और प्रिय थे और बाद में फिर वैसे ही हो गये उन्हीं यतीन्द्रमोहन बागची, कालिदास राय और सावित्रीप्रसन्न चट्टोपाध्याय ने वक्तव्य दिया कि यह उत्सव नहीं होना चाहिए। उधर अमल होम इस उत्सव में विशेष रूप से रुचि ले रहे थे लेकिन अचानक वे बीमार हो गये। ठीक समय पर सभा का आयोजन हुआ और एडवान्स दल के लोगों ने वहां एक हंगामा खड़ा कर दिया । शरत्चन्द्र द्वार तक आकर लौट गये। शनिवारेर चिठि' के सजनीक्यन्त दास का इस हंगामे में प्रमुख हाथ था। पारस्परिक वैमनस्य और दलबन्दी के कारण यह उत्पात हुआ। अन्यथा जन्म जयन्ती का उत्सव साधारण रूप से कही भी मनाया जा सकता था। या जैसा बाद में करना पड़ा, शुरू में ही स्थगित किया जा सकता था। राजनीतिक तनातनी के बीच में व्यक्तिगत उत्सव को इतना महत्व न् देना शायद उदारता ही होती । अन्ततः शरत् वन्दना समिति ने दो दिन बाद यह उत्सव मनाया। उनके सम्मान में एक पुस्तक (शरत् वन्दना) प्रकाशित की और उन्हें अनेक बहूमूल्य उपहार भेंट में दिये ।
इस दुर्घटना का एकमात्र कारण यही नहीं था। उन दिनों देश में साम्प्रदायिक निर्णय के कारण बहुत उत्तेजना फैली हुई थी। गांधीजी अश्वों के प्रश्त को लेकर आमरण अनशन करने का निश्चय कर चुके थे। इस निश्चय से देशवासियों का उद्विग्न होना स्वाभाविक था । यतीन्द्रमोहन बागची आदि के विरोध का मुख्य कारण भी यही था, अन्यथा 'शरत् वन्दना' में उनकी रचनाएं भी हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी इसीलिए शायद उस सभा में नहीं आ सके थे । उनक न आने का एक और भी कारण हो सकता है। कुछ ही दिन पूर्व जर्मनी में उनके दौहित्र का देहान्त हो गया था। अपने पद इं उन्होंने जिस विशेष उद्वेगजनक सांसारिक घटना का जिक्र किया है, वह शायद यही थी।
व्यक्तिगत पत्र के अतिरिक्त अपना आशीर्वाद एक सार्वजनिक पत्र के रूप में भेजते हुए उन्होंने लिखा-
विशेष उद्वेगजनक सांसारिक घटना के कारण तुम्हारे जन्मदिन के उत्सव में होनेवाली सभा में उपस्थित रहना संभव नहीं हो सका। मेरी आन्तरिक शुभकामना पत्र के रूप में तुम्हारे पास भेज रहा हूं । तुम्हारी उम्र अधिक नही है । तुम्हारी सृष्टि का क्षेत्र तुम्हारे सामने दूर-दूर तक फैला हुआ है। तुम्हारी जययात्रा की अभी समाप्ति नहीं हुई। उसी असमाप्त यात्रापथ के बीच में अकस्मात् तुमकी खड़ा करके अर्ध्य देना मेरी दृष्टि में सोचता हूं असामयिक है । अभी तुम्हारे स्तब्ध होने का अवकाश नहीं आया। अभी तुम्हारा हरा-भरा सुदूर भविष्य तुम्हें पुकार रहा है।
सत्तर वर्ष पूरे करके कर्म साधना के अन्तिम चरण में पहुंच गया हूं । कर्तव्यपथ की प्रदक्षिणा सम्पूर्ण कर देने पर भी यदि मुझे अब भी चलना पड़ता है तो केवल पुनरावर्तन- मात्र है । इसी कारण कुछ दिन पहले मेरे देश ने मेरे जीवन का शेष प्राप्य समारोह करके चुका दिया था । साधारण जन के सामने मेरा परिचय समाप्त हो गया है, यह कहकर शेषकृत संभव हो गया । आकाश के सावन के मेघ जब अपना दान पूर्ण कर देते है तभी धरती पर शरत् की पुष्पांजलि प्रस्तुत होती है । इसके बाद मेघ यदि सम्पूर्ण विश्राम नहीं करते तो वह वर्षा पुनरावृत्ति मात्र है। यह तो ज्यादती है।
तुम्हारा वह समय नहीं आया। अभी तो तुम्हें देश को, प्रतिदिन हुई नयी रचनाओं से, नया-नया आनन्द दान करना है और उसी उल्लास के साथ देश तुम्हारी सदा जयध्वनि करता रहेगा । पथ में पद-पद पर तुम प्रीति पाओगे, आदर पाओगे। पथ के दोनों ओर जो ये सब नये फूल खिल उठेंगे, यह सब तुम्हारे हैं। अन्त में सबके हाथों से तुम्हारे मुकुट के लिए तुम्हारी अन्तिम वर माला गूंथी जाएगी। वह दिन अभी बहुत दूर है। आज देश की जनता तुम्हारे मार्ग की साथी है। दिन पर दिन वह तुमसे पाथेय का दावा करेगी। उनकी वही इच्छा तुम पूर्ण करो । पथ के अन्त में पहुंचा हुआ मैं यही कामना करता हूं । जनसाधारण जो सम्मान का या अनुष्ठान करके बीच में समाप्ति का शान्तिवाचन करते हैं, तुम्हारे लिए वह संगत नहीं है। यह बात तुम निश्चय मानो ।
तुम्हारे जन्मदिन के उपलक्ष्य में 'काल-यात्रा' नाम की एक नाटिका तुम्हारे नाम उत्सर्ग करता हूं। आशा करता हूं, यह दान तुम्हारे अयोग्य नहीं होगा। इसका यह है कि रथ यात्रा के उत्सव में हठात् सब नर-नारी यह देखते हैं, महाकाल का रथ अचल है । मानवसमाज की सबसे बड़ी दुर्गति काल की यही गतिहीनता है। मनुष्य मनुष्य मे जो संबंध बन्धन देश- देश युग-युग में प्रसारित हो गये हैं, वे ही बंधन उस रथ को खींचने वाली रस्सी हैं । उन बंधनों में अनेक ग्रंथियां पड़ जाने पर मानव संबंध असत्य और असमान हो जाते हैं। उससे रथ नही चलता । इन्हीं संबंधों का असत्य इतने समय तक जिनको विशेष रूप से पीड़ित करता है, अपमानित करता है, सुधन के श्रेष्ठ अधिकार से वंचित करता है, आज महाकाल अपने रथ के वहन के रूप मे उनका ही आहान कर रहा है। उनका असम्मान नष्ट होने पर ही, संबंधों का असाम्य दूर होने पर ही रथ सामने की ओर चलेगा।
काल की रथ यात्रा की बाधा दूर करने के लिए जिस महामंत्र कई आवश्यक्ता है वह तुम्हारी प्रबल लेखनी द्वारा सार्थक हो, इसी आशीर्वाद के साथ तुम्हारे दीर्घ जीवन की कामना करता हूं । इति ।
इस आशीर्वाद में कवि ने कहा है, “तुम्हारी जययात्रा की अभी समाप्ति नहीं हुई है । उसी असमाप्त यात्रापथ के बीच में अकस्मात् तुमको खड़ा करके अर्ध्य देना मेरी दृष्टि में असामयिक है ।' इस वाक्य का बहुत से लोगों ने गलत अर्थ लगाया । स्वयं शरत्चन्द्र भी मन ही मन बहुत प्रसन्न नहीं थे। एक मित्र से उन्होंने कहा भी था कि वीन्द्रनाटः उनका ठीक-ठीक आदर नहीं करते। उन्होंने काल-यात्रा' नाम की जो नाटिका उन्हें समर्पित की है, वह इतनी नगण्य है कि उसका नाम तक कोई नहीं जानता। “अगर वे मुझे कोई भी पुस्तक समर्पित न करते तो मुझे और भी खुशी होती। जो भी हो, वह दान मैंने गुरु का आशीर्वाद समझकर स्वीकार कर लिया है, किन्तु इससे मेरा क्षोभ कम नहीं होगा।”
उन्होंने गुरुदेव को जो पत्र लिखा, उसमें इस बात का आभास तक नहीं है। उन्होंने लिखा, “समय की गति के साथ-साथ आपका जो आशीर्वाद मिला, वह मेरे लिए श्रेष्ठ पुरस्कार है। आपका तुच्छतम दान भी संसार में किसी भी साहित्यिक के लिए सम्पदा है। इस दान को सिर-माथे पर लेता हूं। मेरी तकदीर अच्छी है कि उस दिन आपका कलकत्ता आना संभव नहीं हुआ। आते तो उस दिन का अनाचार देखकर अन्त ही साथित होते। सबमे बढ़कर दुग्झ की बात यह है कि प्रायः मेरे समवयस्क साहित्यिकों ने ही इस उपद्रव का सूत्रपात किया। सांत्वना की बात केवल यही है कि रसकी वे लोग पसन्द करते हैं। मैं उपलक्ष मात्र हूं क्योंकि पिछले साल (आपकी) जयन्ती में भी (उन्होंने) कुछ कम दुख देने की चेष्टा नहीं की थी। मैं एक दिन आपको प्रणाम करने आना चाहता हूं लेकिन संकोचवश नहीं आ पाता हूं। कहीं कोई कुछ समझ न बैठे।”
इस पत्र का बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया गुरुदेव ने लिखा, “तुम्हारे प्रति जो अत्याचार हुआ उसका विवरण जानकर लज्जा आती है, किन्तु यह बात निस्सन्देह ठीक है कि देश की जनता के हृदय पर तुमने अधिकार कर लिया है। इस प्रेम से बढ़कर मूल्यवान अध्य और कुछ नहीं हो सकता, पर यह प्यार पाया है तो आघात भी सहना होगा। केवल यदि यश ही मिलता और उसको लेकर किसी के मन में कोई विरोध न होता तो उस यश का गौरव न रहता । तुम्हारी प्रतिष्ठा जितनी बढ़ेगी उतना ही दुख भी बढ़ेगा। इसके लिए मन को पक्का कर रखो......।"
अपने आशीर्वाद में भी गुरुदेव ने जो भावना प्रकट की, उसमें कोई दुरभिसंधि नहीं है। सही बात को उन्होंने सही रूप में ही रखा है। इस प्रकार की आदर- अभ्यर्थना व्यक्ति को गतिहीन करने में अधिक समर्थ होती है, यह चरम सत्य है। गुरुदेव शरत् बाबू की रचनाओं के प्रशंसक थे। अनेक बार अनेक लेखों में उन्होंने इस बात का प्रमाण दिया है। पांच वर्ष पूर्व साहित्य में नवोनता' नाम के निबन्ध में उन्होंने लिखा था, “शरत् बाबू की कहानी बंगालियों की कहानी है, किन्तु उनका कहानी कहना एकांत रूप से बंगालियों का नहीं है। इसीलिए उनके क्या-साहित्य के जगन्नाथ क्षेत्र में जाति- विचार की बात नहीं उठ सकती । उनका कहानी कहने का सर्वजनीय आदर्श ही विस्तार के क्षेत्र में सब लोगों एा बुला लाता है। उस आदर्श के छोटा होते ही निमंत्रण भी छोटा हो जाता है। तब फिर वह भोजन परिवारिक हो सकता है, जातिभोज हो सक्ता है किन्तु वह उस साहित्यतीर्थ का महाभोज नहीं हो सकता, जिस तीर्थ में सब देश के यात्री आकर मिलते हैं।”
दो वर्ष बाद 'चाहित्य-विचार निबन्ध में उन्होंने फिर लिखा, “शरत्चन्द्र की कहानियां 'बैताल पच्चीसी' हातिमताई गुलबकावली' या कादम्बरी', 'वासवदत्ता' के समान नहीं हुई हैं, योरोपीय कथा माहित्य के ढंग की हैं। इससे अभारतीयत्व या रजोगुण प्रमाणित नहीं होता, इससे प्रमाणित होती है प्रतिभा की प्राणवत्ता । सत्य का जो प्रभाव हवा में उड़ता फिरता है, वह दूर से आये, चाहे निकट से, उसे सबसे पहले अनुभव करता है प्रतिभाशाली चित्त। जो प्रतीभाहीन होते है, वे उससे बचाव चाहते हैं और फूंइक प्रतिभाहीनों का दल जूरा भारी होता है और उसकी निस्पन्दता दूर होने में बहुत विलम्ब होता है, इसलिए प्रतिभा के भाग्य दीर्घकालिक दुख भोगना बदा रहता है। इसी से मेरी राय है कि साहित्य का विचार करते समय विदेशी प्रभाव और विदेशी प्रकृति की चुटकी लेते हुए वर्णसंकरता या व्रात्यता का विवाद न उठाया जाये।”
शरत् बाबू की गल्प-रचना शक्ति को मुक्त मन से स्वीकार करते हुए एक बार कविगुरु ने उनसे कहा था, “इस बार यदि तुम्हें लखनऊ साहित्य सम्मेलन में जाना हो तो भाषण के बदले एक कहानी लिखकर ले जाना ।”
शरतचन्द्र नारी जाति के मसीहा के रूप में जाने जाते हैं। कविगुरु ने भी अपनी एक प्रसिद्ध लम्बी कविता 'साधारण मेये में कहा है कि साधारण नारी शरतचन्द्र को अपनी मनोवेदना प्रकट करने वाले लेखक के रूप में जानती है। जानती है कि यदि शरत् बाबू उसकी कथा लिख देंगे तो उसका उद्धार हो जाएगा। इसीलिए वह साधारण लड़की उनसे विनती करती है, “पांव पड़ती हूं तुम्हारे, एक कहानी लिखो शरत् बाबू! नितान्त साधारण लड़की की कहानी । “
पाये पड़ि तोमार, एकटा गल्प लेखो तूमि शरत् बाबू
नितान्त साधारण मेयेर गल्प
इसी नाम की एक कविता लिखी उनके मामा उपेन्द्रनाथ ने । उसमें भी वे शरत् से कहते हैं, “तुम अगर साधारण लड़की की कहानी नहीं लिखोगे तो मैं लिखूंगा । लेकिन वह इतनी असाधारण नहीं होगी और बंगाल की नारियां उसे पढ़कर शरत्चन्द्र को ही शाप देंगी
इससे स्पष्ट है कि गुरुदेव ने उनकी प्रतिभा का वरण किया था और जहां तक शरत् बाबू का संबंध है वे जीवन भर उनको अपना गुरुदेव मानते रहे। लेकिन फिर भी उनके जीवन में ऐसे अवसर आये जब उन दोनों में अपरिचय की दूरी बड़ी और कुछ ही समय के लिए सही, मनोमालिन्य पैदा हुआ। कई वर्ष पूर्व 2 कविगुरु ने शरत्चन्द्र के और अपने,दोनों के, परम भक्त संगीतज्ञ दिलीपकुमार राय को एक पत्र लिखा था । उसमें उन्होंने अपने और शरत् के बीच पैदा हो जाने वाले व्यवधान की चर्चा की है।
“किसी पत्र लेखक ने बताया है कि शरत्चन्द्र को विश्वास है कि मैं उसके ऊपर विरक्त हूं। जो मुझे अच्छी तरह जानते हैं वे इतनी बड़ी भूल नहीं कर सकते। राष्ट्रनीति या किसी विषय में मत न मिलने को मैंने कभी भी फौजदारी दण्ड विधान के अन्तर्गत नहीं माना । यदि मैं किसी दिन स्वराज्य सरकार का अधिनायक होता हूं ऐसा होने पर तुम पूर्ण रूप से निश्चित रह सकते हो कि मेरे साथ तुम्हारे संगीत का मेल न होने पर भी तुम्हारा धन और जीवन सुरक्षित रहेंगे। शरत् ने मेरे प्रति कोई अपराध नहीं किया। शायद तुम जानते हो कि शरत् के संबंध में मैंने कभी अश्रद्धा प्रकाशित नहीं की (साहित्य के संबंध में) । शुरू से ही मैं उनकी प्रशंसा करता आ रहा हूं । बहुत लोग कहानी लिखने में शरत् को मुझसे श्रेष्ठ मानते है । यह मेरे चिन्ता करने की बात इसलिए नहीं कि काव्यरचना में मैं शरत् से श्रेष्ठ हूं । इस बात को बड़े से बड़ा निंदक भी अस्वीकार नही कर सकता ।....... . तुम शायद जानते हो कि मैं बहुत दिन से होम्योपैथी की चर्चा करता आ रहा हूं ऐसा होने पर भी तुम्हारे स्वर्गीय नानाजी को जनसाधारण मुझसे बड़ा डाक्टर मानते हैं। तब मेरी एक यही सांत्वना है कि वे मेरे समान छोटी कहानी नहीं लिख सकते। सभी कहते हैं, मुझसे तुम्हारा कण्ठस्वर अच्छा है । उसको लेकर इया अश्रुपात न करके मैं कहता हूं कि मण्टू से मेरा हस्तलेख बहुत अच्छा है ....... सभी विषयों में मेरी क्षमता यदि सबके समान नहीं है, इसलिए ही मैं क्षमताशाली लोगों के सींग मारता फिरता हूं तो फूटा कपाल और फूटकर चार खण्डों में बंट जाएगा । मेरे देश में कोई भी किसी भी विषय में श्रेष्ठता लाभ क्यों न करे, मैं उसके गौरव में सम्मिलित हूं । इस श्रेष्ठता को नामंजूर करके अपने को ही वंचित किया जाता है। मेरे देश में बहुत-से लोग मुझसे अधिक बहुत-से विषयों में बड़े हैं। यह अहंकार मैं संसार के सामने कर सकता हूं । शरत् की एक समय की चर्खा भक्ति को लेकर मैंने तुम्हारे सामने बार-बार हंसी की है। कभी नहीं हंसता, गम्भीर होकर बैठता, यदि मेरे मन में लेशमात्र भी कांटे का घाव होता । कारण, व्यक्तिगत कारणों से जिनसे मेरी विमुखता है, उनकी निन्दा करने में मुझे बड़ी लज्जा आती है। जिसकी प्रशंसा नहीं कर सकता, उसकी निन्दा नहीं करना चाहता । जब मेरे हाथ में साधन पत्रिका थी, तब मैंने साहित्य को अच्छा-बुरा नहीं कहा था । बंकिम की एक-दो बार निन्दा की है । क्योंकि उनकी प्रशंसा करना मेरे लिए स्वाभाविक था ........उनका ठिकाना नहीं जानता । तुम निश्चय ही जानते हो, इसलिए उनसे मिलकर या पत्र द्वारा बता दो कि मैं सर्वान्तःकरण से उनकी कल्याण-कामना करता हूं । चरखा छोड़कर उन्होंने कलमपकड़ी है, इससे मैं खुश हुआ हूं। क्योंकि उनकी कलम से देश की उन्नति का जो सूत्रपात होगा, चर्खे से वह नहीं होगा । किन्तु यदि वे खामखाह चक्रधर बनते भी है, तो उनके विरुद्ध मैं कभी भी चकांत (षश्यन्य) नहीं करूंगा ।”
यद्यपि इस पत्र में कविगुरु की विनोदप्रियता ही मुखर हुई है, लेकिन उनकी भाषा के पीछे उनके मन में उठनेवाले अन्तर्द्वन्द्व की झांकी भी मिलती है। उन दोनों को लेकर उस काल के साहित्यिक चेले-चांटे जो षड्यन्त्र रचते रहते थे, वह भी इस पत्र से स्पष्ट हो जाता है । यह मान लेना बहुत कठिन नहीं है कि कविगुरु के मन में शरत् के प्रति दुर्भावना नहीं थी । गिरिजा कुमार बसु को लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने यह बात एक बार फिर स्पष्ट की है ।
“शरत् से कहो कि उनके ऊपर क्रुद्ध होना कष्टदायक है, क्योंकि स्वभाव के विरुद्ध है। । जिसमें जो कुछ अच्छा है उसको अच्छा कहने के लिए मुझमें खूब छगकुलता है, इसलिए प्रतिकूलता होने पर भी मैं प्रतिकूल नहीं हो सकता । शरत् ने मेरे प्रति कोई अपराध किया हो मैं नही जानता । यदि मेरे साथ उनका किसी विषय में मत नहीं मिलता, उसको लेकर झगड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं है। अपने बारे में भी मत-स्वातंन्य का दावा करता हूं । इस संबंध में दूसरों के दावे की भी रक्षा करता हूं । साहित्य में शरत् का गौरव चिरन्तन हो, परिव्याप्त हो, उनके गौरव से देश का गौरव बढ़े, यह मेरी आन्तरिक कामना है..........
किया हो मैं नही जानता । यदि मेरे साथ उनका किसी विषय में मत नहीं मिलता, उसको लेकर झगड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं है। अपने बारे में भी मत-स्वातंन्य का दावा करता हूं । इस संबंध में दूसरों के दावे की भी रक्षा करता हूं । साहित्य में शरत् का गौरव चिरन्तन हो, परिव्याप्त हो, उनके गौरव से देश का गौरव बढ़े, यह मेरी आन्तरिक कामना है ...........
गुरुदेव ने जो कामना व्यक्त की वह निरन्तर फलीभूत हो रही थी। उनके गौरव से देश का गौरव सचमुच बढ़ रहा था। देश के बाहर भी उनकी ख्याति पहुंच गई थी । 'श्रीकान्त' प्रथम पर्व का अनुवाद अंग्रेजी में हो चुका था । डा० कनाई गांगुली ने उसका अनुवाद इतालवी भाषा में भी किया था। इस अनुवाद को पढ़कर फ्रेंच मनीषी रोम्या रोलां ने प्रवासी के सम्पादक रामानन्द चट्टोपाध्याय से पूछा था, “शरत्चन्द्र प्रथम श्रेणी के उपन्यासकार हैं। उन्होंने और कौन-कौन सी किताबें लिखी हैं । "
'कल्लोल' के सम्पादक दिनेशचन्द्र दास को भी एक पत्र में उन्होंने लिखा था, “हम कई योरोपवासी बन्धु भारतवर्ष के वर्तमान साहित्यिकों के साथ परिचय प्राप्त करना चाहते हैं । शरतचन्द्र की रचनाओं का परिचय पाकर हमें खुशी होगी। के० सी० सेन और टामसन द्वारा अनूदित उनके श्रीकान्त' प्रथम पर्व को पढ़कर उनके अभिनव व्यक्तित्व और लिपि- कुशलता पर मुग्ध हो गया हूं ।”
उस दिन लीग आफ नेशन्स के कार्यालय में कई बंगाली मित्रों से बातचीत करते हुए बंगाल सरकार के तत्कालीन अर्थ मन्त्री नलिनीरंजन सरकार ने बड़े दुख के साथ कहा था, “एक रवीन्द्रनाथ को छोड़कर पश्चिम के देशों में और किसी बंगाली का नाम नहीं सुना जाता।
पास ही एक विदेशी महिला बैठी हुई थीं । उन्होंने कहा, “शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय नाम के एक बंगाली लेखक के प्रति भी पाश्चात्य देश के रहनेवालों के मन में बड़ी श्रद्धा है । उनकी दो-एक किताबों का नाट्य रूपान्तर लैटिन आदि भाषाओं में भी हो चुका है। इतना ही नहीं, विदेशी रंगमंच पर उनका प्रदर्शन भी हुआ है ।"
स्वयं शरत्चन्द्र के पास पाश्चात्य विद्वानों के अनेक पत्र आते थे। एक इटालियन ने 'श्रीकान्त' की विस्तृत प्रशंसा करते हुए लिखा था - "यह रचना आज के विश्व साहित्य की चोटी की रचनाओं में गिने जाने योग्य है। मैंने मूल बंगला में उसे पढ़ा है और अब इटालियन भाषा में उसका अनुवाद करने जा रहा हूं।" II
क्या यह किसी भी देश के लिए गर्व की बात नहीं है ?