'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प्रकार आलोड़ित कर दिया हो यह बात नहीं थी, उस समय के सभी ख्यातनामा मनीषियों के सम्पर्क में भी वह आने लगे थे। यद्यपि किसी बड़े व्यक्ति के पास जाते उन्हें बड़ी परेशानी होती थी, “न जाने कैसा मेरा स्वभाव है ! बड़े लोगों के घर जाने की बात उठते ही द्विधा संकोच पै कारण मन अप्रसन्न हो जाता है। इसलिए जाऊं जाऊं करने पर भी जाना नहीं होता।' 4 फिर भी सम्पर्क बढ ही रहा था। एक ओर थे रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रमथ चौधरी, अमृतलाल बसु, क्षीरीदप्रसाद विद्याविनोद और सत्येन्द्रनाथ दत्त जैसे साहित्य-मनीषी, तो दूसरी ओर सौरीन्द्रमोहन मुकर्जी, हेमेन्द्रकुमार राय, मणिलाल गांगुली, पवित्र गांगुली, अमल होम और दिलीपकुमार राय जैसे मित्र । आधुनिक दल के सर्वश्री शैलजानन्द मुखोपाध्याय, काजी नजरुल द्द्स्नःम, अचिन्यकुमार सेनगुप्त, प्रेमेन्द्र मित्र और नृपेन्द्रकृष्ण चट्टोपाध्याय आदि भी समय-समय पर मिलने आते थे और साहित्य- चर्चा करते थे। साहित्य क्षेत्र से बाहर भी परिचय का दायरा विस्तृत होता जा रहा था। बर्मा के उनके स्नेही बत्यु अदिनीकान्त कर किसी मुसीबत में फंस गए थे, तब उन्होंने उन्हें लिखा था, “मैं पत्र तो अनेक व्यक्तियों को लिख सकता हूं, जैसे बलराम अम्पर, मोनि मित्तर, उपेन मजूमदार और भी अनेक अफसर है, परन्तु क्या लिखूं किसको सिद्ध, जरा शान्ति से सोचकर बताओ।
अपने मोहल्ले में साहित्य सभा का निर्माण उन्होंने यहां भी किया था। उसका सभापतित्व करने को वे तत्कालीन सुप्रसिद्ध साहित्यकारों को बुलाते रहते थे। कविगुरु को पहला पत्र सम्भवत. इसी निमन्त्रण को लेकर लिखा था, “कई दिन से बराबर तर्क करने पर भी यह मीमांसा नहीं कर पाए कि इस सभा में आपकी चरणधूलि पडने की किंचित् सम्भावना है या नहीं। इस बार आप जब घर आए तो अनुमति मिलने पर हम आपके पास आकर निवेदन करें 16
अड़ा जमाने में तो वे सदा सिद्धहस्त रहे थे। इस अड्डे में उनके बाल्यजीवन के मित्र भी आते थे। उनके लिए वे वही प्यार करने वाले बीरबली स्वभाव के अनगढ़ देहाती मनुष्य थे। वही हंसी, वही चंचलता, वही महान्यस्तता । आयु भी वहां कोई अर्थ नहीं रखती थी। उस दिन विभूतिभूषण अपने मित्र श्री अतुलचन्द्र दत्त के साथ उनसे मिलने आए। द्वारा खोलते ही बदसूरत भेलू ने इनका स्वागत किया। उस क्षण विभूति बाबू को लगा, जैसे शरच्चन्द्र ने अपने एकान्त की रक्षा करने के लिए इस यमदूत को रख छोड़ा है। तभी उसकी आवाज सुनकर जोर ओर से पुकारते हुए शरत् बाबू बाहर अघर । लेकिन जैसे ही उनकी दृष्टि विभूति पर पड़ी तो सब कुछ बदल गया। वे लोग कछ देर के लिए आए थे, लेकिन जब लौटे तो तीन दिन और तीन रातें बीत चुकी थीं। बाते करते-करते न जाने इतना लम्बा समय कहां से आकर कहा चला गया। किस्से पर किस्से, हर श्टे तम्बाकू, बीच-बीच में खाने-पीने का प्रचुर प्रबन्ध-इस अत्याचार से मित्र परेशान हो उठे। लेकिन शरत् का प्रेम तो विश्रांति जानता ही नही था। घड़ी या तो बन्द हो जाती या उल्टी रख दी जाती थी । विभूतिभूषण ने कहा, “शरत् दा! आपके इस अश्लील कुने के प्रथम स्वागत से तो में समझा था कि आप कालभैरव की साधना में लगे हुए है, पर अब देखता हूं तो वही पहले की नटराज की मूर्ति है । "
शरत् बाबू कुछ नहीं बोले। बस कुत्ते के मुंह से मुंह लगा कर उसे चूमने लगे। कैसा अद्भुत उनर था यह! न जाने कितने परिचित और अपरिचित बत्युओं ने इन बैठकों में उनके मुंह से कितनी कहानियां सुनी थीं। उनकी झूठी - सच्ची वे बैठकी कहानियां. उनके साहित्य से कम रोचक नहीं हैं।
उस समय बंगाल में अनेक मासिक पत्र प्रकाशित हो रहे थे । उनमें आधुनिक दल के नवीन स्वर की प्रतिनिधि थी 'भारती' । सबुज पत्र' कथ्य भाषा का प्रसार पत्र था (यद्यपि शरत्चन्द्र की लोकप्रियता का एक बड़ा आधार उनका कथ्य भाषा का प्रयोग था, पर सबुज पत्र ' ने उनका विरोध किया) । 'प्रवासी' में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का योग सर्वोपरि था । 'भारतवर्ष ' के प्रमुख लेखक थे शरत्चन्द्र और 'नारायण' में विपिन पाल आदि मुख्य रूप से लिखते थे । नारायण ' के सम्पादक थे बैरिस्टर चितरंजन द । स । अलीपुर बम षड्यन्त्र स के अभियुक्त अरविन्द घोष के बचाव के वकील के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी । वे कवि भी थे । यदि वे राजनीति में न डूब जाते तो निश्चय ही भक्त और रहस्यवादी कवि के श्प में उनकी प्रसिद्धि होती । 'नारायण' का प्रकाशन उन्होंने ही आरम्भ किया था । वह सबुज पत्र' का प्रतिद्वन्द्वी माना जाता था । इसका कारण यह था कि बैरिस्टर दास रवीन्द्रनाथ के पाश्चात्य प्रभाव को अच्छा नहीं मानते थे । उनका मत था, 'रवीन्द्रनाथ ने पश्चिम से बहुत सारी चीजें ग्रहण की हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी वजह से बंगला साहित्य ३ विविधता आई और उसकी समृद्धि भी हुई। परन्तु इसी कारण बंगाल की अपनी संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं हो सका। किसी १ स्थिति में हमारे लिए यह शोभनीय नहीं है कि हम पश्चिम की चकाचौंध से प्रभावित हो जाएं ।'
इससे स्पष्ट है कि उनके साहित्य की प्रेरणा का स्रोत विशुद्ध देशप्रेम था । प्राचीन परम्पराओं के प्रति उनकी लेखनी में असीम सम्मान था । इसी कारण वे भरतचन्द की ओर झुके । एक दिन पत्र लिखकर उन्होंने शरतचन्द्र से प्रार्थना की कि वे 'नारायण' के लिए अपनी कोई रचना भेजें ।
शरतचन्द्र ने विशेष रूप से उनके लिए एक गाल लिखी । उसे भेजते हुए उन्होंने अपने पत्र में लिखा था कि इस गल्प के नामकरण का भार वह दास महोदय के ऊपर ही छोड़ते हैं ।
दास महोदय ने उस गल्प का नाम रखा 'स्वामी' 2। उसका नायक वैष्णव आदर्श का जीवन्त रूप है। प्रकाशित होने के बाद पारिश्रमिक के रूप में बैरिस्टर दास ने लेखक को एक कोरा चेक भेजते हुए लिखा, 'अर्थ को लेकर आप जैसे शिल्पी की रचना का मूल्य निर्धारत नहीं किया जा सकता । आपके पारिश्रमिक के रूप में यह चेक भेजता हूं । कृपा करके इसे स्वीकार कीजिए और इच्छानुसार रुपये इसमें लिख लीजिए । कोई संकोच न कीजिए ।
शरत् बाबू का मन भीग आया। इतना अमित विश्वास प्रकट किया था उन्होंने एक लेखक के प्रति! वे चाहते तो कुछ भी लिख सकते थे । रवीन्द्रनाथ के बाद वही तो सर्वश्रेष्ठ लेखक थे । उनकी लोकप्रियता उस समय चरम सीमा पर थी। लोग उनका नाम नहीं जानते थे, लेकिन उनकी रचनाओं से परिचित थे ।
उस दिन उत्तर प्रदेश के एक प्रवासी बंगाली ठेकेदार कार्यवश क्लकना आए और अपने एक रिश्तेदार के पास ठहरे। वह परिवार बहुत सुशिक्षित था। उस घर की एक लड़की ने एष्क दिन उनसे कहा, 'मामा, एक काम करोगे? हमारे घर आते समय मोड़ के पास जो लाल घर है, वहां बीच-बीच में शरत् बाबू आते रहते हैं आप एक बार उनसे मिल लें । '
चकित होकर मामा ने पूछा, 'कौन शरत्?'
'शरत् बाबू वही हमारे शरतचन्द्र ।'
ठेकेदार महोदय अब भी कुछ नहीं समझे कि यह 'अपने शरतचन्द्र कौन है? लड़की पिता ने कई तरह से शरत् बाबू का परिचय दिया परन्तु व्यर्थ । अन्त में वे बोले, अजी वही शरत्, जिनका 'श्रीकान्त' है ।'
यह सुनते ही ठेकेदार बोल उठे, . अरे वह आवारा लड़का जान पड़ता है, उसने अपना 'श्रीकान्त' नाम बदल लिया हे?.
नाम बदला हो या न बदला हो पर उनकी रचनाओं की लोकप्रियता की थाह नहीं थी लेखक को बहुतों ने नहीं देखा था, पर रचनाएं पढ़ने में छात्र, किरानी, गृहनारी, व्यापारी सब एक-दूसरे से बाजीमार ले जाने को उत्सुक थे। छात्रों की परीक्षा की पुस्तकों के नीचे 'श्रीकान्त' 'चरित्रहीन' और देवदास' आदि छिपे रहते । लक्ष्मी बहू के तकिये के नीचे काजल और सिन्दूर से अंकित पल्ली समाज' बिराजबहू, और बिन्दूर छेले' का मिल जाना बहुत स्वाभाविक था । यहां तक कि बनिये की दुकान पर जहां प्रतिदिन रामायण का पाठ होता था वहां भी ज्ञड़ी दीदी' 'पण्डित मोशाय' या 'श्रीकान्त' दिखाई दे जाते । इस लोकप्रियता का कारण यही तो था कि उनके पात्र जीवन में से उभरे थे किसी नियम-विधान से निर्मित नहीं हुए। उनसे शरत् बाबू का प्रेम का नाता था, अर्थात् हार्दिक था बौद्धिक नहीं, इसीलिए वे हर किसी के अपने हो रहते थे । चिन्तन का दुख बीच में नहीं आने देते थे । प्रेम की यह अनन्यता ही तो कलाकार की कसौटी है ।
इसीलिए पाठक उनके पात्रों में इतने रम जाते कि भूल जाते उनका कोई खष्टा भी है । विद्यार्थी दल बनाकर उनकी रचनाओं का पाठ करते, फिर भी वे कहां रहते हैं, क्या करते हैं यह बहुत कम लोग जानते थे । बहुत-से समझते थे, वे आवारा हैं। कभी बिहार, कभी काशी तो कभी बर्मा घूमते रहते है ।
इतने लोकप्रिय थे शरत् बाबू ! लेकिन दास बाबू के कोरे चेक में उन्होंने केवल 10() रुपये ही लिखे । रुपये का मूल्य नितान्त सामयिक है। असली मूल्य उस परिचय का था जो उनका देशबखु के साथ हुआ। एक प्रतिभा ने बाहें फैलाकर मुक्त मन से दूसरी प्रतिभा का वरण किया ।
केवल देश ही नहीं, विदेशों में भी उनकी प्रतिभा की कहानी धीरे- धीरे पहुंच रही थी । लन्दन के सुप्रसिद्ध समाचारपत्र दि टाइप्स के लिटरेरी सप्लीमेंट ने इसी समय उनके दो कहानी-संग्रहों, विदूर छेले' और 'मेज दीदी' की प्रशंसात्मक समीक्षा प्रकाशित की। समीक्षक महोदय ने उन्हें मोपांसा के समकक्ष माना । नारी चरित्र और शिशु-मन के ज्ञाता के रूप में विशेष रूप से उनकी ख्याति उसने की । यद्यपि इस समीक्षा-विशेष में कोई बहुत गहराई नहीं थी, परन्तु फिर भी उनकी प्रतिभा का वरण करके आलोचक ने अच्छा ही किया था ।
अनेक कहानियों के अतिरिक्त दत्ता' और 'श्रीकान्त' का दूसरा पर्व उसी समय पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए । 'दत्ता' के कारण उन्हें क्य लांछना नहीं सहनी पड़ी। इस रचना में उन्होंने ब्रह्म समाज की कुछ आलोचना की है । इसीको लेकर ब्रह्मसमाजी खड्गहस्त हो उठे थे । इसी समय एक शिक्षित ब्रह्म परिवार ने उन्हें अपने घर निमन्त्रित किया । वे संकट में पड़ गए। जाने पर कोई अप्रीतिकर घटना घट सकती है। न जाने पर उन्हें डरपोक समझा जाएगा ।
लेकिन अन्त में वे गए । उनका खूब भाव भीना स्वागत किया गया । साज-सज्जा भी कम नहीं थी । महिलाओं ने बड़े स्नेह और आदर से उन्हें बहुमूल्य कुर्सी पर बैठाया, फिर सुन्दर सुन्दर विशेषण लगाकर उनकी अभ्यर्थना की। उसके बाद बारी आई भोजन की, उस समय अब तक जो नहीं देखा था वहीं उन्होंने देखा । उन्होंने बायी और चांदी के थाल में अपने उपन्यास 'दत्ता' को देखा । उसका वह पृष्ठ खुला हुआ था, जहां रासबिहारी अपनी योजना फेल हो जाने पर बेटे की ताड़ना करता है । उन पंक्तियों को विशेष रूप से लाल पेसिल से अंकित किया गया था।
वह मब कुछ समझ गए । पर उन्होंने दिखाया यही कि कुछ नहीं समझे हैं । खूब खाया खूब मुक्त मन से बातें की और चले आए ।
वे ब्रह्म महिलाएं सोचती होगी कि इस तरह उन्होंने शरत् की अच्छी ताड़ना की है, पर वाद-विवाद से परे है, जिसकी दृष्टि तात्त्विक उतनी नहीं जितनी प्रसादमयी है, वह सष्टा क्या ऐसी ताड़नाओं की चिन्ता करता है?
उनकी सभी रचनाओं के साथ कोई-न-कोई इतिहास जुड़ा हुआ है। और वह इतिहास प्राय: रोचक नहीं है । साहित्य' के सम्पादक समाजपति महोदय से उनका पुराना परिचय था । बड़े कुर आलोचक के रूप में उनकी ख्याति थी । शरत् बाबू पर भी यदा-कदा कृपा करने से वे नहीं चूकते थे। साहित्य' के एक अंक में उन्होंने शरत् बाबू पर बड़ा करारा व्यंग्य किया । वह व्यंग्य उनके कुत्ते को लेकर था । उन्होंने लिखा, - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय नाम के एक नये लेखक का आविर्भाव हुआ है । उनके मन में माया-ममता बहुत है । उस दिन कार्नवालिस स्ट्रीट में वह एक नैड्री कुत्ते को कटलेट खरीदकर खिला रहे थे। पास ही एक भिखारी एक पैसे के लिए गिड़गिड़ा रहा था, परन्तु उसकी ओर इन दयालु शरतचन्द्र की नजर नहीं पड़ी ।'
वे समझ गए कि उन्होंने बहुत दिनों से 'साहित्य' के लिए कुछ नहीं लिखा है, इसीलिए यह अप्रिय रआन्दोलन चल रहाहै । उस समय वसुमति साहित्य मन्दिर से प्रकाशित पूजा वार्षिकी 'आगमनी' के सम्पादन का भार उन्हीं पर था और उनका आग्रह था कि शरत् बाबू उसके लिए अवश्य ही कहानी लिखें । यह अच्छा अवसर था । समाजपति महोदय को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने 'छवि' 2' कहानी लिखी । इसमें एक बर्मी चित्रकार और उसकी धनी प्रेमिका की कहानी है। रंगून में उनका एक बर्मी चित्रकार से बहुत घनिष्ठ परिचय था । निश्चय ही इस कहानी को लिखते समय उनके मन में वह बर्मी चित्रकार रहा होगा, लेकिन वास्तव में इसका आधार है, उनकी बचपन की एक कहानी कोरेल ग्राम' 10' । वे अपनी बचपन को रचनाओं को अच्छा नहीं समझते थे । इसलिए जहां तक हो सका, सभी को उन्होंने फिर से लिखने की चेष्टा की । यही कोरेल ग्राम' नये रूप में छवि' के नाम से प्रकट हुई । कोरेल ग्राम' की पृष्ठभूमि भी विदेशी थी । वह लन्दन के पास एक छोटे- रो ग्राम के वातावरण पर लिखी गई थी। पात्र अंग्रेज थे। इसके विपरीत छवि का वातावरण बर्मा का है और पात्र भी बर्मी है । शरत् लन्दन नहीं गए थे लेकिन बर्मा में उन्होंने तेरह वर्ष बिताए थे. इसीलिए नयी कहानी को उन्होंने बर्मी जीवन पर आधारित किया ।
सौरीन्द्रमोहन मुकर्जी ने भी उनसे रचना चाही थी, लेकिन समाजपति की तरह नहीं । उन्होंने शरत् बाबू से कहा, नुम्हारी सबसे पहली रचना बड़ी दीदी' 'भारती' में प्रकाशित हुई । उसी के द्वारा बंगाल के लोगों को तुम्हारा परिचय मिला । इसलिए 'भारती' का तुम्हारे ऊपर दावा है । इसी दावे के आधार पर मैं तुमसे एफ कहानी चाहता हू । जितना पैसा चाहोगे, दूंगा ।
शरत् हंसकर बोले 'तुमसे पैसा लूंगा ! नहीं, मैं तुम्हें कहानी दूंगा । '
और उन्होंने 'भारती' के लिए 'विलासी'
कहानी लिखी । इस कहानी में उन्होंने अपने ही जीवन को चित्रित करने का प्रयत्न किया है। पूर्णत सत्य न होकर भी उसकी आधारभूत घटनाएं सत्य हैं। यह कहानी डायरी के रूप में लिखी गई है और वह डायरी एक गाव के बालक की है। बालक का नाम है नेडा' यह नेडा' नाम उनका अयना पुकारने का नाम द्य । ऐसा लगता है, अपना नाम देकर लेखक कहानी की प्रामाणिकता और उसका अपने से सम्बन्ध स्पष्ट करना चाहता है। वह यह है- भूल सके कि मृत्युंजय सचमुच ही एक व्यक्ति था, जिसे वे बचपन में अच्छी तरह जानते थे और उन दिनों के समाज की ममताहीन निष्ठुर सत्ता की भी उन्हें याद थी। इस कहानी में कायस्थ सन्तान मृत्युंजय के साथ अमूश्य मुसलमान कन्या विलासी का विवाह कराके शरत्चन्द्र ने जिस शक्तिशाली मन का परिचय दिया है, वह कभी सम्भव नहीं होता, यदि साहित्य के रूप में उनका जीवन-बोध स्पष्ट न होता । उनकी मान्यता थी कि दत्तचित्त होकर जब आदमी साहित्य-रचना में मग्न होता है, तब वह ठीक हिन्दू होता है न मुसलमान । तब वह सबके परिचित अपने अहम् से बहुत दूर चला जाता है । नहीं तो उसकी साहित्य-साधना व्यथ हो जाती है ।
सम्पादक-प्रकाशक ही उनसे रचनाएं नहीं चाहते थे, बाजार में भी उनकी पुस्तकों क मांग निरन्तर बढ़ती जा रही थी । वसुमति साहित्य मन्दिर के व्यवस्थापक श्री सतीशचन्द्र मुखोपाध्याय ने उनके सामने एक योजना रखी कि उनकी सब रचनाओं को ग्रन्यावली के रूप में अल्प मूल्य पर प्रकाशित किया जाए। गरीब देश में इच्छा होने पर भी अधिक मूल्य की पुस्तकें हरेक के लिए खरीदना सम्भव नहीं है, लेकिन शरत्चन्द्र इस योजना को सहा स्वीकार नहीं कर सके। उनको डर था कि ग्रन्थावली छपने पर अलग-अलग छपनेवाली उनकी पुस्तकों की बिक्री कम हो जाएगी, लेकिन प्रकाशक महोदय यह तर्क स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी बताया कि ग्रन्थावली से तीन साल में पच्चीस-तीस हज़ार रुपये मिल सकते हैं। शरत् बाबू को रुपये की आवश्यकता थी। रोटी के लिए निरन्तर लिखते रहना उन्हें अख्स नही लगता था। इतना रुपया मिलने पर इस लिखने से मुक्ति मिलने की सम्भावना थी। वे पछांह भी जाना चाहते थे, लेकिन साथ ही वे यह भी नहीं चाहते थे कि उनके स्थायी प्रकाशक हरिदास चट्टोपाध्याय को किसी तरह की हानि पहुंचे।
अनिश्चय की इसी स्थिति में कई महीने बीत गए। शायद उनकी इच्छा थी कि वह स्वयं ग्रन्थावली प्रकाशित करें या कहीं और से कराएं, लेकिन अन्तत: उन्होंने वसुमति साहित्य मन्दिर को ही अनुमति देने का निश्चय किया। उन्हें ऐसा लगा कि सतीश बाबू को निराश करके अब कहीं और से ग्रन्थावली प्रकाशित करवाना अशोभनीय होगा । शरत्-ग्रन्थावली का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ।' 12 इसमें 'दत्ता' 'परिणीता' 'श्रीकान्त (प्रथम पर्व), 'अरक्षणीया' 'एकादश वैरागी' मंझली दीदी' और 'मुकदमे का परिणाम', ये रचनाएं संगृहीत थी। इस ग्रन्थावली से उन्हें बहुत धन प्राप्त हुआ। पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई और पुरानी पुस्तकों की बिक्री पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। फिर तो और भी खण्ड होते चले गए। एक वर्ष के भीतर ही भीतर चार खण्ड बाज़ार में आ गए। एक-एक खण्ड की पांच-पांच हज़ार प्रतियां छपती थीं और कुछ ही महीनों में बिक जाती थी। उन दिनों देश में काफी धन था। क्योंकि प्रथम महायुद्ध के बाद पटसन का दाम बढ़ गया था। बंगाल पटसन के लिए प्रसिद्ध है। अधिक धन के कारण लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठ रहा था। कांच की कुप्पी की जगह हरिकेन लालटेन आ गई थी और सिर के ऊपर फूस के छप्पर का स्थान टीन की चादरों ने ने लिया था, इसलिए लोग पुस्तक भी खरीदने लगे थे। पढ़ने का चाव बंगाल में सदा ही अपेक्षाकृत अधिक रहा है।
इस अभूतपूर्व सफलता से प्रभावित होकर वसुमति साहित्य मन्दिर के मालिक ने अलग-अलग पुस्तकें छापने का आग्रह भी किया। लेकिन शरत् बाबू इसके लिए किसी भी तरह तैयार नही हुए। बोले, "प्रारम्भिक जीवन में हरिदास ने मेरी सहायता की थी। अब उनसे मैं वे पुस्तकें वापस नहीं ले सकता। वसुमति वाले केवल ग्रन्थावली छाप सकते है। अलग-अलग पुस्तकें तो हरिदास ही छापेंगे।"
नये प्रकाशक से उन्हें आठ हज़ार रुपया प्रतिवर्ष मिलने लगा। पुराने प्रकाशक जो छ: हज़ार रुपया प्रति वर्ष देते थे, उनमें भी कोई कमी नहीं हुई। जो शरत् बाबू किशोरावस्था में परीक्षा के लिए फीस का जुगाड़ नहीं कर सके थे, जिन्होंने अपना यौवन जीविका की तलाश में व्यर्थ कर दिया था, वही अब अमीर हो गए। तीन-चार वर्ष पूर्व वे सौ रुपये मासिक पाने के लिए तरस रहे थे। अब उनको एक हज़ार रुपये मासिक से भी अधिक मिलने लगा था, लेकिन इतना धन पाकर भी उनका मन गरीबी को नहीं भूल सका। गरीबों की वेदना को उन्होंने प्रत्यक्ष झेला था, इसलिए जब हाथ में इतना रुपया आया तो उन्होंने उसको जमा करने का ज़रा भी प्रयत्न नहीं किया। मित्रों की सहायता करने के लिए तो वे सदा ही तत्पर रहते थे। अब आसपास के गरीबों की ओर भी उनकी दृष्टि गई। उस दिन सदा की तरह 'भारतवर्ष' के सम्पादक जलधर सेन रचना के लिए तकाज़ा करने आए। देखते क्या हैं, घर में चारों ओर अनेक धोतियां और साड़ियां बिखरी पड़ी है। नौकर उनको बंधने की चेष्टा कर रहा है। और उनके बीच में कुर्सी पर बैठे हुए शरत्चन्द्र इकन्नी, दुअन्नी और चवन्नी गिन गिनकर मेज़ पर ढेरियां लगा रहे हैं। चक्ति होकर सेन बाबू ने पूछा, "यह क्या हो रहा है शरत्?. "
शरत् ने उत्तर दिया दादा, दस बजे की गाड़ी से दीदी के घर जा रहा हूं।"
सेन महोदय ने कहा, "जान पड़ता है वहां कोई व्रत प्रतिष्ठा है। इसीलिए इतने कपड़े और इतनी खरीज लिए जा रहे हो।"
शरत् बाबू ने उतर दिया, "नही दादा, दीदी के घर व्रत प्रतिष्ठा नहीं। "
सेन महोदय ने पूछा, "व्रत प्रतिष्ठा नहीं है तो यह सब सामान किसलिए ले जा रहे
हो?"
शरत् बाबू ने उदास मन से कहा, "दादा, दीदी के गांव में और उसके चारों ओर गरीब लोगों की क्या दशा है! उनके पेट के लिए भात नहीं, शरीर ढकने के लिए कपड़े नहीं यह जो.. " इतना कहकर वे चुप हो गए। कण्ठावरोध हो आया और आखों से जल गिरने लगा।
यही पर दुःख कातरता उनके साहित्य में मुखर हुई और इसी कारण वे इतने लोकप्रिय हुए। । उनके पाठक जान गए थे कि 'श्रीकान्त' की आवारगी के बावजूद उन्हें भारी दुखों के बीच में से अपना रास्ता ढूंढ़ना पड़ा है और यह भी कि अन्याय को देखकर उनका क्रोध उफन उठता है। जैसे उनके विचारों के अन्तराल में वैसे ही जीवन में भी पीड़ा की धारा प्रवाहित होती रही है।
यह बात नहीं कि वे अपने लिए पैसा खर्च नहीं करते थे। उनका अपना जीवन-स्तर भी अब ऊंचा उठ गया था। समृद्धि के साथ सौंदर्य-पिपासा और तीव्र हो उठी थी। मकान बनाने के लिए दीदी के गांव के पास ही 'पाणित्रास' में उन्होंने ग्यारह सौ रुपये में ज़मीन खरीदी तो उस समय का बढ़िया रैक भू भी पहनने के लिए खरीदा 14 । उस दिन मामा उपेन्द्रनाथ गांगुली मिलने के लिए आए। चाय, गप्प-शप, खाना-पीना, आराम सब कुछ सदा की तरह हुआ, लेकिन उसके बाद सहसा शरतचन्द्र ने कहा, "चलो उपीन, आज एक सौदा करना है।"
उपेन्द्रनाथ ने पूछा, "कैसा सौदा ?"
शरत् बोले, "व्हाइट वे की दुकान से एक जोड़ा रैक शू खरीदूंगा। सुनता हूं वह जितना आरामदेह है, उतना ही मजबूत है। "
उस जूते का मूल्य साढ़े बत्तीस रुपये था। इसी से उसके रूप और उसकी उपयोगिता की कल्पना की जा सकती है। उसी को खरीदने के लिये वे मामा के साथ स्टीमर के द्वारा कलकत्ता की ओर चले। उस समय उनके पैरों में फटी चट्टियां थी। जब वे नई होंगी तब उनका रंग कैसा रहा होगा, कुछ नही कहा जा सकता था। अब तो कहीं काला और कहीं बादामी हो गया था। बड़े घरों में ऐसे जूते शौचालय में ही जाने के काम आते हैं। चलने से न केवल चट्टिया पर ही धूल जम गई थी, बल्कि पैरों पर भी मानो किसी ने धूल की 'जुबान पहना दी हो। गंगा पार करके बातें करते हुए वे जिस समय दुकान के सामने पहुंचे तो मामा ने कहा, "शरत्, तुम्हारे इन पैरों को देखकर दुकानदार तुम्हें कीमती रैक शू नहीं दिखाएगा । "
शरत् बाबू उद्विग्न हो उठे। बार-बार पैर पटकते और उन्हें साफ करते, लेकिन कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ा। अन्त में बोले, "चलो, अन्दर चलते हैं। पास मैं पैसा तो है। चार नोट मुंह पर मारेंगे कहेंगे, यह लो पैसा, पैर क्यों देखते हो?"
लेकिन दुकान के अन्दर जाकर उन्हें ज़रा भी परेशानी नहीं हुई। विदेशी 'दुकान 'थी। देशी होती तो निश्चय ही दुकानदार कहता, "आज नहीं, फिर किसी दिन आना । " चीनी दुकानदारों की दुकानों पर भी ऐसी ही दुर्दशा उन दिनों होती थी। बंगाली लोग अपनी मातृभाषा में गालियां देकर संतोष कर लेते थे, लेकिन इन लोगों ने शरत् बाबू का वैसा ही स्वागत किया जैसा रैक शू पहने हुए किसी व्यक्ति का हो सकता था। अंग्रेज़ व्यापारी ही तो हैं। पैर की धूल और टूटी चट्टियां गोरे कर्मचारी को विवृत न कर सकीं। आठ-दस जोड़े जूतों के बक्स बगल में दबाकर वह तुरन्त हाज़िर हो गया। फिर घुटने टेककर उनके सामने बैठ गया और एक-एक जोड़ा जूता पहनाकर परीक्षा करने लगा। शरत् बाबू किसी भी तरह सन्तुष्ट नहीं हो रहे थे। वह फिर चार-पांच जोड़े ले आया। अन्त में एक जोड़ा पहनकर शरत् सन्तुष्ट हो गए। कर्मचारी ने अच्छी तरह फीता बांध दिया। कहा, "जरा चल-फिरकर देखो तो, मुझे तो लगता है यह जोड़ा ठीक है । "
शरत् बापू ने वैसा ही किया। फिर बोले, "चमत्कार, जूता पहन रखा है, ऐसा लगता ही नहीं ।"
और यह कहते हुए उन्होंने बटुए से दस-दस के चार नोट निकाले। उन्हें लेकर कर्मचारी कुछ क्षण बाद कैश मेमो और बाकी साढ़े सात रुपये ले आया। शरत् बाबू उठे। बोले, "चलो मामा।" कर्मचारी ने पूछा, "आपके स्लीपर बक्स में रख दूं?"
"नही, इसकी कोई ज़रूरत नही । "
और यह कहकर वह दुकान से बाहर निकल आए । पुराने स्लीपर और नया बक्स दोनों स्वामी - विहीन होकर एक-दूसरे का मुंह देखते हुए दुकन में पड़े रह गए। जूतों का बक्स उठाने की जहमत से बचने के लिए ही वे पुराने स्लीपर छोड़कर और नये जूते पहनकर चल पड़े थे।
यह परिवर्तन केवल जूतों की खरीद तक ही सीमित नहीं था। उनके सारे रूपरंग और पहनावे में अन्तर आ चुका था। अब वे साज-सज्जा में पहले के देहाती शरत् नहीं रह गए थे, जब कपड़ों के प्रति वे अत्यन्त लापरवाह थे। बाल रूखे, कुर्ते में बटन नहीं, कंधे की चादर भी मैली, बांस की डंडीवाला छाता और पैरों में फटे जूते। अब तो चेहरे पर स्निग्धता आ गई थी। पहनते थे डबल ब्रेस्ट की चमकदार कमीज़, दामी सर्ज का कोट, धुली हुई शान्तिपुरी धोती, पैरों में लाल मोजे, फीते वाले जूते, हाथ में चांदी की मूठ की छड़ी, आखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा और चेहरे पर दाढ़ी।
लेकिन यह रूप भी क्या उनके स्वभाव के उजहुपन और शरीर के स्वास्थ्य को ठीक कर सका? अब भी साधारण-सी बदपरहेजी करने पर बुखार हो जाता था। दूसरे रोग भी जब-तब आक्रमण करते रहते थे। एक दिन दाहिने पैर के घुटने के नीचे इितनी जलन और खुजली हुई कि बेचैन हो उठे। ऐसा लगा जैसे एग्ज़ीमा हो गया हो। बेरी-बेरी की आशंका भी हुई। वे जानते तो थे नहीं कि यह रोग क्या है, टिंचर आयोडिन लगाना शुरू कर दिया। कई बार लगाने से रोग ने उग्र रूप धारण कर लिया। डाक्टर ने आकर उन्हें बहुत फटकारा। कहा, "आपको तनिक भी सब्र नहीं होता? कास्टिक या एसिड वेसिड जो कुछ लगाना हो लगाएं, मैं तो चला।"
लेकिन बाद में शान्त होकर दवा और मालिश की व्यवस्था की और शरत् बाबू दोनों पैरों को तकिये पर रखकर चुपचाप लेट गए। इस घटना की चर्चा करते हुए उन्होंने अपनी एक शिष्या को एक लम्बा पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने न केवल स्वास्थ्य की चर्चा की, बल्कि अनेक सामाजिक विषयों के साथ-साथ अपने दाम्पत्य जीवन पर भी प्रकाश डाला........."मै कभी अम्ल का रोगी नहीं रहा। इतना कम खाता हूं कि वह पास नहीं फटकता कि कहीं उसे भी भूखों न मरना पड़े। उस दिन घर पर बनाए गए कुछ संदेश जबर्दस्ती खिला दिए। आज भी उनकी डकार आ रही है। मैं मशहूर आलसी हूं। चबाने के डर से किसी चीज़ को आसानी से मुंह में नहीं डालता। मुझसे यह अत्याचार कैसे सहा जाए? लेकिन घर के लोग नहीं समझते। वे सोचते हैं, न खाने के कारण ही मैं दुबला हुआ हूं। अतएव खाने से ही उनकी तरह मोटा हाथी हो जाऊंगा।
"स्वर्गीय गिरीश बाबू ने अपने 'बाबू हसन' में लाख बात की एक बात कही है - अबलाएं बड़ी लालची होती हैं। मर जाने पर भी खाती हैं। औरत की जाति को उन्होंने पहचान लिया था। आज से बीस वर्ष पहले से हम केवल खाने को लेकर ही लाठी चलाते आ रहे हैं। उन्होंने नहीं खाया और न खाकर दुबले हो गए। गृहस्थी और रसोई किसके लिए है? जहां दोनों आंखें ले जाएंगी वहीं जाकर बैरागन हो जाऊंगी । इत्यादि, इत्यादि । "मैं कहता हूं, 'अरे भई, बैरागन होना हे तो जल्दी हो जाओ। तुम तो मुझे डर दिखाकर कांटे-सा सुखा रही हो।'
"यथार्थ में मेरे दुख को किसी ने नहीं देखा। मैं अक्सर सोचता हूं कि अगर सचमुच ही कहीं सुख है तो वहां एक आदमी दूसरे के साथ खाने के लिए इतनी ज़ोर-जबर्दस्ती नहीं करता होगा और अगर करता है तो मैं नरक में जाना ही पसन्द करूंगा।
"कोई बीस दिन पहले कुत्ते का झगड़ा मिटने गया तो कहीं से एक खौरहे कुत्ते ने आकर मेरी हथेली में दांत गड़ा दिए । अभागा कुत्तां कितना अकृतज्ञ है ! उसे अपने भेलू के चंगुल से छुड़ाने के लिए गया था। डर के मारे किसी से कहा नहीं। सूख गया था, लेकिन कल से फिर दर्द हो रहा है। सुख की बात यह है कि वृद्ध हो गया हूं। न जाने कितनी प्रकार के दुख-दैन्य और आपद- विपद के बीच 40 वर्ष काटे हैं। सुना है, मेरे वंश में आज तक 40 तक कोई नहीं पहुंचा। कम से कम इस बात में तो मैंने अपने बाप-दादों को हराया है। और चाहिए भी क्या ......? "
शरत् ग्रंथावली के चार खण्डों के अतिरिक्त इस समय एक गल्प-संग्रह छवि' 16 के नाम से प्रकाशित हुआ। 'गृहदाह" 17 और 'बामन की बेटी' 18 ये दोनों उपन्यास भी पुस्तक के रूप में आ गए। 'देना - पावना' और 'श्रीकान्त धारावाहिक रूप में छप रहे थे। 'छवि' कहानी-संग्रह में 'छवि और विलासी' गल्पों के अतिरिक्त 'मुकदमें का परिणाम कहानी भी संकलित है। निम्न वर्ग के कैवर्त समाज के परिवार का चित्रण इस कहानी में हुआ है। इस तरह की कम ही कहानियां उन्होंने लिखी हैं।
'बामन की बेटी' का प्रकाशन शिशिर पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित उपन्यास-माला में हुआ। यह किसी पत्रिका में नहीं छपा। लिखने से पूर्व इसके सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ से उनकी बातें हुई थीं। एक भेंट में उन्होंने गुरुदेव से कहा, "मैं बामन की बेटी' एक उपन्यास लिख रहा हूं।' इस सम्बन्ध में मेरे बहुत-से व्यक्तिगत अनुभव है। कुलीनता ने समाज में क्या अर्थ किया वही मैं लिखना चाहता हूं।"
रवीन्द्रनाथ बोले, "अब तो कुलीनता रही नहीं है। एक व्यक्ति के सौ विवाह भी नहीं होते। फिर इसकी पुनरावृति करने से क्या लाभ है? फिर भी साहस हे तो लिखो, लेकिन कोई मिथ्या कल्पना मत करना।"
शरत्चन्द्र मिथ्या कल्पना करने में कभी विश्वास नहीं करते थे। गड़े मुर्दे उखाड़ना भी उनका उद्देश्य नहीं था। लेकिन कुलीन प्रथा सचमुच उन्हें बहुत चुभती थी। किसी न किसी रूप में आज भी उसका अस्तित्व है। जो लोग अपने को ब्राह्मण होने के कारण गौरवान्वित समझते हैं और सोचते हैं कि ब्राह्मणों में विशुद्ध रक्त प्रवाहित होता आया है, उनकी यह धारणा बिलकुल गलत है। उन्होंने स्वयं जो देखा और भोगा वही लिखा है । कुलीनता अच्छी चीज़ है या बुरी, इस बारे में उन्होंने कोई निर्णय नहीं लिया। वे यह नहीं कहते थे कि वैद्य के साथ कायस्थ का विवाह कर दो। फिर भी यदि कोई कर दे तो उसमें बाधा मत डालो। उसने अच्छा किया या बुरा लेकिन इतना अवश्य सत्य है कि वह कपटी नहीं है । बहुत-से लोग मुंह से कहते रहते हैं, कि विधवा लड़कियों का विवाह करो, किन्तु जैसे ही अपनी लड़की विधवा हुई वैसे ही वे कहना शुरू कर देते हैं, "देखिये, ऐसा हम नहीं करेंगे। हमें और भी तो चार लड़कियों के विवाह करने हैं, आदि-आदि।"
इस प्रकर के मिथ्याचार को वे अच्छा नहीं मानते थे । इसीलिए मिथ्या के आधार पर उन्होंने कभी अपने पात्र नही खड़े किए।
इस उपन्यास की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, कई मित्रों से उन्होंने इसकी अलग-अलग चर्चा की है। एक स्थान पर उन्होंने कहा, एक दिन हठात् गांव घूमने की इच्छा होने पर स्टीमर की सहायता ली। जब वहां जाकर उतरे तब समय अधिक हो गया था। भूख-प्यास के कारण थकान हो आई थी। गांव में प्रवेश करके एक बनिये की दुकान पर कुछ विश्राम किया और फिर जलपान । उसके बाद कुछ दूर गांव में जाकर एक ब्राह्मण के घर पहुंचा। घर की स्वामिनी एक वयस्क विधवा थी। दोपहर को एक अभुक्त अतिथि को पाकर उसने स्नान-भोजन के लिए आग्रह किया । शरत्चन्द्र ने तालाब में स्नान करने के बाद आकर देखा कि रसोई का सब प्रबन्ध हो गया है। बस चूल्हा जलाने की राह देख रही है। पूछा, "क्या आप खाना बनायेंगे?"
कुलीन ब्राह्मण के घर में अपने हाथ से पकाने की बात क्या हो सकती है, यह समझ में नही आया। फिर भी किंचित् विस्मय और संशय के साथ उन्होंने भोजन समाप्त किया और विदा ली। लौटते समय पहले की दुकान के बनिये ने कहा, "ठाकुर, जात दे आए?"
उससे पूछने पर पता लगा कि कुलीन ब्राह्मण घर की उस नारी ने एक नीच जाति के शूद्र से विवाह किया था। इस घटना से ही पुस्तक लिखने का विचार पैदा हुआ।
दूसरे स्थान पर उन्होंने अविनाशचन्द्र घोपाल को बताया, "जिस एक घटना को लेकर मैं बामन की बेटी' की रचना की है, उसके बारे में बताने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मुझे लगता है कि बहुतों का नाम लेकर जो प्रश्त तुमने किया है उसका उत्तर तुम्हें मिलेगा । कोलाघाट स्टेशन पर एक स्त्री पान बेचती है। बहुत-सी स्त्रियां जिस तरह पान बेचती हैं, वह उस तरह की नहीं लगती। इसलिए मेरे मन में उत्सुकता जागी । उससे बातचीत की। वह मेरा विश्वास करती है। "बामन की बेटी' में प्रिय मुकर्जी की मां का चित्र है, उसके साथ कलंक जुड़ा हुआ है। उसके पीछे वही नारी है। उसका लड़का उच्च पदाधिकारी है और उसके आत्मीय स्वजन यह जानते है कि वह पागल होकर चली गई है या मर गई है। अब बताओ कि क्या समस्या समाप्त हो गई? यह जो उच्च पदाधिकरी है, वह वंश-मर्यादा के गौरव से क्या 'भद्र लोक' नहीं है? क्यों नहीं है? यह तो इस बात को नहीं जानता कि किस दुख के कारण उसकी मां घर छोड़ गई है और घर नहीं लौटेगी।"
हो सकता है उन्होंने और भी ऐसा बहुत कुछ देखा हो, और उसी बहुत कुछ 'अनुभव' का परिणाम हुआ यह उपन्यास । वे किसी एक घटना के आधार पर तुरन्त ही कुछ नहीं लिख डालते थे। वर्षो वे घटनाएं उनके मस्तिष्क में धुमड़ती रहती थी। 'गृहदाह' लिखने में उन्हें कई वर्ष लगे थे। छ: वर्ष पूर्व 12 रंगून से उन्होंने अपने बाल सखा प्रमथ बाबू को लिखा था, "एक उपन्यास 'गृहदाह' नाम देकर है"
एक बार उन्होंने यह भी कहा था, "यह उपन्यास रवि बाबू के 'घरे बहिरे' से रत्ती भर भी कम नही होगा ।"
उस समय हेमेन्द्रकुमार राय ने उनसे पूछा था, "क्या आप अपना उपन्यास लिख चुके हैं?" नहीं, अभी तो लिखना भी आरम्भ नहीं हुआ।
जो अभी तक लिखा नहीं गया उसकी तुलना 'घरे बाहिरे' के साथ कैसे की जा सकती है?
इसकी चर्चा करते हुए हेमेन्द्रकुमार ने लिखा है - 'उपन्यास लिखना आरम्भ करने पर वे स्वयं ही पहचान गए थे कि उन्होंने 'घरे - बाहिरे' के बराबर रचना नहीं की, और सच बात कहने में क्या है, 'गृहदाह न केवल 'घरे बाहिरे' की तुलना में कुछ नही है, बल्कि शरतचन्द्र कथा साहित्य में भी इसका कोई ऊंचा स्थान नही है।"
इसमें कोई सन्देह नहीं कि शरत्चन्द्र अपने दोनों पूर्ववर्ती उपन्यासकरों बंकिमचन्द्र और रवीन्द्रनाथ के ऋणी हैं। पति यदि पत्नी के प्रति किसी कारणवश उदासीन रहता है तो उसका पथप्रष्ट हो जाना स्वाभाविक है - यही विषय है बंकिमचन्द्र के उपन्यास 'चन्द्रशेखर' का और रवीन्द्रनाथ के 'घरे बाहिरे' का। 'गृहदाह' में महिम और अचला के माध्यम से शरत्चन्द्र ने भी यही प्रतिपादन करना चाहा है। पर उनकी अभिज्ञता और उनका रचना-कौशल सब नितान्त मौलिक है । 'गृहदाह' की श्रेष्ठता के संबंध में बहुत मतभेद है। इतिहासकार सुकुमार सेन हेमेन्द्रकुमार राय से सहमत हैं, लेकिन सुरेन्द्रनाथ आदि दूसरे अनेक व्यक्तियों की दृष्टि में 'गृहदाह' में न केवल उनकी चिन्तनशीलता का गम्भीर परिचय मिलता है बल्कि उनके साहित्य में भी उसे ऊंचा स्थान प्राप्त है। निस्सन्देह वह एक श्रेष्ठ कृति है। बहुत दिन बाद 20 डा0 रमेशचन्द्र मजूमदार ने उनसे पूछा था, उपन्यासों में किसे अच्छा समझते हो?"
शरत् बाबू ने तुरन्त कहा, "कला की दृष्टि से गृहदाह दोषहीन है।"
" आप अपने डा० मजूमदार उनसे सहमत नहीं हो सके। परन्तु वह उनकी श्रेष्ठ रचना हो या न हो, उसका आधार 'घरे-बाहिरे' हो या 'गोरा' के परेश बाबू हों, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि उसने तत्कालीन समाज को, विशेषकर ब्रह्म समाज को, आलोड़ित कर दिया था । ब्रह्मसमाजी इस पुस्तक को अपनी लाइब्रेरी में भी नहीं आने देते थे। एक बार एक बन्धु ने ब्रह्मसमाज के पुस्तकालय के एक पुस्तकाध्यक्ष से पूछा, "अच्छा दादा, आपने क्या शरत्चन्द्र की 'गृहदाह' पुस्तक पढ़ी है?"
यह सुनकर वृद्ध ने दोनों कानों में उंगली दे लीं। बोले, "छिछिः वह क्या कोई पुस्तक है ? उसे क्या भद्र लोग पढ़ते हैं?"
बन्धु ने फिर पूछा, " 'गृहदाह' की बात रहने दीजिए। आपके पुस्तकालय में शरतचन्द्र की और कौन-कौन-सी पुस्तकें हैं?"
वृद्ध बोले, "शरत्चन्द्र की कोई भी पुस्तक लाइब्रेरी में नहीं है । उनको पढ़कर लड़के- लड़कियों की मानसिक अधोगति ही हो सकती है। इसलिए हम कोई पुस्तक नहीं रख सकते।"
एक दिन कई ब्राह्म महिलाएं उनसे मिलने आई। वे उनकी परम भक्त थीं। लेकिन अचला के चरित्र से उनके हृदय को बहुत ठेस पहुंची थी। वे मानती थीं कि शरत् बाबू ने साम्प्रदायिक भावना से अचला का चरित्र गढ़ा है। इससे ब्रह्म समाज का अपमान हुआ है, लेकिन शरत् तो कभी साम्प्रदायिक रहे नहीं। उनकी बातें सुनकर बोले, "अगले संस्करण में मैं सब ठीक कर दूंगा।"
संतुष्ट होकर वे महिलाएं चली गईं। तब एक मित्र ने पूछा, "क्या संशोधन करेंगे आप!" शरत् ने उत्तर दिया, "अचला के संबंध में जहां 'आजीवन तृष्णा' लिखा है, वहां 'आजीवन पिपासा' कर दूंगा।"
समाज में शरतचन्द्र अभी भी एक विद्रोही, आचारहीन और अनीश्वरवादी के रूप में प्रसिद्ध थे। लेकिन वास्तव में वह थे एकदम धर्मभीरु मानव । उन्होंने यह बात स्वयं स्वीकार की है - "किसी-किसी ने ऐसा भी कटाक्ष नहीं किया। केवल उसकी अनुदारता पर ही आक्रमण किया है। कितने ही लोगों ने आलोचना करने का डर दिखाया, पर आज तक किसी ने कुछ भी नहीं किया। उस ससमय एक बन्धु ने लिखा था कि मैं दिल से तो ब्राह्म हूं बाहर से हिन्दू हूं। यद्यपि मेरे गले में यह कण्ठी की माला है। संध्या किए बगैर मैं जल ग्रहण नहीं करता। जिस किसी के हाथ का पानी नहीं पीता। इन सब बातों के होते हुए भी उन्होंने मुझे कितनी गालियां दीं। मैं बाहर से ढोंग रचता हूं यह कहा । "
संध्या करने और जिस किसी के हाथ का पानी न पीने के बारे मेंकुछ अतिरंजना हो सकती है, परन्तु गले में माला वे अवश्य पहनते थे। ऐसा लगता है कि उनके रहने-सहने के ढंग केकारण और समय-समय पर अपनी रचनाओं में समाज की कटु ओलाचना करने के कारण इस प्रकार के नाना प्रवाद प्रचलित हो गए थे। शुरू में लोग उन्हें ब्रह्मसमाजी मानने लगे थे। लेकिन जब 'गृहदाह' में उन्होंने ब्रह्म समाज के पाखण्ड पर भी आक्रमण किया तो वे लोग भी उनसे रुष्ट हो गए।
अत्यन्त लोकप्रियता के कारण जनसाधारण, विशेषकर विद्यार्थी लोग उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान रखते थे और उसका अर्थ निकालने की चेष्टा करते थे। जब वे बनारस गए तो अनेक विद्यार्थी उनसे मिलने के लिए आए और अनेक विषयों पर उनके साथ विचार-विनिमय किया। एक दिन उन सबको साथ लेकर वे विश्वनाथ के मन्दिर में भी गए । उस समय वहां आरती हो रही थी। एक कोने में जाकर वे खड़े हो गए और आरती के पश्चात् बिना दर्शन किए चुपचाप चले आए। एकविद्यार्थी ने पूछा, "आपके उपन्यास से पता लगता है कि आप कंजर्वेटिव या आर्थोडक्स नहीं हैं। तब आप मन्दिर में क्यों गए?"
शरतचन्द ने उत्तर दिया, "भगवान के प्रति मेरे मन में वैसी श्रद्धा नहीं है, लेकिन मैं भक्त को प्यार करता हूं। एक अनपढ़ ग्रामीण की सच्ची भक्ति में देवत्व रहता है। मैं वही देखने गया था। वह देखकर मैं कृतकृत्य अनुभव करता हूं ।'
उनकी पत्नी परम धर्मिक और निष्ठावान नारी थी व्रत उद्यापन में उनका बहुत-सा समय बीतता था। शरत् बाबू ने उनके कार्य में कभी बाधा नहीं डाली । तीव्र गर्मी में भी उनके इस विश्वास की रक्षा करने के लिए वे बनारस में रुके रहे।
यही स्थिति ज्योतिष के संबंध में थी । विश्वास न होने पर वे उसमें रुचि लेते थे। बनारस में एक पण्डित उनकी कुण्डली देखकर उनके अतीत जीवन की सारी घटनाएं विस्तार से बता दी थीं। कहा था, "यह किसी महायोगी नहीं तो किसी राजातुल्य व्यक्ति की कुण्डली है। धर्मस्थान में बृहस्पति का इतना पूर्ण संस्थान मैंने पहले कभी नहीं देखा। आयु अड़ताल वर्ष या अधिक से अधिक पचपन वर्ष की होगी। यदि अड़तालिसवें वर्ष में मोक्ष नहीं होता तो उसके बाद संसार छोड़कर छप्पनवें वर्ष में शरीर का त्याग करेंगे। "
एक-दूसरे ज्योतिषी ने उन्हें जबर्दस्त धार्मिक व्यक्ति बताया, वह थे भी। उन्होंने कहीं भी, एक क्षण के लिए भी, अपने साहित्य में सनातन धर्म की मर्यादाओं की अवहेलना नहीं की। जनेऊ तक का समर्थन किया है। वे रूढ़ियों और कुरीतियों, अन्ध परम्पराओं और मूढ़ विश्वासों के विरोधी थे, धर्म की मूल स्थापनाओं के नहीं। समाज के ही निषेधों के कारण सती न रहने पर भी वे यह नहीं मानते थे कि यह असती नारी नारी भी नहीं रही। यह संकीर्ण भेद-बुद्धि ही उन्होंने त्यागी थी क्योंकि इसमें मनुष्य धर्म का अपमान होता है। वह मानते थे, जब परिस्थितियों से विवश होकर मनुष्य ऐसा कुछ कर बैठता है जो तत्कालीन धर्म और समाज की दृष्टि से बुरा हो तो मनुष्य सचमुच बुरा नहीं हो जाता। उसका जो मनुष्य धर्म है, जो उज्जवल पक्ष है, वह मर नहीं जाता। मरता तब है जब किसी परिस्थितिवश या क्षणिक प्रमादवश की गई भूल के कारण उसे अपमानित और दण्डित किया जाता है। मनुष्य के बाह्य रूप का अतिक्रमण कर अन्तर में प्रवेश करके देखा जाता है कि वहां उसका रूप स्वतन्त्र है। बाह्य रूप में जो पतिता है, पतन उसके लिए सत्य ही है, किन्तु बाहर के इस पतन के भीतर उसका परिपूर्ण नारीत्व अक्षुण्ण रह सकता है, यह भी सत्य है। दोनों ही मनुष्य के रूप हैं और इन दोनों को समान रूप से जो स्पष्ट करता है वह है यथार्थवाद |