शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे लेकिन यदि दाखिला नहीं होता है तो उस वर्ष परीक्षा देना असम्भव होगा। सौभाग्य से स्कूल के एक शिक्षक श्री पांचकौड़ी बन्दोपाध्याय के पिता श्री बेनीमाधव बन्दोपाध्याय शरत् के नाना के मित्र थे। इसी नाते वह पांचौड़ी बाबू को मामा कहता था। प्रधानाध्यापक श्री चारुचन्द्र बसु भी बड़ी साधु प्रकृति के मनुष्य थे। इन्हीं लोगों की कृपा से किसी तरह उसे दाखिला मिल गया। देवानन्दपुर में उसकी शरारतों का कोई अन्त नहीं था, परन्तु यहां आकर उसे जो चुनौती मिली तो वह बिलकुल बदल गया। अपने को किसी से हीन मान लेना उसके स्वभाव के विरुद्ध था। परीक्षा पास करने के लिए उसने रात-रात जागकर पढ़ना शुरू कर दिया। नींद को दूर करने के लिए वह खूब काफी पीने लगा।
उसके पुराने मित्र फिर उसके पास घिर आए। राजू उनमें सबसे प्रमुख था। शीघ्र ही उसने एक नया मित्र और बना लिया। उसका नाम था नीला। उन्हीं की सहायता से उसने अपने को व्यवस्थित कर लिया। राजू ने उसके लिए देवदार के एक बक्स को किताब रखने की अलमारी में बदल दिया। तीन टांग की एक टूटी हुई कुर्सी और ऐसी ही एक छोटी-सी मेज़ को भी उसने ठीक कर दिया। खाट के बिछावन की दरिद्रता को ढकने के लिए वह उस पर एक ओढ़ने की चादर डाले रखता। उसके नीचे एक गुड़गुड़ी रहती थी । खाट के बीच में से तकिये के पास नली निकालकर चोरी-चोरी वह उसको पिया करता था। सुरेन्द्रनाथ ने लिखा है – “सारी रात दिया जलता रहे, इतना तेल भी मां नहीं जुटा पाती थी। साथी लोग मोमबत्ती दे जाते। इन्हीं की कृपा से पुस्तकें मिल जातीं। एक कोने में स्टोव था। टीन की एक केतली थी। एक छोटी-सी सुराही और उस पर ढकने का एक छोटा-सा गिलास था। यही उसकी भौतिक सम्पदा थी। लेकिन इस दैन्य ने उसके मन को हीन नहीं बनाया। इसलिए उसका विद्या- अभियान राजपुत्र के समान ही चल रहा था। नीला आता, तम्बाकू सजाकर कहता, “पी!”
और दोनों मित्र तम्बाकू पीते-पीते गपशप करते या फिर पढ़ते। उस दिन नीला बहुत सवेरे उससे मिलने आया। खिड़की से क्या देखता हे कि शरत् सोया पड़ा है और चादर पर रक्त फैला है। घबराकर उसने पुकारा, “शरत् ओ शरत्!”
नींद से आखें भरी थीं। लेटे-लेटे शरत् ने कहा, “अन्दर आ जा।”
ला ने पूछा, “बीमार हे?”
“हां!”
“रक्त की उलटी हुई है?”
“दुत्त पागल ।”
"तो फिर तेरे कपड़ों पर यह रक्त कैसा है?”
चकित होकर शरत् ने देखा, सचमुच खून था। बोला, “बेटे नेवले की करतूत है। आज उसने फिर चूहे का शिकार किया है।"
लेकिन जब नीला ने अन्दर आकर इधर-उधर देखा तो चकित हो उठा। बोला, “खूब बचारे शरत्! तुम्हारे नेवले बेटे ने गोखरू सांप मारा है।”
बस फिर क्या था। घर-घर में शोर मच गया । भुवनमोहिनी ने मां मनसा का प्रसाद बांटा। जब सब प्रसाद ले चुके तो शरत् ने कहा, “जिसकी बदौलत प्राण बचे उसको तो मां तुमने पूछा ही नहीं।”
मां बोली, “नीला को तो दिया है।”
"नीला ने क्या सांप मारा है?”
“हाय रे भाग्य ! मैं तो भूल ही गई !” मां बोली और दूध-केला मिलाकर नेवले को देने के लिए चली। शरत् ने कहा, “मां, नेवला क्या केला खाएगा? उसे माछ चाहिए।”
मां ने तुरन्त नेवले के लिए दूध - माछ का प्रबन्ध कर दिया।
शरत् की पढ़ाई में एक और बाधा थी। ठीक समय पर उसकी आंख नहीं खुलती थी एक दिन नीला चुपचाप टाइमपीस ले आया। शरत् की आख सजल हो आई । बोला. “नीला तू मुझे इतना प्यार क्यों करता है?”
“वह तो भाई, नहीं कह सकता। सभी यहीं पूछते हैं। एक व्यक्ति दूसरे को क्यों प्यार करता है पता नहीं।”
शरत् ने कहा, “तेरा दिल बड़ा नरम है। दूसरों के दुख को तू अपने मन के भीतर से अनुभव कर लेता है। तू औरों जैसा नहीं है। उस दिन मुझे बादाम - पिश्ता क्यों दे गया, को क्यों नहीं दिया? सच तो यह है कि तेरे भीतर नारी के समान कोमल मन है।”
नीला क्रोध का नाटक करता हुआ बोला, “शैतान-पाजी, मुझे नारी कहता है?” दोनों मित्र हंस पड़े। नीला भी गाना खूब जानता था। उसके पास इसराज था। परीक्षा के बाद शरत् उसे अपने घर ले आया। जिस कोठरी में कभी बच्चों को बन्द किया जाता था उसी को शरत् ने संगीतशाला बनाया। एक दिन सवेरे-सवेरे उस घर से संगीत का स्वर सुनकर लड़के-लड़कियों के हृदय विचलित हो उठे। सुरेन्द्रनाथ ने दरवाज़ा खटखटाया तो शरत् ने बाहर आकर कहा, “जल्दी कर, कहीं छोटे नाना जान गए तो मुस्किल होगी।”
सुरेन्द्र भीतर आकर कोच के ऊपर बैठ गया। शरत् धीरे-धीरे इसराज बजाकर गाने लगा, “मथुरावासिनी, मथुरावासिनी । "
कई क्षण मंत्रमुग्ध रहने के बाद सुरेन्द्र ने पूछा, “यह किसका है शरत्?”
"मेरा "
“खरीदा है?”
“नहीं।”
“तब?”
"नीला ने दिया है।”
“एकदम दे दिया है? ”
"सीखने के लिए दिया है।”
और यह कहकर शरत् ने बाजे को अंधेरे में छुपा दिया। कहा, “किसी से कहना मत, तुझे भी सिखाऊंगा।”
नीला शरत् को बहुत प्यार करता था। लेकिन वह बहुत दिन जी नहीं सका। उसने पुलिस में नौकरी कर ली थी। अचानक एक दिन हैजा हुआ और वह मर गया। शरत् ने उस दिन पहली बार अनुभव किया कि चिर बिछोह की यह मर्मान्तक वेदना क्या होती है। 3
परीक्षा पास आ रही थी, लेकिन बाधाओं का भी कोई अन्त नहीं था। बड़े मामा ठाकुरदास की लड़की को कालाज्वर हो आया, और जैसा कि शरत् का स्वभाव था, वह सबकुछ भूलकर उसकी परिचर्या में लग गया। लेकिन वह बच नहीं सकी। तब शरत् इतना दुखी हुआ कि उसके पास होने में सन्देह होने लगा। परीक्षा की फीस जुटाने का प्रश्न भी था। इसीलिए भुवनमोहिनी की चिन्ता का पार नहीं था। बड़े भाई ठाकुरदास पर इन दिनों दफ्तर का कुछ रुपया गोलमाल करने के कारण मुकदमा चल रहा था। यद्यपि अन्त में वे दोषमुक्त हो गए, पर खर्च की कोई सीमा नहीं थी। छोटे भाई विप्रदास की आय बहुत कम थी। उन पर सारे घर का दायित्व भी था। फिर भी साहस करके भुवनमोहिनी ने उन्हीं से कहा। वे बोले, “घर में तो पैसे नही हैं। कहीं से कर्ज़ लाने होंगे।”
उन दिनों कर्ज़ लेने का एक अड्डा था खंजरपुर में गुलजारीलाल का घर। वह स्थूलकाय कृष्णवर्णीय महाजन भागलपुर का शाइलॉक करके प्रसिद्ध था । विप्रदास सरकारी नौकर थे। उनसे रुपया वसूल करना कोई कठिन काम नहीं था । परन्तु सूद को लेकर गुलजारीलाल ने काफी बकझक की। अन्त में चार पैसे रुपये मास की दर पर फैसला हुआ। इसी रुपये के बल पर शरत् परीक्षा 4 में बैठ सका।
उसके बाद वह जैस मुक्त हो गया। उसका अधिकतर समय राजू के साथ बीतने लगा। वह इन दिनों पढ़ना-लिखना छोड़कर लकड़ी के कारखाने में काम सीखता था। यदि वह मोती जैसे अक्षर लिख सकता था तो लकड़ी की सुन्दर वस्तुएं भी बना सकता था। अद्भुत चरित्र था उसका। एक साथ वीरता और बांसुरी की विद्या में निष्णात। कण्ठ-स्वर कैसा मधुर था! हारमोनियम, क्लेयरनेट सभी खूब अच्छी तरह बजाता था। अभिनय करने की उसमें असाधारण प्रतिभा थी। अनेक लोग उसके बारे में अनेक प्रकार की बातें करते थे पर वह प्रतिभाशालियों के वंश में पैदा हुआ था। इसीलिए प्रतिभा ने उसका मुक्त होकर वरण किया था ओर इसीलिए किसी एक क्षेत्र में अधिक देर रहना उसे नहीं सुहाता था। नाना अनुभव और नाना परीक्षाओं में उसे रुचि थी। परन्तु गांजा, शराब और वेश्या सब कुछ रहते हुए भी उसका अन्तःकरण गंगाजल के समान था। वह बदमाश नही था, केवल दुःसाहसी था। वह योग और आनन्द में रहता था। जैसे गंगाजल सब कुछ को पवित्र कर देता है।
उसकी अपनी एक नाव थी और उसी में वह घूमता रहता था। कभी-कभी होती घोर अंधेरी रात और पूरमपूर भरी होती गंगा, वह शरत् को पकड़ता और कहता, “चलो नाव में घूम आवें।” शरत् को डर लगता, पर राजू तो उसक गुरु है, मना भी करे तो कैसे करे |
गत वर्ष फुटबाल के मैदान में दंगा हो गया था। तब लाठी के ज़ोर पर राजू के दल ने शत्रुओं को परास्त कर दिया था। उस दंगे में शरत् के प्राण संकट में पड़ गए थे। राजू न
तो कुछ भी हो सकता था। और जब उसे सांप ने काट लिया था तब वही तो तूफानी गंगा में नाव खेकर ओझा को बुलाने गया था। इसीलिए शरत् की राजू की प्रति कृतज्ञता की कोई सीमा नहीं थी। बस उस खरस्त्रोता गंगा में वे अपनी छोटी-सी नाव छोड़ देते और चलते-चलते एक द्वीप पर जा पहुंचते। वहां से गंगा पूर्व से उत्तर की ओर बहने लगती है। वहीं मल्लाह मछली पकड़ते थे। वे लोग बहुत शक्तिशाली थे और इकट्ठे रहते थे। एक दि राजू ने कहा, “चलो, आज मछली चोरी करें। ”
“पीटे जाओगे।”
राजू ने कहा, “कोई चिन्ता नहीं । पिट लेंगे। चलो।”
वे दोनों उसी द्वीप पर पहुंचे। कुछ देर मछलियां पकड़ने का नाटक करते रहे। फिर जब मछ्वारे सो गए तो चुपके से आकर १०-१२ सेर मछलियां उठा लीं। सहसा उसी समय मछुवे जाग उठे। वे दोनों नाव लेकर भागे और अरहर के खेतों में घुस गए। पानी कम था, नीचे उतर गए और नाव खींचने लगे। वहां बड़े-बड़े सांप थे। राजू सहसा ठिठका तो शरत् ने पूछा, “क्या है दादा?”
शरत् ने उत्तर दिया, “कुछ नहीं! सांप है!”
शरत् सहसा भय से कांप उठा, बोला, “सांप !”
राजू हंसा, “अरे डरता क्यों है? सांप अपना जीवन बचायेगा ओर हम अपना । यही संसार का धर्म है।”
अपराध करने पर उसके हाथों दण्ड पाना अनिवार्य था। वास्तव में अन्याय के विरुद्ध सीना तानकर खड़ा हो जाना उसका स्वभाव था। उस समय पानी के नल नहीं लगे थे। कुलवधुएं और कन्याएं गंगाघाट पर आकर पानी भरती थीं। स्नान-पूजादि सब यहीं होता था। यद्यपि उनके लिए अलग घाट था, फिर भी कभी-कभी अवांछित लोग वहां आ जाते थे। उनकी असभ्य हरकतों से स्त्रियों को बड़ा कष्ट होता था। ऐसे ही एक दिन कुछ लोग हंसी-मजाक करते-करते एक-दूसरे पर पानी फेंकने लगे। किसी ने उन्हें नहीं रोका। हठात् राजू वहां आ निकला।
उसने यह दृश्य देखा। वह एक शब्द भी नहीं बोला । तुरन्त क व्यक्ति के पास पहुंचा और उसका अंगौछा छीनकर उसी के गले में डाल दिया। फिर खींचकर उसे गंगा के भीतर ले गया और लगा डुबकियां लगवाने । हतप्रभ उस व्यक्ति ने गिड़गिड़ाकर कहा, “माफ कर दो भैया, माफ कर दो। हाथ जोड़ता हूं।”
“फिर आओगे?”
“नहीं, नहीं, इधर पैर भी नहीं रखूंगा।”
“खाओ ईश्वर की सौगन्ध !”
“ईश्वर की सौगन्ध खाता हूं, फिर इधर नहीं आऊंगा।”
“जाओ, माफ किया।”
,
मोक्षदा स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। बहुत कम वेतन मिलता था। इसलिए अध्यापन के साथ कुछ और काम भी करते थे। परिणाम यह होता था कि घर लौटते-लौटते देर हो जाती थी। एक दिन संध्या के अंधकार में वे लौट रहे थे कि उन्होंने पीछे से आती गोरे साहब की गाड़ी के घोड़ों की टाप सुनी और दूसरी ही क्षण अनुभव किया कि उनकी पीठ पर चाबुक बरसने लगे है। तड़पकर उन्होंने दृष्टि उठाई तो साहब की गाड़ी अंधकार में विलीन हो चुकी थी। वह यह भी नहीं जान सके कि यह किस अपराध का दण्ड है।
एक बार नहीं, कई बार ऐसा हुआ। उनका मन ग्लानि से भर उठा। तभी सहसा उन्हें ध्यान आया कि राजू इस प्रकार के अत्याचारों का बदला लेने का भार अपने ऊपर ले लेता है। वह उसके पास गए और पीठ पर के रक्त के दाग दिखाए। उनकी कहानी सुनकर राजू इतना ही कहा, “ मास्टर मोशाई, आप घर जाइए। कल की छुट्टी ले लीजिए। परसों, जो कुछ होगा, आप सुन लेंगे।”
अगले दिन संध्या को क्या हुआ कि एक बड़ी रस्सी लेकर राजू और शरत् अपने दल के साथ उस छाया पथ पर जाकर जम गए। उसी पथ से साहब रोज़ क्लब जाता था। ठीक समय पर टमटम के आने का शब्द हुआ। राजू ने अपने साथियों के साथ सड़क के दोनों ओर पेड़ों में वह रस्सी बांध दी। साहब सपने में भी इस बात की कल्पना न कर सकता था। वह उसी शान से चला आ रहा था कि घोड़ा रस्सी में उलझ गया और निमिष-मात्र में साहब उछलकर रास्ते पर जा गिरे। राजू इसी अवसर को टोह में था। जी भरकर उन सबने साहब को पीटा और कहा, “फिर कभी किसी बेकसूर मुसाफिर को मारोगे?”
“कभी नहीं !”
“बोलो, 'माफ करो !”
"माफ करो !”
“घर जाओ!”
साहब चुपचाप वहां से चला गया। वह इतना लज्जित हुआ कि फिर भागलपुर में नहीं रह सका। बदली कराके कहीं और चला गया।
माघ मास में भागलपुर में दारुण शीत पड़ता था। उसी समय बंगला स्कूल के पण्डितजी की पत्नी का देहान्त हो गया । पण्डितजी स्वयं भी रोगी थे। बच्चा उनका बहुत छोटा था। अब दाह संस्कार हो तो कैसे हो? एक स्कूल के हेडमास्टर ऐसे अवसरों पर पीड़ितजनों की सहायता करने को सदा उद्दत रहते थे। उन्हें खबर मिली तो वह अपने अनुचरों का दल लेकर शवदाह की व्यवस्था करने के लिए उपस्थित हो गए । अनुचरों का यह दल राजू और शरत् का ही दल था। उस दिन अमा निशा थी । आकश मेघाच्छन्न था और श्मशान था दो कोस दूर । शवयात्रा आरम्भ ही हुई थी कि टप टप वर्षा पड़ने लगी। तब लालटेन बहुत सुलभ नहीं थी । छेदों वाली हांडी में रखा हुआ तेल का दिया ही मार्ग-दर्शन कर रहा था। तेज़-तेज़ कदम रखते और 'हरि बोल, हरि बोल' पुकारते वे आगे बढ़ रहे थे कि वर्षा और भी तेज़ हो आई। देखते-देखते पथ-घाट सब जलमग्न हो गए। यहां तक कि लाश भी भारी हो गई सोचा, शव को इमली के पेड़ के नीचे रखकर सांस ले लेनी चाहिए।
तभी ओले पड़ने लगे। बैठना असम्भव हो गयां । आब मुर्दे का क्या हो? उसे अकेला कैसे छोड़े? राजू ने कहा, “आप सब जा सकते हैं। मैं यहां रहूंगा।”
बहुत देर बाद जब वर्षा बन्द हुई तभी वे लोग लौटे। मुर्दा वैसे ही रखा हुआ था, लेकिन राजू का कहीं पता नहीं था। वे समझ गए कि हज़रत चकमा दे गए हैं। लेकिन वे अभी निर्णय भी नहीं कर पाए थे कि उन्होंने देखा, लाश धीरे-धीरे हिल रही है। सहसा चीत्कार करके वे भाग चले। और कुछ दूर पर खड़े होकर जनेऊ हाथ में लेकर ज़ोर-ज़ोर से ‘राम- राम' पुकारने लगे। लाश धीरे-धीरे हिलती रही। फिर ऐसा लगा, जैसे वह उठने लगी हो। 'राम-राम' का स्वरघोष और भी तीव्र हो उठा और उसी के साथ लाश भी उठकर बैठ गई ।
‘भागो-भागों चीखते हुए वे लोग भाग चले। लेकिन तेज़ हंसी का स्वर सुनकर पीछे मुड़े तो क्या देखते हैं कि कफन के भीतर से ज़ोर-ज़ोर से हंसता हुआ राजू बाहर निकल रहा है।
शाबाश बेटा। जीते रहो । यही मरदों का काम है।
राजू के इन दुस्साहसिक कार्यों का ठीक लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है। परन्तु यह सच है कि रॉबिनहुड जैसे चरित्र भी उसके सामने म्लान पड़ जाते हैं। उसका असीम साहस उसकी अजस्र दया- माया की नींव पर ही खड़ा था। जो अभावग्रस्त थे उनका वह मित्र था। जो बदमाश थे उनके लिए वह साक्षात् यम था। उसे मृत्यु का भय नहीं था । इसीलिए उसकी बांसुरी और संन्यासवृत्ति दोनों चरम सीमा पर थीं।
कालान्तर में कथाशिल्पी शरत् ने बच्चों के लिए जो कहानियां लिखी उनका आधार ये और ऐसी ही बहुत-सी घटनाएं है। ये ही घटनाएं उनकी बैठकी गल्पों में भी आई हैं। उन्होंने लिखा है - “राजू अधिक लिखा-पढ़ा नहीं था, परन्तु उसमें अनन्त गुण थे। उस उम्र में इस तरह का ऊंचे आदर्श वाला आदमी ज़िंदगी में मैंने नहीं देखा । "
शरत् भी कम दुस्साहसी नहीं था। राजू के साहचर्य से वह और भी निडर और दुर्दम हो उठा। उन दिनों भागलपुर में चोरी-डकैती बहुत होती थी। सभी लोग सजग रहते थे और रात में हथियार लेकर सोते थे। उस समय राजू के एक भाई मणीन्द्रनाथ कालेज़ में पढ़ते थे। विश्वविद्यालय में परीक्षाएं हो रही थीं। रात को देर देर तक जागकर पढ़ना पड़ता था। उनका कमरा गंगा-तट पर वट वृक्ष के बिलकुल पास था। आस-पास कांस का जंगल था, जिसमें भयंकर सांप और रीछ आदि भरे पड़े थे। एक रात पढ़ते-पढ़ते सहसा मणीन्द्रनाथ ने खिड़की पर आहट सुनी। वह सजग हो उठे। तभी देखा, जैसे मनुष्य का सिर उभर रहा है। जैसे वह अपने को छिपा रहा है। उन्होंने तुरन्त बन्दूक संभाली, लेकिन वह दागने ही वाले थे कि किसी ने पुकारा, “मणि-मणि, क्या करते हो? बन्दूक मत चलाओ। यह मैं हूं।”
"मैं कौन?”
“मैं शरत्!”
काटो तो खून नहीं । हतप्रभ मणि देखते रह गए। कई क्षण बाद बोले, “हे भगवान, इतने सेवेरे इस भयानक जंगल में तुम क्या कर रहे हो?”
“कुछ नहीं, बस, तुम्हें डराने आया था।”
रात के दो बजे थे। न ज़हरीले सांपों की चिन्ता, न भयानक रीछों का डर।
दुस्साहस के क्षेत्र में शरत् राजू का साथी था, परन्तु साहित्य के क्षेत्र में उसका राज़दार अभी कोई नहीं था। हां, कुछ इस रहस्य के बारे में जानते-भर थे। उसके सिर पर लम्बे-लम्बे बालों को देखकर वे कहा करते थे, “उसने बाल इसलिए बढ़ाए हैं कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समान कवि बनना चाहता है।”
रवीन्द्रनाथ तब तक कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे और साहित्य के क्षेत्र में किसी के पदार्पण करने का अर्थ था रवीन्द्रनाथ बनना । बंकिम ग्रन्थावली भी वह पढ़ चुका था। उपन्यास साहित्य में इसके बाद भी कुछ है यह वह उस समय सोच भी नहीं पाता था।
उसका पहला उपन्यास 'बासा या काकबासा' पूरा हो चुका था । ' केवल मामा सुरेन्द्रनाथ ने उसे छिपे-छिपे लिखते देखा था। घंटों पर घंटे न जाने कहां से आकर कहां चले जाते थे, पर उसका लिखना नहीं रुकता था। लेकिन बाद में यह रचना उसे पसन्द नही आई। पिता की तरह उसने इसे पढ़ा, सोचा के क्या यह रवीन्द्रनाथ जैसी हो सकी है? नहीं हो सकी।
तब व्यर्थ है। लिखूंगा तो रवीन्द्रनाथ जैसा, नहीं तो नहीं।
और एक दिन उसने उसे फाड़कर फेंक दिया। 'काशीनाथ' भी अभी इस योग्य नहीं हुआ था। उसे वह लम्बी कहानी का रूप दे रहा था। 'कोरेल ग्राम' कहानी का आरम्भ भी देवानन्दपुर में हो गया था। लेकिन उस रूप में वह कभी प्रकाशित नहीं हो सकी। लिखने की इच्छा बराबर तीव्र हो रही थी। मन में भीतर ही भीतर एक प्रकार की कामना उभरती। इस दुनिया में जो विभिन्न प्रकार की चीजें देखते-सुनते है उन्हें क्या कोई रूप नहीं दिया जा सकता? आरम्भ में वह यहां-वहां से चुराकर लिखता था। अभिज्ञता न होने के कारण कुछ अच्छा नहीं लिखा जाता था। लेकिन जैसे-जैसे जीवन की पाठशाला में नाना अभावों के कारण अभिज्ञता प्राप्त होती गई वैसे-वैसे ही उसकी लेखनी में बल आता चला गया।
कहानियां गढ़कर सुनाने की उसकी जन्मजात प्रतिज्ञा निरन्तर प्रगति कर रही थी । जिस समय दूसरे साथी फुटबाल खेलते थे तब वह छोटी आयु के बच्चों को घेरकर बैठ जाता ओर कहानियों पर कहानियां सुनाकर उन्हें मंत्रमुध कर देता। बीच-बीच में पूछा रहता, “कैसी लगी रे?”
बेचारे बालक, पता नहीं वे कुछ समझते भी थे पर, इस अदम्य साहसी और कथा- विद्या-विशारद से यही कहते, “बहुत अच्छी लगी, दादा ।”
राजलक्ष्मी श्रीकान्त के बारे में यही तो कहती है, “इसमें आश्चर्य क्या, आनन्द! अपने मन की बात दबाते-दबाते और कहानियां गढ़कर सुनाते-सुनाते इस विद्या में ये पूरी तरह महामहोपाध्याय हो गए है।
-