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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023

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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे लेकिन यदि दाखिला नहीं होता है तो उस वर्ष परीक्षा देना असम्भव होगा। सौभाग्य से स्कूल के एक शिक्षक श्री पांचकौड़ी बन्दोपाध्याय के पिता श्री बेनीमाधव बन्दोपाध्याय शरत् के नाना के मित्र थे। इसी नाते वह पांचौड़ी बाबू को मामा कहता था। प्रधानाध्यापक श्री चारुचन्द्र बसु भी बड़ी साधु प्रकृति के मनुष्य थे। इन्हीं लोगों की कृपा से किसी तरह उसे दाखिला मिल गया। देवानन्दपुर में उसकी शरारतों का कोई अन्त नहीं था, परन्तु यहां आकर उसे जो चुनौती मिली तो वह बिलकुल बदल गया। अपने को किसी से हीन मान लेना उसके स्वभाव के विरुद्ध था। परीक्षा पास करने के लिए उसने रात-रात जागकर पढ़ना शुरू कर दिया। नींद को दूर करने के लिए वह खूब काफी पीने लगा।

उसके पुराने मित्र फिर उसके पास घिर आए। राजू उनमें सबसे प्रमुख था। शीघ्र ही उसने एक नया मित्र और बना लिया। उसका नाम था नीला। उन्हीं की सहायता से उसने अपने को व्यवस्थित कर लिया। राजू ने उसके लिए देवदार के एक बक्स को किताब रखने की अलमारी में बदल दिया। तीन टांग की एक टूटी हुई कुर्सी और ऐसी ही एक छोटी-सी मेज़ को भी उसने ठीक कर दिया। खाट के बिछावन की दरिद्रता को ढकने के लिए वह उस पर एक ओढ़ने की चादर डाले रखता। उसके नीचे एक गुड़गुड़ी रहती थी । खाट के बीच में से तकिये के पास नली निकालकर चोरी-चोरी वह उसको पिया करता था। सुरेन्द्रनाथ ने लिखा है – “सारी रात दिया जलता रहे, इतना तेल भी मां नहीं जुटा पाती थी। साथी लोग मोमबत्ती दे जाते। इन्हीं की कृपा से पुस्तकें मिल जातीं। एक कोने में स्टोव था। टीन की एक केतली थी। एक छोटी-सी सुराही और उस पर ढकने का एक छोटा-सा गिलास था। यही उसकी भौतिक सम्पदा थी। लेकिन इस दैन्य ने उसके मन को हीन नहीं बनाया। इसलिए उसका विद्या- अभियान राजपुत्र के समान ही चल रहा था। नीला आता, तम्बाकू सजाकर कहता, “पी!”

और दोनों मित्र तम्बाकू पीते-पीते गपशप करते या फिर पढ़ते। उस दिन नीला बहुत सवेरे उससे मिलने आया। खिड़की से क्या देखता हे कि शरत् सोया पड़ा है और चादर पर रक्त फैला है। घबराकर उसने पुकारा, “शरत् ओ शरत्!”

नींद से आखें भरी थीं। लेटे-लेटे शरत् ने कहा, “अन्दर आ जा।”

ला ने पूछा, “बीमार हे?”

“हां!”

“रक्त की उलटी हुई है?”

“दुत्त पागल ।”

"तो फिर तेरे कपड़ों पर यह रक्त कैसा है?”

चकित होकर शरत् ने देखा, सचमुच खून था। बोला, “बेटे नेवले की करतूत है। आज उसने फिर चूहे का शिकार किया है।"

लेकिन जब नीला ने अन्दर आकर इधर-उधर देखा तो चकित हो उठा। बोला, “खूब बचारे शरत्! तुम्हारे नेवले बेटे ने गोखरू सांप मारा है।”

बस फिर क्या था। घर-घर में शोर मच गया । भुवनमोहिनी ने मां मनसा का प्रसाद बांटा। जब सब प्रसाद ले चुके तो शरत् ने कहा, “जिसकी बदौलत प्राण बचे उसको तो मां तुमने पूछा ही नहीं।”

मां बोली, “नीला को तो दिया है।”

"नीला ने क्या सांप मारा है?”

“हाय रे भाग्य ! मैं तो भूल ही गई !” मां बोली और दूध-केला मिलाकर नेवले को देने के लिए चली। शरत् ने कहा, “मां, नेवला क्या केला खाएगा? उसे माछ चाहिए।”

मां ने तुरन्त नेवले के लिए दूध - माछ का प्रबन्ध कर दिया।

शरत् की पढ़ाई में एक और बाधा थी। ठीक समय पर उसकी आंख नहीं खुलती थी एक दिन नीला चुपचाप टाइमपीस ले आया। शरत् की आख सजल हो आई । बोला. “नीला तू मुझे इतना प्यार क्यों करता है?”

“वह तो भाई, नहीं कह सकता। सभी यहीं पूछते हैं। एक व्यक्ति दूसरे को क्यों प्यार करता है पता नहीं।”

शरत् ने कहा, “तेरा दिल बड़ा नरम है। दूसरों के दुख को तू अपने मन के भीतर से अनुभव कर लेता है। तू औरों जैसा नहीं है। उस दिन मुझे बादाम - पिश्ता क्यों दे गया, को क्यों नहीं दिया? सच तो यह है कि तेरे भीतर नारी के समान कोमल मन है।”

नीला क्रोध का नाटक करता हुआ बोला, “शैतान-पाजी, मुझे नारी कहता है?” दोनों मित्र हंस पड़े। नीला भी गाना खूब जानता था। उसके पास इसराज था। परीक्षा के बाद शरत् उसे अपने घर ले आया। जिस कोठरी में कभी बच्चों को बन्द किया जाता था उसी को शरत् ने संगीतशाला बनाया। एक दिन सवेरे-सवेरे उस घर से संगीत का स्वर सुनकर लड़के-लड़कियों के हृदय विचलित हो उठे। सुरेन्द्रनाथ ने दरवाज़ा खटखटाया तो शरत् ने बाहर आकर कहा, “जल्दी कर, कहीं छोटे नाना जान गए तो मुस्किल होगी।”

सुरेन्द्र भीतर आकर कोच के ऊपर बैठ गया। शरत् धीरे-धीरे इसराज बजाकर गाने लगा, “मथुरावासिनी, मथुरावासिनी । "

कई क्षण मंत्रमुग्ध रहने के बाद सुरेन्द्र ने पूछा, “यह किसका है शरत्?”

"मेरा "

“खरीदा है?”

“नहीं।”

“तब?”

"नीला ने दिया है।”

“एकदम दे दिया है? ”

"सीखने के लिए दिया है।”

और यह कहकर शरत् ने बाजे को अंधेरे में छुपा दिया। कहा, “किसी से कहना मत, तुझे भी सिखाऊंगा।”

नीला शरत् को बहुत प्यार करता था। लेकिन वह बहुत दिन जी नहीं सका। उसने पुलिस में नौकरी कर ली थी। अचानक एक दिन हैजा हुआ और वह मर गया। शरत् ने उस दिन पहली बार अनुभव किया कि चिर बिछोह की यह मर्मान्तक वेदना क्या होती है। 3

परीक्षा पास आ रही थी, लेकिन बाधाओं का भी कोई अन्त नहीं था। बड़े मामा ठाकुरदास की लड़की को कालाज्वर हो आया, और जैसा कि शरत् का स्वभाव था, वह सबकुछ भूलकर उसकी परिचर्या में लग गया। लेकिन वह बच नहीं सकी। तब शरत् इतना दुखी हुआ कि उसके पास होने में सन्देह होने लगा। परीक्षा की फीस जुटाने का प्रश्न भी था। इसीलिए भुवनमोहिनी की चिन्ता का पार नहीं था। बड़े भाई ठाकुरदास पर इन दिनों दफ्तर का कुछ रुपया गोलमाल करने के कारण मुकदमा चल रहा था। यद्यपि अन्त में वे दोषमुक्त हो गए, पर खर्च की कोई सीमा नहीं थी। छोटे भाई विप्रदास की आय बहुत कम थी। उन पर सारे घर का दायित्व भी था। फिर भी साहस करके भुवनमोहिनी ने उन्हीं से कहा। वे बोले, “घर में तो पैसे नही हैं। कहीं से कर्ज़ लाने होंगे।”

उन दिनों कर्ज़ लेने का एक अड्डा था खंजरपुर में गुलजारीलाल का घर। वह स्थूलकाय कृष्णवर्णीय महाजन भागलपुर का शाइलॉक करके प्रसिद्ध था । विप्रदास सरकारी नौकर थे। उनसे रुपया वसूल करना कोई कठिन काम नहीं था । परन्तु सूद को लेकर गुलजारीलाल ने काफी बकझक की। अन्त में चार पैसे रुपये मास की दर पर फैसला हुआ। इसी रुपये के बल पर शरत् परीक्षा 4 में बैठ सका।

उसके बाद वह जैस मुक्त हो गया। उसका अधिकतर समय राजू के साथ बीतने लगा। वह इन दिनों पढ़ना-लिखना छोड़कर लकड़ी के कारखाने में काम सीखता था। यदि वह मोती जैसे अक्षर लिख सकता था तो लकड़ी की सुन्दर वस्तुएं भी बना सकता था। अद्भुत चरित्र था उसका। एक साथ वीरता और बांसुरी की विद्या में निष्णात। कण्ठ-स्वर कैसा मधुर था! हारमोनियम, क्लेयरनेट सभी खूब अच्छी तरह बजाता था। अभिनय करने की उसमें असाधारण प्रतिभा थी। अनेक लोग उसके बारे में अनेक प्रकार की बातें करते थे पर वह प्रतिभाशालियों के वंश में पैदा हुआ था। इसीलिए प्रतिभा ने उसका मुक्त होकर वरण किया था ओर इसीलिए किसी एक क्षेत्र में अधिक देर रहना उसे नहीं सुहाता था। नाना अनुभव और नाना परीक्षाओं में उसे रुचि थी। परन्तु गांजा, शराब और वेश्या सब कुछ रहते हुए भी उसका अन्तःकरण गंगाजल के समान था। वह बदमाश नही था, केवल दुःसाहसी था। वह योग और आनन्द में रहता था। जैसे गंगाजल सब कुछ को पवित्र कर देता है।

उसकी अपनी एक नाव थी और उसी में वह घूमता रहता था। कभी-कभी होती घोर अंधेरी रात और पूरमपूर भरी होती गंगा, वह शरत् को पकड़ता और कहता, “चलो नाव में घूम आवें।” शरत् को डर लगता, पर राजू तो उसक गुरु है, मना भी करे तो कैसे करे |

गत वर्ष फुटबाल के मैदान में दंगा हो गया था। तब लाठी के ज़ोर पर राजू के दल ने शत्रुओं को परास्त कर दिया था। उस दंगे में शरत् के प्राण संकट में पड़ गए थे। राजू न

तो कुछ भी हो सकता था। और जब उसे सांप ने काट लिया था तब वही तो तूफानी गंगा में नाव खेकर ओझा को बुलाने गया था। इसीलिए शरत् की राजू की प्रति कृतज्ञता की कोई सीमा नहीं थी। बस उस खरस्त्रोता गंगा में वे अपनी छोटी-सी नाव छोड़ देते और चलते-चलते एक द्वीप पर जा पहुंचते। वहां से गंगा पूर्व से उत्तर की ओर बहने लगती है। वहीं मल्लाह मछली पकड़ते थे। वे लोग बहुत शक्तिशाली थे और इकट्ठे रहते थे। एक दि राजू ने कहा, “चलो, आज मछली चोरी करें। ”

“पीटे जाओगे।”

राजू ने कहा, “कोई चिन्ता नहीं । पिट लेंगे। चलो।”

वे दोनों उसी द्वीप पर पहुंचे। कुछ देर मछलियां पकड़ने का नाटक करते रहे। फिर जब मछ्वारे सो गए तो चुपके से आकर १०-१२ सेर मछलियां उठा लीं। सहसा उसी समय मछुवे जाग उठे। वे दोनों नाव लेकर भागे और अरहर के खेतों में घुस गए। पानी कम था, नीचे उतर गए और नाव खींचने लगे। वहां बड़े-बड़े सांप थे। राजू सहसा ठिठका तो शरत् ने पूछा, “क्या है दादा?”

शरत् ने उत्तर दिया, “कुछ नहीं! सांप है!”

शरत् सहसा भय से कांप उठा, बोला, “सांप !”

राजू हंसा, “अरे डरता क्यों है? सांप अपना जीवन बचायेगा ओर हम अपना । यही संसार का धर्म है।”

अपराध करने पर उसके हाथों दण्ड पाना अनिवार्य था। वास्तव में अन्याय के विरुद्ध सीना तानकर खड़ा हो जाना उसका स्वभाव था। उस समय पानी के नल नहीं लगे थे। कुलवधुएं और कन्याएं गंगाघाट पर आकर पानी भरती थीं। स्नान-पूजादि सब यहीं होता था। यद्यपि उनके लिए अलग घाट था, फिर भी कभी-कभी अवांछित लोग वहां आ जाते थे। उनकी असभ्य हरकतों से स्त्रियों को बड़ा कष्ट होता था। ऐसे ही एक दिन कुछ लोग हंसी-मजाक करते-करते एक-दूसरे पर पानी फेंकने लगे। किसी ने उन्हें नहीं रोका। हठात् राजू वहां आ निकला।

 उसने यह दृश्य देखा। वह एक शब्द भी नहीं बोला । तुरन्त क व्यक्ति के पास पहुंचा और उसका अंगौछा छीनकर उसी के गले में डाल दिया। फिर खींचकर उसे गंगा के भीतर ले गया और लगा डुबकियां लगवाने । हतप्रभ उस व्यक्ति ने गिड़गिड़ाकर कहा, “माफ कर दो भैया, माफ कर दो। हाथ जोड़ता हूं।”

“फिर आओगे?”

“नहीं, नहीं, इधर पैर भी नहीं रखूंगा।”

“खाओ ईश्वर की सौगन्ध !”

“ईश्वर की सौगन्ध खाता हूं, फिर इधर नहीं आऊंगा।”

“जाओ, माफ किया।”

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मोक्षदा स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। बहुत कम वेतन मिलता था। इसलिए अध्यापन के साथ कुछ और काम भी करते थे। परिणाम यह होता था कि घर लौटते-लौटते देर हो जाती थी। एक दिन संध्या के अंधकार में वे लौट रहे थे कि उन्होंने पीछे से आती गोरे साहब की गाड़ी के घोड़ों की टाप सुनी और दूसरी ही क्षण अनुभव किया कि उनकी पीठ पर चाबुक बरसने लगे है। तड़पकर उन्होंने दृष्टि उठाई तो साहब की गाड़ी अंधकार में विलीन हो चुकी थी। वह यह भी नहीं जान सके कि यह किस अपराध का दण्ड है।

एक बार नहीं, कई बार ऐसा हुआ। उनका मन ग्लानि से भर उठा। तभी सहसा उन्हें ध्यान आया कि राजू इस प्रकार के अत्याचारों का बदला लेने का भार अपने ऊपर ले लेता है। वह उसके पास गए और पीठ पर के रक्त के दाग दिखाए। उनकी कहानी सुनकर राजू इतना ही कहा, “ मास्टर मोशाई, आप घर जाइए। कल की छुट्टी ले लीजिए। परसों, जो कुछ होगा, आप सुन लेंगे।”

अगले दिन संध्या को क्या हुआ कि एक बड़ी रस्सी लेकर राजू और शरत् अपने दल के साथ उस छाया पथ पर जाकर जम गए। उसी पथ से साहब रोज़ क्लब जाता था। ठीक समय पर टमटम के आने का शब्द हुआ। राजू ने अपने साथियों के साथ सड़क के दोनों ओर पेड़ों में वह रस्सी बांध दी। साहब सपने में भी इस बात की कल्पना न कर सकता था। वह उसी शान से चला आ रहा था कि घोड़ा रस्सी में उलझ गया और निमिष-मात्र में साहब उछलकर रास्ते पर जा गिरे। राजू इसी अवसर को टोह में था। जी भरकर उन सबने साहब को पीटा और कहा, “फिर कभी किसी बेकसूर मुसाफिर को मारोगे?”

“कभी नहीं !”

“बोलो, 'माफ करो !”

"माफ करो !”

“घर जाओ!”

साहब चुपचाप वहां से चला गया। वह इतना लज्जित हुआ कि फिर भागलपुर में नहीं रह सका। बदली कराके कहीं और चला गया। 

माघ मास में भागलपुर में दारुण शीत पड़ता था। उसी समय बंगला स्कूल के पण्डितजी की पत्नी का देहान्त हो गया । पण्डितजी स्वयं भी रोगी थे। बच्चा उनका बहुत छोटा था। अब दाह संस्कार हो तो कैसे हो? एक स्कूल के हेडमास्टर ऐसे अवसरों पर पीड़ितजनों की सहायता करने को सदा उद्दत रहते थे। उन्हें खबर मिली तो वह अपने अनुचरों का दल लेकर शवदाह की व्यवस्था करने के लिए उपस्थित हो गए । अनुचरों का यह दल राजू और शरत् का ही दल था। उस दिन अमा निशा थी । आकश मेघाच्छन्न था और श्मशान था दो कोस दूर । शवयात्रा आरम्भ ही हुई थी कि टप टप वर्षा पड़ने लगी। तब लालटेन बहुत सुलभ नहीं थी । छेदों वाली हांडी में रखा हुआ तेल का दिया ही मार्ग-दर्शन कर रहा था। तेज़-तेज़ कदम रखते और 'हरि बोल, हरि बोल' पुकारते वे आगे बढ़ रहे थे कि वर्षा और भी तेज़ हो आई। देखते-देखते पथ-घाट सब जलमग्न हो गए। यहां तक कि लाश भी भारी हो गई सोचा, शव को इमली के पेड़ के नीचे रखकर सांस ले लेनी चाहिए।

तभी ओले पड़ने लगे। बैठना असम्भव हो गयां । आब मुर्दे का क्या हो? उसे अकेला कैसे छोड़े? राजू ने कहा, “आप सब जा सकते हैं। मैं यहां रहूंगा।”

बहुत देर बाद जब वर्षा बन्द हुई तभी वे लोग लौटे। मुर्दा वैसे ही रखा हुआ था, लेकिन राजू का कहीं पता नहीं था। वे समझ गए कि हज़रत चकमा दे गए हैं। लेकिन वे अभी निर्णय भी नहीं कर पाए थे कि उन्होंने देखा, लाश धीरे-धीरे हिल रही है। सहसा चीत्कार करके वे भाग चले। और कुछ दूर पर खड़े होकर जनेऊ हाथ में लेकर ज़ोर-ज़ोर से ‘राम- राम' पुकारने लगे। लाश धीरे-धीरे हिलती रही। फिर ऐसा लगा, जैसे वह उठने लगी हो। 'राम-राम' का स्वरघोष और भी तीव्र हो उठा और उसी के साथ लाश भी उठकर बैठ गई ।

‘भागो-भागों चीखते हुए वे लोग भाग चले। लेकिन तेज़ हंसी का स्वर सुनकर पीछे मुड़े तो क्या देखते हैं कि कफन के भीतर से ज़ोर-ज़ोर से हंसता हुआ राजू बाहर निकल रहा है।

शाबाश बेटा। जीते रहो । यही मरदों का काम है।

राजू के इन दुस्साहसिक कार्यों का ठीक लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है। परन्तु यह सच है कि रॉबिनहुड जैसे चरित्र भी उसके सामने म्लान पड़ जाते हैं। उसका असीम साहस उसकी अजस्र दया- माया की नींव पर ही खड़ा था। जो अभावग्रस्त थे उनका वह मित्र था। जो बदमाश थे उनके लिए वह साक्षात् यम था। उसे मृत्यु का भय नहीं था । इसीलिए उसकी बांसुरी और संन्यासवृत्ति दोनों चरम सीमा पर थीं।

कालान्तर में कथाशिल्पी शरत् ने बच्चों के लिए जो कहानियां लिखी उनका आधार ये और ऐसी ही बहुत-सी घटनाएं है। ये ही घटनाएं उनकी बैठकी गल्पों में भी आई हैं। उन्होंने लिखा है - “राजू अधिक लिखा-पढ़ा नहीं था, परन्तु उसमें अनन्त गुण थे। उस उम्र में इस तरह का ऊंचे आदर्श वाला आदमी ज़िंदगी में मैंने नहीं देखा । "

शरत् भी कम दुस्साहसी नहीं था। राजू के साहचर्य से वह और भी निडर और दुर्दम हो उठा। उन दिनों भागलपुर में चोरी-डकैती बहुत होती थी। सभी लोग सजग रहते थे और रात में हथियार लेकर सोते थे। उस समय राजू के एक भाई मणीन्द्रनाथ कालेज़ में पढ़ते थे। विश्वविद्यालय में परीक्षाएं हो रही थीं। रात को देर देर तक जागकर पढ़ना पड़ता था। उनका कमरा गंगा-तट पर वट वृक्ष के बिलकुल पास था। आस-पास कांस का जंगल था, जिसमें भयंकर सांप और रीछ आदि भरे पड़े थे। एक रात पढ़ते-पढ़ते सहसा मणीन्द्रनाथ ने खिड़की पर आहट सुनी। वह सजग हो उठे। तभी देखा, जैसे मनुष्य का सिर उभर रहा है। जैसे वह अपने को छिपा रहा है। उन्होंने तुरन्त बन्दूक संभाली, लेकिन वह दागने ही वाले थे कि किसी ने पुकारा, “मणि-मणि, क्या करते हो? बन्दूक मत चलाओ। यह मैं हूं।”

"मैं कौन?”

“मैं शरत्!”

काटो तो खून नहीं । हतप्रभ मणि देखते रह गए। कई क्षण बाद बोले, “हे भगवान, इतने सेवेरे इस भयानक जंगल में तुम क्या कर रहे हो?”

“कुछ नहीं, बस, तुम्हें डराने आया था।”

रात के दो बजे थे। न ज़हरीले सांपों की चिन्ता, न भयानक रीछों का डर।

दुस्साहस के क्षेत्र में शरत् राजू का साथी था, परन्तु साहित्य के क्षेत्र में उसका राज़दार अभी कोई नहीं था। हां, कुछ इस रहस्य के बारे में जानते-भर थे। उसके सिर पर लम्बे-लम्बे बालों को देखकर वे कहा करते थे, “उसने बाल इसलिए बढ़ाए हैं कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समान कवि बनना चाहता है।”

रवीन्द्रनाथ तब तक कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे और साहित्य के क्षेत्र में किसी के पदार्पण करने का अर्थ था रवीन्द्रनाथ बनना । बंकिम ग्रन्थावली भी वह पढ़ चुका था। उपन्यास साहित्य में इसके बाद भी कुछ है यह वह उस समय सोच भी नहीं पाता था।

उसका पहला उपन्यास 'बासा या काकबासा' पूरा हो चुका था । ' केवल मामा सुरेन्द्रनाथ ने उसे छिपे-छिपे लिखते देखा था। घंटों पर घंटे न जाने कहां से आकर कहां चले जाते थे, पर उसका लिखना नहीं रुकता था। लेकिन बाद में यह रचना उसे पसन्द नही आई। पिता की तरह उसने इसे पढ़ा, सोचा के क्या यह रवीन्द्रनाथ जैसी हो सकी है? नहीं हो सकी।

तब व्यर्थ है। लिखूंगा तो रवीन्द्रनाथ जैसा, नहीं तो नहीं।

और एक दिन उसने उसे फाड़कर फेंक दिया। 'काशीनाथ' भी अभी इस योग्य नहीं हुआ था। उसे वह लम्बी कहानी का रूप दे रहा था। 'कोरेल ग्राम' कहानी का आरम्भ भी देवानन्दपुर में हो गया था। लेकिन उस रूप में वह कभी प्रकाशित नहीं हो सकी। लिखने की इच्छा बराबर तीव्र हो रही थी। मन में भीतर ही भीतर एक प्रकार की कामना उभरती। इस दुनिया में जो विभिन्न प्रकार की चीजें देखते-सुनते है उन्हें क्या कोई रूप नहीं दिया जा सकता? आरम्भ में वह यहां-वहां से चुराकर लिखता था। अभिज्ञता न होने के कारण कुछ अच्छा नहीं लिखा जाता था। लेकिन जैसे-जैसे जीवन की पाठशाला में नाना अभावों के कारण अभिज्ञता प्राप्त होती गई वैसे-वैसे ही उसकी लेखनी में बल आता चला गया।

कहानियां गढ़कर सुनाने की उसकी जन्मजात प्रतिज्ञा निरन्तर प्रगति कर रही थी । जिस समय दूसरे साथी फुटबाल खेलते थे तब वह छोटी आयु के बच्चों को घेरकर बैठ जाता ओर कहानियों पर कहानियां सुनाकर उन्हें मंत्रमुध कर देता। बीच-बीच में पूछा रहता, “कैसी लगी रे?”

बेचारे बालक, पता नहीं वे कुछ समझते भी थे पर, इस अदम्य साहसी और कथा- विद्या-विशारद से यही कहते, “बहुत अच्छी लगी, दादा ।”

राजलक्ष्मी श्रीकान्त के बारे में यही तो कहती है, “इसमें आश्चर्य क्या, आनन्द! अपने मन की बात दबाते-दबाते और कहानियां गढ़कर सुनाते-सुनाते इस विद्या में ये पूरी तरह महामहोपाध्याय हो गए है। 

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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