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औलाद

24 अप्रैल 2022

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जब ज़ुबैदा की शादी हुई तो उसकी उम्र पच्चीस बरस की थी। उसके माँ-बाप तो ये चाहते थे कि सतरह बरस के होते ही उसका ब्याह हो जाये मगर कोई मुनासिब-ओ-मौज़ूं रिश्ता मिलता ही नहीं था। अगर किसी जगह बात तय होने पाती तो कोई ऐसी मुश्किल पैदा हो जाती कि रिश्ता अमली सूरत इख़्तियार न कर सकता।


आख़िर जब ज़ुबैदा पच्चीस बरस की होगई तो उसके बाप ने एक रंडुवे का रिश्ता क़बूल कर लिया। उसकी उम्र पैंतीस बरस के क़रीब-क़रीब थी, या शायद इससे भी ज़्यादा हो। साहब-ए-रोज़गार था। मार्कीट में कपड़े की थोक फ़रोशी की दुकान थी। हर माह पाँच छः सौ रुपय कमा लेता था।


ज़ुबैदा बड़ी फ़र्मांबरदार लड़की थी। उसने अपने वालिदैन का फ़ैसला मंज़ूर कर लिया। चुनांचे शादी हो गई और वो अपने ससुराल चली गई।


उसका ख़ाविंद जिसका नाम इल्म उद्दीन था, बहुत शरीफ़ और मुहब्बत करने वाला साबित हुआ। ज़ुबैदा की हर आसाइश का ख़याल रखता। कपड़े की कोई कमी नहीं थी। हालाँकि दूसरे लोग उसके लिए तरसते थे। चालीस हज़ार और थ्री बी का लट्ठा, शनों और दो घोड़े की बोसकी के थानों के थान ज़ुबैदा के पास मौजूद थे।


वो अपने मैके हर हफ़्ते जाती। एक दिन वो गई तो उसने डेयुढ़ी में क़दम रखते ही बैन करने की आवाज़ सुनी। अंदर गई तो उसे मालूम हुआ कि उसका बाप अचानक दिल की हरकत बंद होने के बाइस मर गया है।


अब ज़ुबैदा की माँ अकेली रह गई थी। घर में सिवाए एक नौकर के और कोई भी नहीं था। उसने अपने शौहर से दरख़्वास्त की कि वो उसे इजाज़त दे कि वो अपनी बेवा माँ को अपने पास बुलाले।


इल्म उद्दीन ने कहा, “इजाज़त लेने की क्या ज़रूरत थी... ये तुम्हारा घर है और तुम्हारी माँ मेरी माँ... जाओ उन्हें ले आओ, जो सामान वग़ैरा होगा उसको यहां लाने का बंदोबस्त मैं अभी किए देता हूँ।”


ज़ुबैदा बहुत ख़ुश हुई। घर काफ़ी बड़ा था। दो-तीन कमरे ख़ाली पड़े थे। वो तांगे में गई और अपनी माँ को साथ ले आई। इल्म उद्दीन ने सामान उठवाने का बंदोबस्त कर दिया था, चुनांचे वो भी पहुंच गया। ज़ुबैदा की माँ के लिए कुछ सोच बिचार के बाद एक कमरा मुख़तस कर दिया गया।


वो बहुत ममनून-ओ-मुतशक़्क़िर थी। अपने दामाद के हुस्न-ए-सुलूक से बहुत मुतास्सिर। उसके जी में कई मर्तबा ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो अपना सारा ज़ेवर जो कई हज़ारों की मालियत का था, उसको दे दे कि वो अपने कारोबार में लगाए और ज़्यादा कमाए, मगर वो तबअन कंजूस थी।


एक दिन उसने अपनी बेटी से कहा, “मुझे यहां आए दस महीने होगए हैं, मैंने अपनी जेब से एक पैसा भी ख़र्च नहीं किया, हालाँकि तुम्हारे मरहूम बाप के छोड़े हुए दस हज़ार रुपय मेरे पास मौजूद हैं और ज़ेवर अलग।”


ज़ुबैदा अँगीठी के कोयलों पर फुल्का सेंक रही थी, “माँ, तुम भी कैसी बातें करती हो।”


“कैसी-वैसी मैं नहीं जानती। मैंने ये सब रुपये इल्म उद्दीन को दे दिए होते, मगर मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे कोई बच्चा पैदा हो तो ये सारा रुपया उसको तोहफ़े के तौर पर दूँ।”


ज़ुबैदा की माँ को इस बात का बड़ा ख़याल था कि अभी तक बच्चा पैदा क्यों नहीं हुआ, शादी हुए क़रीब-क़रीब दो बरस हो चुके थे, मगर बच्चे की पैदाइश के आसार ही नज़र नहीं आते थे।


वो उसे कई हकीमों के पास ले गई। कई माजूनें, कई सफ़ूफ़, कई क़ुर्स उसको खिलवाए, मगर ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा बरामद न हुआ।


आख़िर उसने पीरों-फ़क़ीरों से रुजू किया। टोने-टोटके इस्तेमाल किए गए, तावीज़, धागे भी... मगर मुराद बर न आई। ज़ुबैदा इस दौरान में तंग आगई। एक दिन चुनांचे उसने उकता कर अपनी माँ से कह दिया, “छोड़ो इस क़िस्से को, बच्चा नहीं होता तो न हो।”


उस की बूढ़ी माँ ने मुँह बिसूर कर कहा, “बेटा, ये बहुत बड़ा क़िस्सा है, तुम्हारी अक़ल को मालूम नहीं क्या हो गया है। तुम इतना भी नहीं समझती कि औलाद का होना कितना ज़रूरी है, उसी से तो इंसान की ज़िंदगी का बाग़ सदा हराभरा रहता है।”


ज़ुबेदा ने फुल्का चंगेर में रखा, “मैं क्या करूं... बच्चा पैदा नहीं होता तो इसमें मेरा क्या क़ुसूर है।”


बुढ़िया ने कहा, “क़ुसूर किसी का भी नहीं बेटी... बस सिर्फ़ एक अल्लाह की मेहरबानी चाहिए।”


ज़ुबैदा अल्लाह मियां के हुज़ूर हज़ारों मर्तबा दुआएं मांग चुकी थी कि वो अपने फ़ज़ल-ओ-करम से उस की गोद हरी करे, मगर उसकी इन दुआओं से कुछ भी नहीं हुआ था। जब उसकी माँ ने हर रोज़ उस से बच्चे की पैदाइश के मुतअल्लिक़ बातें करना शुरू कीं, तो उसको ऐसा महसूस होने लगा कि वो बंजर ज़मीन है, जिसमें कोई पौदा उग ही नहीं सकता।


रातों को वो अजीब-अजीब से ख़्वाब देखती। बड़े ऊटपटांग क़िस्म के। कभी ये देखती कि वो लक़-ओ-दक़ सहरा में खड़ी है उसकी गोद में एक गुलगोथना सा बच्चा है, जिसे वो हवा में इतने ज़ोर से उछालती है कि वो आसमान तक पहुंच कर ग़ायब हो जाता है।


कभी ये देखती कि वो अपने बिस्तर में लेटी है जो नन्हे-मुन्ने बच्चों के ज़िंदा और मुतहर्रिक गोश्त से बना है।


ऐसे ख़्वाब देख देख कर उसका दिल-ओ-दिमाग़ ग़ैर मुतवाज़िन होगया। बैठे बैठे उसके कानों में बच्चों के रोने की आवाज़ आने लगी और वह अपनी माँ से कहती, “ये किसका बच्चा रो रहा है?”


उसकी माँ ने अपने कानों पर ज़ोर दे कर ये आवाज़ सुनने की कोशिश की, जब कुछ सुनाई न दिया तो उसने कहा, “कोई बच्चा रो नहीं रहा...”


“नहीं माँ... रो रहा है... बल्कि रो रो के हलकान हुए जा रहा है।”


उसकी माँ ने कहा, “या तो मैं बहरी होगई हूँ, या तुम्हारे कान बजने लगे हैं।”


ज़ुबैदा ख़ामोश होगई, लेकिन उसके कानों में देर तक किसी नौ-ज़ाईदा बच्चे के रोने और बिलकने की आवाज़ें आती रहीं। उसको कई बार ये भी महसूस हुआ कि उसकी छातियों में दूध उतर रहा है। इस का ज़िक्र उसने अपनी माँ से न किया। लेकिन जब वो अंदर अपने कमरे में थोड़ी देर आराम करने के लिए गई तो उसने क़मीस उठा कर देखा कि उसकी छातियां उभरी हुई थीं।


बच्चे के रोने की आवाज़ उसके कानों में अक्सर टपकती रही, लेकिन वो अब समझ गई थी कि ये सब वाहिमा है। हक़ीक़त सिर्फ़ ये है कि उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर मुसलसल हथौड़े पड़ते रहे हैं कि उसके बच्चा क्यों नहीं होता और वो ख़ुद भी बड़ी शिद्दत से वो ख़ला महसूस करती है, जो किसी ब्याही औरत की ज़िंदगी में नहीं होना चाहिए।


वो अब बहुत उदास रहने लगी, मुहल्ले में बच्चे शोर मचाते तो उसके कान फटने लगते। उसका जी चाहता कि बाहर निकल कर उन सबका गला घोंट डाले। उसके शौहर इल्म उद्दीन को औलाद-वोलाद की कोई फ़िक्र नहीं थी। वो अपने व्योपार में मगन था। कपड़े के भाव रोज़ बरोज़ चढ़ रहे थे। आदमी चूँकि होशयार था, इसलिए उसने कपड़े का काफ़ी ज़ख़ीरा जमा कर रखा था। अब उसकी माहाना आमदन पहले से दोगुना हो गई थी।


मगर इस आमदन की ज़्यादती से ज़ुबैदा को कोई ख़ुशी हासिल नहीं हुई थी। जब उसका शौहर नोटों की गड्डी उसको देता, तो उसे अपनी झोली में डाल कर देर तक उन्हें लोरी देती रहती, फिर वो उन्हें उठा कर किसी ख़याली झूले में बिठा देती।


एक दिन इल्म उद्दीन ने देखा कि वो नोट जो उसने अपनी बीवी को ला कर दिए थे, दूध की पतीली में पड़े हैं। वो बहुत हैरान हुआ कि ये कैसे यहां पहुंच गए। चुनांचे उसने ज़ुबैदा से पूछा, “ये नोट दूध की पतीली में किसने डाले हैं?”


ज़ुबैदा ने जवाब दिया, “बच्चे बड़े शरीर हैं, ये हरकत उन्ही की होगी।”


इल्म उद्दीन बहुत मुतहय्यर हुआ, “लेकिन यहां बच्चे कहाँ हैं?”


ज़ुबैदा अपने ख़ाविंद से कहीं ज़्यादा मुतहय्यर हुई, “क्या हमारे हाँ बच्चे नहीं... आप भी कैसी बातें करते हैं? अभी स्कूल से वापस आते होंगे, उनसे पूछूंगी कि ये हरकत किसकी थी।”


इल्म उद्दीन समझ गया। उसकी बीवी के दिमाग़ का तवाज़ुन क़ायम नहीं। लेकिन उसने अपनी सास से इसका ज़िक्र न किया कि वो बहुत कमज़ोर औरत थी।


वो दिल ही दिल में ज़ुबैदा की दिमाग़ी हालत पर अफ़सोस करता रहा। मगर उसका ईलाज उसके बस में नहीं था। उसने अपने कई दोस्तों से मश्वरा लिया। उनमें से चंद ने उससे कहा कि पागलखाने में दाख़िल करा दो। मगर इसके ख़याल ही से उसे वहशत होती थी।


उसने दुकान पर जाना छोड़ दिया। सारा वक़्त घर रहता और ज़ुबैदा की देख भाल करता कि मबादा वो किसी रोज़ कोई ख़तरनाक हरकत कर बैठे।


उसके घर पर हर वक़्त मौजूद रहने से ज़ुबैदा की हालत किसी क़दर दुरुस्त होगई, लेकिन उसको इस बात की बहुत फ़िक्र थी कि दुकान का कारोबार कौन चला रहा है। कहीं वो आदमी जिसको ये काम सपुर्द किया गया है, ग़बन तो नहीं कर रहा।


उसने चुनांचे कई मर्तबा अपने ख़ाविंद से कहा, “दुकान पर तुम क्यों नहीं जाते?”


इल्म उद्दीन ने उससे बड़े प्यार के साथ कहा, “जानम, मैं काम कर के थक गया हूँ, अब थोड़ी देर आराम करना चाहता हूं।”


“मगर दुकान किसके सपुर्द है?”


“मेरा नौकर है... वो सब काम करता है।”


“क्या ईमानदार है?”


“हाँ, हाँ... बहुत ईमानदार है... दमड़ी दमड़ी का हिसाब देता है, तुम क्यों फ़िक्र करती हो।”


ज़ुबैदा ने बहुत मुतफ़क्किर हो कर कहा, “मुझे क्यों फ़िक्र न होगी बाल-बच्चेदार हूँ। मुझे अपना तो कुछ ख़याल नहीं, लेकिन इनका तो है। ये आपका नौकर अगर आपका रुपया मार गया तो ये समझिए कि बच्चों...”


इल्म उद्दीन की आँखों में आँसू आगए, “ज़ुबैदा... इनका अल्लाह मालिक है। वैसे मेरा नौकर बहुत वफ़ादार है और ईमानदार है। तुम्हें कोई तरद्दुद नहीं करना चाहिए।”


“मुझे तो किसी क़िस्म का तरद्दुद नहीं है, लेकिन बा’ज़ औक़ात माँ को अपनी औलाद के मुतअल्लिक़ सोचना ही पड़ता है।”


इल्म उद्दीन बहुत परेशान था कि क्या करे। ज़ुबैदा सारा दिन अपने ख़याली बच्चों के कपड़े सीती रहती। उनकी जुराबें धोती, उनके लिए ऊनी स्वेटर बुनती। कई बार उसने अपने ख़ाविंद से कह कर मुख़्तलिफ़ साइज़ की छोटी-छोटी सैंडिलें मंगवाईं, जिन्हें वो हर सुबह पालिश करती थी।


इल्म उद्दीन ये सब कुछ देखता और उसका दिल रोने लगता। और वो सोचता कि शायद उसके गुनाहों की सज़ा उसको मिल रही है। ये गुनाह क्या थे, इसका इल्म, इल्म उद्दीन को नहीं था।


एक दिन उसका एक दोस्त उससे मिला जो बहुत परेशान था। इल्म उद्दीन ने उससे परेशानी की वजह दरयाफ्त किया, तो उसने बताया कि उसका एक लड़की से मआशक़ा होगया था। अब वो हामिला होगई। इस्क़ात के तमाम ज़राए इस्तेमाल किए गए हैं, मगर कामयाबी नहीं हुई। इल्म उद्दीन ने उस से कहा, “देखो, इस्क़ात-वुस्कात की कोशिश न करो। बच्चा पैदा होने दो।”


उसके दोस्त ने जिसे होने वाले बच्चे से कोई दिलचस्पी नहीं थी, कहा, “मैं बच्चे का क्या करूंगा?”


“तुम मुझे दे देना।”


बच्चा पैदा होने में कुछ देर थी। इस दौरान में इल्म उद्दीन ने अपनी बीवी ज़ुबैदा को यक़ीन दिलाया कि वो हामिला है और एक माह के बाद उसके बच्चा पैदा होजाएगा।


ज़ुबैदा बार बार कहती, “मुझे अब ज़्यादा औलाद नहीं चाहिए, पहले ही क्या कम है।”


इल्म उद्दीन ख़ामोश रहता।


उसके दोस्त की दाश्ता के लड़का पैदा हुआ, जो इल्म उद्दीन ने ज़ुबैदा के पास, जो कि सो रही थी, लिटा दिया और उसे जगा कर कहा, “ज़ुबैदा, तुम कब तक बेहोश पड़ी रहोगी। ये देखो, तुम्हारे पहलू में क्या है?”


ज़ुबैदा ने करवट बदली और देखा कि उसके साथ एक नन्हा-मुन्ना बच्चा हाथ-पांव मार रहा है, इल्म उद्दीन ने उससे कहा, “लड़का है। अब ख़ुदा के फ़ज़ल-ओ-करम से हमारे पाँच बच्चे होगए हैं।”


ज़ुबैदा बहुत ख़ुश हुई, “ये लड़का कब पैदा हुआ?”


“सुबह सात बजे।”


“और मुझे इसका इल्म ही नहीं... मेरा ख़याल है, दर्द की वजह से में बेहोश होगई होंगी।”


इल्म उद्दीन ने कहा, “हाँ, कुछ ऐसी ही बात थी, लेकिन अल्लाह के फ़ज़ल-ओ-करम से सब ठीक होगया।”


दूसरे रोज़ जब इल्म उद्दीन अपनी बीवी को देखने गया तो उसने देखा कि वो लहूलुहान है। उसके हाथ में उसका कट थ्रोट उस्तरा है। वो अपनी छातियां काट रही है।


इल्म उद्दीन ने उसके हाथ से उस्तरा छीन लिया, “ये क्या कर रही हो तुम?”


ज़ुबैदा ने अपने पहलू में लेटे हुए बच्चे की तरफ़ देखा और कहा, “सारी रात बिलकता रहा है, लेकिन मेरी छातियों में दूध न उतरा... लानत है ऐसी...”


इससे आगे, वो और कुछ न कह सकी। ख़ून से लिथड़ी हुई एक उंगली उसने बच्चे के मुँह के साथ लगा दी और हमेशा की नींद सो गई। 

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सआदत हसन मंटो की इरोटिक कहानियाँ
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सवाल यह हैं की जो चीज जैसी हैं उसे वैसे ही पेश क्यू ना किया जाये मैं तो बस अपनी कहानियों को एक आईना समझता हूँ जिसमें समाज अपने आपको देख सके.. अगर आप मेरी कहानियों को बर्दास्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह हैं की ये ज़माना ही नक़ाबिल-ए-बर्दास्त हैं||
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सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तर

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गुरमुख सिंह की वसीयत

24 अप्रैल 2022
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पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी

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इश्क़िया कहानी

24 अप्रैल 2022
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मेरे मुतअ’ल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इ’श्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इसलिए वो बिल्कुल सपाट होते हैं। मैं अब ये इ’श्क़िया कहानी लि

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बाबू गोपीनाथ

24 अप्रैल 2022
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बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था।

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मोज़ेल

24 अप्रैल 2022
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त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आ

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एक ज़ाहिदा, एक फ़ाहिशा

24 अप्रैल 2022
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जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर। हम हर रोज़ क़रीब-क़रीब दस-बारह घंटे साथ साथ रहते। वो अपने रिश्तेदारों स

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बुर्क़े

24 अप्रैल 2022
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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है। वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड

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आँखें

24 अप्रैल 2022
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ये आँखें बिल्कुल ऐसी ही थीं जैसे अंधेरी रात में मोटर कार की हेडलाइट्स जिनको आदमी सब से पहले देखता है। आप ये न समझिएगा कि वो बहुत ख़ूबसूरत आँखें थीं, हरगिज़ नहीं। मैं ख़ूबसूरती और बदसूरती में तमीज़ क

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अनार कली

24 अप्रैल 2022
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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तन

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टेटवाल का कुत्ता

24 अप्रैल 2022
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कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिनकी आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में

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धुआँ

24 अप्रैल 2022
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वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था

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आर्टिस्ट लोग

24 अप्रैल 2022
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जमीला को पहली बार महमूद ने बाग़-ए-जिन्ना में देखा। वो अपनी दो सहेलियों के साथ चहल क़दमी कर रही थी। सबने काले बुर्के पहने थे। मगर नक़ाबें उलटी हुई थीं। महमूद सोचने लगा। ये किस क़िस्म का पर्दा है कि बुर

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