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बादशाहत का ख़ात्मा

24 अप्रैल 2022

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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...”


दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और किताब पढ़ने में मशग़ूल हो गया।


ये किताब वो तक़रीबन बीस मर्तबा पढ़ चुका था। इसलिए नहीं कि उसमें कोई ख़ास बात थी। दफ़्तर में जो वीरान पड़ा था। एक सिर्फ़ यही किताब थी जिसके आख़िरी औराक़ कृम ख़ूर्दा थे।


एक हफ़्ते से दफ़्तर मनमोहन की तहवील में था क्योंकि उसका मालिक जो कि उसका दोस्त था, कुछ रुपया क़र्ज़ लेने के लिए कहीं बाहर गया हुआ था। मनमोहन के पास चूंकि रहने के लिए कोई जगह नहीं थी। इसलिए फुटपाथ से आरिज़ी तौर पर वो इस दफ़्तर में मुंतक़िल हो गया था और इस एक हफ़्ते में वो दफ़्तर की इकलौती किताब तक़रीबन बीस मर्तबा पढ़ चुका था।


दफ़्तर में वो अकेला पड़ा रहता। नौकरी से उसे नफ़रत थी। अगर वो चाहता तो किसी भी फ़िल्म कंपनी में बतौर फ़िल्म डायरेक्टर के मुलाज़िम हो सकता था मगर वो गु़लामी नहीं चाहता था। निहायत ही बेज़रर और मुख़्लिस आदमी था। इसलिए दोस्त यार उसके रोज़ाना अख़राजात का बंदोबस्त कर देते थे। ये अख़राजात बहुत ही कम थे। सुबह को चाय की प्याली और दो तोस। दोपहर को दो फुल्के और थोड़ा सा सालन, सारे दिन में एक पैकेट सिगरेट और बस!


मनमोहन का कोई अज़ीज़ या रिश्तेदार नहीं था। बेहद ख़ामोशी पसंद था, जफ़ाकश था। कई कई दिन फ़ाक़े से रह सकता था। उसके मुतअल्लिक़ उसके दोस्त और तो कुछ नहीं लेकिन इतना जानते थे कि वो बचपन ही से घर छोड़ छाड़ के निकल आया था और एक मुद्दत से बंबई के फुटपाथों पर आबाद था। ज़िंदगी में सिर्फ़ उसको एक चीज़ की हसरत थी औरत की मोहब्बत की। “अगर मुझे किसी औरत की मोहब्बत मिल गई तो मेरी सारी ज़िंदगी बदल जाएगी।”


दोस्त उससे कहते, “तुम काम फिर भी न करोगे।”


मनमोहन आह भर कर जवाब देता, “काम?... मैं मुजस्सम काम बन जाऊंगा।”


दोस्त उससे कहते, “तो शुरू कर दो किसी से इश्क़।”


मनमोहन जवाब देता, “नहीं... मैं ऐसे इश्क़ का क़ाइल नहीं जो मर्द की तरफ़ से शुरू हो।”


दोपहर के खाने का वक़्त क़रीब आरहा था। मनमोहन ने सामने दीवार पर क्लाक की तरफ़ देखा। टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई। उसने रिसीवर उठाया और कहा, हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन।”


दूसरी तरफ़ से पतली सी आवाज़ आई, “फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन?”


मनमोहन ने जवाब दिया, “जी हाँ!”


निस्वानी आवाज़ ने पूछा, “आप कौन हैं?”


“मनमोहन!... फ़रमाईए!”


दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई तो मनमोहन ने कहा, “फ़रमाईए किस से बात करना चाहती हैं आप?”


आवाज़ ने जवाब दिया, “आप से!”


मनमोहन ने ज़रा हैरत से पूछा, “मुझ से?”


“जी हाँ... आपसे क्या आपको कोई एतराज़ है।”


मनमोहन सटपटा सा गया, “जी... जी नहीं!”


आवाज़ मुस्कुराई, “आपने अपना नाम मदनमोहन बताया था।”


“जी नहीं... मनमोहन।”


“मनमोहन?”


चंद लम्हात ख़ामोशी में गुज़र गए तो मनमोहन ने कहा, “आप बातें करना चाहती थीं मुझ से?”


आवाज़ आई, “जी हाँ।”


“तो कीजिए!”


थोड़े वक़फ़े के बाद आवाज़ आई, “समझ में नहीं आता क्या बात करूं... आप ही शुरू कीजिए न कोई बात।”


“बहुत बेहतर,” ये कह कर मनमोहन ने थोड़ी देर सोचा, “नाम अपना बता चुका हूँ। आरिज़ी तौर पर ठिकाना मेरा ये दफ़्तर है... पहले फुटपाथ पर सोता था। अब एक हफ़्ता से इस दफ़्तर के बड़े मेज़ पर सोता हूँ।”


आवाज़ मुस्कुराई, “फुटपाथ पर आप मसहरी लगा कर सोते थे?”


मनमोहन हंसा, “इससे पहले कि मैं आपसे मज़ीद गुफ़्तगु करूं। मैं ये बात वाज़ेह करदेना चाहता हूँ कि मैंने कभी झूट नहीं बोला। फुटपाथों पर सोते मुझे एक ज़माना हो गया है, ये दफ़्तर तक़रीबन एक हफ़्ते से मेरे क़ब्ज़े में है। आजकल ऐश कर रहा हूँ।”


आवाज़ मुस्कुराई, “कैसे ऐश?”


मनमोहन ने जवाब दिया, “एक किताब मिल गई थी यहां से... आख़िरी औराक़ गुम हैं लेकिन मैं इसे बीस मर्तबा पढ़ चुका हूँ... सालिम किताब कभी हाथ लगी तो मालूम होगा हीरो-हीरोइन के इश्क़ का अंजाम क्या हुआ?”


आवाज़ हंसी, “आप बड़े दिलचस्प आदमी हैं।”


मनमोहन ने तकल्लुफ़ से कहा, “आप की ज़र्रा नवाज़ी है।”


आवाज़ ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद पूछा, “आप का शग़्ल क्या है?”


“शग़ल?”


“मेरा मतलब है आप करते क्या हैं?”


“क्या करता हूँ... कुछ भी नहीं। एक बेकार इंसान क्या कर सकता है। सार दिन आवारागर्दी करता हूँ, रात को सो जाता हूँ।”


आवाज़ ने पूछा, “ये ज़िंदगी आपको अच्छी लगती है।”


मनमोहन सोचने लगा, “ठहरिए... बात दरअसल ये है कि मैंने इस पर कभी ग़ौर ही नहीं किया। अब आपने पूछा है तो मैं अपने आप से पूछ रहा हूँ कि ये ज़िंदगी तुम्हें अच्छी लगती है या नहीं?”


“कोई जवाब मिला?”


थोड़े वक़्फ़े के बाद मनमोहन ने जवाब दिया, “जी नहीं... लेकिन मेरा ख़याल है कि ऐसी ज़िंदगी मुझे अच्छी लगती ही होगी। जब कि एक अर्से से बसर कर रहा हूँ।”


आवाज़ हंसी। मनमोहन ने कहा, “आप की हंसी बड़ी मुतरन्निम है।”


आवाज़ शर्मा गई, “शुक्रिया!” और सिलसिल-ए-गुफ़्तुगू मुनक़ते कर दिया।


मनमोहन थोड़ी देर रिसीवर हाथ में लिए खड़ा रहा। फिर मुस्कुरा कर उसे रख दिया और दफ़्तर बंद करके चला गया।


दूसरे रोज़ सुबह आठ बजे जबकि मनमोहन दफ़्तर के बड़े मेज़ पर सो रहा था, टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई। जमाईयाँ लेते हुए उसने रिसीवर उठाया और कहा,“हलो, फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन।”


दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई, “आदाब अर्ज़ मनमोहन साहब!”


“आदाब अर्ज़!” मनमोहन एक दम चौंका, “ओह, आप... आदाब अर्ज़।”


“तस्लीमात!”


आवाज़ आई, “आप ग़ालिबन सो रहे थे?”


“जी हाँ, यहां आकर मेरी आदात कुछ बिगड़ रही हैं। वापस फुटपाथ पर गया तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी।”


आवाज़ मुस्कुराई, “क्यों?”


“वहां सुबह पाँच बजे से पहले पहले उठना पड़ता है।”


आवाज़ हंसी, मनमोहन ने पूछा, “कल आप ने एक दम टेलीफ़ोन बंद कर दिया।”


आवाज़ शर्माई, “आप ने मेरी हंसी की तारीफ़ क्यों की थी।”


मनमोहन ने कहा, “लो साहब, ये भी अजीब बात कही आप ने... कोई चीज़ जो ख़ूबसूरत हो तो उसकी तारीफ़ नहीं करनी चाहिए?”


“बिल्कुल नहीं!”


“ये शर्त आप मुझ पर आइद नहीं कर सकतीं... मैंने आज तक कोई शर्त अपने ऊपर आइद नहीं होने दी। आप हंसेंगी तो मैं ज़रूर तारीफ़ करूंगा।”


“मैं टेलीफ़ोन बंद कर दूँगी।”


“बड़े शौक़ से।”


“आपको मेरी नाराज़गी का कोई ख़याल नहीं।”


“मैं सबसे पहले अपने आपको नाराज़ नहीं करना चाहता... अगर मैं आपकी हंसी की तारीफ़ न करूं तो मेरा ज़ौक़ मुझ से नाराज़ हो जाएगा... ये ज़ौक़ मुझे बहुत अज़ीज़ है!”


थोड़ी देर ख़ामोशी रही। उसके बाद दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई, “माफ़ कीजिएगा, मैं मुलाज़िमा से कुछ कह रही थी... आपका ज़ौक़ आपको बहुत अज़ीज़ है... हाँ ये तो बताईए आपको शौक़ किस चीज़ का है?”


“क्या मतलब?”


“यानी... कोई शग़्ल... कोई काम... मेरा मतलब है, आपको आता क्या है?”


मनमोहन हंसा, “कोई काम नहीं आता... फोटोग्राफी का थोड़ा सा शौक़ है।”


“ये बहुत अच्छा शौक़ है।”


“इसकी अच्छाई या बुराई का मैंने कभी नहीं सोचा।”


आवाज़ ने पूछा, “कैमरा तो आपके पास बहुत अच्छा होगा?”


मनमोहन हंसा, “मेरे पास अपना कोई कैमरा नहीं। दोस्त से मांग कर शौक़ पूरा कर लेता हूँ। अगर मैंने कभी कुछ कमाया तो एक कैमरा मेरी नज़र में है, वो खरीदूंगा।”


आवाज़ ने पूछा, “कौन सा कैमरा?”


मनमोहन ने जवाब दिया, “एग्ज़क्टा, रेफ़लेक्स कैमरा है। मुझे बहुत पसंद है।”


थोड़ी देर ख़ामोशी रही। उसके बाद आवाज़ आई, “मैं कुछ सोच रही थी।”


“क्या?”


“आपने मेरा नाम पूछा न टेलीफ़ोन नंबर दरयाफ़्त किया।”


“मुझे इसकी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई?”


“क्यों?”


“नाम आपका कुछ भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है... आपको मेरा नंबर मालूम है बस ठीक है... आप अगर चाहेंगी तो मैं आपको टेलीफ़ोन करूं तो नाम और नंबर बता दीजिएगा।”


“मैं नहीं बताऊंगी।”


“लो साहब, ये भी ख़ूब रहा... मैं जब आप से पूछूंगा ही नहीं तो बताने न बताने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।”


आवाज़ मुस्कुराई, “आप अजीब-ओ-ग़रीब आदमी हैं।”


मनमोहन मुस्कुरा दिया, “जी हाँ, कुछ ऐसा ही आदमी हूँ।”


चंद सेकंड ख़ामोशी रही, “आप फिर सोचने लगीं।”


“जी हाँ, कोई और बात इस वक़्त सूझ नहीं रही थी।”


“तो टेलीफ़ोन बंद कर दीजिए... फिर सही।”


आवाज़ किसी क़दर तीखी होगई, “आप बहुत रूखे आदमी हैं... टेलीफ़ोन बंद कर दीजिए। लीजिए में बंद करती हूँ।”


मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और मुस्कराने लगा।


आधे घंटे के बाद जब मनमोहन हाथ धो कर कपड़े पहन कर बाहर निकलने के लिए तैयार हुआ तो टेलीफ़ोन की घंटी बजी। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन!”


आवाज़ आई, “मिस्टर मनमोहन?”


मनमोहन ने जवाब दिया, “जी हाँ मनमोहन, इरशाद?”


आवाज़ मुस्कुराई, “इरशाद ये है कि मेरी नाराज़गी दूर होगई है।”


मनमोहन ने बड़ी शगुफ़्तगी से कहा, “मुझे बड़ी ख़ुशी हुई है।”


“नाश्ता करते हुए मुझे ख़याल आया कि आपके साथ बिगाड़नी नहीं चाहिए... हाँ आपने नाश्ता कर लिया।”


“जी नहीं बाहर निकलने ही वाला था कि आपने टेलीफ़ोन किया।”


“ओह... तो आप जाईए।”


“जी नहीं, मुझे कोई जल्दी नहीं, मेरे पास आज पैसे नहीं हैं। इसलिए मेरा ख़याल है कि आज नाश्ता नहीं होगा।”


“आपकी बातें सुन कर... आप ऐसी बातें क्यों करते हैं... मेरा मतलब है ऐसी बातें आप इसलिए करते हैं कि आपको दुख होता है?”


मनमोहन ने एक लम्हा सोचा, “जी नहीं... मेरा अगर कोई दुख दर्द है तो मैं उसका आदी हो चुका हूँ।”


आवाज़ ने पूछा, “मैं कुछ रुपये आपको भेज दूं?”


मनमोहन ने जवाब दिया, “भेज दीजिए। मेरे फेनान्सरों में एक आपका भी इज़ाफ़ा हो जाएगा!”


“नहीं मैं नहीं भेजूंगी!”


“आपकी मर्ज़ी!”


“मैं टेलीफ़ोन बंद करती हूँ।”


“बेहतर।”


मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और मुस्कुराता हुआ दफ़्तर से निकल गया। रात को दस बजे के क़रीब वापस आया और कपड़े बदल कर मेज़ पर लेट कर सोचने लगा कि ये कौन है जो उसे फ़ोन करती है, आवाज़ से सिर्फ़ इतना पता चलता था कि जवान है। हंसी बहुत ही मुतरन्निम थी। गुफ़्तगु से ये साफ़ ज़ाहिर है कि तालीम याफ़्ता और मोहज़्ज़ब है। बहुत देर तक वो उसके मुतअल्लिक़ सोचता रहा। इधर क्लाक ने ग्यारह बजाये उधर टेलीफ़ोन की घंटी बजी।


मनमोहन ने रिसीवर उठाया, “हलो।”


दूसरी तरफ़ से वही आवाज़ आई, “मिस्टर मनमोहन।”


“जी हाँ... मनमोहन... इरशाद।”


“इरशाद ये है कि मैंने आज दिन में कई मर्तबा रिंग किया। आप कहाँ ग़ायब थे?”


“साहब बेकार हूँ, लेकिन फिर भी काम पर जाता हूँ।”


“किस काम पर?”


“आवारागर्दी।”


“वापस कब आए?”


“दस बजे।”


“अब क्या कर रहे थे?”


“मेज़ पर लेटा आपकी आवाज़ से आपकी तस्वीर बना रहा था।”


“बनी?”


“जी नहीं।”


“बनाने की कोशिश न कीजिए... मैं बड़ी बदसूरत हूँ।”


“माफ़ कीजिएगा, अगर आप वाक़ई बदसूरत हैं तो टेलीफ़ोन बंद कर दीजिए, बदसूरती से मुझे नफ़रत है।”


आवाज़ मुस्कुराई, “ऐसा है तो चलिए मैं ख़ूबसूरत हूँ, मैं आपके दिल में नफ़रत नहीं पैदा करना चाहती।”


थोड़ी देर ख़ामोशी रही। मनमोहन ने पूछा, “कुछ सोचने लगीं?”


आवाज़ चौंकी, “जी नहीं... मैं आप से पूछने वाली थी कि...”


“सोच लीजिए अच्छी तरह।”


आवाज़ हंस पड़ी, “आपको गाना सुनाऊं?”


“ज़रूर।”


“ठहरिए।”


गला साफ़ करने की आवाज़ आई। फिर ग़ालिब की ये ग़ज़ल शुरू हुई, “नुक्ता चीं है ग़म-ए-दिल...”


सहगल वाली नई धुन थी। आवाज़ में दर्द और ख़ुलूस था। जब ग़ज़ल ख़त्म हुई तो मनमोहन ने दाद दी, “बहुत ख़ूब... ज़िंदा रहो।”


आवाज़ शर्मा गई, “शुक्रिया...” और टेलीफ़ोन बंद कर दिया।


दफ़्तर के बड़े मेज़ पर मनमोहन के दिल-ओ-दिमाग़ में सारी रात ग़ालिब की ग़ज़ल गूंजती रही। सुबह जल्दी उठा और टेलीफ़ोन का इंतिज़ार करने लगे। तक़रीबन ढाई घंटे कुर्सी पर बैठा रहा मगर टेलीफ़ोन की घंटी न बजी। जब मायूस हो गया तो एक अजीब सी तल्ख़ी उसने अपने हलक़ में महसूस की, उठ कर टहलने लगा। उसके बाद मेज़ पर लेट गया और कुढ़ने लगा। वही किताब जिसको वो मुतअद्दिद मर्तबा पढ़ चुका था उठाई और वर्क़ गर्दानी शुरू करदी। यूंही लेटे लेटे शाम होगई। तक़रीबन सात बजे टेलीफ़ोन की घंटी बजी। मनमोहन ने रिसीवर उठाया और तेज़ी से पूछा, “कौन है?”


वही आवाज़ आई, “मैं!”


मनमोहन का लहजा तेज़ रहा, “इतनी देर तुम कहाँ थीं?”


आवाज़ लरज़ी, “क्यों?”


“मैं सुबह से यहां झक मार रहा हूँ... नाश्ता किया है न दोपहर का खाना खाया है हालाँकि मेरे पास पैसे मौजूद थे।”


आवाज़ आई, “मेरी जब मर्ज़ी होगी टेलीफ़ोन करूंगी... आप...”


मनमोहन ने बात काट कर कहा, “देखो जी ये सिलसिला बंद करो। टेलीफ़ोन करना है तो एक वक़्त मुक़र्रर करो। मुझसे इंतिज़ार बर्दाश्त नहीं होता।


आवाज़ मुस्कुराई, “आज की माफ़ी चाहती हूँ। कल से बाक़ायदा सुबह और शाम फ़ोन आया करेगा आपको।


“ये ठीक है!”


आवाज़ हंसी, “मुझे मालूम नहीं था आप इस क़दर बिगड़े दिल हैं।”


मनमोहन मुस्कुराया, “माफ़ करना। इंतिज़ार से मुझे बहुत कोफ़्त होती है और जब मुझे किसी बात से कोफ़्त होती है तो अपने आपको सज़ा देना शुरू कर देता हूँ।”


“वो कैसे?”


“सुबह तुम्हारा टेलीफ़ोन न आया... चाहिए तो ये था कि मैं चला जाता... लेकिन बैठा दिन भर अंदर ही अंदर कुढ़ता रहा। बचपना है साफ़।”


आवाज़ हमदर्दी में डूब गई, “काश मुझसे ये ग़लती न होती... मैंने क़सदन सुबह टेलीफ़ोन न किया!”


“क्यों?”


“ये मालूम करने के लिए आप इंतिज़ार करेंगे या नहीं?”


मनमोहन हंसा, “बहुत शरीर हो तुम... अच्छा अब टेलीफ़ोन बंद करो। मैं खाना खाने जा रहा हूँ।”


“बेहतर, कब तक लौटियेगा?”


“आधे घंटे तक।”


मनमोहन आधे घंटे के बाद खाना खा कर लौटा तो उसने फ़ोन किया। देर तक दोनों बातें करते रहे। उसके बाद उसने ग़ालिब की एक ग़ज़ल सुनाई। मनमोहन ने दिल से दाद दी। फिर टेलीफ़ोन का सिलसिला मुनक़ता हो गया।


अब हर रोज़ सुबह और शाम मनमोहन को उसका टेलीफ़ोन आता। घंटी की आवाज़ सुनते ही वो टेलीफ़ोन की तरफ़ लपकता। बा'ज़ औक़ात घंटों बातें जारी रहतीं। इस दौरान में मनमोहन ने उससे टेलीफ़ोन का नंबर पूछा न उसका नाम। शुरू शुरू में उसने उसकी आवाज़ की मदद से तख़य्युल के पर्दे पर उसकी तस्वीर खींचने की कोशिश की थी। मगर अब वो जैसे आवाज़ ही से मुतमइन होगया था। आवाज़ ही शक्ल थी, आवाज़ ही सूरत थी। आवाज़ ही जिस्म था, आवाज़ ही रूह थी।


एक दिन उसने पूछा, “मोहन, तुम मेरा नाम क्यों नहीं पूछते?”


मनमोहन ने मुस्कुरा कर कहा, “तुम्हारा नाम तुम्हारी आवाज़ है।”


“जो कि बहुत मुतरन्निम है।”


“इसमें क्या शक है?”


एक दिन वो बड़ा टेढ़ा सवाल कर बैठी, “मोहन तुमने कभी किसी लड़की से मोहब्बत की है?”


मनमोहन ने जवाब दिया, “नहीं।”


“क्यों?”


मोहन एक दम उदास होगया, “इस क्यों का जवाब चंद लफ़्ज़ों में नहीं दे सकता। मुझे अपनी ज़िंदगी का सारा मलबा उठाना पड़ेगा... अगर कोई जवाब न मिले तो बड़ी कोफ़्त होगी।”


“जाने दीजिए।”


टेलीफ़ोन का रिश्ता क़ायम हुए तक़रीबन एक महीना होगया। बिला नागा दिन में दो मर्तबा उसका फ़ोन आता। मनमोहन को अपने दोस्त का ख़त आया कि कर्जे़ का बंदोबस्त होगया है। सात-आठ रोज़ में वो बंबई पहुंचने वाला है। मनमोहन ये ख़त पढ़ कर अफ़्सुर्दा हो गया। उसका टेलीफ़ोन आया तो मनमोहन ने उससे कहा, मेरी दफ़्तर की बादशाही अब चंद दिनों की मेहमान है।


उसने पूछा, “क्यों?”


मनमोहन ने जवाब दिया, “कर्जे़ का बंदोबस्त होगया है... दफ़्तर आबाद होने वाला है।”


“तुम्हारे किसी और दोस्त के घर में टेलीफ़ोन नहीं।”


“कई दोस्त हैं जिनके टेलीफ़ोन हैं, मगर मैं तुम्हें उनका नंबर नहीं दे सकता।”


“क्यों?”


“मैं नहीं चाहता तुम्हारी आवाज़ कोई और सुने।”


“वजह?”


“मैं बहुत हासिद हूँ।”


वो मुस्कुराई, “ये तो बड़ी मुसीबत हुई।”


“क्या किया जाये?”


आख़िरी दिन जब तुम्हारी बादशाहत ख़त्म होने वाली होगी, मैं तुम्हें अपना नंबर दूंगी।”


“ये ठीक है!”


मनमोहन की सारी अफ़्सुर्दगी दूर होगई। वो उस दिन का इंतिज़ार करने लगा कि दफ़्तर में उसकी बादशाहत ख़त्म हो। अब फिर उसने उसकी आवाज़ की मदद से अपने तख़य्युल के पर्दे पर उसकी तस्वीर खींचने की कोशिश शुरू की। कई तस्वीरें बनीं मगर वो मुत्मइन न हुआ। उसने सोचा चंद दिनों की बात है। उसने टेलीफ़ोन नंबर बता दिया तो वो उसे देख भी सकेगा। इसका ख़याल आते ही उसका दिल-ओ-दिमाग़ सुन्न हो जाता, “मेरी ज़िंदगी का वो लम्हा कितना बड़ा लम्हा होगा जब मैं उसको देखूंगा।”


दूसरे रोज़ जब उसका टेलीफ़ोन आया तो मनमोहन ने उससे कहा, “तुम्हें देखने का इश्तियाक़ पैदा हो गया है।”


“क्यों?”


“तुम ने कहा था कि आख़िरी दिन जब यहां मेरी बादशाहत ख़त्म होने वाली होगी तो तुम मुझे अपना नंबर बता दोगी।”


“कहा था।”


“इसका ये मतलब है तुम मुझे अपना एड्रेस दे दोगी... मैं तुम्हें देख सकूँगा।”


“तुम मुझे जब चाहो देख सकते हो... आज ही देख लो।”


“नहीं नहीं...” फिर कुछ सोच कर कहा, “मैं ज़रा अच्छे लिबास में तुम से मिलना चाहता हूँ... आज ही एक दोस्त से कह रहा हूँ, वो मुझे सूट दिलवा देगा।”


वो हंस पड़ी, “बिल्कुल बच्चे हो तुम... सुनो। जब तुम मुझसे मिलोगे तो मैं तुम्हें एक तोहफ़ा दूंगी।”


मनमोहन ने जज़्बाती अंदाज़ में कहा, “तुम्हारी मुलाक़ात से बढ़ कर और क्या तोहफ़ा हो सकता है?”


“मैंने तुम्हारे लिए एग्ज़ेक्टा कैमरा ख़रीद लिया है।”


“ओह!”


“इस शर्त पर दूंगी कि पहले मेरा फ़ोटो उतारो।”


मनमोहन मुस्कुराया, “इस शर्त का फ़ैसला मुलाक़ात पर करूंगा।”


थोड़ी देर और गुफ़्तगु हुई उसके बाद उधर से वो बोली, “मैं कल और परसों तुम्हें टेलीफ़ोन नहीं कर सकूंगी।”


मनमोहन ने तशवीश भरे लहजे में पूछा, “क्यों?”


“मैं अपने अज़ीज़ों के साथ कहीं बाहर जा रही हूँ। सिर्फ़ दो दिन ग़ैर हाज़िर रहूंगी। मुझे माफ़ कर देना।”


ये सुनने के बाद मनमोहन सारा दिन दफ़्तर ही में रहा। दूसरे दिन सुबह उठा तो उसने हरारत महसूस की। सोचा कि ये इज़मेह्लाल शायद इसलिए है कि उसका टेलीफ़ोन नहीं आएगा लेकिन दोपहर तक हरारत तेज़ हो गई। बदन तपने लगा। आँखों से शरारे फूटने लगे। मनमोहन मेज़ पर लेट गया। प्यास बार बार सताती थी। उठता और नल से मुँह लगा कर पानी पीता। शाम के क़रीब उसे अपने सीने पर बोझ महसूस होने लगा। दूसरे रोज़ वो बिल्कुल निढाल था। सांस बड़ी दिक़्क़त से आता था। सीने की दुखन बहुत बढ़ गई थी।


कई बार उस पर हिज़यानी कैफ़ियत तारी हुई। बुख़ार की शिद्दत में वो घंटों टेलीफ़ोन पर अपनी महबूब आवाज़ के साथ बातें करता रहा। शाम को उसकी हालत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई। धुंदलाई हुई आँखों से उसने क्लाक की तरफ़ देखा, उसके कानों में अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ें गूंज रही थीं। जैसे हज़ारहा टेलीफ़ोन बोल रहे हैं, सीने में घुंघरू बज रहे थे। चारों तरफ़ आवाज़ें ही आवाज़ें थीं। चुनांचे जब टेलीफ़ोन की घंटी बजी तो उसके कानों तक उसकी आवाज़ न पहुंची। बहुत देर तक घंटी बजती रही। एक दम मनमोहन चौंका। उसके कान अब सुन रहे थे। लड़खड़ाता हुआ उठा और टेलीफ़ोन तक गया। दीवार का सहारा ले कर उसने काँपते हुए हाथों से रिसीवर उठाया और ख़ुश्क होंटों पर लड़की जैसी ज़बान फेर कर कहा, “हलो।”


दूसरी तरफ़ से वो लड़की बोली, “हलो... मोहन?”


मनमोहन की आवाज़ लड़खड़ाई, “हाँ मोहन!”


“ज़रा ऊंची बोलो...”


मनमोहन ने कुछ कहना चाहा, मगर वो उसके हलक़ ही में ख़ुश्क हो गया।


आवाज़ आई, “मैं जल्दी आगई... बड़ी देर से तुम्हें रिंग कर रही हूँ... कहाँ थे तुम?”


मनमोहन का सर घूमने लगा।


आवाज़ आई क्या हो गया है, “तुम्हें?”


मनमोहन ने बड़ी मुश्किल से इतना कहा, “मेरी बादशाहत ख़त्म हो गई है आज।”


उसके मुँह से ख़ून निकला और एक पतली लकीर की सूरत में गर्दन तक दौड़ता चला गया।


आवाज़ आई, “मेरा नंबर नोट करलो... फाइव नॉट थ्री वन फ़ोर, फ़ाइव नॉट थ्री वन फ़ोर... सुबह फ़ोन करना।” ये कह कर उसने रिसीवर रख दिया। मनमोहन औंधे मुँह टेलीफ़ोन पर गिरा... उसके मुँह से ख़ून के बुलबुले फूटने लगे 

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इज़्ज़त के लिए

23 अप्रैल 2022
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चवन्नी लाल ने अपनी मोटर साईकल स्टाल के साथ रोकी और गद्दी पर बैठे बैठे सुबह के ताज़ा अख़बारों की सुर्ख़ियों पर नज़र डाली। साईकल रुकते ही स्टाल पर बैठे हुए दोनों मुलाज़िमों ने उसे नमस्ते कही थी। जिसका जवा

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दो क़ौमें

23 अप्रैल 2022
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मुख़्तार ने शारदा को पहली मर्तबा झरनों में से देखा। वो ऊपर कोठे पर कटा हुआ पतंग लेने गया तो उसे झरनों में से एक झलक दिखाई दी। सामने वाले मकान की बालाई मंज़िल की खिड़की खुली थी। एक लड़की डोंगा हाथ में ल

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मेरा नाम राधा है

23 अप्रैल 2022
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ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं कि बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो

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चौदहवीं का चाँद

23 अप्रैल 2022
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अक्सर लोगों का तर्ज़-ए-ज़िंदगी, उनके हालात पर मुनहसिर होता है और बा’ज़ बेकार अपनी तक़दीर का रोना रोते हैं। हालाँकि इससे हासिल-वुसूल कुछ भी नहीं होता। वो समझते हैं अगर हालात बेहतर होते तो वो ज़रूर दुनिया

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ठंडा गोश्त

23 अप्रैल 2022
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ईशर सिंह जूंही होटल के कमरे में दाख़िल हुआ, कुलवंत कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज़ तेज़ आँखों से उसकी तरफ़ घूर के देखा और दरवाज़े की चटख़्नी बंद कर दी। रात के बारह बज चुके थे, शहर का मुज़ाफ़ात एक अजीब पुर-

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काली शलवार

23 अप्रैल 2022
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दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे उसके गाहक थे। उन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उनको वो आम गुफ़्तगु में इस्तेमाल नहीं करती थी लेकिन जब

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खोल दो

23 अप्रैल 2022
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अमृतसर से स्शपेशल ट्रेन दोपहर दो बजे को चली और आठ घंटों के बाद मुग़लपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। मुतअद्दिद ज़ख़्मी हुए और कुछ इधर उधर भटक गए। सुबह दस बजे कैंप की ठंडी ज़मीन पर जब सिराजुद

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टोबा टेक सिंह

23 अप्रैल 2022
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बटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदोस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुसलमान पागल, हिंदोस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें पाकिस

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1919 की एक बात

23 अप्रैल 2022
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ये 1919 ई. की बात है भाई जान, जब रूल्ट ऐक्ट के ख़िलाफ़ सारे पंजाब में एजिटेशन हो रही थी। मैं अमृतसर की बात कर रहा हूँ। सर माईकल ओडवायर ने डिफ़ेंस आफ़ इंडिया रूल्ज़ के मातहत गांधी जी का दाख़िला पंजाब में

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बेगू

24 अप्रैल 2022
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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप क

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बाँझ

24 अप्रैल 2022
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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की त

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बारिश

24 अप्रैल 2022
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मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो अपने कमरे में बैठा जल-थल देख रहा था... बाहर बहुत बड़ा लॉन था, जिसमें दो दरख़्त थे। उनके सब्ज़ पत्ते बारिश में नहा रहे थे। उसको महसूस हुआ कि वो पानी की इस यूरिश से ख़ुश ह

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औलाद

24 अप्रैल 2022
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जब ज़ुबैदा की शादी हुई तो उसकी उम्र पच्चीस बरस की थी। उसके माँ-बाप तो ये चाहते थे कि सतरह बरस के होते ही उसका ब्याह हो जाये मगर कोई मुनासिब-ओ-मौज़ूं रिश्ता मिलता ही नहीं था। अगर किसी जगह बात तय होने प

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उसका पति

24 अप्रैल 2022
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लोग कहते थे कि नत्थू का सर इसलिए गंजा हुआ है कि वो हर वक़्त सोचता रहता है। इस बयान में काफ़ी सदाक़त है क्योंकि सोचते वक़्त नत्थू सर खुजलाया करता है। उसके बाल चूँकि बहुत खुरदरे और ख़ुश्क हैं और तेल न

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नंगी आवाज़ें

24 अप्रैल 2022
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भोलू और गामा दो भाई थे, बेहद मेहनती। भोलू क़लईगर था। सुबह धौंकनी सर पर रख कर निकलता और दिन भर शहर की गलियों में “भाँडे क़लई करा लो” की सदाएं लगाता रहता। शाम को घर लौटता तो उसके तहबंद के डब में तीन चार

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आमिना

24 अप्रैल 2022
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दूर तक धान के सुनहरे खेत फैले हुए थे जुम्मे का नौजवान लड़का बिंदु कटे हुए धान के पोले उठा रहा था और साथ ही साथ गा भी रहा था; धान के पोले धर धर कांधे भर भर लाए खेत सुनहरा धन दौलत रे बिंदू

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हतक

24 अप्रैल 2022
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दिन भर की थकी मान्दी वो अभी अभी अपने बिस्तर पर लेटी थी और लेटते ही सो गई। म्युनिसिपल कमेटी का दारोग़ा सफ़ाई, जिसे वो सेठ जी के नाम से पुकारा करती थी, अभी अभी उसकी हड्डियाँ-पस्लियाँ झिंझोड़ कर शराब के

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आम

24 अप्रैल 2022
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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वज

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वह लड़की

24 अप्रैल 2022
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सवा चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उसने बालकनी में आकर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक सायादार दरख़्त की छांव में आलती पालत

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असली जिन

24 अप्रैल 2022
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लखनऊ के पहले दिनों की याद नवाब नवाज़िश अली अल्लाह को प्यारे हुए तो उनकी इकलौती लड़की की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा आठ बरस थी। इकहरे जिस्म की, बड़ी दुबली-पतली, नाज़ुक, पतले पतले नक़्शों वाली, गुड़िया सी। नाम

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जिस्म और रूह

24 अप्रैल 2022
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मुजीब ने अचानक मुझसे सवाल किया, “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?” गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इनकी तक़

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बादशाहत का ख़ात्मा

24 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और क

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ऐक्ट्रेस की आँख

24 अप्रैल 2022
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“पापों की गठड़ी” की शूटिंग तमाम शब होती रही थी, रात के थके-मांदे ऐक्टर लकड़ी के कमरे में जो कंपनी के विलेन ने अपने मेकअप के लिए ख़ासतौर पर तैयार कराया था और जिसमें फ़ुर्सत के वक़्त सब ऐक्टर और ऐक्ट्रसें

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अल्लाह दत्ता

24 अप्रैल 2022
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दो भाई थे। अल्लाह रक्खा और अल्लाह दत्ता। दोनों रियासत पटियाला के बाशिंदे थे। उनके आबा-ओ-अजदाद अलबत्ता लाहौर के थे मगर जब इन दो भाईयों का दादा मुलाज़मत की तलाश में पटियाला आया तो वहीं का हो रहा। अल

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झुमके

24 अप्रैल 2022
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सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तर

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गुरमुख सिंह की वसीयत

24 अप्रैल 2022
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पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी

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इश्क़िया कहानी

24 अप्रैल 2022
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मेरे मुतअ’ल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इ’श्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इसलिए वो बिल्कुल सपाट होते हैं। मैं अब ये इ’श्क़िया कहानी लि

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बाबू गोपीनाथ

24 अप्रैल 2022
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बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था।

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मोज़ेल

24 अप्रैल 2022
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त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आ

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एक ज़ाहिदा, एक फ़ाहिशा

24 अप्रैल 2022
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जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर। हम हर रोज़ क़रीब-क़रीब दस-बारह घंटे साथ साथ रहते। वो अपने रिश्तेदारों स

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बुर्क़े

24 अप्रैल 2022
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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है। वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड

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आँखें

24 अप्रैल 2022
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ये आँखें बिल्कुल ऐसी ही थीं जैसे अंधेरी रात में मोटर कार की हेडलाइट्स जिनको आदमी सब से पहले देखता है। आप ये न समझिएगा कि वो बहुत ख़ूबसूरत आँखें थीं, हरगिज़ नहीं। मैं ख़ूबसूरती और बदसूरती में तमीज़ क

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अनार कली

24 अप्रैल 2022
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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तन

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टेटवाल का कुत्ता

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कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिनकी आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में

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धुआँ

24 अप्रैल 2022
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वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था

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आर्टिस्ट लोग

24 अप्रैल 2022
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जमीला को पहली बार महमूद ने बाग़-ए-जिन्ना में देखा। वो अपनी दो सहेलियों के साथ चहल क़दमी कर रही थी। सबने काले बुर्के पहने थे। मगर नक़ाबें उलटी हुई थीं। महमूद सोचने लगा। ये किस क़िस्म का पर्दा है कि बुर

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