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बड़ी दीदी

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

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उन के उपन्यासों की सामाजिक समस्याओं के तानबाने में उन की रोमानी प्रवृत्ति की छाप भी स्पष्ट दिखाई देती है। यह विमाता अपनी खुद की सन्तान के प्रति लापरवाह रहकर भी, सुरेन्द्र की इतनी ज्यादा फिकर करती है, जिसकी कोई सीमा नहीं। उसका खाँसना-खखारना भी उसकी निगाहों से नहीं छूटता। इस विमाता की कठोर रखवारी में, सुरेन्द्र ने नाम करने की पढ़ना-लिखना तो सीख लिया, पर आत्मनिर्भरता कतई नहीं सीख सका। उसे अपने-आप पर थोड़ा भी विश्वास न था। इस धरती पर एक विशिष्ट प्रकार के लोग भी वसते है। यह फूस की आग की तरह होते हैं। वह झट से जल उठते हैं और फिर चटपट बुझ जाते हैं। व्यक्तियों के पीठे हर समय एक ऐसा व्यक्ति चाहिए जो उनकी आवश्यकता के अनुसार उनके लिए फूस जूटा सके। जब गृहस्थ की कन्याएं मिट्टी का दीपक जलाते समय उसमें तेल और बाती डालती हैं, दीपक के साथ सलाई भी रख देती हैं। जब दीपक की लौ मद्धिम होने लगती है, तब उस सलाई की बहुत आवश्यकता होती है। उससे बात्ती उकसानी पड़ती है। यदि वह छोटी-सी सलाई न हो तो तेल और बात्ती के रहते हुए भी दीपक का जलते रहना असंभव हो जाता है।  

badi didi

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