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बदसूरती

7 अप्रैल 2022

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साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी। 

उनके माँ-बाप को ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश शक्ल थी मगर उसके साथ उसे बनना सँवरना भी आता था। 

उसके मुक़ाबले में हामिदा बहुत सीधी साधी थी। उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल भी पुरकशिश न थे। साजिदा बड़ी चंचल थी। दोनों जब कॉलेज में पढ़ती थीं तो साजिदा ड्रामों में हिस्सा लेती। उसकी आवाज़ भी अच्छी थी, सुर में गा सकती थी। हामिदा को कोई पूछता भी नहीं था। 

कॉलेज की तालीम से फ़राग़त हुई तो उनके वालिदैन ने उनकी शादी के मुतअल्लिक़ सोचना शुरू किया। साजिदा के लिए कई रिश्ते तो आ चुके थे, मगर हामिदा बड़ी थी इसलिए वो चाहते थे कि पहले उसकी शादी हो। 

उसी दौरान में साजिदा की एक ख़ूबसूरत लड़के से ख़त-ओ-किताबत शुरू होगई जो उस पर बहुत दिनों से मरता था। ये लड़का अमीर घराने का था। एम.ए. कर चुका था और आला तालीम हासिल करने के लिए अमरीका जाने की तैयारियां कर रहा था। उसके माँ-बाप चाहते थे कि उसकी शादी हो जाए ताकि वो बीवी को अपने साथ ले जाए। 

हामिदा को मालूम था कि उसकी छोटी बहन से वो लड़का बेपनाह मोहब्बत करता है। एक दिन जब साजिदा ने उसे उस लड़के का इश्क़िया जज़्बात से लबरेज़ ख़त दिखाया तो वो दिल ही दिल में बहुत कुढ़ी, इसलिए कि उसका चाहने वाला कोई भी नहीं था। 

उसने उस ख़त का हर लफ़्ज़ बार-बार पढ़ा और उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसके दिल में सूईयां चुभ रही हैं, मगर उसने उस दर्द-ओ-कर्ब में भी एक अजीब क़िस्म की लज़्ज़त महसूस की, लेकिन वो अपनी छोटी बहन पर बरस पड़ी,“तुम्हें शर्म नहीं आती कि ग़ैर मर्दों से ख़त-ओ-किताबत करती हो! 

साजिदा ने कहा, “बाजी, इसमें क्या ऐब है?” 

“ऐब!... सरासर ऐब है। शरीफ़ घरानों की लड़कियां कभी ऐसी बेहूदा हरकतें नहीं करतीं... तुम उस लड़के हामिद से मोहब्बत करती हो?” 

“हाँ!” 

“लानत है तुम पर!” 

साजिदा भन्ना गई, “देखो बाजी, मुझ पर लानतें न भेजो... मोहब्बत करना कोई जुर्म नहीं।” 

हामिदा चिल्लाई, “मोहब्बत मोहब्बत... आख़िर ये क्या बकवास है?” 

साजिदा ने बड़े तंज़िया अंदाज़ में कहा, “जो आपको नसीब नहीं।” 

हामिदा की समझ में न आया कि वो क्या कहे। चुनांचे खोखले ग़ुस्से में आकर उसने छोटी बहन के मुँह पर ज़ोर का थप्पड़ मार दिया... इसके बाद दोनों एक दूसरे से उलझ गईं। 

देर तक उन में हाथापाई होती रही। हामिदा उसको ये कोसने देती रही कि वो एक नामहरम मर्द से इश्क़ लड़ा रही है और साजिदा उससे ये कहती रही कि वो जलती है इसलिए कि उसकी तरफ़ कोई मर्द आँख उठा कर भी नहीं देखता। 

हामिदा डीलडौल के लिहाज़ से अपनी छोटी बहन के मुक़ाबले में काफ़ी तगड़ी थी, इसके अलावा उसे ख़ार भी थी जिसने उसके अंदर और भी क़ुव्वत पैदा करदी थी... उसने साजिदा को ख़ूब पीटा। उसके घने बालों की कई ख़ूबसूरत लटें नोच डालीं और ख़ुद हांपती-हांपती अपने कमरे में जा कर ज़ार-ओ-क़तार रोने लगी। 

साजिदा ने घर में इस हादिसे के बारे में कुछ न कहा... हामिदा शाम तक रोती रही। बेशुमार ख़यालात उसके दिमाग़ में आए। वो नादिम थी कि उसने महज़ इसलिए कि उससे कोई मोहब्बत नहीं करता अपनी बहन को, जो बड़ी नाज़ुक है, पीट डाला। 

वो साजिदा के कमरे में गई। दरवाज़े पर दस्तक दी और कहा, “साजिदा! 

साजिदा ने कोई जवाब न दिया। 

हामिदा ने फिर ज़ोर से दस्तक दी और रोनी आवाज़ में पुकारी, “साजी! मैं माफ़ी मांगने आई हूँ... ख़ुदा के लिए दरवाज़ा खोलो।” 

हामिदा दस-पंद्रह मिनट तक दहलीज़ के पास आँखों में डबडबाए आँसू लिए खड़ी रही, उसे यक़ीन नहीं था कि उसकी बहन दरवाज़ा खोलेगी, मगर वो खुल गया। 

साजिदा बाहर निकली और अपनी बड़ी बहन से हमआग़ोश होगई, “क्यूँ बाजी... आप रो क्यूँ रही हैं?” 

हामिदा की आँखों में से टप-टप आँसू गिरने लगे, “मुझे अफ़सोस है कि तुमसे आज बेकार लड़ाई होगई।” 

“बाजी... मैं बहुत नादिम हूँ कि मैंने आपके मुतअल्लिक़ ऐसी बात कह दी जो मुझे नहीं कहनी चाहिए थी।” 

“तुमने अच्छा किया साजिदा... मैं जानती हूँ कि मेरी शक्ल-ओ-सूरत में कोई कशिश नहीं... ख़ुदा करे तुम्हारा हुस्न क़ायम रहे।” 

“बाजी!.. मैं क़तअन हसीन नहीं हूँ। अगर मुझ में कोई ख़ूबसूरती है तो मैं दुआ करती हूँ कि ख़ुदा उसे मिटा दे... मैं आपकी बहन हूँ... अगर आप मुझे हुक्म दें तो मैं अपने चेहरे पर तेज़ाब डालने के लिए तैयार हूँ।” 

“कैसी फ़ुज़ूल बातें करती हो... क्या बिगड़े हुए चेहरे के साथ तुम्हें हामिद क़ुबूल कर लेगा?” 

“मुझे यक़ीन है।” 

“किस बात का?” 

“वो मुझसे इतनी मोहब्बत करता है कि अगर मैं मर जाऊं तो वो मेरी लाश से शादी करने के लिए तैयार होगा।” 

“ये महज़ बकवास है।” 

“होगी... लेकिन मुझे उसका यक़ीन है... आप उसके सारे ख़त पढ़ती रही हैं... क्या उनसे आपको ये पता नहीं चला कि वो मुझसे क्या क्या पैमान कर चुका है।” 

“साजी...” ये कह कर हामिदा रुक गई। थोड़े वक़्फ़े के बाद उसने लर्ज़ां आवाज़ में कहा, “मैं अह्द-ओ-पैमान के मुतअल्लिक़ कुछ नहीं जानती, और रोना शुरू कर दिया। 

उसकी छोटी बहन ने उसे गले से लगाया। उसको प्यार किया और कहा, “बाजी, आप अगर चाहें तो मेरी ज़िंदगी सँवर सकती है।” 

“कैसे?” 

“मुझे हामिद से मोहब्बत है... मैं उससे वादा कर चुकी हूँ कि अगर मेरी कहीं शादी होगी तो तुम्हीं से होगी।” 

“तुम मुझसे क्या चाहती हो?” 

“मैं ये चाहती हूँ कि आप इस मुआमले में मेरी मदद करें। अगर वहां से पैग़ाम आए तो आप उसके हक़ में गुफ़्तुगू कीजिए... अम्मी और अब्बा आपकी हर बात मानते हैं।” 

“मैं इंशाअल्लाह तुम्हें नाउम्मीद नहीं करूंगी।” 

साजिदा की शादी होगई, हालाँकि उसके वालिदैन पहले हामिदा की शादी करना चाहते थे... मजबूरी थी, क्या करते। साजिदा अपने घर में ख़ुश थी। उसने अपनी बड़ी बहन को शादी के दूसरे दिन ख़त लिखा जिसका मज़मून कुछ इस क़िस्म का था: 

“मैं बहुत ख़ुश हूँ... हामिद मुझसे बेइंतिहा मोहब्बत करता है। बाजी... मोहब्बत अजीब-ओ-गरीब चीज़ है... मैं बेहद मसरूर हूँ। मुझे ऐसा महसूस होता है कि ज़िंदगी का सही मतलब अब मेरी समझ में आया है... ख़ुदा करे कि आप भी इस मसर्रत से महज़ूज़ हों।” 

इसके अलावा और बहुत सी बातें उस ख़त में थीं जो एक बहन अपनी बहन को लिख सकती है। 

हामिदा ने ये पहला ख़त पढ़ा और बहुत रोई। उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसका हर लफ़्ज़ एक हथौड़ा है जो उसके दिल पर ज़र्ब लगा रहा है 

इसके बाद उसको और भी ख़त आए जिनको पढ़-पढ़ के उसके दिल पर छुरियां चलती रहीं। रो रो कर उसने अपना बुरा हाल कर लिया था। 

उसने कई मर्तबा कोशिश की कि कोई राह चलता जवान लड़का उसकी तरफ़ मुतवज्जा हो, मगर नाकाम रही। 

उसे इस अर्से में एक अधेड़ उम्र का मर्द मिला। बस में मुडभेड़ हुई। वो उससे मरासिम क़ायम करना चाहता था मगर हामिदा ने उसे पसंद न किया। वो बहुत बदसूरत था। 

दो बरस के बाद उसकी बहन साजिदा का ख़त आया कि वो और उसका ख़ाविंद आर हे हैं। 

वो आए। हामिदा ने मुनासिब ओ मौज़ूं तरीक़ पर उनका ख़ैर मक़दम किया। साजिदा के ख़ाविंद को अपने कारोबार के सिलसिले में एक हफ़्ते तक क़याम करना था। 

साजिदा से मिल कर उसकी बड़ी बहन बहुत ख़ुश हुई... हामिद बड़ी ख़ुश अख़लाक़ी से पेश आया। वो उससे भी मुतास्सिर हुई। 

वो घर में अकेली थी, इसलिए कि उसके वालिदैन किसी काम से सरगोधा चले गए थे। गर्मियों का मौसम था। हामिदा ने नौकरों से कहा कि वो बिस्तरों का इंतिज़ाम सहन में कर दे और बड़ा पंखा लगा दिया जाए। 

ये सब कुछ होगया... लेकिन हुआ ये कि साजिदा किसी हाजत के तहत ऊपर कोठे पर गई और देर तक वहीं रही। हामिद कोई इरादा कर चुका था। आँखें नींद से बोझल थीं। उठ कर साजिदा के पास गया और उसके साथ लेट गया... लेकिन उसकी समझ में न आया कि वो ग़ैर सी क्यों लगती है। क्योंकि वो शुरू-शुरू में बेएतनाई बरतती रही... आख़िर में वो ठीक होगई। 

साजिदा कोठे से उतर कर नीचे आई और उसने देखा... 

सुबह को दोनों बहनों में सख़्त लड़ाई हुई... हामिद भी उसमें शामिल था। उसने गर्मा गर्मी में कहा, “तुम्हारी बहन, मेरी बहन है... तुम क्यों मुझ पर शक करती हो? 

हामिद ने दूसरे रोज़ अपनी बीवी साजिदा को तलाक़ दे दी और दो-तीन महीनों के बाद हामिदा से शादी कर ली... उसने अपने एक दोस्त से जिसको उस पर एतराज़ था, सिर्फ़ इतना कहा, “ख़ूबसूरती में ख़ुलूस होना नामुम्किन है... बदसूरती हमेशा पुरख़ुलूस होती है।” 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
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सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
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बाँझ

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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...”  दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और किता

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बर्फ़ का पानी

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शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

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नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थ

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भंगिनों की बातें हो रही थीं। खासतौर पर उन की जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरिया और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ

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हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा। “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।” हनीफ़ को मालूम था कि वो मु

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बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़

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फुंदने

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कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेर

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गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

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बग़ैर इजाज़त

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नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

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बदतमीज़ी

7 अप्रैल 2022
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“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

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पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
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वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

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डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

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ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

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20 अप्रैल 2022
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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

20 अप्रैल 2022
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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

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क़ासिम

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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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