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बलवंत सिंह

7 अप्रैल 2022

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शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं कह सकता। वो सय्यद थे और मैं एक महज़ कश्मीरी।

बहर-हाल, उन से मेरी बे-तकल्लुफ़ी बहुत बढ़ गई। उन को अदब से कोई शग़फ़ नहीं था। लेकिन जब उन को मालूम हुआ कि मैं अफ़्साना निगार हूँ तो उन्हों ने मुझ से मेरी चंद किताबें मुस्तआर लीं और पढ़ीं।

ये किताबें जो अफ़्सानों के मजमुए थीं, उन्हों ने पढ़ीं, और मुझे बहुत तअज्जुब हुआ कि उन्हों ने चंद अफ़्सानों की बहुत तारीफ़ की। इत्तिफ़ाक़ से ये अफ़साने ऐसे थे जो दुनिया में शाहकार तस्लीम किए जा चुके थे।

शाह साहब मेरे पड़ोसी थे। उन्हों ने एक मकान अलॉट करा रखा था, लेकिन ख़ानदान के अफ़राद चूँकि ज़्यादा थे इस लिए उन्हों ने अपने फ़्लैट के नीचे मोटर गैराज पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था। इस में उन्हों ने अपनी बैठक का इंतिज़ाम किया था। ऊपर ज़नाना था। शाह साहब के दोस्त बे-शुमार थे इस लिए इस गैराज में वो उन की ख़ातिर मदारत करते थे।

एक दिन उन से अफ़्सानों के बारे में बातें हुईं तो उन्हों ने मुझ से कहा: “मेरी ज़िंदगी में ऐसी कई हक़ीक़तें हैं जिन को तुम अफ़्साने बना कर पेश कर सकते हूँ।”

मैं हर वक़्त अफ़्सानों की तलाश में रहता हूँ, चुनांचे मैं फ़ौरन मुतवज्जा हुआ और शाह साहब से कहा: “मुझे उम्मीद है कि आप अच्छा मवाद देंगे।”

शाह साहब ने जवाबन कहा: “मैं अफ़्साना निगार नहीं........ लेकिन मेरी ज़िंदगी में एक ऐसा वाक़िया हुआ है जो क़ाबिल-ए-ज़िक्र है........ मैंने क़ाबिल-ए-ज़िक्र इस लिए कहा है कि आप बहुत बड़े अफ़्साना निगार हैं, वर्ना ये वाक़िया जो अब मैं बयान करने वाला हूँ, मेरे नज़दीक बे-हद हैरत-अंगेज़ है।”

मैं ने शाह साहब से कहा: “ऐसा भी क्या हैरत-अंगेज़ होगा!” फिर थोड़े से वक़्फ़े के बाद इस में थोड़ी सी इस्लाह की: “लेकिन हो सकता है कि आप के लिए वो वाक़ई हैरत-अंगेज़ हो।”

शाह साहब ने कहा। “जी! मैं नहीं कह सकता कि जो वाक़िया मैं आप को सुनाने वाला हूँ, हर शख़्स के लिए हैरत का बाइस होगा........ मैं अपनी ज़ात के मुतअल्लिक़ आप से अर्ज़ कर रहा हूँ........ और ये हक़ीक़त है कि मैं जो दास्तान आप को सुनाऊंगा, उस वक़्त तक मेरी ज़िंदगी में मुहैय्यर-उल-उक़ूल हैसियत रखती है।”

शाह साहब ने नील-कटर से अपने नाख़ुन काटने शुरू किए। मैं उन की दास्तान सुनने के लिए बेताब था, मगर शायद वो आग़ाज़ के मुतअल्लिक़ सोच रहे थे कि अपनी दास्तान को कहाँ से शुरू करूं। मेरा ख़्याल दुरुस्त था कि जो कुछ उन पर बीता था, उस को कई बरस हो चुके थे। वो तमाम वाक़ियात की याद अपने ज़हन में ताज़ा कर रहे थे।

मैं ने सिगरेट सुलगाया। उन्हों ने अपनी दस उंगलियों के नाख़ुन काट कर नील-कटर तिपाई पर रखा और मुझ से मुख़ातब हुए। “मैं उन दिनों काबुल में था। ये कह कर चंद लम्हात ख़ामोश रहे, इस के बाद बोले........ मेरी वहां बहुत बड़ी दुकान थी जिस में बढ़िया से बढ़िया सामान मौजूद रहता था।”

मैं ने शाह साहब से पूछा। “आप जनरल मरचैंट थे?”

शाह साहब ने जवाब दिया। “जी हाँ........ काबुल का सब से बड़ा जनरल मरचैंट........ मेरी दुकान में काबुल की क़रीब क़रीब हर औरत सौदा लेने आती थी........ आप से एक बात अर्ज़ करूं........ साथ के दुकानदार जब ये देखते थे कि किसी रोज़ औरतों की बजाय मेरी दुकान में मर्द गाहक आए हैं तो वो मुझ से फ़ारसी ज़बान में अफ़्सोस का इज़हार करते थे कि आग़ा आज ये क्या हुआ........ काबुल की औरतें और लड़कियां मर गईं या तुम्हारे नसीब सो गए।”

शाह साहब मुस्कुरा देते थे........ इस के इलावा और वो क्या जवाब दे सकते थे। लेकिन उन को इस बात का पूरा एहसास था कि उन की दुकान में ग्राहकों की अक्सरीयत औरतों और लड़कियों की होती है, और वो ये भी जानते थे कि ये सब उन की चर्ब-ज़बानी का मोजिज़ा है।

उन्हों ने मुझ से कहा। “मंटो साहब! मैं बेहतरीन सेल्ज़ मैन हूँ........ खासतौर पर औरतों के साथ तो मैं इस तरह सौदा कर सकता हूँ कि यहां लाहौर में कोई भी नहीं कर सकता। बी ए हूँ........ थोड़ी बहुत साईकालोजी भी मैं ने पढ़ी है, इस लिए मुझे मालूम है कि औरतों से किस तरह डील किया जा सकता है........ यही वजह थी कि सारे काबुल में एक मेरी दुकान ही ऐसी थी जिस में हर-वक़्त कोई न कोई गाहक मौजूद होता था।”

मैं ने शाह साहब की ये ख़ुद तारीफ़ी सुनी और उन से कहा। यक़ीनन आप बेहतरीन सेल्ज़ मैन हैं कि आप की गुफ़्तुगू का अंदाज़ ही इस का सबूत है।”

शाह साहब मुस्कुराए। “मगर मुझे अफ़्सोस है कि मैं अपनी दास्तान बेहतरीन सेल्ज़ मैन के अंदाज़-ए-बयान में बयान नहीं कर सकूंगा।”

मैं ने उन से कहा। “आप शुरू तो कीजिए!”

शाह साहब ने चंद लम्हात अपने हाफ़िज़े को फिर टटोला और अपनी दास्तान शुरू की “मंटो साहब! जैसा कि मैं आप से पहले अर्ज़ कर चुका हूँ कि मैं काबुल में था। ये कोई दस बरस पहले की बात है जब मेरी सेहत बहुत अच्छी थी। यूं तो मैं अब भी तन-ओ-मंद कहलाता हूँ, मगर उस ज़माने में मेरा जिस्म आज के मुक़ाबले में दोगुना था। हर रोज़ वरज़िश करता था सैकड़ों डंड पेलता था, मुगदर घुमाता था। सिगरेट पीता था न शराब, बस एक अच्छा खाने की आदत थी। अफ़्ग़ानी नहीं, हिंदूस्तानी। चुनांचे मैं अमृतसर से अपने साथ एक बहुत अच्छा कश्मीरी बावर्ची ले गया था जो हर रोज़ मेरे लिए लज़ीज़ से लज़ीज़ खाने तैय्यार कर के मेज़ पर रखता था। मेरी ज़िंदगी बड़ी हम-वार गुज़रती थी। आमदनी बहुत माक़ूल थी। बैंक में लाखों अफ़्ग़ानी रुपय जमा थे........ लेकिन........ ”

शाह साहब थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गए। मैं ने उन से पूछा। “लेकिन कह कर आप चुप हो गए........ इस का ये मतलब नहीं निकलता कि आप फिर भी ना-ख़ुश थे।”

शाह साहब ने एतराफ़ क्या “जी हाँ! मैं इन तमाम आसाइशों के बावजूद ना-ख़ुश था। इस लिए कि मैं अकेला था........ मुजर्रद था........ अगर मेरी दुकान में औरतें और लड़कियां ज़्यादा न आतीं तो बहुत मुम्किन है कि मुझे अपने तजर्रुद का एहसास न होता........ लेकिन मुआमला इस के बरअक्स था। काबुल की हर साहब-ए-सरवत औरत मेरी दुकान में आती थी........ दुकान में दाख़िल होते ही ये औरतें और लड़कियां अपना बुर्क़ा उतार कर एक तरफ़ रखतीं और सौदा ख़रीदने में मसरूफ़ हो जातीं........ मंटो साहब! आप का शायद ये ख़याल हो कि वो बड़ा शरई क़िस्म का लिबास पहनती होंगी, मगर हक़ीक़त इस के बिलकुल बरअक्स है। यूं तो वहां की औरतें और लड़कियां पर्दा करती हैं मगर लिबास ठेट यूरोपीयन पहनती हैं। स्कर्ट, कटे हुए बाल, रंगे हुए नाख़ुन, पिंडुलियां नंगी........ जब वो मेरी दुकान में आती थीं तो अपने बुर्के उतार कर एक तरफ़ रख देती थीं और माल देखने में मसरूफ़ हो जाती थीं।”

शाह साहब ने बोलना बंद किया तो मैं ने उन से पूछा। “आप को इन में से किसी से मोहब्बत तो यक़ीनन हो गई होगी?”

शाह साहब बहुत संजीदा हो गए। “जी हाँ! एक लड़की से हो गई थी जो अपना बुर्क़ा नहीं उतारती थी, हत्ता कि निक़ाब भी नहीं उठाती थी।”

मैं ने उन से पूछा। “कौन थी वो?”

उन्हों ने जवाब दिया। “एक बहुत बड़े घराने से मुतअल्लिक़ थी। उस का बाप फ़ौज का आला अफ़्सर था। बड़ा सख़्त गीर........ मुझे उस से सिर्फ़ इस लिए मोहब्बत हुई कि वो हाथों के इलावा अपने जिस्म का कोई हिस्सा नहीं दिखाती थी।”

मैं ने पूछा। “इस की क्या वजह?”

शाह साहब ने कहा। “मुझे मालूम नहीं, और न मैं ने उस से कभी इस बारे में इस्तिफ़सार ही किया........ लेकिन मेरे तसव्वुर में वो इंतिहा दर्जे की हसीन थी। गौरी चिट्टी........ जिस्म ख़्वाह बुर्क़ा में लिपटा हो, लेकिन उस के तनासुब के मुतअल्लिक़ अंदाज़ा लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं था........ मैं ने चोर आँखों से देख लिया था कि वो जवानी का आदर्श मुजस्समा है........ लेकिन मुसीबत ये थी कि वो चंद मिनटों के लिए मेरी दुकान में आती थी। चीज़ें ख़रीदने और उन की क़ीमतों के बारे में फ़ैसला करने में चंद मिनट सर्फ़ करती थी और चली जाती थी।”

मैं ने शाह साहब से कहा। “ये सिलसिला कब तक जारी रहा........ ”

“क़रीब के छः महीने तक मुझ में इतनी हिम्मत ही नहीं थी कि मैं उस से अपनी मोहब्बत का इज़हार करूं। मैं उस से बहुत मरऊब था इस लिए वो दूसरों से मुख़्तलिफ़ थी। उस में एक अजीब किस्म की राऊनत थी........ मैं उस को बे-तरह घूरता था, हालाँकि ये शाइस्तगी नहीं थी लेकिन मैं अपने दिल के हाथों मजबूर था........ मंटो साहब! एक दिन मैं दुकान में बैठा था उस के मुतअल्लिक़ सोच रहा था कि टेलीफ़ोन की घंटी बजी। नौकर ने रीसीवर उठाया और मुझ से कहा कि कोई ख़ातून आप से बात करना चाहती हैं........ मैं ने सोचा कि कोई गाहक होगी और नए माल के मुतअल्लिक़ पूछना चाहती होगी। उठ कर मैं ने रीसीवर हाथ में लिया और पूछा। मादाम! आप क्या चाहती हैं? उधर से आवाज़ आई क्या आप सय्यद मुज़फ़्फ़र अली हैं? मैं ने जवाब दिया, जी हाँ........ इरशाद!

अब मैं ने आवाज़ पहचान ली थी........ ये उसी की थी........ उसी की जो मेरी दुकान में बुर्क़ा नहीं उतारती थी........ मैं घबरा गया........ मंटो साहब! ये आशिक़ होना भी एक अजीब लानत है।”

ये सुन कर मैं मुस्कुरा दिया। “आप ठीक फ़रमाते हैं शाह साहब........ लेकिन अफ़्सोस है कि मैं इस लानत में अभी तक गिरफ़्तार नहीं हुआ।”

शाह साहब को बहुत अफ़्सोस हुआ। “हद हो गई........ इंसान अपनी जवानी में कम-अज़-कम एक मर्तबा तो ज़रूर इशdक़ में गिरफ़्तार होता है........ ख़ैर, आप को अभी तक इशdक़ नहीं हुआ तो ख़ुदा करे कि बहुत जल्द हो जाये, क्यों कि ये मर्ज़ बहुत दिलचस्प है।”

मैं ने मुस्कराकर शाह साहब से कहा। “आप अपनी दास्तान बयान कीजिए........ मुझे इश्क़ होगा तो मैं आप से वाअदा करता हूँ कि आप को उस की पूरी रूदाद सुना दूंगा।”

शाह साहब कुर्सी पर से उठ कर पलंगड़ी पर लेट गए और आँखें बंद कर लीं। “मंटो साहब........ मैं उस लड़की के इश्क़ में इस बुरी तरह गिरफ़्तार हुआ कि वर्ज़िश करना भूल गया........ वो मेरी दुकान पर अक्सर आती थी........ मैं उस को घूरता था........ लेकिन देखिए मेरा दिमाग़ कितना ख़राब हो गया है, ये इसी इश्क़ ख़ाना-ख़राब का बाइस है........ मैं आप से उस के टेलीफ़ोन की बात कर रहा था........ जब मैं ने रीसीवर उठाया और उस की आवाज़ पहचान ली तो उस ने मुझ से कहा। देखो मैं जब भी तुम्हारी दुकान पर आती हूँ, तुम मुझे घूरते हो। अगर अपनी ख़ैरीयत चाहते हो, तो ठीक हो जाओ वर्ना तुम्हारे हक़ में बुरा होगा........ मंटो साहब! मैं जवाब सोच ही रहा था कि उस ने टेलीफ़ोन का सिलसिला मुनक़ते कर दिया। मैं देर तक गूंगे रीसीवर को कान के साथ लगाए खड़ा रहा, और सोचता रहा कि इस धमकी का मतलब क्या है?”

मैं ने शाह साहब से पूछा। “क्या वो धमकी अस्ली थी?”

“जी हाँ........ चौथे रोज़ वो मेरी दुकान में आई तो मैं ने उस की निक़ाब की तरफ़ फिर उन्ही निगाहों से देखा तो उस ने झुँझला कर मेरे मुलाज़िमों के सामने मुझ से कहा........ “तुम्हें श्रम नहीं आती कि तुम मुझे इस तरह देखते हो”........ मैं सुन हो गया........ लेकिन इस ने चंद चीज़ें खरीदीं। दाम दिए और अपनी मोटर में बैठ कर चली गई।”

मैं शाह साहब की दास्तान में काफ़ी दिलचस्पी ले रहा था। “अजीब लड़की थी........ आप से उसे नफ़रत भी थी, मगर इस के बावजूद आप की दुकान में आती थी।”

शाह साहब ने आँखें खोलीं। “मंटो साहब! यही वजह थी कि मेरे दिल में ये ख़याल पैदा हुआ कि उस की नफ़रत-ओ-हक़ारत मस्नूई है दर-अस्ल वो मेरी मोहब्बत से मुतअस्सिर हो चुकी है और महिज़ बनावट के तौर पर ग़ुस्से का इज़हार करती है........ लेकिन जब एक रोज़ उस ने मुझे बहुत ज़ोर से लॉन तान की तो मैं सर्द हो गया........ पर उस की मोहब्बत थी जो मेरे दिल से जाती ही नहीं थी........ मैं ने बहुत कोशिश की कि उस को भूल जाऊं........ मैं ने ख़ुद को समझाया कि तुम अजीब बेवक़ूफ़ हो। एक लड़की जिस की तुम ने शक्ल नहीं देखी........ जो तुम से नफ़रत करती है, तुम उस से इश्क़ फ़र्मा रहे हो। बाज़ आओ, तुम्हारा कारोबार माशा अल्लाह बहुत अच्छा है। सारे अफ़्ग़ानिस्तान में तुम्हारी साख है। ये क्या झक मार रहे हो........ लेकिन मंटो साहब! इश्क़ बहुत बुरी बला है। मैं इस से अपना पीछा न छुड़ा सका........”

मैं ने उन से कहा। “आप ख़्वाह-मख़्वाह दास्तान तवील बनाते जा रहे हैं। अंजाम पर पहुंचीए।”

शाह साहब पलंगड़ी पर से उठे और कुर्सी पर बैठ गए। “हज़रत! ऐसी दास्तानें अक्सर तवील हुआ करती हैं। इशdक़ एक मर्ज़ है और जब तक तूल ना पकड़े, मर्ज़ नहीं होता। महज़ एक मज़ाक़ होता है........ ख़ैर! अब जब कि आप चाहते हैं कि मैं अपनी दास्तान तवील न बनाऊं तो मुख़्तसर तौर पर अर्ज़ करता हूँ कि मेरा इश्क़ जब बहुत शिद्दत इख़्तियार कर गया तो एक रोज़ मैं बे-इख़्तियार रोने लगा।”

मेरे शहर अमृतसर का एक बाशिंदा सरदार बलवंत सिंह था जो मजीठ के एक अच्छे ख़ानदान का फ़र्द था। वो काबुल में एक इंजीनीयरिंग फ़र्म में मुलाज़िम था। खाने पीने वाला आदमी था, इस लिए वो हर महीने मुझ से पच्चास साठ रुपय क़र्ज़ ले जाता था। मज़ीद क़र्ज़ लेने की ग़रज़ ही से वो उस वक़्त मेरी दुकान में आया, जब कि मेरी आँखें नमनाक थीं। वो मेरे पास कुर्सी पर बैठ गया। इस ने मालूम नहीं मुझ से किया पूछा और मैं ने जाने क्या जवाब दिया। लेकिन जब इस ने मुझ से ये कहा। “दोस्त! तुम को कोई रोग लग गया है। तो मैं चौंक पड़ा, नहीं नहीं........ ऐसी कोई बात नहीं........ सरदार बलवंत सिंह मजीठिया अपनी घनी मोंछों के अंदर मुस्कुराया........ “तुम झूट बोलते हो, साफ़ साफ़ बताओ, तुम्हें यहां किसी से इश्क़ हुआ है........ मैं ख़ामोश रहा तो वो फिर बोला, देखो अगर कोई मुश्किल दरपेश है तो हम सब ठीक कर देंगे........ जब उस ने इसी क़िस्म की चंद और बातें कीं तो मैं ने सारा मुआमला उस को बता दिया।”

मैं ने पूछा। “तो उस ने मुश्किल आसान करने का क्या गुर बताया?”

शाह साहब ने कहा। “उस ने मुझे एक मंत्र बताया।”

“मंत्र!”

“जी हाँ।”

“आप सय्यद हैं........ क्या आप मंत्र जंतर यर ईमान ला सकते हैं?”

शाह साहब ने कहा। “लाना तो नहीं चाहिए था कि ये हमारे मज़हब में जायज़ नहीं........ लेकिन उस वक़्त सरदार बलवंत सिंह का मश्वरा मानना ही पड़ा, इस लिए कि इश्क़ बुरी बला है........ उस ने मुझे एक मंत्र बताया कि सात रंगों के फूल लो। उन में से हर एक पर ये मंत्र पढ़ कर फूंको और मंगल के रोज़ उसी लड़की को किसी न किसी तरीक़े से सुन्घा दो........ ये मंत्र मुझे अभी तक याद है।”

मैं ने उन से कहा। “ज़रा सनाईए तो!”

शाह साहब ने एक लहज़े के लिए अपने हाफ़िज़े को टटोला और कहा:

“को रो दस मुखिया देवी

फल खिड़े फल हसे

फल चुग्गे ना हर सिंह प्यारे

जो कोई ले फूलों की बॉस

कभी ना छोड़े हमारा साथ

हमें छोड़ा किसी और को करे

पेट फूल भस्म हो मरे

दुहाई सुलेमान पीर पैग़ंबर की!

मैं ने ये मंत्र सुना तो मुझे अपना लड़कपन याद आ गया जब मैं ने मंत्रों की एक किताब ख़रीदी थी और “स में से एक मंत्र अज़बर इस ग़रज़ से किया था कि मैं स्कूल के तमाम इम्तहानों में पास होता चला जाऊं........ यै मंत्र मुझे अब तक याद है........ ओन्ग् नुमा कामशीरी उतमादे भर यंग परासवाह........ लेकिन इस के पढ़ने का नतीजा ये निकला कि मैं नौवीं जमात में फ़ेल हो गया था।

मैं ने इस मंत्र का ज़िक्र शाह साहब से न किया और उन से पूछा। “तो आप ने सात रंग के फूलों पर ये मंत्र पढ़ा?”

“जी हाँ........ मैं ने सात रंग के फूल सोमवार को इकट्ठे किए। उन पर ये मंत्र पढ़ा और उस लड़की को टेलीफ़ोन किया कि मेरी दुकान में चेकोस्लोवाकिया से बहुत अच्छा माल आया है। मंगल को वो आके देख ले।”

मैं ने शाह साहब से पूछा। “क्या वो आई?”

“जी हाँ........ वो आई........ उस ने मुझे टेलीफ़ोन पर कह दिया था कि वो आएगी। शाम को पाँच बजे के क़रीब। मैं इस का इंतिज़ार करता रहा। वो ठीक पाँच बज कर पाँच मिनट पर आई और उस ने चेकोस्लोवाकिया के माल के मुतअल्लिक़ इस्तिफ़सार किया। ग़रज़ ये है कि माल वाल का क़िस्सा बिलकुल फ़राड था........ मैं ने उस से कहा कि मुलाज़िमों ने अभी तक पेटियां नहीं खोलीं, आप कल तशरीफ़ लाईएगा। वो बहुत जुज़ बुज़ हुई। मैं मंत्र पढ़े फूलों की तरफ़ देख रहा था........ इत्तिफ़ाक़ की बात कि उस ने भी इन फूलों की तरफ़ देखा और मुझ से कहा ये फूल तुम्हारी मेज़ पर कहाँ से आगए?........ मैं ने जवाब दिया ये मैं ने आप के लिए ख़रीदे थे। अगर आप को पसंद हों........ मेरा मतलब है अगर आप को इन की ख़ुशबू पसंद होतो आप उन्हें क़बूल फ़रमाएं........ उस ने वो सात फूल उठाए और उन्हें सूँघा।

मैं ने उन से पूछा। “उस लड़की का रद्द-ए-अमल क्या था?”

शाह साहब ने जवाब दिया। “इस ने नाक भौं चढ़ा कर कहा........ ये फूल हैं? इन में न तो ख़ुश्बू है न बद-बू........ बहर-हाल, उस ने वो फूल सूंघे........ चंद चीज़ें खरीदीं और चली गई........ शाम को सरदार बलवंत सिंह मजीठिया मेरी दुकान पर आया। उस ने मुझ से पूछा कहो, वो फूल सुन्घा दिए?। मैं ने उस से कहा सुन्घा तो दिए लेकिन इस का नतीजा क्या निकलेगा, ये मुझे मालूम नहीं। सरदार बलवंत सिंह हंसा। उस ने बड़े ज़ोर से मेरा हाथ दबाया और कहा दोस्त! अब तुम्हारा काम समझो कि पंद्रह आने हो गया है।”

मुझे बड़ी हैरत थी कि मंत्र के ज़रिये ऐसा काम पंद्रह आने क्यों कर हो सकता है, मगर सय्यद साहब ने कहना शुरू किया। “मंटो साहब! आप यक़ीन मानिए कि मेरा काम पंद्रह आने मुकम्मल हो गया........ दूसरे दिन कूकू जान का टेलीफ़ोन आया कि वो कुछ चीज़ें ख़रीदने के लिए आ रही है। मैं ने उस का इस्तिक़बाल किया........वो कोई चीज़ ख़रीदना नहीं चाहती थी। बहुत देर तक वो मेरी दुकान में इधर उधर फुर्ती रही। इस के बाद वो मुझ से मुख़ातब हुई, तुम से मैं कई मर्तबा कह चुकी हूँ कि मुझे घूरा ना करो........ और वो जो तुम ने फूल सुंघाए थे, इस का क्या मतलब था........?”

मैं ने कूकू जान से लुकनत भरे लहजे में कहा। “मैं........ मैं........ वो फूल जो थे........ फूल थे........ मैं ने ........ मैं ने ........ माल जो चेकोस्लोवाकिया से आया था, खुला हुआ नहीं था, इस लिए मैं ने वो फूल आप की ख़िदमत में पेश कर दिए........ कूकू जान बुर्क़ा में सख़्त मुज़्तरिब थी........ उस ने इज़्तिराब भरे लहजे में कहा। “तुम ने मुझे फूल क्यों सुन्घाए?........ ” मैं ने उस से बड़े मासूमाना अंदाज़ में पूछा। “क्या आप को उस से कोई तकलीफ़ हुई........ ” वो बड़े गर्म अंदाज़ में बोली “तकलीफ़........? मैं सारी रात वो सात फूल देखती रही हूँ........ फूल आते थे और जब मैं उन्हें हासिल करना चाहती थी तो वो मुझ से परे हट जाते थे........ ये कैसे फूल थे?” मैं ने जवाब दिया। “मेरे वतन के थे........ चूँकि मेरे वतन के थे, इस लिए मैं ने आप की ख़िदमत में पेश किए........ लेकिन मुझे हैरत है कि वो रात भर आप को क्यों नज़र आते और सताते रहे।”

मैं ने शाह साहब से पूछा। “ये फूल आप ने कहाँ से मंगवाए थे?”

शाह साहब ने जवाब दिया। “जी! मंगवाए कहाँ से थे, वहीं अफ़्ग़ानिस्तान के थे........ निहायत वाहियात क़िस्म के फूल जिन में ख़ुशबू नाम को भी नहीं थी........ शाम को सरदार बलवंत सिंह आया, मज़ीद क़र्ज़ लेने के लिए। उस ने मुझ से क़र्ज़ लेने से पहले दरयाफ़्त किया। “कहिए शाह साहब! उस मुआमले का क्या हुआ मैं ने उस को सारी बात बता दी........ वो क़र्ज़ लेना भूल गया। अपना बालों भरा हाथ मेरे कंधे पर ज़ोर से मार कर चिल्लाया........शाह जी! आप का काम सोला आने हो गया है........ विस्की की एक बोतल मनगाईए।”

शाह साहब ने मुझे बताया कि उन्हों ने विस्की की बोतल के इलावा एक डिब्बा सिगरेटों का भी मंगवाया, जिस में से सरदार बलवंत सिंह मजीठिया तंबाकू नोशों के ठेट अंदाज़ में पे-दर-पे कई सिगरेट फूंकते रहे। जब जाने लगे तो उन्हों ने शाह साहब से कहा कि देखो अभी थोड़ी सी कसर बाक़ी है। अगले मंगल को तुम और सात फूल लो और उन पर वही मंत्र पढ़ कर उस लड़की को सुन्घा दो........ बेड़ा पार हो जाएगा........।”

शाह साहब बहुत परेशान हुए। उस की समझ में नहीं आता था कि वो अब की कूकू जान को फूल कैसे सुन्घा सकेंगे जब कि वो इस मुआमले के मुतअल्लिक़ शाकी थी। लेकिन मुआमला इश्क़ का था, इस लिए शाह साहब मौत के मुँह में जाने के लिए भी तैय्यार थे।

शाह साहब ने पेशावर से फूल मंगवाए........ इन में से सात मुंतख़ब किए और हर एक पर मंत्र पढ़ा और अपने मेज़ के गुलदान में रख दिए। इस के इलावा उन्हों ने अपनी दुकान में जा-ब-जा गुलदान रखवाए और इन में फूल सजा दिए।

पीर को साहब ने कूकू जान को टेलीफ़ोन किया और उस से फिर झूट बोला कि चेकोस्लोवाकिया का माल खुल गया है। आप आईए और देख लीजिए। कूकू जान आई, मगर माल वाल मौजूद नहीं था........ शाह साहब थोड़ी देर के लिए बौखलाए, फिर ज़रा होश सँभाल कर अपने नौकरों को लॉन तान की कि तुम ने अभी तक माल क्यों नहीं खोला।

कूकू जान के साथ उस की वालिदा बूबू जान भी थी। वो एक तरफ़ टायलट का सामान देखने में मसरूफ़ थी। कूकू जान ने जब दुकान में जा-ब-जा फूल देखे तो वो मुतअज्जिब होने के इलावा मुज़्तरिब भी हुई।

मेरी मेज़ पर वो ख़ास फूल पड़े थे। वो उन के पास आई, गुलदान में से उठा कर इस ने उन्हें सूँघा और मुझ से कहा। “ये अफ़्ग़ानिस्तान के फूल नहीं।”

मैं ने जवाब दिया। “जी हाँ........ये मेरे वतन के हैं........ और मैं ने ख़ास आप के लिए मंगवाए हैं। बूबू जान ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त में मशग़ूल थी। इस दौरान में कूकू जान से मैं ने अपनी वालहाना मोहब्बत का इज़हार किया। वो सख़्त नाराज़ हुई और अपनी माँ के साथ चली गई........ शाम को सरदार बलवंत सिंह मजीठिया आया........ उस से बातचीत हुई। मैं ने उस को दस रुपय क़र्ज़ दिए। जब उस ने रुपय अपनी जेब में डाले तो मुझ से पूछा “आज मंगल है........ वो फूल सुन्घा दिए थे आप ने?” मैं ने सारा वाक़िया बयान कर दिया........ सरदार बलवंत सिंह ने अपना बालों भरा हाथ ज़ोर से मेरे हाथ पर मारा और कहा “शाह जी, अब काम सतरह आने पूरा हो गया है........ विस्की की एक बोतल मँगाओ।”

शाह साहब ने विस्की की बोतल मंगवाई। सरदार बलवंत सिंह मजीठिया ने आधी दुकान में पी और आधी अपने साथ ले गया। मैं ने शाह साहब से पूछा। “दूसरी दफ़ा फूल सुन्घाने से क्या नतीजा बरामद हुआ?”

शाह साहब ने जवाब दिया। “वो बहुत बेचैन हो गई। उसे दिन रात इतने फूल नज़र आने लगे कि एक दिन वो सख़्त इज़्तिराब की हालत में आई। बुर्क़ा जो उस ने कभी उतारा नहीं था, केले के छिलके की तरह उतार कर एक तरफ़ फेंका और मुझ से मुख़ातब हुई। देखो शाह! तुम ने मुझ पर कोई जादू कर दिया है........ मैं ने उस के चेहरे की तरफ़ देखा जो मुझे पहली बार नज़र आया था मंटो साहब! मैं ने अपनी ज़िंदगी में उस जैसी हसीन लड़की अब तक नहीं देखी........ मैं उस को देखता रहा........ उस ने बड़े तेज़-ओ-तुंद लहजे में कहा। “तुम ने मुझे फूल क्यों सुन्घाए थे........ मैं पागल हुई जा रही हूँ........ दिन हो या रात, हर-वक़्त मुझे वो तुम्हारे फूल दिखाई देते हैं। मुझे मालूम है कि तुम मुझ से मोहब्बत करते हूँ। लेकिन तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैं एक शरीफ़ घराने की लड़की हूँ। मेरे वालिदैन अन-क़रीब मेरी शादी कर रहे हैं। तुम ने मुझ पर क्या जादू फूंका है........ये कह कर उस ने मेरे मेज़ पर से गुलदान में से फूल निकाले और फ़र्श पर फेंक कर अपनी सैंडल से मसल दिए। लेकिन मुझे महसूस होता था कि वो नाराज़ होने के बावजूद नाराज़ नहीं थी और चाहती थी कि मैं उस से बातें करूं। लेकिन मुझे इस का यक़ीन नहीं था इस लिए ख़ामोश रहा........ वो कुछ देर ग़ुस्से की हालत में खड़ी रही। इस के बाद उस ने बुर्क़ा पहना और चली गई।”

मैं ने शाह साहब से पूछा। “तो सरदार बलवंत सिंह मजीठिया का मंत्र काम कर गया!”

“जी हाँ, काम कर गया........ उस को फूल ही फूल नज़र आते थे। मैं ने कई मर्तबा सोचा कि ये सब बकवास है, मगर कूकू जान की बातों से मुझे यक़ीन हो गया कि मंत्र अपना असर कर गया है, हालाँकि जो मंत्र आप सुन चुके हैं, इस में ऐसी कोई बात नहीं जिस से आदमी को ये मालूम हो कि वो असर करेगा........ लेकिन वाक़िया ये है कि वो जब फिर मेरी दुकान में आई तो बुर्क़ा उतार कर मुझ से बग़ल-गीर हो गई और रोना शुरू कर दिया........ मैं ने उस को कई मर्तबा चूमा। इस ने कोई मुज़ाहमत न की। थोड़ी देर के बाद मेरी मेज़ पर गुलदान में जो फूल पड़े थे, उस ने निकाले और उन्हें नोच कर एक तरफ़ फेंक दिया। इस के बाद वो बुर्क़ा पहन कर तेज़ी से बाहर निकल गई।

दास्तान काफ़ी तवालत पकड़ रही थी। मैं ने साहब से कहा। “आप मुख़्तसर फ़रमाईए कि अंजाम क्या हुआ........ क्या वो लड़की आप को मिल गई?”

शाह साहब ने एक आह भरी। “जी नहीं। उस की शादी हो गई। मगर हजला-ए-अरूसी में दाख़िल होते ही मालूम नहीं क्या हुआ कि वो गिरी और गिरते ही मर गई........ इस के हाथ में सात फूल थे मुख़्तलिफ़ रंगों के।”

मैं ने देखा कि शाह साहब की पलंगड़ी के साथ तिपाई पर पीतल के फूलदान में सात मुख़्तलिफ़ रंगों के फूल अड़से हुए थे।

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
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सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
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बाँझ

7 अप्रैल 2022
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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहे

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बदसूरती

7 अप्रैल 2022
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साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी।  उनके माँ-बाप को ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश शक्ल थी

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बादशाहत का ख़ात्मा

7 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...”  दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और किता

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फूजा हराम दा

7 अप्रैल 2022
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हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था

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फुसफुसी कहानी

7 अप्रैल 2022
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सख़्त सर्दी थी। रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी। गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी हुई थी। सड़क के दो रवैय्या पस्

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बर्फ़ का पानी

7 अप्रैल 2022
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“ये आप की अक़ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं” “मेरी अक़ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए थे जब मैंने तुम से शादी की भला इस की ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब कराली।” “जी हाँ आज़ादी तो आप की यक़ीनन सल्ब हूई

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बलवंत सिंह

7 अप्रैल 2022
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शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

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बाई बाई

7 अप्रैल 2022
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नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थ

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बचनी

7 अप्रैल 2022
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भंगिनों की बातें हो रही थीं। खासतौर पर उन की जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरिया और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ

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फ़ूभा बाई

7 अप्रैल 2022
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हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा। “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।” हनीफ़ को मालूम था कि वो मु

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फूलों की साज़िश

7 अप्रैल 2022
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बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़

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फुंदने

7 अप्रैल 2022
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कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेर

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फाहा

7 अप्रैल 2022
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गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

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बग़ैर इजाज़त

7 अप्रैल 2022
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नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

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बदतमीज़ी

7 अप्रैल 2022
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“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

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पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
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वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

20 अप्रैल 2022
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डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

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ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

20 अप्रैल 2022
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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

20 अप्रैल 2022
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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

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गर्म सूट

20 अप्रैल 2022
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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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चन्द मुकालमे

20 अप्रैल 2022
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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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गोली

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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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चोरी

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

20 अप्रैल 2022
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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

20 अप्रैल 2022
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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

20 अप्रैल 2022
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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

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क़ासिम

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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

20 अप्रैल 2022
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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

20 अप्रैल 2022
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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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