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भाग 2

23 मार्च 2023

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27 फरवरी, 1948 को नेहरू को लिखे पत्र में तत्कालीन गृहमंत्री पटेल ने भी लिखा था—गवाहियों से

यह स्पष्ट उभरकर आ रहा है कि सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा के एक कट्टरपंथी धड़े ने

गांधी-हत्या का षड़्यंत्र रचा और इसे अंजाम दिया।गोपाल गोडसे की रिहाई के बाद उसके स्वागत में 11 नवम्बर, 1964 को पूना में आयोजित एक सभा

में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए लोकमान्य तिलक के नाती और केसरी के पूर्व सम्पादक जी.वी. केतकर

के इस दावे के बाद उठे हंगामे के बाद कपूर आयोग का गठन किया गया था कि नथूराम उनसे गांधी

की हत्या के परिणामों पर चर्चा किया करता था और 20 जनवरी के बम विस्फोट के बाद भडगे ने

उनसे भविष्य की योजनाओं के बारे में चर्चा की थी।

केतकर ने यह भी कहा था कि उसने यह जानकारी उस समय पूना के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता बालूकाका

कानितकर को दे दी थी, जिन्होंनेन्हों इस बारे में बम्बई के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.जी. खेर और मोरारजी

देसाई को पत्र लिखकर सूचित किया था। इसी अवसर पर राष्ट्री य स्वयंसेवक संघ के एन.जी. अभ्यंकर

ने गोडसे की तारीफ़ करते हुए उसकी तुलना भगवान् कृष्ण और शिव से की ।

पी.वी. दावरे और हिन्दू महासभा की महिला विंग की शान्ताबाई गोखले ने भी इस सभा में गोडसे की

तारीफ़ की थी। कपूर आयोग की रिपोर्ट ने अन्ततः नागरवाला और पटेल को सही साबित किया। लाल

क़िला ट्रा यल के फ़ैसले में प्रमाणित करने वाले (corroborative) साक्ष्यों के अभाव में सावरकर को

‘दोषी क़रार करना असुरक्षित पाया गया था।’ लेकिन कपूर आयोग की रिपो र्ट पढ़ते हुए पता चलता है

कि सरकारी गवाह दिगम्बर भडगे के कहे को प्रमाणित करने वाले ही नहीं बल्कि ऐसे साक्ष्य भी पहले

से मौज़ूद थे जो यह बताते थे कि गांधी-हत्या के लिए दिल्ली आने से पहले गोडसे और आप्टे सावरकर

से मिले थे।

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रचनाएँ
सावरकर: काला पानी और उसके बाद
4.8
यह किताब एक सावरकर से दूसरे सावरकर की तलाश की एक शोध-सिद्ध कोशिश है। सावरकर की प्रचलित छवियों के बरक्स यह किताब उनके क्रांतिकारी से राजनेता और फिर हिन्दुत्व की राजनीति के वैचारिक प्रतिनिधि तथा पुरोधा बनने तक के वास्तविक विकास क्रम को समझने का प्रयास करती है। इसके लिए लेखक ने सावरकर के अपने विपुल लेखन के अलावा उनके सम्बन्ध में मिलने वाली तमाम पुस्तकों, तत्कालीन ऐतिहासिक स्रोतों, समकालीनों द्वारा ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज़ों आदि का गहरा अध्ययन किया है। यह सावरकर की जीवनी नहीं है, बल्कि उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व को केन्द्र में रखकर स्वतंत्रता आन्दोलन के एक बड़े फ़लक को समझने-पढ़ने का ईमानदार प्रयास है। कहने की ज़रूरत नहीं कि राष्ट्र की अवधारणा की आड़ लेकर क़िस्म-क़िस्म की ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक विकृतियों के आविष्कार और प्रचार-प्रसार के मौजूदा दौर में इस तरह के निष्पक्ष अध्ययन बेहद ज़रूरी हो चले हैं। अशोक कुमार पांडेय ने इतिहास सम्बन्धी अस्पष्टताओं की वर्तमान पृष्ठभूमि में कश्मीर और गांधी के सन्दर्भ में अपनी पुस्तकों से सत्यान्वेषण का जो सिलसिला शुरू किया था, यह पुस्तक उसका अगला पड़ाव है और इस रूप में वर्तमान में एक आवश्यक हस्तक्षेप भी।

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