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भाग -3

8 जून 2022

21 बार देखा गया 21

  पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें।

        थोड़ी जो थी अहह! वह भी धीरता दूर भागी।

        हा हा! शब्दों सहित इतना फूट के लोग रोये।

        हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की॥41॥


आवेगों के सहित बढ़ता देख संताप-सिंधु।

धीरे-धीरे ब्रज-नृपति से खिन्न अक्रूर बोले।

देखा जाता ब्रज दुख नहीं शोक है वृध्दि पाता।

आज्ञा देवें जननि पग छू यान पै श्याम बैठें॥42॥


        आज्ञा पाके निज जनक की, मान अक्रूर बातें।

        जेठे-भ्राता सहित जननी-पास गोपाल आये।

        छू माता के पग कमल को धीरता साथ बोले।

        जो आज्ञा हो जननि अब तो यान पै बैठ जाऊँ॥43॥


दोनों प्यारे कुँवरवर के यों बिदा माँगते ही।

रोके ऑंसू जननि दृग में एक ही साथ आयें।

धीरे बोलीं परम दुख से जीवनाधार जाओ।

दोनों भैया विधुमुख हमें लौट आके दिखाओ॥44॥


        धीरे-धीरे सु-पवन बहे स्निग्ध हों अंशुमाली।

        प्यारी छाया विटप वितरें शान्ति फैले वनों में।

        बाधायें हों शमन पथ की दूर हों आपदायें।

        यात्रा तेरी सफल सुत हो क्षेम से गेह आओ॥45॥


ले के माता-चरणरज को श्याम औ राम दोनों।

आये विप्रों निकट उनके पाँव की वन्दना की।

भाई-बन्दों सहित मिलके हाथ जोड़ा बड़ों को।

पीछे बैठे विशद रथ में बोध दे के सबों को॥46॥


        दोनों प्यारे कुँवर वर को यान पै देख बैठा।

        आवेगों से विपुल विवशा हो उठीं नन्दरानी।

        ऑंसू आते युगल दृग से वारि-धारा बहा के।

        बोलीं दीना सदृश पति से दग्ध हो हो दु:खों से॥47॥


मालिनी छन्द


अहह दिवस ऐसा हाय! क्यों आज आया।

निज प्रियसुत से जो मैं जुदा हो रही हूँ।

अगणित गुणवाली प्राण से नाथ प्यारी।

यह अनुपम थाती मैं तुम्हें सौंपती हूँ॥48॥


        सब पथ कठिनाई नाथ हैं जानते ही।

        अब तक न कहीं भी लाडिले हैं पधारे।

        'मधुर फल खिलाना दृश्य नाना दिखाना।

        कुछ पथ-दुख मेरे बालकों को न होवे॥49॥


खर पवन सतावे लाडिलों को न मेरे।

दिनकर किरणों की ताप से भी बचाना।

यदि उचित जँचे तो छाँह में भी बिठाना।

मुख-सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे॥50॥


        विमल जल मँगाना देख प्यासा पिलाना।

        कुछ क्षुधित हुए ही व्यंजनों को खिलाना।

        दिन वदन सुतों का देखते ही बिताना।

        विलसित अधरों को सूखने भी न देना॥51॥


युग तुरग सजीले वायु से वेग वाले।

अति अधिक न दौड़ें यान धीरे चलाना।

बहु हिल कर हाहा कष्ट कोई न देवे।

परम मृदुल मेरे बालकों का कलेजा॥52॥


        प्रिय! सब नगरों में वे कुबामा मिलेंगी।

        न सुजन जिनकी हैं वामता बूझ पाते।

        सकल समय ऐसी साँपिनों से बचाना।

        वह निकट हमारे लाडिलों के न आवें॥53॥


जब नगर दिखाने के लिए नाथ जाना।

निज सरल कुमारों को खलों से बचाना।

संग-संग रखना औ साथ ही गेह लाना।

छन सुअन दृगों से दूर होने न पावें॥54॥


        धनुष मख सभा में देख मेरे सुतों को।

        तनिक भृकुटि टेढ़ी नाथ जो कंस की हो।

        अवसर लख ऐसे यत्न तो सोच लेना।

        न कुपित नृप होवें औ बचें लाल मेरे॥55॥


यदि विधिवश सोचा भूप ने और ही हो।

यह विनय बड़ी ही दीनता से सुनाना।

हम बस न सकेंगे जो हुई दृष्टि मैली।

सुअन युगल ही हैं जीवनाधार मेरे॥56॥


        लख कर मुख सूखा सूखता है कलेजा।

        उर विचलित होता है विलोके दुखों के।

        शिर पर सुत के जो आपदा नाथ आई।

        यह अवनि फटेगी औ समा जाऊँगी मैं॥57॥


जगकर कितनी ही रात मैंने बिताई।

यदि तनिक कुमारों को हुई बेकली थी।

यह हृदय हमारा भग्न कैसे न होगा।

यदि कुछ दुख होगा बालकों को हमारे॥58॥


        कब शिशिर निशा के शीत को शीत जाना।

        थर-थर कँपती थी औ लिये अंक में थी।

        यदि सुखित न यों भी देखती लाल को थी

        सब रजनि खड़े औ घूमते ही बिताती॥59॥


निज सुख अपने मैं ध्यान में भी न लाई।

प्रिय सुत सुख ही से मैं सुखी हूँ कहाती।

मुख तक कुम्हलाया नाथ मैंने न देखा।

अहह दुखित कैसे लाडिले को लखूँगी॥60॥

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रचनाएँ
प्रिय प्रवास
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प्रियप्रवास अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध" की हिन्दी काव्य रचना है। हरिऔध जी को काव्यप्रतिष्ठा "प्रियप्रवास" से मिली। इसका रचनाकाल सन् 1909 से सन् 1913 है। "प्रियप्रवास" विरहकाव्य है। कृष्णकाव्य की परंपरा में होते हुए भी, उससे भिन्न है। "हरिऔध" जी ने कहा है - मैंने श्री कृष्णचंद्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है |
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प्रिय प्रवास / प्रथम सर्ग / भाग -1

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दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला। तरु-शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥१॥ विपिन बीच विहंगम वृंद का। कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ। ध्वनिमयी-विविधा विहगावली। उड़ रही नभ

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भाग - 2

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विशद उज्ज्वल उन्नत भाल में। विलसती कल केसर-खौर थी। असित - पंकज के दल में यथा। रज – सुरंजित पीत - सरोज की॥२१॥ मधुरता - मय था मृदु - बोलना। अमृत – सिंचित सी मुस्कान थी। समद थी जन – मानस मोहती।

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भाग -3

8 जून 2022
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विगह औ विटपी – कुल मौनता। प्रकट थी करती इस मर्म को। श्रवण को वह नीरव थे बने। करुण अंतिम – वादन वेणु का॥४१॥ विहग – नीरवता – उपरांत ही। रुक गया स्वर शृंग विषाण का। कल – अलाप समापित हो गया। पर र

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प्रिय प्रवास /द्वितीय सर्ग / भाग -1

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द्रुतविलंबित छंद गत हुई अब थी द्वि-घटी निशा। तिमिर – पूरित थी सब मेदिनी। बहु विमुग्ध करी बन थी लसी। गगन मंडल तारक - मालिका॥१॥ तम ढके तरु थे दिखला रहे। तमस – पादप से जन - वृंद को। सकल गोकुल

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भाग -2

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कर रहे जितने कल गान थे। तुरत वे अति कुंठित हो उठे। अब अलाप अलौकिक कंठ के। ध्वनित थे करते न दिगंत को॥२१॥ उतर तार गए बहु बीन के। मधुरता न रही मुरजादि में। विवशता – वश वादक – वृंद के। गिर गए कर

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भाग - 3

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प्रकृति थी जब यों कुपिता महा। हरि अदृश्य अचानक हो गए। सदन में जिस से ब्रज-भूप के। अति-भयानक-क्रंदन हो उठा॥४१॥ सकल-गोकुल था यक तो दुखी। प्रबल – वेग प्रभंजन – आदि से। अब दशा सुन नंद-निकेत की। प

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प्रिय प्रवास / तृतीय सर्ग / भाग -1

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द्रुतविलंबित छंद समय था सुनसान निशीथ का। अटल भूतल में तम-राज्य था। प्रलय – काल समान प्रसुप्त हो। प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत थी॥१॥ परम - धीर समीर - प्रवाह था। वह मनों कुछ निद्रित था हुआ। गति

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भाग -2

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सित हुए अपने मुख - लोम को। कर गहे दुखव्यंजक भाव से। विषम – संकट बीच पड़े हुए। बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥२१॥ हृदय – निर्गत वाष्प समूह से। सजल थे युग - लोचन हो रहे। बदन से उनके चुपचाप ही। निकलती

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भाग -3

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कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही। अति अपेक्षित है इस काल भी॥४१॥ समझ के पद - पंकज - सेविका। कर सकी अपराध कभी नहीं। पर शरीर मिले सब भाँति में। नि

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भाग -4

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विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। द्विरद क्या जननी उपयुक्त है। यक पयो-मुख बालक के लिये॥६१॥ व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं। अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ। मृदु – कुरंगम शावक

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भाग -5

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  तदपि जो सुर-पादप के तले।         पहुँच पा सकता जन शान्ति है।         वह कभी दल फूल फलादि से।         मिल नहीं सकती जगतीपते॥81॥ झलकती तव निर्मल ज्योति है। तरणि में तृण में करुणामयी। किरण एक इ

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प्रिय प्रवास / चतुर्थ सर्ग/ भाग -1

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द्रुतविलम्बित छन्द विशद-गोकुल-ग्राम समीप ही। बहु-बसे यक सुन्दर-ग्राम में। स्वपरिवार समेत उपेन्द्र से। निवसते वृषभानु-नरेश थे॥1॥         यह प्रतिष्ठित-गोप सुमेर थे।         अधिक-आदृत थे नृप-न

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भाग -2

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कमल का दल भी हिम-पात से। दलित हो पड़ता सब काल है। कल कलानिधि को खल राहु भी। निगलता करता बहु क्लान्त है॥21॥         कुसुम सा प्रफुल्लित बालिका।         हृदय भी न रहा सुप्रफुल्ल ही।         वह म

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भाग -3

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 सब-नभ-तल-तारे जो उगे दीखते हैं।         यह कुछ ठिठके से सोच में क्यों पड़े हैं।         ब्रज-दुख अवलोके क्या हुए हैं दुखारी।         कुछ व्यथित बने से या हमें देखते हैं॥41॥ रह-रह किरणें जो फूटत

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प्रिय प्रवास /पंचम सर्ग / भाग -1

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मन्दाक्रान्ता छन्द तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम-लाली। पक्षी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में। शाखा डोली तरु निचय की कंज फूले सरों में। धीरे-धीरे दिनकर कढ़े तामसी रात बीती॥1॥         फूल

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भाग -2

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मन्दाक्रान्ता छन्द आई बेला हरि-गमन की छा गई खिन्नता सी। थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपों में। आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले। धीरे-धीरे सजनक कढ़े सद्म में से मुरारी॥20॥         आते

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भाग -2

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मन्दाक्रान्ता छन्द आई बेला हरि-गमन की छा गई खिन्नता सी। थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपों में। आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले। धीरे-धीरे सजनक कढ़े सद्म में से मुरारी॥20॥         आते

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भाग -3

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  पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें।         थोड़ी जो थी अहह! वह भी धीरता दूर भागी।         हा हा! शब्दों सहित इतना फूट के लोग रोये।         हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की॥41॥ आवेगो

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भाग -4

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       यह समझ रही हूँ और हूँ जानती ही।         हृदय धन तुमारा भी यही लाडिला है।         पर विवश हुई हूँ जी नहीं मानता है।         यह विनय इसी से नाथ मैंने सुनाई॥61॥ अब अधिक कहूँगी आपसे और क्या म

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प्रिय प्रवास / षष्ठ सर्ग / भाग -1

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मन्दाक्रान्ता छन्द धीरे-धीरे दिन गत हुआ पद्मिनीनाथ डूबे। दोषा आई फिर गत हुई दूसरा वार आया। यों ही बीतीं विपुल घड़ियाँ औ कई वार बीते। कोई आया न मधुपुर से औ न गोपाल आये॥1॥ ज्यों-ज्यों जाते दिवस

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भाग -2

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सदन ढिग कहीं जो डोलता पत्र भी था। निज श्रवण उठाती थीं समुत्कण्ठिता हो। कुछ रज उठती जो पंथ के मध्य यों ही। बन अयुत-दृगी तो वे उसे देखती थीं॥21॥ गृह दिशि यदि कोई शीघ्रता साथ आता। तब उभय करों से थ

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भाग -3

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लज्जाशीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये। होने देना विकृत-वसना तो न तू सुन्दरी को। जो थोड़ी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना। होठों की औ कमल-मुख की म्लानतायें मिटाना॥41॥ जो पुष्पों के 'मधुर-र

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भाग -4

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बैठे होंगे जिस थल वहाँ भव्यता भूरि होगी। सारे प्राणी वदन लखते प्यार के साथ होंगे। पाते होंगे परम निधियाँ लूटते रत्न होंगे। होती होंगी हृदयतल की क्यारियाँ पुष्पिता सी॥61॥ बैठे होंगे निकट जितने शा

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प्रिय प्रवास / सप्तम सर्ग / भाग -1

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मन्दाक्रान्ता छन्द ऐसा आया यक दिवस जो था महा मर्म्मभेदी। धाता ने हो दुखित भव के चित्रितों को विलोका। धीरे-धीरे तरणि निकला काँपता दग्ध होता। काला-काला ब्रज-अवनि में शोक का मेघ छाया॥1॥ देखा जात

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भाग -2

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मुखरित करता जो सद्म को था शुकों सा। कलरव करता था जो खगों सा वनों में। सुध्वनित पिक सा जो वाटिका को बनाता। वह बहु विधा कंठों का विधाता कहाँ है॥21॥ सुन स्वर जिसका थे मत्त होते मृगादि। तरुगण-हरिया

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भाग -3

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विपुल धन अनेकों रत्न हो साथ लाये। प्रियतम! बतला दो लाल मेरा कहाँ है। अगणित अनचाहे रत्न ले क्या करूँगी। मम परम अनूठा लाल ही नाथ ला दो॥41॥ उस वर-धन को मैं माँगती चाहती हूँ। उपचित जिससे है वंश की

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प्रिय प्रवास / अष्टम सर्ग / भाग -1

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मन्दाक्रान्ता छन्द यात्रा पूरी स-दुख करके गोप जो गेह आये। सारी-बातें प्रकट ब्रज में कष्ट से कीं उन्होंने। जो आने की विवि दिवस में बात थी खोजियों ने, धीरे-धीरे सकल उसका भेद भी जान पाया॥1॥ आती

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भाग -2

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भोलीभाली बहु विधा सजी वस्त्र आभूषणों से। गानेवाली 'मधुर स्वर से सुन्दरी बालिकायें। जो प्राणी के परम मुद की मूर्तियाँ थीं उन्हें क्यों। खिन्ना-दीना मलिन-वसना देखने को बचा मैं॥21॥ हा! वाद्यों की '

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भाग -3

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नयन रंजन अंजन मंजु सी। छविमयी रज श्यामल गात की। जननि थीं कर से जब पोंछतीं। उलहती तब वेलि विनोद की॥41॥ जब कभी कुछ लेकर पाणि में। वदन में ब्रजनन्दन डालते। चकित-लोचन से अथवा कभी। निरखते जब वस्तु

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भाग - 4

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मन्दाक्रान्ता छन्द ऐसे सारी ब्रज-अवनि के एक ही लाडिले को। छीना कैसे किस कुटिल ने क्यों कहाँ कौन बेला। हा! क्यों घोला गरल उसने स्निग्धकारी रसों में। कैसे छींटा सरस कुसुमोद्यान में कंटकों को॥61॥

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प्रिय प्रवास / नवम सर्ग / भाग -1

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शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द एकाकी ब्रजदेव एक दिन थे बैठे हुए गेह में। उत्सन्ना ब्रजभूमि के स्मरण से उद्विग्नता थी बड़ी। ऊधो-संज्ञक-ज्ञान-वृध्द उनके जो एक सन्मित्र थे। वे आये इस काल ही सदन में आनन्द

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भाग -2

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देता था उसका प्रवाह उर में ऐसी उठी कल्पना। धारा है यह मेरु से निकलती स्वर्गीय आनन्द की। या है भूधर सानुराग द्रवता अंकस्थितों के लिए। ऑंसू है वह ढालता विरह से किम्वा ब्रजाधीश के॥21॥ ऊधो को पथ में

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भाग -3

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अनेक-आकार-प्रकार-रंग के। सुधा-समोये फल-पुंज से सजा। विराजता अन्य रसाल तुल्य था। समोदकारी अमरूद रोदसी॥41॥ स्व-अंक में पत्र प्रसून मध्य में। लिये फलों व्याज सु-मूर्ति शंभु की। सदैव पूजा-रत सानुर

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भाग -4

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कहीं शयाना महि में स-चाव थी। विलम्बिता थी तरु-वृन्द में कहीं। सु-वर्ण-मापी-फल लाभ कामुका। तपोरता कानन रत्तिाका लता॥61॥ सु-लालिमा में फलकी लगी दिखा। विलोकनीया-कमनीय-श्यामता। कहीं भली है बनती कु

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भाग -5

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मालिनी छन्द कलित-किरण-माला, बिम्ब-सौंदर्य्य-शाली। सु-गगन-तल-शोभी सूर्य का, या शशी का। जब रवितनया ले केलि में लग्न होती। छविमय करती थी दर्शकों के दृगों को॥82॥ वंशस्थ छन्द हरीतिमा का सु-विशा

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भाग -6

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असेत-रक्तानन-वान ऊधमी। प्रलम्ब-लांगूल विभिन्न-लोम के। कहीं महा-चंचल क्रूर कौशली। असंख्य-शाखा-मृग का समूह था॥101॥ कहीं गठीले-अरने अनेक थे। स-शंक भूरे-शशकादि थे कहीं। बड़े-घने निर्जन-वन्य-भूमि म

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भाग -7

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कहीं जलाते जन गेह-दीप थे। कहीं खिलाते पशु को स-प्यार थे। पिला-पिला चंचल-वत्स को कहीं। पयस्विनी से पय थे निकालते॥121॥ मुकुन्द की मंजुल कीर्ति गान की। मची हुई गोकुल मध्य धूम थी। स-प्रेम गाती जिस

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प्रिय प्रवास / दशम सर्ग / भाग -1

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द्रुतविलम्बित छन्द त्रि-घटिका रजनी गत थी हुई। सकल गोकुल नीरव-प्राय था। ककुभ व्योम समेत शनै: शनै:। तमवती बनती ब्रज-भूमि थी॥1॥ ब्रज-धराधिप मौन-निकेत भी। बन रहा अधिकाधिक-शान्त था। तिमिर भी उसक

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भाग -2

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मृदुल-कुसुम-सा है औ तुने तूल-सा है। नव-किसलय-सा है स्नेह के वत्स-सा है। सदय-हृदय ऊधो श्याम का है बड़ा ही। अहह हृदय माँ-सा स्निग्ध तो भी नहीं है॥21॥ कर निकर सुधा से सिक्त राका शशी के। प्रतपित कि

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भाग -3

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फूले-अंभोज सम दृग से मोहते मानसों को। प्यारे-प्यारे वचन कहते खेलते मोद देते। ऊधो ऐसी अनुमिति सदा हाय! होती मुझे है। जैसे आता निकल अब ही लाल है मंदिरों से॥41॥ आ के मेरे निकट नवनी लालची लाल मेरा।

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भाग -4

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कालिंदी के पुलिन पर की मंजु-वृंदावटी की। फूले नीले-तरु निकर की कुंज की आलयों की। प्यारी-लीला-सकल जब हैं लाल की याद आती। तो कैसा है हृदय मलता मैं उसे क्यों बताऊँ॥61॥ मारा मल्लों-सहित गज को कंस से

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भाग - 5

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लोहू मेरे दृग-युगल से अश्रु की ठौर आता। रोयें-रोयें सकल-तन के दग्ध हो छार होते। आशा होती न यदि मुझको श्याम के लौटने की। मेरा सूखा-हृदयतल तो सैकड़ों खंड होता॥81॥ चिंता-रूपी मलिन निशि की कौमुदी है

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प्रिय प्रवास / एकादश सर्ग / भाग - 1

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मालिनी छन्द यक दिन छवि-शाली अर्कजा-कूल-वाली। नव-तरु-चय-शोभी-कुंज के मध्य बैठे। कतिपय ब्रज-भू के भावुकों को विलोक। बहु-पुलकित ऊधो भी वहीं जा बिराजे॥1॥ प्रथम सकल-गोपों ने उन्हें भक्ति-द्वारा।

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भाग- 2

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दिनेशजा दूषित-वारि-पान से। विडम्बना थी यह हो गई यत:। अत: इसी काल यथार्थ-रूप से। ब्रजेन्द्र को ज्ञान हुआ फणीन्द्र का॥21॥ स्व-जाति की देख अतीव दुर्दशा। विगर्हणा देख मनुष्य-मात्रा की। विचार के प्

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भाग -3

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अहीश को नाथ विचित्र-रीति से। स्व-हस्त में थे वर-रज्जु को लिये। बजा रहे थे मुरली मुहुर्मुहु:। प्रबोधिनी-मुग्धकरी-विमोहिनी॥41॥ समस्त-प्यारा-पट सिक्त था हुआ। न भींगने से वन-माल थी बची। गिरा रही थ

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भाग -4

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किसी घने-पल्लववान-पेड़ की। प्रगाढ़-छाया अथवा सुकुंज में। अनेक प्राणी करते व्यतीत थे। स-व्यग्रता ग्रीष्म दुरन्त-काल को॥61॥ अचेत सा निद्रित हो स्व-गेह में। पड़ा हुआ मानव का समूह था। न जा रहा था

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भाग -5

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भयंकरी-प्रज्वलिताग्नि की शिखा। दिवांधाता-कारिणि राशि धूम की। वनस्थली में बहु-दूर-व्याप्त थी। नितान्त घोरा ध्वनि त्रास-वर्ध्दिनी॥81॥ यहीं विलोका करुणा-निकेत ने। गवादि के साथ स्व-बन्धु-वर्ग को।

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प्रिय प्रवास / द्वादश सर्ग/ भाग -1

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मन्दाक्रान्ता छन्द ऊधो को यों स-दुख जब थे गोप बातें सुनाते। आभीरों का यक-दल नया वाँ उसी-काल आया। नाना-बातें विलख उसने भी कहीं खिन्न हो हो। पीछे प्यारा-सुयश स्वर से श्याम का यों सुनाया॥1॥ द्रु

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भाग -2

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तरल-तोयधि- तुंग- तरंग से। निविड़-नीरद थे घिर घूमते। प्रबल हो जिनकी बढ़ती रही। असितता - घनता - रवकारिता॥21॥ उपजती उस काल प्रतीति थी। प्रलय के घन आ ब्रज में घिरे। गगन-मण्डल में अथवा जमे। सजल कज

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भाग -3

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सुन गिरा यह वारिद-गात की। प्रथम तर्क-वितर्क बड़ा हुआ। फिर यही अवधरित हो गया। गिरि बिना 'अवलम्ब' न अन्य है॥41॥ पर विलोक तमिस्र-प्रगाढ़ता। तड़ित-पात प्रभंजन-भीमता। सलिल-प्लावन-वर्षण-वारि का। वि

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भाग -4

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पहुँचते वह थे शर-वेग से। विपद-संकुल आकुल-ओक में। तुरत थे करते वह नाश भी। परम-वीर-समान विपत्ति का॥61॥ लख अलौकिर्क-स्फूत्तिा-सु-दक्षता। चकित-स्तंभित गोप-समूह था। अधिकत: बँधाता यह ध्यान था। ब्रज

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भाग -5

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वे थे विनम्र बन के मिलते बड़ों से। थे बात-चीत करते बहु-शिष्टता से। बातें विरोधाकर थीं उनको न प्यारी। वे थे न भूल कर भी अप्रसन्न होते॥81॥ थे प्रीति-साथ मिलते सब बालकों से। थे खेलते सकल-खेल विनोद

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प्रिय प्रवास / त्रयोदश सर्ग / भाग -1

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वंशस्थ छन्द विशाल-वृन्दावन भव्य-अंक में। रही धरा एक अतीव-उर्वरा। नितान्त-रम्या तृण-राजि-संकुला। प्रसादिनी प्राणि-समूह दृष्टि की॥1॥ कहीं-कहीं थे विकसे प्रसून भी। उसे बनाते रमणीय जो रहे। हरीत

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भाग -2

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विडम्बना है विधि की बलीयसी। अखण्डनीया-लिपि है ललाट की। भला नहीं तो तुहिनाभिभूत हो। विनष्ट होता रवि-बंधु-कंज क्यों॥21॥ 'विभूतिशाली-ब्रज, श्री मुकुन्द का।' निवास भू द्वादश-वर्ष जो रहा। बड़ी-प्रत

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भाग -3

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प्रलम्ब आतंक-प्रसू, उपद्रवी। अतीव मोटा यम-दीर्घ-दण्ड सा। कराल आरक्तिम-नेत्रवान औ। विषाक्त-फूत्कार-निकेत सर्प था॥41॥ विलोकते ही उसको वराह की। विलोप होती वर-वीरता रही। अधीर हो के बनता अ-शक्त था।

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भाग -4

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बड़ा-बली उन्नत-काय-बैल भी। विलोक होता उसको विपन्न सा। नितान्त-उत्पीड़न-दंशनादि से। न त्राण पाता सुरभी-समूह था॥61॥ पराक्रमी वीर बलिष्ठ-गोप भी। न सामना थे करते तुरंग का। वरंच वे थे बने विमूढ़ से

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भाग -5

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क्षमा नहीं है खल के लिए भली। समाज-उत्सादक दण्ड योग्य है। कु-कर्म-कारी नर का उबारना। सु-कर्मियों को करता विपन्न है॥81॥ अत: अरे पामर सावधान हो। समीप तेरे अब काल आ गया। न पा सकेगा खल आज त्राण तू।

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भाग -6

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वह विविध-कथायें देवता-दानवों की। अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से। वह हँस-हँस बातें थे अनूठी सुनाते। सुखकर-तरु-छाया में समासीन हो के॥101॥ ब्रज-धन जब क्रीड़ा-काल में मत्त होते। तब अभि मुख होती

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प्रिय प्रवास / चतुर्दश सर्ग / भाग - 1

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मन्दाक्रान्ता छन्द कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या। छोटे-छोटे सु-द्रुम उसके मुग्ध-कारी बड़े थे। ऐसे न्यारे प्रति-विटप के अंक में शोभिता थी। लीला-शीला-ललित लतिका पुष्पभारावनम्रा॥1॥ बैठ

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भाग -2

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ऐ संतप्ता-विरह-विधुरा गोपियों किन्तु कोई। थोड़ा सा भी कुँवर-वर के मर्म का है न ज्ञाता। वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियों के हितैषी। प्राणों से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा॥21॥ स्वार्थों को

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भाग -3

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हो जाते हैं भ्रमित जिसमें भूरि-ज्ञानी मनीषी। कैसे होगा सुगम-पथ सो मंद-धी नारियों को। छोटे-छोटे सरित-सर में डूबती जो तरी है। सो भू-व्यापी सलिल-निधि के मध्य कैसे तिरेगी॥41॥ वे त्यागेंगी सकल-सुख औ

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भाग -4

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चक्री होते चकित जिससे काँपते हैं पिनाकी। जो वज्री के हृदय-तल को क्षुब्ध देता बना है। जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियों को। कैसे ऐसे रति-रमण के बाण से वे बचेंगी॥61॥ जो हो के भी परम-मृदु है

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भाग - 5

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था मेघ शून्य नभ उज्ज्वल-कान्तिवाला। मालिन्य-हीन मुदिता नव-दिग्वधू थी। थी भव्य-भूमि गत-कर्दम स्वच्छ रम्या। सर्वत्र धौत जल निर्मलता लसी थी॥81॥ कान्तार में सरित-तीर सुगह्नरों में। थे मंद-मंद बहते

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भाग -6

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उत्साहिता विलसिता बहु-मुग्ध-भूता। आई विलोक जनता अनुराग-मग्ना। की श्याम ने रुचिर-क्रीड़न की व्यवस्था। कान्तार में पुलिन पै तपनांगजा के॥101॥ हो हो विभक्त बहुश: दल में सबों ने। प्रारंभ की विपिन मे

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भाग -7

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सानन्द सर्व-दल कानन-मध्य फैला। होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना। देने लगा उर कभी नवला-लता को। गाने लगा कलित-कीर्ति कभी कला की॥121॥ आभा-अलौकिक दिखा निज-वल्लभा को। पीछे कला-कर-मुखी कहता उसे था। त

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भाग -8

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हो के विभिन्न, रवि का कर, ताप त्यागे। देवे मयंक-कर को तज माधुरी भी। तो भी नहीं ब्रज-धरा-जन के उरों से। उत्फुल्ल-मुर्ति मनमोहन की कढ़ेगी॥141॥ धारा वही जल वही यमुना वही है। है कुंज-वैभव वही वन-भू

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प्रिय प्रवास / पंचदश सर्ग / भाग -1

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मन्दाक्रान्ता छन्द छाई प्रात: सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवों में। कुंजों में थे भ्रमण करते हो महा-मुग्ध ऊधो। आभा-वाले अनुपम इसी काल में एक बाला। भावों-द्वारा-भ्रमित उनको सामने दृष्टि आई॥1॥ नाना ब

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भाग-2

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जूही बोली न कुछ, जतला प्यार बोली चमेली। मैंने देखा दृग-युगल से रंग भी पाटलों का। तू बोलेगा सदय बन के ईदृशी है न आशा। पूरा कोरा निठुरपन के मुर्ति ऐ पुष्प बेला॥21॥ मैं पूछूँगी तदपि तुझसे आज बातें

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भाग -3

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मैंने देखा अधिकतर है भृंग आ पास तेरे। अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है। आ जाती है दृग-युगल में अंधता धूलि-द्वारा। काँटों से हैं उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते॥41॥ क्यों होती है अहह इतनी यातना

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भाग - 4

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तदपि इन सबों में ऐंठ देखी बड़ी ही। लख दुखित-जनों को ए नहीं म्लान होते। चित व्यथित न होता है किसी की व्यथा से। बहु भव-जनितों की वृत्ति ही ईदृशी है॥61॥ अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती। मम दु

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भाग -5

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निरख व्यापकता प्रतिपत्ति की। कथन क्यों न करूँ अयि वंशिके। निहित है तब मोहक पोर में। सफलता, कलता, अनुकूलता॥81॥ मुरलिके कह क्यों तव-नाद से। विकल हैं बनती ब्रज-गोपिका। किसलिए कल पा सकती नहीं। पु

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भाग -6

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परन्तु तू तो अब भी उड़ी नहीं। प्रिये पिकी क्या मथुरा न जायगी? न जा, वहाँ है न पधारना भला। उलाहना है सुनना जहाँ मना॥101॥ वसंततिलका छन्द पा के तुझे परम-पूत-पदार्थ पाया। आई प्रभा प्रवह मान दुखी

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भाग -7

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दृग अति अनुरागी श्यामली-मूर्ति के हैं। युग श्रुति सुनना हैं चाहते चारु-तानें। प्रियतम मिलने को चौगुनी लालसा से। प्रति-पल अधिकाती चित्त की आतुरी है॥121॥ उर विदलित होता मत्त वृध्दि पाती। बहु विलख

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प्रिय प्रवास / षोडश सर्ग / भाग -1

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वंशस्थ छन्द विमुग्ध-कारी मधु मंजु मास था। वसुन्धरा थी कमनीयता-मयी। विचित्रता-साथ विराजिता रही। वसंत वासंतिकता वनान्त में॥1॥ नवीन भूता वन की विभूति में। विनोदिता-वेलि विहंग-वृन्द में। अनूपता

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भाग -2

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प्रसून को मोहकता मनोज्ञता। नितान्त थी अन्यमनस्कतामयी। न वांछिता थी न विनोदनीय थी। अ-मानिता हो मलयानिल-क्रिया॥21॥ बड़े यशस्वी वृष-भानु गेह के। समीप थी एक विचित्र वाटिका। प्रबुद्ध-ऊधो इसमें इन्ह

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भाग -3

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हैं प्यारी औ 'मधुर सुख औ भोग की लालसायें। कान्ते, लिप्सा जगत-हित की और भी है मनोज्ञा। इच्छा आत्मा परम-हित की मुक्ति की उत्तम है। वांछा होती विशद उससे आत्म-उत्सर्ग की है॥41॥ जो होता है निरत तप से

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भाग -4

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मूली-भूता इस प्रणय की बुध्दि की वृत्तियाँ हैं। हो जाती हैं समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणों से। वे होते हैं नित नव, तथा दिव्यता-धाम, स्थायी। पाई जाती प्रणय-पथ में स्थायिता है इसी से॥61॥ हो पाता है

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भाग -5

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छू देती है मृदु-पवन जो पास आ गात मेरा। तो हो जाती परस सुधि है श्याम-प्यारे-करों की। ले पुष्पों की सुरभि वह जो कुंज में डोलती है। तो गंधो से बलित मुख की वास है याद आती॥81॥ ऊँचे-ऊँचे शिखर चित की उ

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जिह्ना, नासा, श्रवण अथवा नेत्र होते शरीरी। क्यों त्यागेंगे प्रकृति अपने कार्य को क्यों तजेंगे। क्यों होवेंगी शमित उर की लालसाएँ, अत: मैं। रंगे देती प्रति-दिन उन्हें सात्तिवकी-वृत्ति में हूँ॥101॥

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भाग -7

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जो बातें हैं भव-हितकरी सर्व-भूतोपकारी। जो चेष्टायें मलिन गिरती जातियाँ हैं उठाती। हो सेवा में निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना। विश्वात्मा-भक्ति भव-सुखदा दासता-संज्ञका है॥121॥ कंगालों की विवश विधवा औ

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प्रिय प्रवास / सप्तदश सर्ग / भाग -1

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ऊधो लौटे नगर मथुरा में कई मास बीते। आये थे वे ब्रज-अवनि में दो दिनों के लिए ही। आया कोई न फिर ब्रज में औ न गोपाल आये। धीरे-धीरे निशि-दिन लगे बीतने व्यग्रता से॥1॥ बीते थोड़ा दिवस ब्रज में एक संवा

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भाग -2

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ये बातें थीं स-जल घन को खिन्न हो हो सुनाती। क्यों तू हो के परम-प्रिय सा वेदना है बढ़ाता। तेरी संज्ञा सलिल-धार है और पर्जन्य भी है। ठंढा मेरे हृदय-तल को क्यों नहीं तू बनाता॥21॥ तू केकी को स्व-छवि

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भाग -3

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वे थीं प्राय: ब्रज-नृपति के पास उत्कण्ठ जातीं। सेवायें थीं पुलक करतीं क्लान्तियाँ थीं मिटाती। बातों ही में जग-विभव की तुच्छता थीं दिखाती। जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनातीं॥41॥ होती मार

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