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भग्नदूत 'अज्ञेय'

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यानन 'अज्ञेय'

26 अध्याय
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2 पाठक
21 जून 2022 को पूर्ण की गई
निःशुल्क

अज्ञेय जी का पूरा नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 में उत्तर प्रदेश के जिला देवरिया के कुशीनगर में हुआ। इस कविता का संदेश है कि व्यक्ति और समाज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए व्यक्ति का गुण उसका कौशल उसकी रचनात्मकता समाज के काम आनी चाहिए। जिस तरह एक दीपक के लिए अकेले जलने से बेहतर है, दीपकों की कतार में जलना। उसी तरह व्यक्ति के लिए समाज से जुड़े रहकर अपने जीवन को सार्थक बनना चाहिए। अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है। उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।” जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। एक लंबी साधना प्रक्रिया से गुजरता है। वह अपने आत्म को उस परम सत्ता में विलीन कर देता है। इसलिए आत्म विसर्जन के जरिये वह स्वयं को परम सत्ता से जोड़ देता है। यही पूरी कविता की मूल संवेदना है 

bhagndut agyey

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पुस्तक के भाग

1

विकल्प

21 जून 2022
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वेदी तेरी पर माँ, हम क्या शीश नवाएँ? तेरे चरणों पर माँ, हम क्या फूल चढ़ाएँ? हाथों में है खड्ग हमारे, लौह-मुकुट है सिर पर पूजा को ठहरें या समर-क्षेत्र को जाएँ? मन्दिर तेरे में माँ, हम क्या दीप जगाए

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पूर्व-स्मृति

21 जून 2022
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पहले भी मैं इसी राह से जा कर फिर-फिर हूँ आया- किन्तु झलकती थी इस में तब मधु की मन-मोहक माया! हरित-छटामय-विटप-राजि पर विलुलित थे पलाश के फूल- मादकता-सी भरी हुई थी मलयानिल में परिमल धूल! पागल-सी भ

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सम्भाव्य

21 जून 2022
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सम्भव था रजनी रजनीकर की ज्योत्स्ना से रंजित होती, सम्भव था परिमल मालति से ले कर यामिनि मंडित होती! सम्भव था तब आँखों में सुषमा निशि की आलोकित होती, पर छायी अब घोर घटा, गिरते केवल शिशराम्बुद मोती!

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क्योंकर मुझे भुलाओगे

21 जून 2022
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 दीप बुझेगा पर दीपक की स्मृति को कहाँ बुझाओगे? तारें वीणा की टूटेंगी-लय को कहाँ दबाओगे? फूल कुचल दोगे तो भी सौरभ को कहाँ छिपाओगे? मैं तो चली चली, पर अब तुम क्योंकर मुझे भुलाओगे? तारागण के कम्पन

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गीति - १

21 जून 2022
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माँझी, मत हो अधिक अधीर। साँझ हुई सब ओर निशा ने फैलाया निडाचीर, नभ से अजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर, किन्तु सुनो! मुग्धा वधुओं के चरणों का गम्भीर किंकिणि-नूपुर शब्द लिये आता है मन्द समीर। थोड़ी

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गीति - २

21 जून 2022
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वे छोड़ दे, माँझी! तू पतवार। आती है दुकूल से मृदुल किसी के नूपुर की झंकार, काँप-काँप कर 'ठहरो! ठहरो!' की करती-सी करुण पुकार किन्तु अँधेरे में मलिना-सी, देख, चिताएँ हैं उस पार मानो वन में तांडव क

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बत्ती और शिखा

21 जून 2022
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मेरे हृदय-रक्त की लाली इस के तन में छायी है, किन्तु मुझे तज दीप-शिखा के पर से प्रीति लगायी है। इस पर मरते देख पतंगे नहीं चैन मैं पाती हूँ अपना भी परकीय हुआ यह देख जली मैं जाती हूँ।

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तुम और मैं

21 जून 2022
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मैं मिट्टी का दीपक, मैं ही हूँ उस में जलने का तेल, मैं ही हूँ दीपक की बत्ती, कैसा है यह विधि का खेल! तुम हो दीप-शिखा, मेरे उर का अमृत पी जाती हो- जला-जला कर मुझ को ही अपनी तुम दीप्ति बढ़ाती हो।

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घट

21 जून 2022
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कंकड़ से तू छील-छील कर आहत कर दे बाँध गले में डोर, कूप के जल में धर दे। गीला कपड़ा रख मेरा मुख आवृत कर दे- घर के किसी अँधेरे कोने में तू धर दे। जैसे चाहे आज मुझे पीडि़त कर ले तू, जो जी आवे अत्य

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अपना गान

21 जून 2022
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 इसी में ऊषा का अनुराग इसी में भरी दिवस की श्रान्ति, इसी में रवि के सान्ध्य मयूख इसी में रजनी की उद्भ्रान्ति; आद्र्र-से तारों की कँपकँपी व्योमगंगा का शान्त प्रवाह, इसी में मेघों की गर्जना इसी में त

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लक्षण

21 जून 2022
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आँसू से भरने पर आँखें और चमकने लगती हैं। सुरभित हो उठता समीर जब कलियाँ झरने लगती हैं। बढ़ जाता है सीमाओं से जब तेरा यह मादक हास, समझ तुरत जाता हूँ मैं-'अब आया समय बिदा का पास।'

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दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब

21 जून 2022
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दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।   तब ललाट की कुंचित अलकों- तेरे ढरकीले आँचल को, तेरे पावन-चरण कमल को, छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब। मैं तो केवल तेरे पथ से उड़ती रज की ढेरी भर के

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प्रश्नोत्तर

21 जून 2022
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प्रिय! मेरे चरणों से पागल-सी ये लहरें टकराती हैं, मेरे सूने उर-निकुंज में क्या कह-कह कर जाती हैं? एक बार तेरे सुन्दर चरणों को जब वे छू लेती हैं 'नहीं पुन: यह भाग्य मिलेगा', यही सोच वे रो देती हैं।

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प्रातः कुमुदिनी

21 जून 2022
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खींच कर ऊषा का आँचल इधर दिनकर है मन्द हसित, उधर कम्पित हैं रजनीकान्त प्रतीची से हो कर चुम्बित। देख कर दोनों ओर प्रणय खड़ी क्योंकर रह जाऊँ मैं? छिपा कर सरसी-उर में शीश आत्म-विस्मृत हो जाऊँ मैं!

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कविता

21 जून 2022
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 मानस-मरु में व्यथा-स्रोत स्मृतियाँ ला भर-भर देता था, वर्तमान के सूनेपन को भूत द्रवित कर देता था, वातावलियों से ताडि़त हो लहरें भटकी फिरती थीं- कवि के विस्तृत हृदय-क्षेत्र में नित्य हिलोरें करती थी

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क्रान्ति-पथे

21 जून 2022
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 तोड़ो मृदुल वल्लकी के ये सिसक-सिसक रोते-से तार, दूर करो संगीत-कुंज से कृत्रिम फूलों का शृंगार! भूलो कोमल, स्फीत स्नेह स्वर, भूलो क्रीडा का व्यापार, हृदय-पटल से आज मिटा दो स्मृतियों का अभिनव संसार!

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रहस्य

21 जून 2022
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मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो, दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो! यदि उस में प्रतिबिम्बित हो मुख सस्मित, सानुराग, अम्लान, 'प्रेम-स्निग्ध है मेरा उर भी', तत्क

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पराजय-गान

21 जून 2022
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 विजय? विजेता! हा! मैं तो हूँ स्वयं पराजित हो आया! जग में आदर पाने के अधिकार सभी मैं खो आया। नहीं शत्रु को शोणित-सिक्त, धराशायी कर आया हूँ, नहीं छीन कर संकुल रण में शत्रु-पताका लाया हूँ। नहीं सु

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दीपावली का एक दीप

21 जून 2022
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दीपक हूँ, मस्तक पर मेरे अग्निशिखा है नाच रही- यही सोच समझा था शायद आदर मेरा करें सभी। किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब स्नेह नि:शेष हुआ- बुझी ज्योति मेरे जीवन की शव से उठने लगा धुआँ नहीं किसी के हृद

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कहो कैसे मन को समझा लूँ

21 जून 2022
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कहो कैसे मन को समझा लूँ? झंझा के द्रुत आघातों-सा, द्युति के तरलित उत्पातों-सा था वह प्रणय तुम्हारा, प्रियतम! फिर क्यों, फिर क्यों इच्छा होती बद्ध इसे कर डालूँ? सान्ध्य-रश्मियों के उच्छ्वासों, ता

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नहीं तेरे चरणों में

21 जून 2022
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कानन का सौन्दर्य लूट कर सुमन इकट्ठे कर के धो सुरभित नीहार-कणों से आँचल में मैं भर के, देव! आऊँगा तेरे द्वार किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार! खड़ा रहूँगा तेरे आगे क्षण-भर मैं चुपका-सा,

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प्रस्थान

21 जून 2022
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रण-क्षेत्र जाने से पहले सैनिक! जी भर रो लो! अन्तर की कातरता को आँखों के जल से धो लो! मत ले जाओ साथ जली पीड़ा की सूनी साँसें, मत पैरों का बोझ बढ़ाओ ले कर दबी उसाँसें। वहाँ? वहाँ पर केवल तुम को लड

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असीम प्रणय की तृष्णा

21 जून 2022
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(1) आशाहीना रजनी के अन्तस् की चाहें, हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें जल-जल कर जब बुझ जाती हैं, जब दिनकर की ज्योत्स्ना से सहसा आलोकित अभिसारिका ऊषा के मुख पर पुलकित व्रीडा की लाली आती है, भर देती

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शिशिर के प्रति

21 जून 2022
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 मेरे प्राण-सखा हो बस तुम एक, शिशिर! छायी रहे चतुर्दिक् शीतल छाया, रोमांचित, ईषत्कम्पित होती रहे क्षीण यह काया; ऊपर नील गगन में, धवल-धवल, कुछ फटे-फटे से, अपने ही आन्तरिक क्षोभ से सकुचे, कटे-कटे

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कवि

21 जून 2022
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एक तीक्ष्ण अपांग से कविता उत्पन्न हो जाती है, एक चुम्बन में प्रणय फलीभूत हो जाता है, पर मैं अखिल विश्व का प्रेम खोजता फिरता हूँ, क्यों कि मैं उस के असंख्य हृदयों का गाथाकार हूँ। एक ही टीस से आँस

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अनुरोध

21 जून 2022
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अभी नहीं-क्षण भर रुक जाओ, महफिल के सुनने वालो! मत संचित हो कोसो, हे संगीत सुमन चुनने वालो! नहीं मूक होगी यह वाणी, भंग न होगी तान टूट गयी यदि वीणा तो भी झनक उठेंगे प्राण!

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