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चौथा बाब-जवानामर्ग

8 फरवरी 2022

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वक्त हवा की तरह उड़ता चला जाता है । एक महीना गुजर गया। जाड़े ने रुखसती सलाम किया और गर्मी का पेशखीमा होली सआ मौजूद हुई । इस असना में अमृतराय नेदो-तीन जलसे किये औरगो हाजरीन की तादाद किसी बार दो –तीन से ज्यादा न थी मगर अब उन्हौंने अहद कर लिया था कि ख्वाह कोई आये या न आये मैं हफ्तेवार जलसे वक्ते मुअययना पर जरुर किया करुँगा।
जलसों के अलावा उन्होंने देहातों मेंजा-बा-जा सलीस हिन्दी में तक़रीर करना शुरु की और अख़बारों में भी इसलाहे-तमद्दुन पर मज़ामीन रवाना किय। उनका तो यह मशगला था, बेचारी प्रेमा का हाल निहायत अबतर था। जिस दिन से उनकी आख़िरी चिट्ठी उसके पास पहुँची थी उसी दिन से वह कैदिए बिस्तर हो रही थी। हर-हर घड़ी रोने से काम था। बेचारी पूर्णा सिरहाने बैठी समझाया करती मगर प्रेमा को मुतलक चैन न आता। व अमृतराय की तस्वीर को घंटों ख़ामोश देखा करती। कभी-कभी उसके जी में आता कि अमृतराय ने जो गत मेरी तसवीर की वही गत मैं उनकी तसवीर की करुँ। मगर फिर यह ख्याल पलटा खा जाता। वह तसवीर को आँखों से लगा लेती, उसका बोसा लेती और उसे सीने से चिमटा लेती। उसके दिमाग में अब कुछ ख़लल आ गया था। रात को घंटों पड़ी अकेली इश्क़-ओ-मुहब्बत की बातें किया करती। जितेन खूतूत अमृतराय ने पहले रवाना किये थे वह उसने अज़ सरे नौ रंगीन कागज पर जली हार्फों मे नक्ल़ कर लिये थे और तबीयत बहुत बेचैन होती तो पूर्णा से वह खुतूत पढ़वाकर सुनती और रोती। हाय, उसने अपने दिल पर ये जुल्म किये मग़र खुद्दारी भी ऐसी निबाही कि जो का हिस्सा था। उसने इस आख़िरी ख़त के बाद अमृतराय को एक ख़त भी न लिखा। घर के लोग उसके इलाज में रुपया ठीकरियों की तरह उड़ा रहे थे मगर कुछ फ़ायदा न होता था। उसकी शादी की बातचीत भी कई जगह से हो रही थी। मुंशी बदरीप्रसाद साहब के जी में बार-बार ये बात आती कि प्रमा को अमृतराय के ब्याह दें मगर शुमातते हमसाया के ख़याल से इरादा पलट देते थे। प्रेमा के साथ-साथ बेचारी पूर्णा भी मरीज बनी हुई थी।
आख़िर होली का दिन आया। शहर में चारों तरफ़ कबीर और होली की आवज़ें आने लगीं। चौतरफ़ा अबीर ओर गुलाल उड़ने लगे। आज का दिन बेचारी प्रेमा के लिए सख्त आज़माइश का था। क्योंकि सबेरेही से कराबतमन्दों के यहाँ से ज़नानी सवारिसयाँ आना शुरु हुई और उसके तूअन ओ करहन पुरतकल्लुफ कपड़े पहन कर मेहमानों की ज़ियाफ़त करना और उनके साथ होली खेलनी पड़ी। मगर हाय, उसके चेहरे से आज वो हसरत बरस रही थी जो इससे पहले कभी नज़र न आयी थी। रह-रहकर उसके कलेजे में कसक पैदा होती, रह-रहकर फ़र्तें इज्तराब से दिल में दर्द उठाता मगर बेचारी बिला ज़बान से उफ़ किये सब कुछ सह रही थी। रोज़ अकेले में रोया करती थीं। जिससे कुछ तसकीन हो जाया करती थी। आज मारे शर्म को रोवे क्योंकर। सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि रोज़ ब रोज़ पूर्णा बैठकर तशफ्फ़ीआमेज़ बातें कर के उसका दिल बहलाया करती। आज वो भी अपनी घर त्योहार मना रही थी।
पूर्णा का मकान पड़ोस में वाक़े था। उसके शौहर बसन्तकुमार एक निहायत हलीम-उल-मिज़ाज मगर शौक़ीन व मुहब्बतपिज़ीर तबीयत के नौजवान थे। हर बात में उसी की बात पर अमल करते। उसको थोड़ा-सा पढ़ाया भी था। अभी शादी हुए दो बरस भी न बीतने पाये थे और ज्यूँ-ज्यूँ दिन गुज़रते थे दोनों की मुहब्बत और ताज़ा होती जाती थी। पूर्णा भी अपनी शौहर की आशिक़े ज़ार थी। अपनी भोली-भोली बातें और अपनी दिलरुबायाना अदाओं से उनका ग़म ग़लत किया करती। जब कभी वह दौरे पर चले जाते तो वो रात भर ज़मीन पर पड़ी करवटें बदलती और रोती। पंडितजी तीस रुपये से ज्यादा मुशहिरेदार न थे मगर पूर्णा इस पर क़ाने थी और अपने को निहायत खुशकिस्मत और ख़याल करती थी। पंडितजी तहसीले ज़रा के लिए बेइन्तहा कोशिशें करते, सिर्फ इसलिए कि पूर्णा को अच्छा से अच्छे कपड़े पहनायें और अच्छे-अच्छे गहनों से आरास्ता करें। पूर्णा हरीस न थी। जब पंडितजी उसको कोई तोहफ़ा देते तो जामें फूली न समाती मगर कभी उसने ख्वाहिशों को पंडितजी से ज़ाहिर नहीं किया था।
हक़ तो ये है कि सच्ची मुहब्बत के मुकाबिले में पहनने-ओढ़ने का शौक कुछ यों ही सा रह गया था। होली का दिन सा आ गया। आज के दिन का क्या पूछना। जिसने साल भर चीथड़ों ही पर बसर किया हो वो आज़-कर्ज़ दाम ढूँढ़कर लाता है और खुशियाँ मानाता है। आज लोग लँगोटी में फाग खेलते है। आज के दिन रंज करना गुनाह है। पंडित बसन्तकुमार की शादी के बाद यह दूसरी होली थी। पहली होली में बेचारे तिहरदस्ती की वज़हसे बीवी की कुछ खातिर न कर सके थे। मगर इस होली के लिए उन्होंने अपनी हैसियत के मुआफिक बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की है। सौ-डेढ़ सौ रुपये जो तनख्वाह के अलावा पसीना बहा-बहाकर वसूल किये थे उनसे अपनी प्यारी पूर्णा के लिए एक खूबसूरत कंगन बनवाया था। निहायत नफ़ीस और खुशरंग साड़ियाँ मोल लाये थे। इसके अलावा चन्द दोस्तों की दावत भी की थी और उनके वास्ते कई किस्म के मुरब्बे, अचार, लौज़ियात वग़ैरह मुहैया किये थे। पूर्णा आज मारे खुशी के जामे में फूली न समाती थी। उसकी नज़रों में आज अपने से ज्यादा खूबसूरत दुनिया में कोई औरत नहीं थी। वो बार-बार शौहर की तरफ प्यार भरी निगाहों से देखती और पंडितजी भी उसके सिंगार और फबन पर आज ऐसे शैदा हो रहे थे कि बार-बार घर में आते और उसको गले से लगाते।
कोई दस बजे होंगे कि पंडितजी घर में आये पूर्णा को बुलाकर मुस्कराते हुए बोले-प्यारी, आज तो जी चाहता है तुमको आँखों मे बिठा लूँ।
पूर्णा ने आहिस्ता से एक ठोका देकर और प्यार की निगाहों से देखकर कहा—वह देखो मैं तो पहले से ही बैठी हूँ।
इस अदा पर पंडितजी अज़खुरफ़ता हो गये, झट बीवी को गले से लगाकर प्यार किया। ज़रा और देर हुई तो पूर्णा ने कहा-अब दस बजा चाहते हैं, जरा बैठ जाओ तो तुमको उबटन मल दूँ। देर हो जायगी तो खाने में देर-सबेर होने से सरदर्द हा जायगा।
पंडितजी ने कहा—नहीं-नहीं रहने दो मैं उबटन न लगाऊँगा। लाओ धोती दो, नहा आऊँ।
पूर्णा—वाह, उबटन न मलवायेंगे आज की रीत ही यह है। आकर बैठ जाओ।
पंडितजी—नहीं, तुमको ख़ामका तकलीफ़ होगी और इस वक्त़ गर्मी है, जी नहीं चाहता।
पूर्णा न लपकर शौहर का हाथ पकड़ लिया और चारपाई पर बैठकर उबटन मलने लगी।
पंडित—मगर भई, जरा जल्दी करना। आज मैं गंगाजी नहाने जाया चाहता हूँ।
पूर्णा—अब दोपहर को गंगाजी कहाँ जाओं। महरी पानी लायेगी, यहीं पर नहा लो।
पंडित—नहीं प्यारी अज गंगा में बड़ा लुत्फ़ आयेगा।
पूर्णा—अच्छा तो जरा जल्दी लौट आना, यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।
थोड़ी देर में पंडितजी उबटन मलवा चुके और एक रेशमी धोती, साबुन तौलिया और कमंडल मे लेकर नहाने चले। वह बिउमूम घाट से ज़रा अलग नहाया करते थे। पहुँचते ही नहाने लगे मगर आज ऐसी धीमी-धीमी हवा चल रही थी, पानी ऐस साफ़ और शफ्फाफ था, उसमें हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे और दिल ऐसी उमंगों पर था कि बेअख्तियार जी तैरने पर ललचाया। वह बहुत अच्छे तैराक थे, लगे तैरने। और खुशफ़ेलियाँ करने। दफ़अतन उनको बीच धारे में दो सुर्ख चीज़ बहती नज़र आई। गौर से देखा तो कँवल के फूल थे। दूर से ऐसे खुशनुमा मालुम होता थे कि बसन्तकुमार का जी उन पर लहराया। सोचा, अगर ये मिल जाये तो प्यारी पूर्णा के कानों के लिए झुमका बनाऊँ। लहीम व शहीम आदमी थे, हजारों बार घंटों मुतवातिर तैयार चुके थे। उनको कमिल था कि फूल ला सकता हूँ। दूर से फूल साकित मालूम होते थे, चुनांचे उनकी तरफ़ रुख किया मगर ज्यूँ-ज्यूँ वो तैरते थे फूल बहते जाते थे। बीच में कोई रेत ऐसा न था जिस पर बैठकर दम लेते। फर्ते जोश में उनको ये ख्याल गुजरा अगर आज़ा फूलों तक पहुँचते शलल हो गये तो लूँगा क्योकर। पूरे जोर से तैरना शुरु किया। कभी हाथों से कभी पैरों से ज़ोर मारते-मारते बड़ी मुशकिलों से धारों तक पहुँचे मगर उस वक्त़ तक हाथ-पांव दोनों थक गये थे, हत्ता कि फूलों के लेने के लिए जो हाथ लपकाना चाहा तो वो काबू में न थे। जब तक हाथ फैलाये कि फूल एक-दो क़दम और बहे फिर उनके पीछे चले। आखिर उस वक्त़ फूल हाथ लगे जब कि हाथों में तैरने की ताकत मुतलक न बाकी रही थी। हाय फूल दॉँतों से दबाये सोते से उन्होंने किनारे की तरफ देखा तो एसा मालूम हुआ गयो हज़ारो कोश की मंजिल है। उनका हौसला परस्त हो गया। हाथों मे ज़रा भी ताकत न थी। मालूम होता था कि वह जिस्म में है ही नहीं। हाय, उस वक्त़ बसन्तकुमार के चेहरे पर जो हसरत व बेबसी छायी हुई थी उसको ख़याल करने ही से छाती फटती है। उनको मालूम हुआ कि मैं डूबा जा रहा हूँ। उस वक्त़ प्यारी का ख़याल आया कि वो मेरा इन्तज़ार कर रही होगी। उसकी प्यारी-प्यारी मोहनी सूरत नज़रों के सामने खड़ी हो गयी। उन्होंने चाहा कि चिल्लाऊँ मगर बावजूद कोशिश के ज़बान से आवाज़ न निकली। आँखों से आँसू जारी हो गये और अफ़सोस एक मिनट में गंगामाता ने उनको हमेशा के लिए गोद मे ले लिया।
उधर का हाल सुनिए। पंडित जी चले आने के बाद पूर्णा ने बड़े तकल्लुफ से थालें परसी। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें दो-चार क़तरे खुशबूयात के टपकाये। पंडित जी के लिए सन्दूक से नये कुर्ते निकाले, टोपी बड़ी खूबी से चुनी। आज पेशानी पर ज़ाफ़रान और चन्दन मलना मुबारक समझा जाता है, चुनांचे उसेन अपने नाजुक-नाजुक हाथों से चन्दन रगड़ा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर तशतरी में रखे। रात ही का प्रेमा के घर से खुशबूदार कलियाँ लेती आयी थी, उनको तर कपड़े से ढॉँकर रख दिया था, इस वक्त़ खूब खिल गयी थीं। उनकों तागे में गूँथकर ख़ूबसूरत हार तैयार किया। अपने शौहर का इन्तजार करने लगी। उसके अंदाज के मुताबिक़ उस वक्त़ तक पंडित जी को नहाकर आ जा ना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं हुई, आते होगे, एक दस मिनट और रास्ता देख लूँ। अब इन्तिशार हुआ। क्या करने लगे। धूप सख्त हो रही है। लौटते वक्त़ नहाया-बेनहाया एक हो जायगा। क्या जने यार दोस्तों से बातें करने लग गये हों। नहीं-नहीं, मैं उनको खूब जानती हूँ, दरिया नहाने जाते है तो तैरने की सूझती है। आज भी तैर रहे होंगे। ये सोचकर उसने कामिल आधा घंटे तक शौहर का और इन्तज़ार किया मगर जब से अब भी न आये तो उसको ज़रा बेचैनी मालूम होने लगी। महरी ने कहा—बिल्लों, जरा दौड़ों तो, जाओ, देखो क्या करने लगे।
महरी बड़ी नेकबखत बीवी थी। हर महीने में बिला माँगे तनख्वाह पाती थी और शायद ही कोई ऐसा दिन जाता था कि पूर्णा उसके साथ कुछ सलूक न करती हो। पस वो उन दोनों को बहुत अज़ीज रखती थी, फ़ौरन लपकी हुई गंगाजी की तरफ़ चली। वहाँ जाकर क्या देखती है कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा है। पंडितजी, की धोती-तौलिया वग़ैरह किनारे धरी है। ये देखते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गये। दिल धड़-धड़ करने लगा। या नारायण, यह क्या ग़जब हो गया। बदहवासी के आलम में नज़दीक पहुँची तो एक मल्लाह ने कहा-काहे बिल्लो तुम्हारा पंडित नहाये आवा रहेन?
बिल्लो ने कुछ जवाब न दिया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। सर पीटने लगी। मल्लाहों ने उसको समझाया कि अब रोये पिटे का होत है। उनका चीज बस्त लेव और घर का जावा। बेचारे बड़े भल मनई रहेन।
बेचारी बिल्लो ने पंडितजी की चीज़ेंली’ और रोती-पीटती घर की तरफ़ चली। ज्यूँ-ज्यूँ वो मकान के करीब आती थी त्यूँ-त्यूँ उसके कदम पीछे को हटे जाते थे। हाय नारायण, पूर्णा को कैसे ये ख़बर सुनाऊँ उसकी क्या गत होगी। बिचरिया सब तैयारी किये शौहर का इन्तज़ार कर रही है, ये खबर सुनकर बेचारी की छाती फट जायगी।
इन्हीं ख़यालात में ग़र्क बिल्लों रोती घर में दाख़िल हुई। तमाम चीजें’ ज़मीन पर पटका दी’ और छाती पर दुहत्तड़ मार हाय-हाय करने लगी। ग़रीब पूर्णा आज ऐसी ख़ुश थी कि उसका दिल आज उमंगों और अरमानों से ऐसा भरा हुआ था कि यकाय इस सदमए जाँकह की ख़बर ने पहुँचकर उसको महमूब कर दिया। वह न रायी न चिल्लायी न बेहोश होकर गिरी, जहाँ खड़ी थी वही दो-तीन मिनट तक बेहिस-ओ-हरकत खड़ी रही। यकायक उसके हवास हुए और उसको अपनी हालत का अन्दाज़ करने की क़ाबलियत हुई और तब उसने एक चीख़ मारी और पछाड़ा खाकर गिरने ही को थी कि बिल्लो ने उसको चारपाई पर लिटाकर पंखा झलने लगी। दस-पंद्रह मिनट में पस-पड़ोस की सदहा औरतें अन्दर जमा हो गयीं। बाहर भी बहुत से मर्द इकट्ठा हो गये। तजवीज़ हुई किजाल डलवाया जावे। बाबू कमलाप्रसाद भी तशरीफ़ लोये थे। फ़ौरन पुलिस को इत्तिला करके मदद मँगवयी। प्रेमा का ज्यूँ ही इस हादसए रुह-फ़र्सा की ख़बर मिली पैर तले से मिट्टी निकल गयी। फ़ौरन चादर ओढ़ ली और बदहवास ज़ीने से उतरी और गिरती-पड़ती पूर्णा के मकान की तरफ़ चली। हर चंद माँ ने रोका मगर उसने न माना। जिस वक्त़ प्रेमा पहुँची है पूर्णा के हवास बजा हा गये थे और वो निहायत दिल हिला देनावाली आवाज़ में रो रही थी। घर में सैकड़ों औरतों जमा थी’ मगर कोई ऐसी न थी जिसकी आँखों से आँसू न बह रहे हों। हाय, गरीब पूर्णा की हालत वाकई काबिले तरस थी। अभी एक घंटे पहले वो अपने को दुनिया की सबसे खुशकिस्मत औरतों में समझती थी मगर हाय, अब उसका-सा बदनसीब कोई न होगा। बेचारी समझाने से ज़रा ख़ामोश हो जाती मगर ज्यूँ ही कोई बात याद आ जाती त्यूँही फिर दिल फिर उमर आता और ऑसू की झड़ी लग जाती। हाय, क्या एक-दो बात करने की थी। उसने दो बरस तक अपने प्यारे शैहर की मुहब्बत का मज़ा लूटा था। उसकी एक-एक बात उसको याद आती जाती थी। आज उसने चलते-चलाते कहा था—प्यारी पूर्णा, जी चाहती है तुझको आँखों में बिठा लूँ। अफ़सोस अबा कौन प्यार करेगा। उस रेश्मी धोती और तौलिया की तरफ़ उसकी निगाह गयी तो बड़ी जोर से चीख़ उठी। यकायक प्रेमा को देखता तो झपटकर उठी और उसके मिलकर ऐसे दिलख़राश लहेजे में रोयी कि अन्दर तो बाहर मुंशी बदरीप्रसाद साहब, बाबू कमलाप्रसाद और दीगर हज़रात आँखों से रूमाल दिये बेअख्तियार रो रहे थे। प्रेमा बेचारी का महीनो रोते-रोते गलाबैठ गया था। हाँ, उसकी आँखो से आँसू बह रहे थे। पहले वो समझती थीकि मैं ही सारे जमाने मे बदकिस्मत हूँ मगर उस वक्त वो अपना दुख भूल गयी और बड़ी मुश्किल से जब्त करके बोली—प्यारी पूर्णा, ये क्या ग़जब होगया।
बेचारी पूर्णा कीहालत वासकई दर्दनाक थी। उसकी जिंदगी का बेड़ा पार लगानेवाला कोई न था। उसके मैके में बजुज़ एक बूढ़े बाप के औरकोई न था और वो बेचारा भी आज-कल का मेहमान हो रहा था। ससुराल में सिर्फ शौहर से नाता था, न सास न ससुर, न खेश न अकारिब, कोई चुल्लू भर पानी देनेवाला न था। असासा भी घर में कुछ न था कि जिंदगी भर कोकाफी होता। बेचारा शौहर अभी कुलदो बरस से नौकरी कर रहा था और आमदनी से खर्च किसीतरह कम न था। रूपया कहॉ सेजमा होता। पूर्णा को अभी तक ये सब बातें नहीं सूझी थीं। अभी उसको सोचने का मौका ही न मिला था। हाँ, बाहर मर्दाने में लोग में इस उम्र पर बातचीत कर रहे थे।
दो-ढाई घंटे तक तो उस मकान में औरतों का खूब हुजूम था। रोना-पीटना मचा था मगर शाम होते-होते सब औरतें अपने-अपने घरगयी। बेचारी प्रेमा को गश पर गश आने लगे थे इसलिए लोग वहाँ सेपालकी पर उठाकर ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उसमकान में बजुज बिल्लों और पूर्णा केकोई न था। हाय, यही वक्त था कि बसंतकुमार दफ्तर से आते। पूर्णा उस वक्त दरवाजे पर खड़ी उनकी राह देखा करती थी और उनको देखते ही लपककर उनके हाथों से छतरी ले लेती थी।रोज़ उनके लिए जलेबियाँ लाकर घर देती थी। जब तक वो मिठाइयाँ खाते थे वो झटपट पान के बीडे लगाकर देती थी। वो आशिक जार दिन भर का थका-माँदा बीवी कीइन खातिरों से अपनी तमाम तकलीफों को भूलजाता। कहाँ वह मर्सरत अफजा खिदमते और कहाँ आज ये सन्नाटा। तमाम घर भायँ-भायँ कर रहा था। दीवारे काटने को दौड़ती थी। मालूम होता था कि दरो दीवार पर हसरत छायी है। बेचारी पूर्णा आँगन में खामोश बैठी थी। उसके कलेजे में अब रोने कीकूवत नहीं। हाँ, आँखो से आँसू के तार जारी है। उसको मालूम होता है किकोई दिल सेखून चूस रहाहै। उसके महसूसात कोबयान करने ही हमारी जबान में कूवत नहीं। हाय, इसवक्त पूर्णा पहचानी नहींजाती। उसका चेहरा जर्दहोगया है। होंठो पर पपड़ी छायी है। ऑखे सूज आयी है। सर के बाल खुलकर पेशानी पर आ गिरे है। रेशमी साडी फटकर तार-तार हो गयी है। जिस्म पर जेवर एक भीनहीं है। चूडियाँ टूटकर चकनाचूर हो गयी है। वो हसरत, हिर्मानसीबी, मातम की मुजस्सम तसवीर होरहीहै। उसकी ये हालत और भी नाकरबिले बर्दाश्त हो रही है क्याकि कोई उसको तसकीन देनेवाला नहीं है। ये सब कुछ होगया है मगर पूर्णा अभी तक कुल्ली तौर पर मायूस नहीं हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे है कि कही कोई उनके सही व सलामत निकलने की खबर न लाता हो। अलमजदा दिलो का यही हाल होता है। उनकी आस टूट जाने पर भी बँधी रहती है।
शाम होते-होते इस पुरहसरत वाकये की खबर सारेशहर में गूँज उठी। तो सुनता था अफसोस करता था। बाबू अमृतराय कचहरी से आ रहे थे किरास्ते में उनको ये खबर मिली। वो बसंत कुमार को बखूबी जानते थे। उन्हीं की सिफारिश से पंडितजी को दफ्तर में वो जगह मिली थी। सख्त अफसोस हुआ। मकान परआते हीकपड़े बाइसिकिल पर सवार होपूर्णा के मकान कीतरफ पहुचे जाकर देखा तो चौतरफ सन्नाटा छाया हुआ है। दरो-दीवार से सन्नाटा बरस रहा है। पूर्णा ऐसी ही आवाजें के सुनने कीआदी हो रही है।रोज इसी वक्त वो उनके जूते की आवाज कान लगाकर सुना करती थी। चुनांचे इसवक्त ज्यूही उसने जूते की आवाज सुनी वो हैरत-अंग्रेज तेजी से दरवाजे की तरफ दौड़ी। नहीं मालूम उसको क्या ख्याल हुआ। किस उम्मीद परदौड़ी। मगर ज्यूही दरवाजे परआयी और बजाये अपने प्यारे शौहर के बाबू अम़तराय कोदेखा त्यूही हवास बजा हो रहे। शम से सर झुकालिया और रोती हुई उल्टे कदम वापस हुई। ऐसी मुसीबत के वक्तों पर हमदर्द कीसूरत गिरिया ओ जारी के लिए गोया एक बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय यहाँ बहुत कम आया करते थे। इस वक्त उनके आने से पूर्णा के दिल पर एक ताजा सदमा पहुचाया। दिल फेर उमँड़ आया और बावजूद हजार जब्त के आँखो से आँसू बहने लगे और ऐसा फूट फूटकर रोयी किबाबू अमृतराय जोफितरतन निहायत रकीक उल कल्ब आदमी थे अपने गिरिया को जब्त न कर सके। उस वक्त तक महरी बाहर आ गयी थी। उसने अमृतराय को बैठने के लिए एक कुर्सी दी और सर नीचा करके रोने लगी।
अमृतराय ने महरी को दिलासा दिया। उसको पूर्णा की खबरगीरी ताकीद की। देहलीज मेंखड़े होकर पूर्णा को समझाया और उसको हर तरह मदद देने का वादा करके चिराग जलते-जलते अपने बँगले की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा गशोंसे बाज़याफ्त पाकर महताबी पर हवा खाने निकली थी। उसकी निगाह पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थी। उसके किसी को उसकेघर से निकलते देखा। गौर सेदेखा तो पहचान गयी। हाय, यह तो अमृतराय है। करके चिराग जलते-जलते अपने बँगले की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा गशोंसे बाज़याफ्त पाकर महताबी पर हवा खाने निकली थी। उसकी निगाह पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थी। उसके किसी को उसकेघर से निकलते देखा। गौर सेदेखा तो पहचान गयी। हाय, यह तो अमृतराय है। 

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रचनाएँ
हमखुर्मा व हमसवाब
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संध्या का समय है, डूबने वाले सूर्य की सुनहरी किरणें रंगीन शीशो की आड़ से, एक अंग्रेजी ढंग पर सजे हुए कमरे में झॉँक रही हैं जिससे सारा कमरा रंगीन हो रहा है। अंग्रेजी ढ़ंग की मनोहर तसवीरें, जो दीवारों से लटक रहीं है, इस समय रंगीन वस्त्र धारण करके और भी सुंदर मालूम होती है।
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दूसरा बाब-हसद बुरी बला है

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लाल बदरीप्रसाद साहब अमृतराय के वालिद मरहूम के दोस्तों में थे और खान्दी इक्तिदार, तमव्वुल और एजाज के लिहाज से अगर उन पर फ़ौकियत न रखते थे तो हेठ भी न थे। उन्होंने अपने दोस्त मरहूम की जिन्दगी ही में अमृ

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तीसरा बाब-नाकामी

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बाबू अमृतराय रात-भर करवटें बदलते रहे । ज्यूँ-2 वह अपने इरादों और नये होसलों पर गौर करते त्यूँ-2 उनका दिल और मजबूत होता जाता। रौशन पहलुओं पर गौर करने के बाद जब उन्हौंने तरीक पहलूओं को सोचना शुरु किया त

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छठा बाब-मुए पर सौ दुर्रे

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पूर्णा ने गजरा पहन तो लिया मगर रात भर उसकी आँखो में नींद नहीं आयी। उसकी समझ में यह बात न आती थी कि बाबू अमृतराय ने उसको गज़रा क्यों दिया। उसे मालूम होता था किपंडित बसंतकुमार उसकी तरफ निहायत कहर आलूद न

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सातवाँ बाब-आज से कभी मंदिर न जाऊँगी

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बेचारी पूर्णा पंडाइन व चौबाइन बगैरहूम के चले जाने के बाद रोने लगी। वो सोचती थी कि हाय, अब मै ऐसी मनहूस समझी जाती हूँ कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत से नफरत है। अभी नहीं मालूम क्या

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आठवाँ बाब-देखो तो दिलफ़रेबिये अंदाज़े नक्श़ पा मौजे ख़ुराम यार भी क्या गुल कतर गयी। बेचारी पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मन्दिर कभी न जाऊँगी। ऐसे मन्दिरों पर इन्दर का बज़ भी गिरता। उस दिन से वो सारे दिन

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नवाँ बाब-तुम सचमुच जादूगार हो

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बाबू अमृतराय के चले जाने के बाद पूर्णा कुछ देर तक बदहवासी के आलम में खड़ी रही। बाद अज़ॉँ इन ख्यालात के झुरमुट ने उसको बेकाबू कर दिया। आखिर वो मुझसे क्या चाहते है। मैं तो उनसे कह चुके कि मै आपकी कामया

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दसवाँ बाब-शादी हो गयी

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तजुर्बे की बात कि बसा औकात बेबुनियाद खबरें दूर-दूर तक मशहूर हो जाया करती है, तो भला जिस बात की कोई असलियत हो उसको ज़बानज़दे हर ख़ासोआम होने से कौन राक सकता है। चारों तरफ मशहूर हो रहा था कि बाबू अमृतरा

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ग्यारहवाँ बाब-दुश्मन चे कुनद चु मेहरबाँ बाशद दोस्त

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मेहमानों की रूखमती के बाद ये उम्मीद की जाती थी कि मुखालिफीन अब सर न उठायेगें। खूसूसन इस वजह से कि उनकी ताकत मुशी बदरीप्रसाद और ठाकुर जोरावर सिंह के मर जाने से निहायत कमजोर-सी हो रही थी। मगर इत्तफाक मे

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बारहवाँ बाब-शिकवए ग़ैर का दिमाग किसे यार से भी मुझे गिला न रहा।

8 फरवरी 2022
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प्रेमा की शादी हुए दो माह से ज्यादा गुजर चुके है। मगर उसके चेहरे पर मसर्रत व इत्मीनान की अलामतें नजर नहीं आतीं। वो हरदम मुतफ़क्किर-सी रहा करती है। उसका चेहरा जर्द है। आँखे बैठी हुई सर के बाल बिखरे, पर

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तेरहवाँ बाब-चंद हसरतनाक सानिहे

8 फरवरी 2022
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हम पहले कह चुके है कि तमाम तरद्दुदात से आजादी पाने के बाद एक माह तक पूर्णा ने बड़े चैन सेबसर की। रात-दिन चले जाते थें। किसी क़िस्म की फ़िक्र की परछाई भी न दिखायी देते थी। हाँ ये था कि जब बाबू अमृतराय

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