[जैनब अपने खेमे में बैठी हुई है। शाम का वक्त]
जैनब– (स्वगत) अब्बास और अली अकबर के सिवा अब भैया के कोई रकीफ़ बाकी नहीं रहे। सब लोग उन पर निसार हो गए। हाय, कासिम-सा जवान, मुसलिम के बेटे, अब्बास के भाई, भैया इमाम हसन के चारों बेटे, सब दाग़ दिए गए। देखते-देखते हरा-भरा बाग वीरान् हो गया, गुलजार बस्ती उजड़ गई। सभी माताओं के कलेजे ठंडे हुए। बापों के दिल बाग़-बाग़ हुए। एक में ही बदनसीब नामुराद रह गई। खुदा ने मुझे भी दो बेटे दिए हैं, पर जब वे काम ही न आए, तो उनको देखकर जिगर क्या ठंडा हो। इससे तो यही बेहतर होता कि मैं बांझ ही रहती। तब यह बेवफ़ाई का दाग़ तो माथे पर न लगता। हुसैन ने इन लड़कों को अपने लड़कों की तरह समझा, लड़कों की तरह पाला, पर वे इस मुसीबत में, तारीकी में, साए की तरह साथ छोड़ देते हैं, दग़ा कर रहे हैं।
हां, यह दग़ा नहीं, तो और क्या है? आखिर भैया अपने दिल में क्या समझ रहे होंगे। कहीं यह खयाल न करते हों कि मैंने ही उन्हें मैदान जाने से मना कर दिया है। यह खयाल न पैदा हो कि मैं उनके साथ अपनी गरज निकालने के लिए जमानासाजी कर रही थी। आह! उन्हें क्योंकर अपना दिल खोलकर दिखा दूं कि वह उनके लिए कितना बेकरार है, पर अपने लड़कों पर काबू नहीं। जाओ, जैसे तुमने मेरे मुंह में कालिख लगाई है, मैं भी तुम्हें दूध न बख्शूंगी। ये इतने कम हिम्मत कैसे हो गए। जिसका नाना रण में तूफान पैदा कर देता था, जिनके बाप की ललकार सुनकर दुश्मनों के कलेजे दहल जाते थे, वे ही लड़के इतने वादे, पस्तहिम्मत हों। यह मेरी तकदीर की खराबी, और क्या! जब रण में जाना ही नहीं, तो वे हथियार सजाकर क्यों मुझे जलाते हैं। भैया को कौन-सा मुंह दिखाऊंगी, उनके सामने आंखें कैसे उठाऊंगी।
[दोनों लड़कों का प्रवेश]
औम– अम्माजान, आप हमारा फैसला कर दीजिए। मैं पहले रण में जाता हूं, पर यह मुझे जाने नहीं देता, कहता है पहले में जाऊंगा। सुबह से यही बहस छिड़ी हुई है, किसी तरह छोड़ता ही नहीं। बताओ, बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई शहीद हो, यह कहां का इंसाफ है?
मुहम्मद– तो अम्माजान, यह कहां का इंसाफ है कि बड़ा भाई तो मरने जाये, और छोटा भाई बैठा उसकी लाश पर मातम करे। अम्मा, आप चाहे खुश हों या नाराज, यह तो मुझसे न होगा। शायद इनका यह ख्याल हो कि मैं जब क़ाबिल नहीं हूं। छोटा हूं, क्या जवाब दूं, लेकिन खुदा चाहेगा, तो–
एक हमले में गर हम उलट दें सफ़े लश्कर,
फिर दूध न अपना हमें तुम बख्शियो मादर!
शह के क़दमे-पाक पै सिर देके फिरेंगे,
या रण से सिरे-शिम्रोउमर लेके फिरेंगे।
अम्माजान, आप न मेरी खातिर कीजिए न इनकी, इंसाफ़ से फरमाइये पहले किसको जाने का हक है?
जैनब– अच्छा, तुम लोगों के रण में जाने का यह मतलब था। मैं कुछ और समझ रही थी। प्यारो, तुम्हारी मां ने तुम्हारी दिलेरी पर शक किया, इसे माफ करो। मालूम नहीं, मुझे क्या हो गया था कि मेरे दिल में तुम्हारी तरफ से ऐसे बसबसे पैदा हुए। लो, मैं झगड़ा चुकाए देती हूं। तुम दोनों खुदा का नाम लेकर साथ-साथ सिधारो, और दिखा दो कि तुम किसी शब्बीर की उल्फ़त में कम नहीं हो। मेरी और मेरे खानदान की आबरू तुम्हारे हाथ है।
शेरों के लिए नंग है तलवार से डरना,
मैदान में तन-मन के सिपर सीनों को करना।
हर जख्म पै दम उलफ़ते-शब्बीर का भरना,
कुरबान गई जीने से, बेहतर है वह मरना।
दुनिया में भला इज्जते-इस्लाम तो रह जाय,
तुम जीते रहो, या न रहो, नाम तो रह जाय।
नाना की तरह कौन बग़ा करता है देखूं?
सिर कौन हजारों के जुदा करता है देखूं?
हक़ कौन बहुत मां का अदा करता है देखूं?
एक-एक सफ़े-जंग में क्या करता है देखूं?
दिखलाइयों हाथों से सफाई का तमाशा,
मैं परदे से देखूंगी लड़ाई का तमाशा।
यह तो मैं जानती हूं कि तुम नाम करोगे, पर कमसिन बहुत हो, इसलिए समझती हूं। जाओ, तुम्हें खुदा को सौंपा।
[दोनों मैदान की तरफ जाकर लड़ते हैं, और जैनब परदे की आड़ से देखती है। शहरबानू का प्रवेश।]
शहरबानू– है-है, बहन, यह तुमने क्या सितम किया? इन नन्हें-नन्हें बच्चों को रण में झोंक दिया। अभी अली अकबर बैठा ही हुआ है, अब्बास मौजूद ही है, ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी?
जैनब– वे किसी के रोके रुकते थे? कल ही से हथियार सजे मुंतजिर बैठे है। रात-भर तलवारें साफ की गई है और यहां आए ही किसलिए थे। जिन्दगी बाकी है, तो दोनों फिर आएंगे। मर जाने का ग़म नहीं, आखिर किस दिन काम आते। जिहद में छोटे-बड़े की तमीज़ नहीं रहती। मैं रसूल पाक को कौन मुंह दिखाती।
शहरबानू– देखो, हाय-हाय, दोनों के दुश्मनों को किस तरह घेर रखा है। कोई जाकर बेचारों को घेर भी नहीं लेता। शब्बीर भी बैठे तमाशा देख रहे हैं। यह नहीं कि किसी को भेज दें। हैं तो जरा-जरा से, पर कैसे मछलियों की तरह चमकते फिरते है! खैर अच्छा हुआ, अब्बास दौड़े जा रहे हैं।
[अब्बास का मैदान की तरफ दौड़े हुए आना।]
जैनब– (खेमे से निकलकर) अब्बास, तुम्हें रसूल पाक की कसम है, जो उन्हें लौटाने जाओ। हां, उनका दिल बढ़ाते जाओ। क्या मुझे शहादत के सवाब में कुछ भी देने का इरादा नहीं है? भैया तो इतने खुदग़रज कभी न थे!
[दोनों भाई मारे जाते हैं। हुसैन और अब्बास उनकी लाश उठाने जाते हैं, और जैनब एक आह भरकर बेहोश हो जाती है।]