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ध्यान योग-(अध्याय-06)

22 अप्रैल 2022

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साधना – सूत्र

यहां प्रस्तुत हैं ओशो के विभिन्न साधकों को संकेत कर व्यक्तिगत रूप से लिखे गए साधना-संबंधी इक्कीस पत्र।

ये पत्र “प्रेम के फूल, ढाई आखर प्रेम का, अंतर्वीणा, पद घुंघरू बांध, तत्वमसि तथा टरनिंग इन, गेटलेस गेट, दि साइलेंट म्यूज़िक, व्हाट इज़ मेडीटेशन” आदि विविध पत्र-संकलनों से चुने गए हैं।

इन पत्रों में साधना सूत्रों की ओर सूक्ष्म इशारे हैं।

तीन सूत्र—साक्षी-साधना के

साक्षी-भाव की साधना के लिए इन तीन सूत्रों पर ध्यान दो–

संसार के कार्य में लगे हुए श्वास के आवागमन के प्रति जागे हुए रहो। शीघ्र ही साक्षी का जन्म हो जाता है।

भोजन करते समय स्वाद के प्रति होश रखो। शीघ्र ही साक्षी का आविर्भाव होता है।

निद्रा के पूर्व जब कि नींद आ नहीं गयी है और जागरण जा रहा है–सम्हलो और देखो। शीघ्र ही साक्षी पा लिया जाता है।

चेतना के प्रतिक्रमण का रहस्य-सूत्र

अंधकार बाहर ही है। भीतर तो सदा ही आलोक है। ध्यान बहिर्गामी है तो रात्रि है। ध्यान अंतर्गामी बने तो रात्रि दूर हो जाती है, और सुबह का जन्म हो जाता है। बाहर से हटाएं मन को। मुड़ें भीतर की ओर। शब्द से न रहें–मौन हो। विचार से विश्राम लें–शून्य हो। बाह्य को भूलें–और स्मरण करें उसका जो भीतर है। जब भी समय मिले–चेतना की धारा को भीतर की ओर ले चलें। सोते समय–सोने के पूर्व आंखें बंद करें और भीतर देखें। जागते समय–ज्ञात हो कि नींद टूट गयी है तो आंखें न खोलें–पहले देखें भीतर। और धीरे-धीरे चेतना के क्षितिज पर सूर्योदय हो जाएगा। और जिसके भीतर प्रकाश है, फिर उसके बाहर भी अंधकार नहीं रह जाता है।

निद्रा में जागरण की विधि—जागृति में जागना

जागृति में ही जागें। निद्रा या स्वप्न में जागने का प्रयास न करें। जाग्रत में जागने के परिणाम स्वरूप ही अनायास निद्रा या स्वप्न से भी जागरण उपलब्ध होता है। लेकिन उसके लिए करना कुछ भी नहीं है। कुछ करने से उसमें बाधाएं ही पैदा हो सकती हैं। निद्रा तो जागरण का प्रतिफलन है। जो हम जागते में हैं, वही हम सोते में हैं। यदि हम जागते में ही सोए हुए हैं, तो निद्रा भी निद्रा है। जागते में विचारों का प्रवाह ही सोते में स्वप्नों का जाल है। जागने में जागते ही निद्रा में भी जागरण का प्रतिफलन शुरू हो जाता है। जागते में विचार नहीं तो फिर सोते में स्वप्न भी मिट जाते हैं।

ब्रह्म का मौन-संगीत

ध्वनि से ध्वनिशून्यता में जाना मार्ग है।

धीरे-धीरे ओऽम जैसी ध्वनि का सुर उच्चार करो।

और जैसे ध्वनि शून्यता में प्रवेश करे

वैसे ही तुम भी कर जाओ,

या किन्हीं दो ध्वनियों के अंतराल में ठहरो।

और तुम स्वयं ध्वनि-शून्यता हो जाओगे।

या, एक झरने की अनवरत ध्वनि में नहाओ–

या किसी अन्य की।

या, कानों में अंगुलियां डालकर सब ध्वनियों की

उदगम ध्वनि को सुनो।

और तब अकस्मात तुम्हारे ऊपर

ब्रह्म के मौन-संगीत का विस्फोट हो जाएगा।

किसी भी ढंग से ध्वनि-शून्यता

के खड्ड में गिर जाओ–

और तुम प्रभु को पा लोगे।

सुनने की कला

जो भी मैं कहता हूं, उसमें नया कुछ नहीं है। न ही उसमें कुछ भी पुराना है। या वह दोनों है–पुराने से पुराना और नए से नया। और यह जानने के लिए तुम्हें मुझे सुनने की जरूरत नहीं। ओह! सुनो प्रातः पक्षियों के कलरव को–या फूलों को और धूप में चमकती घास की बालियों को–और तुम उसे सुन लोगे। और यदि तुम्हें सुनना नहीं आता, तो तुम मुझसे भी न जान सकोगे। इसलिए वास्तविक बात यह नहीं है कि तुम क्या सुनते हो–वरन तुम कैसे सुनते हो। क्योंकि संदेश तो सब जगह है–सब जगह–सब जगह। अब मैं तुम्हें सुनने की कला बतलाता हूं–

घूमते रहो जब तक कि प्रायः निढाल न हो जाओ। या नाचो–या तीव्रता से श्वास लो और तब जमीन पर गिरकर सुनो। अथवा, जोर-जोर से अपना नाम दोहराओ जब तक कि थक न जाओ। और तब अचानक रुको और सुनो। अथवा, नींद-प्रवेश के बिंदु पर, जब कि नींद अभी भी नहीं आयी हो और बाह्य-जागरण चला गया हो–अचानक सतर्क हो जाओ और सुनो। और, तब तुम मुझे सुन लोगे।

शरीर में घनिष्ठता से जीने का आनंद

शरीर में आत्मीयता से जीयो। और, घनिष्ठता से। शरीर को अधिक अनुभव करो। और शरीर को अधिक अनुभव करने दो। यह आश्चर्यजनक है कि कितने ही लोग स्वयं की शरीरिक सत्ता के प्रति प्रायः अनभिज्ञ हैं! शरीर को अत्यधिक दबाया गया है और जीवन को नकारा गया है। इसी कारण यह मात्र एक मृत बोझ है, एक जीवंत आह्लाद नहीं। इसी कारण मैं जोर देता हूं कि शरीर में वापस लौट जाओ और उसकी गतिविधियों में आश्चर्यजनक उल्लास को पुनः प्राप्त करो। विशुद्ध गतिविधियों में इसे ध्यान ही बना लो और तुम्हें बहुत लाभ होगा–इतना कि समझ के बाहर!

सजग होकर स्वप्न देखना—एक ध्यान

स्वप्न देखने को सचेतन रूप से ध्यान बनाओ। और, भलीभांति जानो कि सजग होकर स्वप्न देखना अवलोकन के नए द्वार खोलता है। लेट जाओ, विश्राम करो और स्वप्न देखो। पर सो नहीं जाना। भीतर सजग बने रहो। प्रतीक्षा करो और सतर्क रहो। मन में जो भी स्वप्न आए उसे देखो–क्योंकि स्वप्न में सारा संसार तुम्हारा है। जैसा तुम्हें भाए, स्वयं को स्वप्न में देखो। स्वप्न देखो और संतुष्ट हो जाओ। संतुष्ट अपने स्वप्नों से–क्योंकि वे तुम्हारे हैं और स्मरण रखो कि तुम्हारे स्वप्नों की भांति कुछ भी तुम्हारा नहीं हो सकता है–क्योंकि तुम स्वयं भी एक स्वप्न-सत्ता हो। और इसलिए भी, क्योंकि तुम्हारे स्वप्न में ही तुम्हारी इच्छाएं वास्तविक होती हैं–सिर्फ तुम्हारे स्वप्नों में। लेकिन उनसे तादात्म्य मत करो। उनके साक्षी बनो। सजग रहो। और, तब, अचानक स्वप्न विलीन हो जाएगा। और, केवल तुम्हीं होओगे। और प्रकाश होगा।

स्मरण—एक का

सदैव एक का स्मरण रखो जो कि शरीर के भीतर है। चलते हुए, बैठे हुए, खाते हुए–या कुछ भी करते हुए एक का स्मरण रखो, जो कि न तो चल रहा है, न ही बैठा है, न ही खा रहा है। सब करना ऊपर सतह पर है। और सब करने के पार हमारा होना है। इसलिए सब करने में अकर्ता के प्रति, चलने में अचल के प्रति सजग रहो।

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अपने कमरे की ओर भागी–जब उसने एक भारी धम्म की आवाज सुनी। “घबरानेवाली कोई बात नहीं”–मुल्ला ने कहा–“मेरा यह पाजामा जमीन पर गिर गया था।””क्या—-और इतने जोर का धमाका हुआ?”–उसकी बीबी ने पूछा। “हां, उस समय मैं उसके भीतर जो था”–मुल्ला ने कहा।

ध्यान—मृत्यु पर

मृत्यु के सीधे साक्षात से जीवन अधिक प्रामाणिक हो जाता है। लेकिन हम सदा मृत्यु के तथ्य से बचने की कोशिश करते हैं। और इससे जीवन मिथ्या और कृत्रिम बन जाता है। और मृत्यु से भी बदतर। क्योंकि प्रामाणिक मृत्यु का भी अपना एक सौंदर्य है। जब कि मिथ्या जीवन मात्र कुरूप है। मृत्यु पर ध्यान करो–क्योंकि मृत्यु का साक्षात किए बिना जीवन को जानने का उपाय नहीं है। और वह सब कहीं है। जहां कहीं जीवन है, मृत्यु भी है। वे, वास्तव में, उसी एक घटना के दो पहलू हैं। और जब कोई यह जान लेता है–वह दोनों का अतिक्रमण कर जाता है। और केवल उसी अतिक्रमण में चेतना समग्ररूपेण खिलती है। और होता है सत्ता का आनंद।

स्वयं को पाना हो तो दूसरों पर ज्यादा ध्यान मत देना

फकीर झुगान सुबह होते ही जोर से पुकारता–“झुगान! झुगान!” सूना होता उसका कक्ष। उसके सिवाय और कोई भी नहीं। सूने कक्ष में स्वयं की ही गूंजती आवाज को वह सुनता–“झुगान! झुगान!” उसकी आवाज को आसपास के सोए वृक्ष भी सुनते। वृक्ष पर सोए पक्षी भी सुनते। निकट ही सोया सरोवर भी सुनता। और फिर वह स्वयं ही उत्तर देता–“जी, गुरुदेव! आज्ञा, गुरुदेव!” उसके इस प्रत्युत्तर पर वृक्ष हंसते। पक्षी हंसते। सरोवर हंसता। और फिर वह कहता–“ईमानदार बनो, झुगान! स्वयं के प्रति ईमानदार बनो!” वृक्ष भी गंभीर हो जाते। पक्षी भी। और वह कहता “जी, गुरुदेव!” और फिर कहता–“स्वयं को पाना है तो दूसरों पर ज्यादा ध्यान मत देना” वृक्ष भी चौंककर स्वयं का ध्यान करते। पक्षी भी। सरोवर भी।

और झुगान कहता–“जी, हां! जी, हां!” और फिर इस एकालाप के बाद झुगान बाहर निकलता तो वृक्षों से कहता–“सुना?”पक्षियों से कहता–“सुना?”सरोवर से कहता–“सुना?”और फिर हंसता। कहकहे लगाता।

कहते हैं वृक्षों को, पक्षियों को, सरोवरों को उसके कहकहे अभी भी याद हैं। लेकिन मनुष्यों को? नहीं–मनुष्यों को कुछ भी याद नहीं है। यह मोनो-नाटक (मोनो-ड्रामा) तुम्हारे बड़े काम का है। इसका तुम रोज अभ्यास करना। सुबह उठकर–उठते ही बुलाना जोर से। ध्यान रहे कि धीरे नहीं–बुलाना है जोर से। इतने जोर से कि पास-पड़ोस सुने! फिर कहना–“जी, गुरुदेव!” फिर कहना–“स्वयं को पाना है तो दूसरों पर ज्यादा ध्यान मत देना।” और फिर कहना–“जी, हां! जी, हां!” और यह सब इतने जोर से कहना कि तुम्हें ही नहीं, औरों को भी इसका लाभ हो। फिर हंसते हुए बाहर आना। कहकहे लगाना। और हवाओं से पूछना–“सुना?”बादलों से पूछना–“सुना?”

अदृश्य के दृश्य और अज्ञात के ज्ञात होने का उपाय—ध्यान

अदृश्य को दृश्य करने का उपाय पूछते हैं? दृश्य पर ध्यान दें। मात्र देखें नहीं, ध्यान दें। अर्थात जब फूल को देखें तो स्वयं का सारा अस्तित्व आंख बन जाए। पक्षियों को सुनें तो सारा तन प्राण कान बन जाए। फूल देखें तो सोचें नहीं। पक्षियों को सुनें तो विचारें नहीं। समग्र चेतना (टोटल कांशसनेस) से देखें या सुनें या सूंघे या स्वाद लें या स्पर्श करें। क्योंकि, संवेदनशीलता (सेंसटिविटी) के उथलेपन के कारण ही अदृश्य दृश्य नहीं हो पाता है और अज्ञात अज्ञात ही रह जाता है। संवेदना को गहरावें। संवेदना में तैरें नहीं, डूबें। इसे ही मैं ध्यान (मेडीटेशन) कहता हूं। और ध्यान में दृश्य भी खो जाता है और अंततः दर्शन होता है और अज्ञात ज्ञात होता है। यही नहीं–अज्ञेय (अननोएबल) भी ज्ञेय हो जाता है। और ध्यान रखें कि जो भी मैं लिख रहा हूं–उसे भी सोचें न, वरन करें। “कागज लेखी” से न कभी कुछ हुआ है, न हो ही सकता है। “आंखन देखी” के अतिरिक्त कोई और द्वार नहीं है।

जीवन नृत्य है

आकाश से थोड़ा तालमेल बढ़ाएं। आंखों को विराट को पीने दें। दिन हो या रात–जब भी मौका मिले आकाश पर ध्यान करें, आकाश को उतरने दें हृदय में। शीघ्र ही बीच से पर्दा उठने लगेगा। भीतर और बाहर का आकाश आलिंगन करने लगेगा। स्वयं के मिटने में इससे सहायता मिलेगी। अहं के विसर्जन में इससे मार्ग बनेगा। और यदि अनायास ही आकाश पर ध्यान करते-करते तन-मन नृत्य को आतुर हो उठें तो स्वयं को रोकना नहीं–नाचना। हृदयपूर्वक नाचना। पागल होकर नाचना। उस नृत्य से जीवन रूपांतरण की अनूठी कुंजी हाथ लग जाती है। क्योंकि नृत्य ही है अस्तित्व। अस्तित्व के होने का ढंग ही नृत्यमय है। अणु-परमाणु नृत्य में लीन हैं–ऊर्जा अनंत रूपों में नृत्य कर रही है। जीवन नृत्य है।

स्वयं की कील

संसार का चक्र घूम रहा है, लेकिन उसके साथ तुम क्यों घूम रहे हो? शरीर और मन के भीतर जो है, उसे देखो। वह तो न कभी घूमा है, न घूम रहा है, न घूम सकता है। वही तुम हो। “तत्वमसि, श्वेतकेतु”। सागर को सतह पर लहरें हैं, पर गहराई में? वहां क्या है? सागर को उसकी सतह ही समझ लें तो बहुत भूल हो जाती है। बैलगाड़ी के चाक को देखना। चाक घूमता है, क्योंकि कील नहीं घूमती है। स्वयं की कील का स्मरण रखो। उठते, बैठते, सोते, जागते उसकी स्मृति को जगाए रखो। धीरे-धीरे सारे परिवर्तनों के पीछे उसके दर्शन होने लगते हैं जो कि परिवर्तनशील नहीं है।

स्वीकार से दुख का विसर्जन

दुख को स्वीकार करें। दुख से भागें नहीं। जो दुख से भागता है, दुख उससे कभी नहीं भागता। जो दुख से नहीं भागता है, दुख उससे भाग जाता है। यही शाश्वत नियम है। दुख से बचने के लिए ध्यान न करें। ध्यान करें–ध्यान के लिए ही। ध्यान के आनंद के लिए ही ध्यान करें। और दुख फिर खोजे से भी नहीं मिलेगा।

अवलोकन—वृत्तियों की उत्पत्ति, विकास व विसर्जन का

भीतर की आवाज पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दो। उसे सुनो एकाग्र होकर। उसके द्वारा साक्षी जन्म लेना चाह रहा है। क्रोध हो कि प्रेम–जैसे ही भीतर से कोई कहे–देख ले! यह तेरा क्रोध!–वैसे ही शांत-एकाग्रता से देखने में लग जाना। निश्चय ही, देखते ही वृत्ति विलीन हो जाएगी। तब वृत्ति को विलीन होते देखना। विलीन हो गया देखना। वृत्ति का उठना, फैलना, विलीन होना, विलीन हो जाना–जब चारों स्थितियां समग्ररूपेण देख ली जाती हैं तब ही वृत्तियों का रूपांतरण (ट्रांसफोर्मेशन) होता है। और चित्तवृत्तियों का रूपांतरण ही निरोध है। और ऐसे निरोध को ही पतंजलि ने योग कहा है। योग द्वार है उसका जो कि चित्त के पार है। और जो चित्त के पार है वही शाश्वत है, वही सत्य है।

क्रोध के दर्शन से क्रोध की ऊर्जा का रूपांतरण

जब क्रोध आए तो दो-चार गहरी सांसें लेना और क्रोध के साक्षी बनना। क्रोध न तो करना ही और न क्रोध से लड़ना ही। क्रोध को देखना। क्रोध के दर्शन से क्रोध की ऊर्जा (इनर्जी) क्षमा में रूपांतरित हो जाती है। पूछोगे–क्यों? ऐसे ही जैसे 100 डिग्री तापमान पर पानी वाष्पीभूत हो जाता है। या, ऐसे ही जैसे हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने से जल निर्मित हो जाता है।

काम-ऊर्जा का रूपांतरण—संभोग में साक्षित्व से

कामवासना स्वाभाविक है। उससे लड़ना नहीं, अन्यथा उसके विकृत-रूप चित्त को घेर लेंगे। काम (सेक्स) को समझो और काम-कृत्य (सेक्स-ऐक्ट) को भी ध्यान का विषय बनाओ। काम में, संभोग में भी साक्षी (विटनेस) बनो। संभोग में साक्षी-भाव के जुड़ते ही काम-ऊर्जा (सेक्स-इनर्जी) का रूपांतरण प्रारंभ हो जाता है। वह रूपांतरण ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य काम का विरोध नहीं–काम-ऊर्जा का ही ऊर्ध्वगमन है। जीवन में जो भी है उसे मित्रता से और अनुग्रह से स्वीकार करो। शत्रुता का भाव अधार्मिक है। स्वीकार से परिवर्तन का मार्ग सहज ही खुलता है। शक्ति तो सदा ही तटस्थ है। वह न बुरी है, न अच्छी। शुभ या अशुभ उससे सीधे नहीं–वरन उसके उपयोग से ही जुड़े हैं।

काम-वृत्ति पर ध्यान

कामवासना से भयभीत न हों। क्योंकि भय हार की शुरुआत है। उसे भी स्वीकार करें। वह भी है और अनिवार्य है। हां–उसे जानें जरूर–पहचानें। उसके प्रति जागें। उसे अचेतन (अनकांशस) से चेतन (कांशस) बनाएं। निंदा से यह कभी भी नहीं हो सकता है। क्योंकि, निंदा दमन (रिप्रेशन) है। और दमन की वृत्तियों को अचेतन में ढकेल देता है। वस्तुतः तो दमन के कारण ही चेतना चेतन और अचेतन में विभाजित हो गई है। और यह विभाजन समस्त द्वंद्व (कांफ्लिक्ट) का मूल है। यह विभाजन ही व्यक्ति को अखंड नहीं बनने देता है। और अखंड बने बिना शांति का, आनंद का, मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। इसलिए कामवासना पर ध्यान करो। जब वह वृत्ति उठे तो ध्यानपूर्वक (माइंडफुली) उसे देखो। न उसे हटाओ, न स्वयं उससे भागो। उसका दर्शन अभूतपूर्व अनुभूति में उतार देता है। और ब्रह्मचर्य इत्यादि के संबंध में जो भी सीखा-सुना हो, उसे एक-बारगी कचरे की टोकरी में फेंक दो। क्योंकि, इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने का कोई मार्ग नहीं है।

विचारों के पतझड़

विचारों के प्रवाह में बहना भर नहीं। बस जागे रहना। जानना स्वयं को पृथक और अन्य। दूर और मात्र द्रष्टा। जैसे राह पर चलते लोगों की भीड़ देखते हैं, ऐसे ही विचारों की भीड़ को देखना। जैसे पतझड़ में सूखे पत्तों को चारों ओर उड़ते देखते हैं, वैसे ही विचारों के पत्तों को उड़ते देखना। न उनके कर्ता बनना, न उनके भोक्ता। फिर शेष सब अपने आप हो जाएगा। उस शेष को ही मैं ध्यान (मेडीटेशन) कहता हूं।

आनंदातिरेक और भगवत्-मादकता का मार्ग

कल से निम्नलिखित ध्यान प्रारंभ करो। और जानो कि यह आदेश है। अब तुम मेरे इतने अपने हो कि सिवाय आदेश देने के मैं और कुछ नहीं कर सकता।

पूर्व-आवश्यकताएं–

फ्रुल्लता से करो, 2. शिथिलता में करो, 3. आनंदित होओ। 4. प्रातः स्नान करने के बाद इसे करो।

ध्यान के चरण–

पहला चरण–लयबद्धता से गहरी श्वास लो। तेज नहीं, बल्कि धीमी गति से। दस मिनट के लिए।

दूसरा चरण–मंद गति से लय में नाचो। आनंदित होओ। जैसे कि उसमें बह रहे हो। दस मिनट के लिए।

तीसरा चरण–महामंत्र हू-हू का उपयोग करो। हू–दस मिनट के लिए। नाचना व हिलना-डोलना चलता रहे। गंभीर मत होना।

चौथा चरण–आंखें बंद कर लो और मौन हो जाओ। अब नाचना, या हिलना-डोलना नहीं करो। खड़े रहो, बैठ जाओ या लेट जाओ–जैसा भी तुम्हें ठीक लगे। पर ऐसे हो रहो, जैसे मर ही गए हो। गहरे डूबने का अनुभव करो। समर्पित हो जाओ और स्वयं को समग्र के हाथों में छोड़ दो। दस मिनट के लिए।

बाद की आवश्यकताएं–

पूरे दिन आनंदातिरेक में जीयो–भगवत-मादकता में। उसमें बहो और खिलो। जब कभी मन डूबता-सा लगे–भीतर कहो–हू-हू-हू और बाहर हंसो। हंसो बिना किसी कारण के। और, इस पागलपन को स्वीकार करो।

सोने के पहले, महामंत्र हू-हू-हू का उच्चार करो। दस मिनट के लिए। और तब स्वयं पर हंसो।

प्रातः जब तुम्हें लगे कि जाग खुल गयी है, पुनः महामंत्र हू-हू-हू का उच्चार करो। दस मिनट के लिए। और तब हृदयपूर्वक हंसते हुए दिन का प्रारंभ करो।

और, सदैव स्मरण रखो कि मैं तुम्हारे साथ हूं।

संवेदनशीलता बढ़ाने का प्रयोग

कभी आरामकुर्सी पर बैठकर ही अनुभव करें कि कितनी संवेदनाएं घट रही हैं–कुर्सी पर आपके शरीर का दबाव। कुर्सी से आपका स्पर्श। जमीन पर रखे आपके पैर। हवा का झोंका जो आपको छू रहा है। फूलों की गंध जो खिड़की से भीतर आ गई है। रसोई में बर्तनों की आवाज। बनते हुए भोजन की गंध जो आपके नासापुटों में भर गयी है। छोटे बच्चे की किलकारी छूती है और आह्लादित कर जाती है। किसी का चीत्कार, किसी का रोना जो आपको कंपित कर जाता है। अगर कोई रोज पंद्रह मिनट चुप बैठकर अपने चारों तरफ की संवेदनाओं का अनुभव करे, तो भी बड़े गहरे ध्यान को उपलब्ध होने लगेगा।

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रचनाएँ
ध्यान योग, प्रथम और अंतिम मुक्ति
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ओशो अपनी किताब ध्यान योग, प्रथम और अंतिम मुक्ति में कहते हैं कि 'ध्यानयोग प्रथम और अंतिम मुक्ति' ओशो द्वारा सृजित अनेक ध्यान विधियों का विस्तृत व प्रायोगिक विवरण है। ध्यान में कुछ अनिवार्य तत्व हैः विधि कोई भी हो, वे अनिवार्य तत्व हर विधि के लिए आवष्यक है। पहली है एक विश्रामपूर्ण अवस्थाः मन के साथ कोई संघर्ष नहीं, मन पर कोई नियंत्रण नहीं; कोई एकाग्रता नहीं।
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