साहित्यकार की साहित्य-सृष्टि का मूल्यांकन तो अनेक आगत-अनागत युगों में हो सकता है; पर उनके जीवन की कसौटी उसका अपना युग ही रहेगा।
पर यह कसौटी जितनी अकेली है, उतनी निर्भान्त नहीं। देश-काल की सीमा में आबद्ध जीवन न इतना असंग होता है कि अपने परिवेश और परिवेशियों से उसका कोई संघर्ष न हो और न यह संघर्ष इतना तरल होता है कि उसके आघातों के चिह्न शेष न रहें।
एक कर्म विविध ही नहीं, विरोधी अनुभूतियाँ भी जगा सकता है। खेल का एक ही कर्म जीतने वाले के लिए सुखद और हारने वाले के लिए दुःखद अनुभूतियों का कारण बन जाता है।
जो हमें प्रिय है, वह हमारे हित के परिवेश में ही प्रिय है और अप्रिय है, वह हमारे अहित के परिवेश में ही अपनी स्थिति रखता है। यह अहित, प्रत्यक्ष कर्म से सूक्ष्म भाव-जगत् तक फैला रह सकता है। हमारे दर्शन, साहित्य आदि विविध साधनों से प्राप्त संस्कार, हमें अपने परिवेश के प्रति उदार बनाने का ही लक्ष्य रखते हैं पर, मनुष्य का अहम प्रायः उन साधनों से विद्रोह करता रहता है।
अपने अग्रजों सहयोगियों के सम्बन्ध में, अपने-आप को दूर रखकर कुछ कहना सहज नहीं होता। मैंने साहस तो किया है; पर ऐसे स्मरण के लिए आवश्यक निर्लिप्तता या असंगता मेरे लिए संभव नहीं है। मेरी दृष्टि के सीमित शीशे में वे जैसे दिखाई देते हैं, उससे वे बहुत उज्जवल और विशाल हैं, इसे मानकर पढ़ने वाले ही उनकी कुछ झलक पा सकेंगे।
महादेवी वर्मा
प्रयाग
श्रावणी पूर्णिमा
1956
महादेवी वर्मा की अन्य किताबें
महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद में सन (२६ मार्च १९०७ — ११ सितंबर १९८७) ईस्वी में एक संपन्न कायस्थ परिवार में हुआ था. इनके पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राचार्य थे. माता विदुषी और धार्मिक स्वभाव की महिला थी. इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में और उच्च शिक्षा प्रयाग के क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में हुई थी. अत्यधिक परिश्रम के फल स्वरुप इन्होंने मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्ष 1933 में इन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्या पद को सुशोभित किया। इन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए काफी प्रयास किया साथ ही नारी की स्वतंत्रता के लिए ये सदैव संघर्ष करती रही। महादेवी वर्मा हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाज सुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे।
महादेवी वर्मा रहस्यवाद और छायावाद की कवयित्री थीं, अतः उनके काव्य में आत्मा-परमात्मा के मिलन विरह तथा प्रकृति के व्यापारों की छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। वेदना और पीड़ा महादेवी जी की कविता के प्राण रहे। उनका समस्त काव्य वेदनामय है। ये 'चांद' पत्रिका की संपादिका भी रहीं। इनकी साहित्य साधना के लिए भारत सरकार ने इन्हें पदम भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें 'सेकसरिया' तथा 'मंगला प्रसाद' पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 1983 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा इन्हें एक लाख रुपए का भारत-भारती पुरस्कार दिया गया तथा इसी वर्ष काव्य ग्रंथ यामा पर इन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' पुरस्कार प्राप्त हुआ। ये जीवन पर्यंत प्रयाग में ही रहकर साहित्य साधना करती रहीं। आधुनिक काव्य के साथ साज-श्रंगार में इनका अविस्मरणीय योगदान है। इनके काव्य में उपस्थित विरह-वेदना अपनी भावनात्मक गहनता के लिए अमूल्य मानी जाती है। करुणा और भावुकता इनके काव्य की पहचान है। 11 सितंबर, 1987 को यह महान कवयित्री पंचतत्व में विलीन हो गई। महादेवी वर्मा की विभिन्न रचनाएं इसप्रकार है ,दीपशिखा, रश्मि, नीरजा, श्रृंखला की कड़ियां, निहार, यामा, सांध्य गीत, भाव पक्ष आदि D