श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े वे सारी रात इसीलिए जेटी पर पड़े रहे थे कि सुबह जहाज़ पर अच्छी सी जगह पा सकेंगे। वे भारत के कोने-कोने से आये थे और धीरे-धीरे कतार बांधकर खड़े हो रहे थे। मालूम हुआ कि डाक्टरी परीक्षा होने वाली है। कैसी थी वह परीक्षा? डाक्टर सन्देहमूलक स्थान में हाथ डालकर सोजिश टटोलते थे। उस समय उनका रूप देखते ही बनता था। उन्हें इस बात की बहुत चिन्ता थी कि कहीं कोई प्लेग का यात्री तो नहीं जा रहा है। यह रोग बम्बई से ही बर्मा पहुंचा था
इस परीक्षा में पास होने पर जहाज़ पर चढ़ने की बारी आई वह चढ़ना भी उस दातों वाली चक्करों की मशीन जैसा था जो निरन्तर आगे-पीछे होती रहती है। ऊपर जाकर फिर नीचे जहाज़ के गर्भगृह में उतरना था। वहीं पहुंचकर सब लोग अपने-अपने कम्बल बिछाकर स्थान पर कब्ज़ा कर रहे थे, लेकिन शरत् को वहां जगह न मिल सकी। ऊपर जाकर ही किसी तरह सांस ले सका। आखिर बैठने का स्थान मिला और फिर जो कुछ देखा उसे 'भारत दर्शन' ही कह सकते हैं।
यह कोई कुछ घंटों की ही बात नहीं थी। पूरे चार दिन तक उसे मनुष्यों के वास्तविक जीवन से परिचय प्राप्त करने का सुयोग मिला। अधिकांश ऐसे थे जो बराबर आते-जाते रहते थे। कुछ ऐसे भी थे जो रोज़ी की तलाश में बर्मा जा रहे थे। कुछ प्रेमी भी थे। वे हिन्दुस्तानी समाज से बचने के लिए छिपकर भाग रहे थे, लेकिन इन सबसे भी अधिक था साइक्लोन का अनुभव। वह कैसा होता है इसकी कल्पना भी उसने नहीं की थी। प्रारम्भ में थोड़ी-थोड़ी वृष्टि होती रही, फिर हवा और वृष्टि दोनों का ज़ोर बढ़ गया। वह वृष्टि, हवा, अंधकार और जहाज़ का झूलना और समुद्र की लहरों का आकार, ये सब देखकर वह व्याकुल हो ही रहा था कि सहसा एक ऐसा विकट शब्द कानों में आ पड़ा जैसे हज़ारों राक्षसिनियां एक साथ मृत्यु की यंत्रणा से चीखती हुई और धरती को अपने पैरों के बोझ से कुचलती हुई, इधर-उधर दौड़ रही हैं। वे तूफानी हवायें थीं। उनसे बचना अमम्भव जैसा था। उनके सहारे समुद्र की तरंगें विराट रूप धारण करके जहाज़ को ग्रसने के लिए दौड़ती थीं और इस समुद्र जल के टकराने से एक तरह की ज्वाला-सी चमक उठती थी। अंधकार के कारण समुद्र की जलराशि दिखाई नहीं देती थी, लेकिन यह ज्वाला उसकी भयानकता को उजागर कर देती थी।
सहसा सब लोग एक साथ गला फाड़-फाड़कर चीखने लगे। एक महातरंग जहाज़ को निगलने आ पहुंची थी और चारों ओर पानी ही पानी हो गया था। लगा जैसे सब डूब गये हैं, लेकिन कुछ क्षण बाद जब लहरों का आक्रमण समाप्त हुआ तो पाया कि वहां का दृश्य महानाश के दृश्य के समान है। सब लोग सिर छुपाने के लिए इधर-उधर भाग रहे हैं। मनुष्य ही नहीं उनमें पशु-पक्षी भी है और वे इस प्रकार गडुमगड्डु हो रहे हैं जैसे नाना प्रकार के चबेने मिला दिये हों। सारी रात मनुष्य एक-दूसरे को इस तरह पीसते रहे जैसे कोई सिल पर लोढ़े से मसाला पीसता है। बहुत से लोगों से वमन भी हो गई थी और जिसके कारण चारों ओर बदबू फैल गई थी। डाक्टर, मेहतर और खलासियों को लेकर सफाई में लगा था।
इसी तरह इस नये जीवन से परिचय प्राप्त करता हुआ शरत् रंगून पहुंच गया। बंदरगाह जैसे-जैसे पास आ रहा था वैसे-वैसे 'करेंटीन' की चर्चा बढ़ रही थी। वहां पहुंचते ही खलासी डेक आकर चिल्लाने लगे, "रंगम शहर, रंगम शहर, सब तैयार हो जाओ। 'करेंटीन' में जाना होगा। वहां बिन जाए कोई भी शहर में दाखिल नहीं हो सकता।"
बर्मा की सरकार प्लेग के डर के कारण बहुत सावधान रहती थी। शहर से आठ मील दूर रेत में कांटेदार तार से थोडा सा स्थान घेरकर बहुत-सी झोपड़ियां खड़ी कर दी गई थीं। डेक के सारे यात्रियों को नगर में जाने से पहले आठ या दस दिन तक यहीं रहना होता था। हां, यदि किसी का कोई परिचित शहर में होता तो वह किसी कौशल से अपने यात्री को छुटकारा दिला सकता था। शरत् ने किसी को सूचना नहीं दी थी। वह ऊंचे दर्जे का यात्री भी नहीं था। उसे वहां जाना ही पड़ा। जो अनुभव में रस लेना जानता था। वे दिन कैसे बीते इसकी कल्पना ही की जा सकती है। कम से कम वहां 'साइक्लोन' नहीं आया और न डेक पर भेड़-बकरियों की तरह जीवन बिताना पड़ा। लेकिन फिर भी वह घर नहीं था। जिस दिन 'क्वरेंटीन' की मियाद खत्म हुई, उस दिन या एक दिन दा ठाकर के होटल में बिताकर पूछते-पूछते शरत् अपने रिश्ते के मौसा अघोरनाथ चटर्जी के घर - पहुंचा तो उसका रूप देखते ही बनता था, जैसे कोई भिखारी हो। बिखरे बाल, मैले कपड़े, शरीर पर एक फटी कमीज़, पैर में एक जोड़ा चट्टी, कंधे पर गमछा । इतने दिन तक हाथ से पकाकर खाना पड़ा था। इससे अवस्था और भी दयनीय हो रही थी। जैसे ही घर में प्रवेश करके उसने अघोरनाथ को देखा तो वह ज़ोर से रो पड़ा। रोते-रोते ही उसने मौसा को प्रणाम किया। मौसा चकित रह गये। बोले, “क्यों रे शरत्, तू कहां से आ गया?”
शरत् ने कहा, "मुझको क्वरेंटीन में रोक रखा था।”
मौसा अवाक् होकर बोले, “तूने मेरा नाम क्यों नहीं लिया? मेरा नाम लेकर न जाने कितने लोग पार हो जाते हैं तू क्वरेंटीन में पड़ा रहा। तू तो मूर्ख है।"
अघोरनाथ रंगून के ख्यातनामा एडवोकेट ही नहीं थे, बड़े आदमी भी थे। देहयष्ट जैसी दर्शनीय थी मन भी वैसा ही मुक्त था। घर में प्रति शनिवार को खूब खाना-पीना और गाना-बजाना चलता था। सभी जातियों और धर्मों के लोग उसमें भाग लेते थे। उनकी पत्नी वहां के रीति-रिवाजों के अनुसार हाट-बाजार करती थी। जाकेट, शमीज और जूता-मोजा पहनती थी। इसी परिवार में शरत् अनाथ की तरह पहुंचा। लेकिन मीसा- मौसी ने सहज प्यार और आत्मीयता से उनका स्वागत किया। वहां न तो भागलपुर की अवहेलना उपेक्षा थी, न था भवानीपुर का अपमान आदेश मौसा बोले, “तुझे सबसे पहले बर्मी भाषा पढकर कानून का अध्ययन करना है। फिर तू मेरी तरह वकील बनेगा। इसी बीच तेरे लिए नौकरी का प्रबन्ध भी कर दूंगा।"
तीन महीने भी न बीतने पाये थे कि शरत् बर्मा रेलवे के आडिट आफिस में काम करने लगा। घर पर वह मौसेरी बहन को संगीत की शिक्षा भी देता था।
ऐसा लगा जैसे दुख के दिन बीत गए, लेकिन वह मात्र एक छल था। वह नौकरी डेढ़ वर्ष भी नहीं चल सकी और बर्मा भाषा की परीक्षा में भी सफलता नहीं मिली। तब वकील कैसे बन सकता था। जो स्वप्न उसने देखा था वह बस स्वप्न बनकर ही रह गया। हां, अपने जन्मजात गुणों के कारण यहां के मध्यमवर्गीय बंगाली समाज में वह अब तक काफी प्रसिद्ध हो चुका था। उसका गाना सुनने के लिए अनेक भद्र लोग अघोरनाथ के घर आते थे। जिन लोगों से उसका विशेष परिचय हुआ। उनमें एक थे विश्वपर्यटक गिरिन्द्रनाथ सरकार उनके साथ शरत् का गाना-बजाना, कथा वार्ता सभी कुछ चलता था। पीना पिलाना भी पीछे नहीं छूटा था।
अचानक एक दिन घर लौटकर पाया कि मौसा को निमोनिया हो गया है। बेटी के विवाह के संबंध में व्यवस्था करने के लिए मौसी तब कलकत्ता गई हुई थी। उस समय उसने रात-रात भर जागकर अपने मौसा की सेवा की, परन्तु वह व्यर्थ हो गई। वे बच नहीं सके।
एक बार फिर निराश्रित होकर वह पथ घाट में घूमने लगा ।
पथ घाट में घूमने की इस बात को लेकर उसके प्रत्येक कार्य की तरह नाना प्रकार के प्रवाद प्रचलित हो गये थे लेकिन वह यह बात अच्छी तरह जानता था कि अब उसका वहां रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि कोई न कोई मामा आयेगा और उसे फिर अपमान और उपेक्षा का जीवन जीना होगा। इसालिए उनके आने से पूर्व ही वह वहां से चला गया।
मौसी साथ आये मामा मणीन्द्रनाथ । सुना कि शरत् पीड़ित होकर किसी अस्पताल में है। उसे कोई ऐसा रोग हो गया है कि वह सबसे मिल भी नहीं सकता। मणि मामा उसके स्वच्छन्द आचरण के कारण उससे बराबर दूर हटते जा रहे थे। इसलिए उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि रोग क्या है? उन्होंने उससे मिलने की चेष्टा नहीं की।
सुना है, कुछ दिन बाद मामा लालमोहन भी वहां गये थे। वे तो शरत् को देख भी नहीं सकते थे। बहन को सिखा-पढ़ाकर उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि शरत् फिर
किसी भी तरह उस घर में प्रवेश न पा सका।
कारण कुछ भी रहा हो, शरत् ने मौसा का घर सदा के लिए छोड़ दिया।