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एक झलक

23 मार्च 2023

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महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को हिन्दी यात्रा साहित्य का जनक माना जाता है। हिंदी में राहुल साकृत्यायन

जैसा विद्वान, घुमकड़ व 'महापंडित' की उपाधि से स्मरण किया जाने वाला कोई अन्य साहित्यकार न

मिलेगा ।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल 1893 को अपने ननिहाल पंदहा जिला आज़मगढ़, उत्तर

प्रदेश में हुआ था। उनके पिता श्री गोवर्धन पाण्डेय, कनैला (आजमगढ़, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे, अत:

आपका पैतृक गांव कनैला था। आपके बाल्यकाल का नाम केदारनाथ पाण्डेय था।

गोवर्धन पाण्डेय के चार पुत्रों (त्रों केदारनाथ, श्यामलाल, रामधारी और श्रीनाथ) और एक पुत्री (रामप्यारी) में

आप ज्येष्ठ पुत्र थे। केदारनाथ की माँ कुलवन्ती नाना रामशरण पाठक की अकेली संतान थीं।थीं

राहुल सांकृत्यायन तो उनका अपना दिया नाम था । वास्तविक मूल नाम था- केदारनाथ पाण्डेय। कुछ वर्षों

तक आप रामोदर स्वामी के नाम से भी जाने जाते थे ।

रामशरण पाठक आजमगढ़ के पंदहा गांव के निवासी थे। केदारनाथ का बचपन ननिहाल में ही बीता।

बालक केदार वर्ष के कुछे दिन अपने पैतृक गांव कनैला में भी बिताते थे। जब वे पाँच वर्ष के हुए तो पंदहा

से कोर्इ डेढ़ किलोमीटर दूर रानी की सराय की पाठशाला में नाम लिखा दिया गया। उस समय उर्दू

अधिक प्रचलित थी। केदारनाथ का नाम मदरसे में लिखाया गया।

आपके नाना रामशरण पाठक फौज में बारह साल नौकरी कर चुके थे। अपनी नौकरी के दौरान कर्नल

साहब के अर्दली के रूप में जंगलों में दूर-दूर तक शिकार करने जाते थे। उन्होंनेन्हों साहब के साथ दिल्ली,

शिमला, नागपुर, हैदराबाद, अमरावती, नासिक आदि कर्इ शहर देखे। फौजी नाना अपने नाती को

शिकार-यात्राओं की कहानियाँ सुनाया करते थे। इन्हीं कथा-कहानियों ने केदारनाथ के किशोर मन में

दुनियाँ को देखने की लालसा का बीज अंकुरित किया।


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रचनाएँ
राहुल सांकृत्यायन: अनात्म बेचैनी का यायावर
5.0
हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन की वैचारिक दृढ़ता, लेखन और घुमक्कड़ी के तमाम क़िस्से सुनते-पढ़ते हुए कई पीढ़ियों ने लिखना सीखा। जीवन में वामपंथी स्टैंड लेना हो या बौद्ध धर्म की लुप्तप्राय पांडुलिपियों के लिए दुनिया भर की ख़ाक छानते हुए भटकना; हमारे सामने एक ऐसा कठिन व्यक्तित्व उभर कर आता है जिसकी मेहनत के आगे नतमस्तक ही हुआ जा सकता है। हिन्दी में ख़ूब सेलीब्रेट किए जाते हुए अक्सर ऐसी ही प्रतिभाओं को हम आलोचनात्मक नज़रिए से नहीं देख पाते। यह न सिर्फ़ उस व्यक्ति के प्रति अन्याय है बल्कि उसके बौद्धिक अवदान को इतिहास में ठीक-ठीक लोकेट न कर पाने की एक ऐसी असमर्थता भी है जो भावी पीढ़ियों के प्रति एक अन्याय जैसा है। अशोक कुमार पांडेय ने इस जीवनी में राहुल जी को उनकी बौद्धिक विकास यात्रा में समझने की कोशिश की है जो अक्सर बाहरी है और जहाँ निजी है वहाँ भी पॉलिटिकल के स्वर सुनने की चेतन कोशिश की है। राहुल जी ने आत्मकथा नहीं लिखी बल्कि जीवन-यात्रा लिखी है। उनके अपने लिखे में से और अन्य तमाम स्रोतों से जानकारियाँ खंगालते हुए राहुल जी का वह मुकम्मल व्यक्तित्व बनता है जिसकी हिन्दी साहित्य में सख़्त ज़रूरत थी। हिन्दी का पाठक वर्ग स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और वंचित अस्मिताओं के शामिल होने से एक बड़ा वर्ग बन चुका है, यह आलोचनात्मक जीवनी इन सबके हस्तक्षेप से उभरती नई दृष्टि से पाठ के नए आयाम रचती है। इतिहास की पुनर्रचना की राह में भी अशोक कुमार पांडेय का यह प्रयास नई राहें खोलेगा और नए सवाल रचेगा।

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