वे शभूषा, सामूहिकता और सादगी गांवों की पहचान रही है जो कम से कम होती चली जा रही है। ग्रामीण पहचान रही पहनावे से स्त्री हो या पुरुष दोनों दूर से ही पहचाने जाते थे। अंगरकी, धोती और सिर पर पहनी जाने वाली पगड़ी वृद्ध पीढ़ी के साथ ही चली जा रही है। पेंट-बुशर्ट, लहंगा, लेहंगी आम हो चली है। कोई भी उत्सव मिलजुल कर संपन्न किया जाता था। कल तक रसोई बनाने से लेकर सारे कार्य मिलजुल कर संपन्न हो जाया करते थे। अब के टरिंग, बफर, शामियाने के बिना शादी पूरी नहीं हो रही है। जमकर दिखावा करने सेे नहीं चूक रहे हैं। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को नजरअंदाज करने में लगी है। भाईचारा पुराने जमाने की बात हो चली है। सभ्य शहर की राह पर चलने या विकास के पैमाने से गांव आक्रांत है।
गांव में कुछ खो सा गया है। बहुत कुछ अधूरा-अधूरा सा लगा, बहुत से परिवर्तन दिखाई पड़े। मसलन, गांव विकास प्रक्रिया में हैं, शहरीकरण हो रहा है, बहुत हद तक शहर की चीजें गांव में दिखाई देने लगी हैं- टीवी, कार और फ्रिज। पर मेरी चिंता का विषय था कि कोई आज से पच्चीस साल पहले के गांव कहीं न कहीं बहुत पीछे छूट गया है। सड़क छोड़कर बहुत दूर जाने पर कहीं गांव दबे-छुपे शर्माते से दिखाई पड़ते हैं तो लगा कि हां, कुछ बचे हुए गांव हैं जो अब लगभग गायब होते गांवों से दूर से ही मिल पाते हैं।
गांव पगडंडियों से पहचाने जाते हैं। शहर सड़कों से। जिन पर पग से डग भरते हुए चला जाता है उन्हें पगडंडियां कहते हैं और जिन पर फर्राटे भरती हुई तेज गति से गाडिय़ां दौड़ती हैं- वह सड़क है। शहर वर्षों तक इन्हीं सड़क के कारण गांवों से भिन्न रहा है। अब यह अंतर समाप्त हो चला है। गांव तेजी से सड़क से जोड़े जा रहे हैं। लंबी-ऊंची कारें घरों की शोभा बनने लगी हंै। गांव कथित सभ्यता का चोला पहन के इठलाने लगे हैं। शहर होने की प्रक्रिया और विकास के भोंड़ेपन ने गांव का देशज ठाठ और भारतीय गांव की मूल पहचान सादगी सिरे से ही गायब कर डाली है।
किसान के बिना गांव नहीं, बैल बिना किसान नहीं। भारतीय किसान पश्चिमी तर्ज पर खेती करने लगा है। देश में किसान नीति का यह आलम है कि खेती यूरोपीय तर्ज पर की जा रही है। अमेरिकी किसान हजार बीघा का जोता है और भारतीय किसान दस बीघा पर आकर ठहर गया है। उसे मशीन पर आश्रित करके हाथ-पैर काट डाले हैं। वह न हाथों से काम करता है न पैरों से चलता है। खेती के लिए मशीनें, चलने के लिए मोटर साइकिलें और कारें हैं। अब वह किसान सुदूर पहाड़ों और जंगलों में आदिवासी के रूप में बदहाली में मिलेगा।
भाईचारा, सामूहिकता और एकता नदारद है गांवों से। कीचड़, गंदगी और प्रदूषण गांव में प्रवेश करते ही वापस लौटने को बाध्य करता है। विकास बनाम गांव और शहरीकरण की प्रक्रिया में कितने बचे हैं गांव? किसी को किसी तरह की चिंता नहीं है। बिजली, सड़क और पानी पंचायतीराज में बेशक पहुंचा है पर सब भोंडे रूप में ही। नल से घरों में पानी पहुंच रहा है जो सड़कों पर फैलकर बुरी तरह से सड़कों को तोड़ देता है। नल का पानी कीचड़, गंदगी को बढ़ा रहा है। बिजली पहली बार तो आती ही नहीं, अगर आ गई तो बल्ब रात हो या दिन बराबर रोशनी फेंकते रहेंगे, बिजली विभाग को चूना लगाते रहेंगे। बिजली विभाग में इतना दम नहीं है कि अवैध बिजली कनेक्शन काट सके, किसी तरह की कार्रवाई की जा सके। बिजली कितनी कीमती है या फिजूल गांवों में जाकर देखी जा सकती है।
वेशभूषा, सामूहिकता और सादगी गांवों की पहचान रही है जो कम से कम होती चली जा रही है। ग्रामीण पहचान रही पहनावे से स्त्री हो या पुरुष दोनों दूर से ही पहचाने जाते थे। अंगरकी, धोती और सिर पर पहनी जाने वाली पगड़ी वृद्ध पीढ़ी के साथ ही चली जा रही है। पेंट-बुशर्ट, लहंगा, लेहंगी आम हो चली है। कोई भी उत्सव मिलजुल कर संपन्न किया जाता था। कल तक रसोई बनाने से लेकर सारे कार्य मिलजुल कर संपन्न हो जाया करते थे। अब के टरिंग, बफर, शामियाने के बिना शादी पूरी नहीं हो रही है। जमकर दिखावा करने सेे नहीं चूक रहे हैं। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को नजरअंदाज करने में लगी है। भाईचारा पुराने जमाने की बात हो चली है। सभ्य शहर की राह पर चलने या विकास के पैमाने से गांव आक्रांत है।
आज वे गांव जो सड़क से पूरी तरह से जुड़ चुके हैं, लगभग सभ्य हो चले हैं एक न•ार से देखने पर लगेगा कि पूरा का पूरा गांव सड़क पर आ चुका है। गांव के अंदर अब कोई नहीं रहना चाहता है सो गांव के अंदर सूनापन, खंडहर, डूंडे हो चले घरों की तादात बढ़ रही है। सड़क के किनारे-किनारे दूर तक रहने के लिए घर बना लिए गए हैं। लगता है कि गांव जैसे सड़क के आसपास ही आकर सघन हो उठा है। सड़क पर सारे गांव का भार आ पड़ा है। गांव की विसंगति भी सड़क से ही जुड़ी है। जिस सड़कपर गांव आश्रित होने लगा है उसका हाल बहुत अच्छा नहीं है। जिस सड़क के ईर्द -गिर्द बस्ती तेजी से आकार ले रही है वहां सड़क दिखाई नहीं पड़ती है। कई कारणों से सड़क वहां से भूतपूर्व हो जाती है। सड़क का पता बगल में लगे बोर्ड से लगता है कि फलां सन् में रोड के लिए निश्चित धन स्वीकृत हुआ था। सड़कबनाते समय न निश्चित नियम-कायदों और गुणवत्ता का और न ही किनारे पर बने घरों का ही ध्यान रखा जाता है। सड़क की ऊंचाई कितनी रखनी है वे कतई ध्यान नहीं रखते हैं। घर एक-दो फीट नीचे रह गए उनकी बला से, बरसात में गिर पड़े उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। एक गरीब किसान जिंदगी भर कमाए धन के बल पर मकान बनाता है सड़क महकमा बिना इधर-उधर देखे सड़क निकाल देता है। लगता है गांवों को रौंदते हुए शहर के लिए सड़क बनाई जाती है। शहर के विकास के लिए गांव कीमत चुका रहे हैं।
गांवों में शहर की बहुत सी चीजें आ रही हैं। जो कल तक शहरों के शहर होने के लिए हुआ करती थी-सड़क, बिजली और पानी गांव के लिए आवश्यकता बन चुके हैं। पंचायतीराज के तहत सरपंच इन योजनाओं को भोंडे रूप में अधिकारियों से मिलकर हड़प कर जाता है। गांव होने का मतलब होता है शुद्ध पर्यावरण, शुद्ध खान-पान, ठेठ किसान और देशज गहरा भाईचारा जो शहरों में नहीं हुआ करता था। जो गांव की पूंजी होने से के वल गांव में ही मिलता रहा है वह अब गांव से नदारद है। नदारद होने की प्रक्रिया तब से ही आरंभ हो जाती है जब से पंचायती चुनाव होने लगते हैं। वोटों से भाईचारे के स्थान पर स्थायी दुश्मनी आकार ले चुकी है सो गांव बुरी तरह से गुटबाजी के शिकार हंै। अब पंचायत के चुनाव ही नहीं सोसायटी, सिंचाई आदि के चुनावों की लंबी श्रृंखला है। सरपंच के माध्यम से सारे कार्य संपन्न होते हैं सो उसकी चारों उंगलियां घी में है। चुनाव बेहद महंगे हो चले हैं। सो सरपंच का उम्मीदवार येन केन प्रकारेण चुनाव जीतना चाहता है। चुनाव में जमकर खर्च करता है और चुने जाने के बाद उस धन से कई गुणा वापस निकालने के मिशन में लग जाता है। इस क्रम में भ्रष्टाचार आसानी से गांव में प्रवेश कर जाता है। भोले भाले किसान नागरिकों के बीच सरपंच अलग ही तरह का जीव समझा जाने लगता है। उसका चाल-ढाल, उठना-बैठना सब बदल चुका होता है। किसी मंत्री की तरह व्यवहार करने लगता है। अब वह अधिकारियों से मिलकर लाखों करोड़ों की योजना को रफादफा करने लगता है। किसी भी योजना में गांव का आम आदमी तो दूर पंचों से किसी तरह की सलाह लेना उचित नहीं समझा जाता है। बिना पंच के किसी योजना को अगर सरपंच गांव पर लागू करता है तो वह गांव की नहीं, किसी व्यक्ति की योजना हो सकती है तथा बिना सहमति के बनी योजना गांव के हित में नहीं हो सकती है तब भला उसके साकार व सफल होने में गांव को किसी तरह का फायदा हो न हो व्यक्ति विशेष को जरूर होता है। फलत: कई योजना कागज से बाहर नहीं आ पाती या फिर बनने के साथ ही बिगडऩे लगती है और फिर से बजट आने पर खर्च का क्रम जारी हो जाता है। ये गांव अब भ्रष्टाचार के गढ़ बन चुके हैं।
विकास के तीन माध्यम बिजली, पानी और सड़क इन्हें देखकर लगता नहीं है कि इन विभाग के अधिकारी या इंजीनियर पढ़े-लिखे भी हैं? लगता है जैसे नाम के तीनों माध्यम गांव में होने के बावजूद नहीं के बराबर है। इनका होना न होना बराबर है। सरकारी नीतियां गांव में कितने भोंडेरूप में लागू होती है, कि लागू होने के साथ ही उसके समापीकरण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। एक उदाहरण है-मनरेगा जैसी महान योजना न तो मजदूर के हित में ठहरती है न गांव के न किसान के हित में है। मजदूर इसके बल पर बारह महीनों पेट नहीं भर सकता है, इनके काम भौतिक रूप से गांव में खोजने पर भी कहीं दिखाई नहीं दे पाते हैं। लाखों-करोड़ों रुपये गांव के लिए स्वीकृत हो रहे हैं पर जमीन पर कहीं साकार नहीं होते हैं।
हर विकास परियोजना अधिकारी से होती हुई सबसे पहले सरपंच के घर पर तक दस्तक देती है। गांव हमेशा की तरह सोया रहता है। सरपंच बनने के बाद लगता नहीं है कि वह गांव के लिए है बल्कि गांव उसकी रियासत है जिस पर उसे अपनी मनमर्जी और सनक से शासन करना है, भोगना व लूटना है और अगला चुनाव के लिए हैसियत बनानी है। ठीक विधायक और सांसद की तरह। गांव का पूरी तरह से मशीनीकरण हो चुका है। गांव का किसान अब हाथों से किसी तरह का काम नहीं कर सकता है। हर काम मशीन से संपन्न होते हैं। खेत की हकाई से लेकर कटाई तक। बिजली, डीजल, ट्रैक्टर, पंप, कंपाइन, हेरो, सिड्रिल, कल्टीवेटर। बीज-खाद, कीटनाशक और रसायनिक खाद आदि के खरीदने के बाद मौसम की प्रतिकूलता महामारी सूखा से ग्रस्त किसान फसल की कीमत आधे-पौने दामों पर बेचकर आत्महत्या करने की कगार पर होता है तब पता चलता है कि गांव कितना और कहां बचा है? हम कैसा गांव बना रहे हैं? कितना कमजोर हो गया है किसान? अगर किसान कमजोर होता है तो जाहिर है कि गांव कमजोर है, गांव विकास नहीं कर रहा है मूल्य, नैतिकता पुराने जमाने की बातें रह गई हैं। शहरी दौड़ अब गांवों में हर कहीं देखी जा सकती है। गांव का युवा रातोंरात धनवान होने के सपने देखने लगा है। वह सट्टे, हवाला मार्केट के हवाले है, जुआं खेलने और शराबी होने से राह भटक चला है। गांव में किसान और वृद्धों का बुरा हाल है, स्वास्थ्य, शिक्षा और सफाई का ढांचा विकसित ही नहीं हो सका है। अस्पताल बिना डॉक्टर के है, स्कूल बिना शिक्षक के हैं। अधिकांश सीमांत किसान जमीन बेचने की कगार पर है। सामाजिक ढांचा बिखर चला है, एकल परिवार में घर का मुखिया रोटी के लिए तरस रहा है, रहने के लिए घर में कोई कोना नहीं है। शहरी दिखावा गांवों को तबाह कर रहा है। विवाह में बढ़ -चढ़ कर ताम-झाम किया जाने लगा है। दहेज की मांग लड़की को भू्रण हत्या की कगार पर पहुंचा चुकी है। फलत: ठेठ गांव सड़क से बहुत दूर वहां है जहां विकास के माध्यम नहीं पहुंचे हैं देशज रूप में पूरी आबोहवा के साथ देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए गांव पाली (लाखेरी तहसील) में आज भी बिजली, नल और सड़क नहीं हैं पर ठेठ परंपरागत समाज दृष्टिगोचर होता है। वृद्धों का पूरी तरह से सम्मान किया जा रहा है। दिखावा और दहेज जैसी बीमारी से दूर है- साथ बैठकर बड़े -बूढ़े बतियाते हैं। चेहरे पर चिंता के बजाय हंसी के दर्शन होते हैं जो अन्यथा मुश्किल हो चले हैं।