25 दिसम्बर 2015
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अपनी लिखी यू ही पढ़ देता हूँ
बहुत खूब समीर जी !
26 दिसम्बर 2015
मेरे जीवन कविता का अलंकार हो तुमसृजन के शिखर का आधार हो तुम मै शून्य, मेरा आकार हो तुम तुम्हारी छाया मे वटवृक्ष की भाति फैल जाना चाहता हु माँ, तुम्हारे लिए स्नेह गीत गाना चाहता हु तुम्हारी कल्पना का साकार हु मैं तुम्हारी वीणा का झंकार हु मै तुम वसुंधरा,भार हु मैं तुम्हारे गोद मे निश्च्छल निष्कपट सोन
पत्थरो में रह के पत्थर हो जाते हैं इमारतो के जंगल में हम खो जाते हैं एक शहर में कई शहर हो गएँ हो जैसे किसी अपने से मिले कई दिन हो जाते हैं दिन भर तलवारो की तरह मुस्तैद रह के रात म्यानों में जा के सो जाते हैं समीर कुमार शुक्ल
जिधर से आए थे उधर जाएँगे परिंदे शाम लौट के घर जाएँगेतुम अपने वादा ए वफा की फिक्र करो हमारा क्या है हम फिर मुकर जाएँगेइस उम्र ए सफर मे और चल नहीं सकता जरा सी छाव जो मिले की ठहर जायेंगेसालों महकती रहेगी सुबहो की पहली हवा इस शहर ए विरां मे कुछ ऐसा कर जाएँगे समीर कुमार शुक्ल
कोई खत पैगाम सुनाने नहीं आते कबूतर अब मेरे घर रहने नहीं आतेअपने लिखी युही पढ़ देता हूँ अंदाज़ मे मुझे गजल कहने नहीं आतेएक तहजीब सी आ गयी उनमे वो अपनी बातों से मुकरने नहीं आते समीर कुमार शुक्ल
मुझसे कोई गुजारिश ना कर जमीं गीली है बारिश ना करमैं खुद ही आग की जानिब हूँ तू रहने दे कोई साजिश ना करमेरे वजूद के सब दाग मेरे हैं किसी मासूम को मेरा वारिस ना कर समीर कुमार शुक्ल
दर्द का रिश्ता है जख्म निशानी देगा जब भी देगा आंखो मे पानी देगासुनाओ बच्चो को शहीदो की कथाएँ ये उनके खून मे जवानी देगाखोल देना किसी परिंदे का पिजड़ावो हवाओं को एक नई रवानी देगाबैठ जाना यू ही किसी बुजुर्ग के पास वो ज़रूर तुम्हें कोई कहानी देगा समीर कुमार शुक्ल
सच के बाज़ार में महगाईं बहुत हैंझूठ के शॉपिंग मॉल में आशनाई बहुत हैंपहले चीनी थोड़ी थी बच्चे ज्यादा थेआज घर में बच्चे नहीं हैं मिठाई बहुत हैंजिनमे रखते थे अपनी घड़ियां और चश्मे सम्हाल केकमबख्त आज उन डिब्बों में दवाई बहुत हैंसमीर कुमार शुक्ल
बहुत देर तक मैं कहा टिक पाऊँगा मैं चिराग हु कुछ देर मे बुझ जाऊंगाअभी जाने दो शहर मुझको मैं लौटूँगा जब ऊब जाऊंगारख दो हाथ उफनती चिमनियों पे बहुत धुआ है मैं डूब जाऊंगा समीर कुमार शुक्ल
फूल को कैसे कहूँ फूल यारो पलकों पे जमी है बहुत धूल यारो समीर कुमार शुक्ल
मोहब्बत की इबादत लिख इंसान की भूली आदत लिख सफर अंतहीन है पैरो मे हिफाज़त लिख कपड़ो को दोष न दे आंखो मे शराफत लिख फेंक दे बिरादरी चोलेनाम से पहले भारत लिख समीर कुमार शुक्ल
जैसे आगे से बंद हो कोई रस्ता जब वो मिलता है पर नहीं हँसताआप भी परेशा थे मेरी खातिर आप को देख के तो नहीं लगताजब वो पेश करता है दलीले वो सुलझता है मैं और उलझतामुझको तोहफ़े में मुस्कराहट देनाइससे ज्यादा तो कुछ नहीं सस्ता समीर कुमार शुक्ल
माना तुममे भाव बहुत है जिनको तुम व्यक्त नहीं कर पाते बात बहुत हैं अंतर्मन में जिनको तुम कह नहीं पाते लो मैं इन सबका तुमको हल देती हू मैं कविता हुलो मैं तुमको अपना स्वर देती हू समीर कुमार शुक्ल
मैं तेरी सच्ची गज़ल हू मुझे कहने देकिताबों मे नहीं मुझे दिलों मे रहने देमैं ठहर गया तो उमस जाऊंगामैं बहती हवा हू मुझे बहने देवो चला गया बरस कर चुपचापजिसे गरजना है उसे गरजने देअपनी माँ की बिंदी लगा करबच्ची को सजना है उसे सजने देसमीर कुमार शुक्ल
तमाशा ए मौत के सैकड़ो फन देखे भागती सड़कों के सर कफन देखेसिहर जाता हु बेरूह जिस्म देख के कभी आईना तो कभी अपना बदन देखेफूल सी बच्चियो के चेहरे पे मुस्कान देखे की चील सी आखो से छलनी बदन देखे समीर कुमार शुक्ल
कभी दिल की जुबा भी बोला करोबंद दरवाजो को खोला करोअलग हर आदमी है औरों सेहमे हमी से तौला करोसर्द आहों मे मजा कहा हैकभी आसुओ सा खौला करोहकीकत मे हांसिल कुछ भी नहींलूट जाओ तो बस मौला मौला करो समीर कुमार शुक्ल
वो अम्मा का मुझसे टाफियॉ छुपानाखाना खिलाने के तमाम बहाने बनानाऐ सुबहा की नींद ठहरो जरानहा लु फिर चले जनामासुम बच्चे ने फूल से कहाजब मैं मुस्कुराउ तुम भी मुस्कुरानाखेल मे घुटने छिलवा के घर आनाफुल पैंट पहन के पापा से छुपानाटोकरे को
ख़्वाहिश ए शह डसने लगी है गले मे फंदा कसने लगी है साँसे भी शायद खरीदनी पड़े आबो हवा रुख बदलने लगी है धूप ने यूं कहर ढाया हुआ है छाँव भी अब झुलसने लगी है समीर कुमार शुक्ल
जैसे नमक रहित भोजनजैसे मधु रहित रसजैसे शीतलता रहित जलवैसे ही प्रेम रहित मैं मनुष्यसूखे बीज़ की भांति रह गया हूँस्नेह जल बरसा करमाँमुझे फिर से अंकुरित कर दोसमीर कुमार शुक्ल
सच के बाज़ार में महगाईं बहुत हैंझूठ के शॉपिंग मॉल में आशनाई बहुत हैंपहले चीनी थोड़ी थी बच्चे ज्यादा थेआज घर में बच्चे नहीं हैं मिठाई बहुत हैंजिनमे रखते थे घड़ियां और चश्मे सम्हाल केकमबख्त आज उन डिब्बों में दवाई बहुत हैंसमीर कुमार शुक्ल
सींचा है किसी ने किसी ने रौदां किया हैजिससे जो बन पड़ा उसने वो किया हैहक़ीक़त को हमने पलकों पे सजायाइसने हर काम मेरा आसान किया हैहमने इंसान को इंसान है समझा इस बात ने सबको हैरान किया हैकभी ठहर कर दिल मे देखो तो जरा हमने वहाँ अच्छा इंतजाम किया है समीर कुमार शुक्ल
गर्मियों में जलता ये अलाव कैसाख्वाहिसों का बेढब फैलाव कैसामत कहो की अभावों में जियाअगर जिया तो फिर अभाव कैसाचूमते हो जिस्म जोंक की तरहप्रेम का ये कुंठित भाव कैसाकर रहा मौन संवाद वो मगरपड़ रहा मुझपे अशांत प्रभाव कैसामहक रहा है टूट कर भी वोफूल का ये समर्पित स्वभाव कैसासमीर कुमार शुक्ल
सनातन के पुरे इतिहास में जो त्रासदी सबसे बड़ी हुई वो थी नालंदा विश्वविद्यालय का नष्ट किया जाना। हमें हमारे शानदार इतिहास से वंचित कर दिया गया। सनातन के इतिहास को जो नुकसान इससे हुआ वो नागाशाकी और हिरोशिमा त्रासदियों के समतुल्य है। एक झटके से एक पीढ़ी को अपने पौराणिकता से वंचित कर दिया गया। इसी त्रासदी
हाल ही में विश्व की सबसे सम्मानित और वैज्ञानिक पत्रिका नेचर मे छपे शोध के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता 5000 वर्ष पुरानी ना हो कर 8000 वर्ष पुरानी है। इस शोध से यह सिद्ध होता है की सिंधु की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है, और इससे वामपंथ एवं मुगल चाटुकार इतिहासकारों के इस दावों का भी खंडन होता है की
एक अकेली लड़की कोजबसब देखते हैक्या क्या सोचते हैकुछ यूँ ही गुजर जाते हैकुछ आँखों से जिस्म नोचते हैकुछ जिस्म से जिस्म नोचते हैफिर यूँ ही गुजरने वालेआते हैऔर उसके आंसू पोछते हैऔर उसकी सहानभूति लेते हैताकिउसकी सहमति सेउसका जिस्म नोच सकें।समीर कुमार शुक्ल