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हतक

24 अप्रैल 2022

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दिन भर की थकी मान्दी वो अभी अभी अपने बिस्तर पर लेटी थी और लेटते ही सो गई। म्युनिसिपल कमेटी का दारोग़ा सफ़ाई, जिसे वो सेठ जी के नाम से पुकारा करती थी, अभी अभी उसकी हड्डियाँ-पस्लियाँ झिंझोड़ कर शराब के नशे में चूर, घर वापस गया था... वो रात को यहीं पर ठहर जाता मगर उसे अपनी धर्मपत्नी का बहुत ख़याल था जो उससे बेहद प्रेम करती थी।


वो रुपये जो उसने अपनी जिस्मानी मशक़्क़त के बदले उस दारोगा से वसूल किए थे, उसकी चुस्त और थूक भरी चोली के नीचे से ऊपर को उभरे हुए थे। कभी कभी सांस के उतार चढ़ाव से चांदी के ये सिक्के खनखनाने लगते और उसकी खनखनाहट उसके दिल की ग़ैर-आहंग धड़कनों में घुल मिल जाती। ऐसा मालूम होता कि उन सिक्कों की चांदी पिघल कर उसके दिल के ख़ून में टपक रही है!


उसका सीना अंदर से तप रहा था। ये गर्मी कुछ तो उस ब्रांडी के बाइस थी जिसका अद्धा दरोग़ा अपने साथ लाया था और कुछ उस “ब्यौड़ा” का नतीजा थी जिसका सोडा ख़त्म होने पर दोनों ने पानी मिला कर पिया था।


वो सागवान के लम्बे और चौड़े पलंग पर औंधे मुँह लेटी थी। उसकी बाहें जो काँधों तक नंगी थीं, पतंग की उस काँप की तरह फैली हुई थीं जो ओस में भीग जाने के बाइस पतले काग़ज़ से जुदा हो जाये। दाएं बाज़ू की बग़ल में शिकन आलूद गोश्त उभरा हुआ था जो बार बार मूंडने के बाइस नीली रंगत इख़्तियार कर गया था जैसे नुची हुई मुर्ग़ी की खाल का एक टुकड़ा वहां पर रख दिया गया है।


कमरा बहुत छोटा था जिसमें बेशुमार चीज़ें बेतर्तीबी के साथ बिखरी हुई थीं। तीन चार सूखे सड़े चप्पल पलंग के नीचे पड़े थे जिनके ऊपर मुँह रख कर एक ख़ारिश ज़दा कुत्ता सो रहा था और नींद में किसी ग़ैरमरई चीज़ को मुँह चिड़ा रहा था। उस कुत्ते के बाल जगह जगह से ख़ारिश के बाइस उड़े हुए थे। दूर से अगर कोई उस कुत्ते को देखता तो समझता कि पैर पोंछने वाला पुराना टाट दोहरा करके ज़मीन पर रख्खा है।


उस तरफ़ छोटे से दीवारगीर पर सिंगार का सामान रखा था। गालों पर लगाने की सुर्ख़ी, होंटों की सुर्ख़ बत्ती, पाउडर, कंघी और लोहे के पिन जो वो ग़ालिबन अपने जूड़े में लगाया करती थी। पास ही एक लंबी खूंटी के साथ सब्ज़ तोते का पिंजरा लटक रहा था जो गर्दन को अपनी पीठ के बालों में छुपाए सो रहा था। पिंजरा कच्चे अमरूद के टुकड़ों और गले हुए संगतरे के छिलकों से भरा पड़ा था। उन बदबूदार टुकड़ों पर छोटे छोटे काले रंग के मच्छर या पतंग उड़ रहे थे।


पलंग के पास ही बेद की एक कुर्सी पड़ी थी जिसकी पुश्त सर टेकने के बाइस बेहद मैली हो रही थी। उस कुर्सी के दाएं हाथ को एक ख़ूबसूरत तिपाई थी जिस पर हिज़ मास्टर्ज़ वाइस का पोर्टेबल ग्रामोफोन पड़ा था, उस ग्रामोफोन पर मंढे हुए काले कपड़े की बहुत बुरी हालत थी। ज़ंग आलूद सुईयाँ तिपाई के इलावा कमरे के हर कोने में बिखरी हुई थीं। उस तिपाई के ऐन ऊपर दीवार पर चार फ़्रेम लटक रहे थे जिन में मुख़्तलिफ़ आदमियों की तस्वीरें जुड़ी थीं।


उन तस्वीरों से ज़रा हट कर यानी दरवाज़े में दाख़िल होते ही बाएं तरफ़ की दीवार के कोने में गणेश जी की शोख़ रंग की तस्वीर जो ताज़ा और सूखे हुए फूलों से लदी हुई थी। शायद ये तस्वीर कपड़े के किसी थान से उतार कर फ़्रेम में जड़ाई गई थी। उस तस्वीर के साथ छोटे से दीवारगीर पर जो कि बेहद चिकना हो रहा था, तेल की एक प्याली धरी थी जो दीये को रौशन करने के लिए रखी गई थी। पास ही दीया पड़ा था जिसकी लौ हवा बंद होने के बाइस माथे के मानिंद सीधी खड़ी थी। उस दीवारगीर पर रूई की छोटी बड़ी मरोड़ियाँ भी पड़ी थीं।


जब वो बोहनी करती थी तो दूर से गणेश जी की उस मूर्ती से रुपये छुवा कर और फिर अपने माथे के साथ लगा कर उन्हें अपनी चोली में रख लिया करती थी। उसकी छातियां चूँकि काफ़ी उभरी हुई थीं इसलिए वो जितने रुपये भी अपनी चोली में रखती महफ़ूज़ पड़े रहते थे। अलबत्ता कभी कभी जब माधव पूने से छुट्टी लेकर आता तो उसे अपने कुछ रुपये पलंग के पाए के नीचे उस छोटे से गढ़े में छुपाना पड़ते थे जो उसने ख़ास इस काम की ग़रज़ से खोदा था।


माधव से रुपये महफ़ूज़ रखने का ये तरीक़ा सौगंधी को रामलाल दलाल ने बताया था। उसने जब ये सुना कि माधव पूने से आ कर सौगंधी पर धावे बोलता है तो कहा था... “उस साले को तूने कब से यार बनाया है? ये बड़ी अनोखी आशिक़ी-माशूक़ी है।”


“एक पैसा अपनी जेब से निकालता नहीं और तेरे साथ मज़े उड़ाता रहता है, मज़े अलग रहे, तुझसे कुछ ले भी मरता है... सौगंधी! मुझे कुछ दाल में काला नज़र आता है। उस साले में कुछ बात ज़रूर है जो तुझे भा गया है... सात साल... से ये धंदा कर रहा हूँ। तुम छोकरियों की सारी कमज़ोरियां जानता हूँ।”


ये कह कर राम लाल दलाल ने जो बंबई शहर के मुख़्तलिफ़ हिस्सों से दस रुपये से ले कर सौ रुपये तक वाली एक सौ बीस छोकरियों का धंदा करता था। सौगंधी को बताया, साली अपना धन यूं न बर्बाद कर... तेरे अंग पर से ये कपड़ा भी उतार कर ले जाएगा। वो तेरी माँ का यार... इस पलंग के पाए के नीचे छोटा सा गढ़ा खोद कर उसमें सारे पैसे दबा दिया कर और जब वो यार आया करे तो उससे कहा कर... तेरी जान की क़सम माधव, आज सुबह से एक अधेले का मुँह नहीं देखा। बाहर वाले से कह कर एक कप चाय और अफ़लातून बिस्कुट तो मंगा। भूक से मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं... समझीं! बहुत नाज़ुक वक़्त आ गया है मेरी जान... इस साली कांग्रेस ने शराब बंद करके बाज़ार बिल्कुल मंदा कर दिया है। पर तुझे तो कहीं न कहीं से पीने को मिल ही जाती है, भगवान की क़सम, जब तेरे यहां कभी रात की ख़ाली की हुई बोतल देखता हूँ और दारू की बॉस सूँघता हूँ तो जी चाहता है तेरी जून में चला जाऊं।”


सौगंधी को अपने जिस्म में सबसे ज़्यादा अपना सीना पसंद था। एक बार जमुना ने उससे कहा था, “नीचे से इन बंब के गोलों को बांध के रखा कर, अंगिया पहनेगी तो इनकी सख्ताई ठीक रहेगी।”


सौगंधी ये सुन कर हंस दी, “जमुना तू सबको अपनी तरह समझती है। दस रुपये में लोग तेरी बोटियां तोड़ कर चले जाते हैं। तू तो समझती है कि सब के साथ भी ऐसा ही होता होगा... कोई मुवा लगाये तो ऐसी-वैसी जगह हाथ... अरे हाँ, कल की बात तुझे सुनाऊं, राम लाल रात के दो बजे एक पंजाबी को लाया। रात का तीस रुपये तय हुआ... जब सोने लगे तो मैंने बत्ती बुझा दी... अरे वो तो डरने लगा... सुनती हो जमुना? तेरी क़सम अंधेरा होते ही उसका सारा ठाठ किरकिरा हो गया...! वो डर गया! मैंने कहा, चलो चलो, देर क्यों करते हो। तीन बजने वाले हैं, अब दिन चढ़ आयेगा, बोला, रौशनी करो, रौशनी करो... मैंने कहा, ये रौशनी क्या हुआ... बोला, लाईट... लाईट... उसकी भींची हुई आवाज़ सुनकर मुझसे हंसी न रुकी।


“भई मैं तो लाईट न करूंगी!” और ये कह कर मैंने उसकी गोश्त भरी रान की चुटकी ली... तड़प कर उठ बैठा और लाईट ऑन करदी, मैंने झट से चादर ओढ़ ली, और कहा, तुझे शर्म नहीं आती मर्दुवे! वो पलंग पर आया तो मैं उठी और लपक कर लाईट बुझा दी! वो फिर घबराने लगा... तेरी क़सम बड़े मज़े में रात कटी, कभी अंधेरा कभी उजाला, कभी उजाला, कभी अंधेरा... ट्राम की खड़खड़ हुई तो पतलून-ओतलून पहन कर वो उठ भागा... साले ने तीस रुपये सट्टे में जीते होंगे, जो यूं मुफ़्त दे गया... जमुना तू बिल्कुल अल्हड़ है। बड़े बड़े गुर याद हैं मुझे, इन लोगों को ठीक करने के लिए!”


सौगंधी को वाक़ई बहुत से गुर याद थे जो उसने अपनी एक दो सहेलियों को बताए भी थे। आम तौर पर वो ये गुर सबको बताया करती थी, “अगर आदमी शरीफ़ हो, ज़्यादा बातें न करने वाला हो तो उससे ख़ूब शरारतें करो, अनगिनत बातें करो। उसे छेड़ो, सताओ, उसके गुदगुदी करो। उससे खेलो... अगर दाढ़ी रखता हो तो उसमें उंगलियों से कंघी करते करते दो चार बाल भी नोच लो, पेट बड़ा हो तो थपथपाओ... उसको इतनी मोहलत ही न दो कि अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कुछ करने पाए... वो ख़ुश ख़ुश चला जाएगा और रक़म भी बची रहेगी... ऐसे मर्द जो गुपचुप रहते हैं बड़े ख़तरनाक होते हैं बहन... हड्डी-पसली तोड़ देते हैं अगर उनका दाव चल जाये।”


सौगंधी इतनी चालाक नहीं थी जितनी ख़ुद को ज़ाहिर करती थी। उसके गाहक बहुत कम थे ग़ायत दर्जा जज़्बाती लड़की थी। यही वजह है कि वो तमाम गुर जो उसे याद थे उसके दिमाग़ से फिसल कर उसके पेट में आ जाते थे जिस पर एक बच्चा पैदा करने के बाइस कई लकीरें पड़ गई थीं... उन लकीरों को पहली मर्तबा देख कर उसे ऐसा लगा था कि उसके ख़ारिशज़दा कुत्ते ने अपने पंजे से ये निशान बना दिये हैं।


सौगंधी दिमाग़ में ज़्यादा रहती थी लेकिन जूंही कोई नर्म-नाज़ुक बात, कोई कोमल बोली, उससे कहता तो झट पिघल कर वो अपने जिस्म के दूसरे हिस्सों में फैल जाती। गो मर्द और औरत के जिस्मानी मिलाप को उसका दिमाग़ बिल्कुल फ़ुज़ूल समझता था। मगर उसके जिस्म के बाक़ी आज़ा सब के सब उसके बहुत बुरी तरह क़ाइल थे! वो थकन चाहते थे...


ऐसी थकन जो उन्हें झिंझोड़ कर... उसे मारकर सुलाने पर मजबूर करदे! ऐसी नींद जो थक कर चूर चूर हो जाने के बाद आए, कितनी मज़ेदार होती है... वो बेहोशी जो मार खा कर बंद बंद ढीले हो जाने पर तारी होती है, कितना आनंद देती है...! कभी ऐसा होता है कि तुम हो और कभी ऐसा मालूम होता है कि तुम नहीं और इस होने और न होने के बीच में कभी कभी ऐसा भी महसूस होता है कि तुम हवा में बहुत ऊंची जगह लटकी हुई हो। ऊपर हवा, नीचे हवा, दाएं हवा, बाएं हवा, बस हवा ही हवा! और फिर इस हवा में दम घुटना भी एक ख़ास मज़ा देता है।


बचपन में जब वो आंखमिचौली खेला करती थी, और अपनी माँ का बड़ा संदूक़ खोल कर उसमें छुप जाया करती थी, तो नाकाफ़ी हवा में दम घुटने के साथ साथ पकड़े जाने के ख़ौफ़ से वो तेज़ धड़कन जो उसके दिल में पैदा हो जाया करती थी कितना मज़ा दिया करती थी।


सौगंधी चाहती थी कि अपनी सारी ज़िंदगी किसी ऐसे ही संदूक़ में छुप कर गुज़ार दे जिसके बाहर ढ़ूढ़ने वाले फिरते रहें। कभी कभी उसको ढूंढ निकालें ताकि वो कभी उनको ढ़ूढ़ने की कोशिश करे! ये ज़िंदगी जो वो पाँच बरस से गुज़ार रही थी, आंख मिचौली ही तो थी! कभी वो किसी को ढूंढ लेती थी और कभी कोई उसे ढूंढ लेता था...


बस यूंही उसका जीवन बीत रहा था। वो ख़ुश थी इसलिए कि उसको ख़ुश रहना पड़ता था। हर रोज़ रात को कोई न कोई मर्द उसके चौड़े सागवानी पलंग पर होता था और सौगंधी जिसको मर्दों के ठीक करने के लिए बेशुमार गुर याद थे। इस बात का बार बार तहय्या करने पर भी कि वो उन मर्दों की कोई ऐसी वैसी बात नहीं मानेगी और उनके साथ बड़े रूखेपन के साथ पेश आएगी, हमेशा अपने जज़्बात के धारे में बह जाया करती थी और फ़क़त एक प्यासी औरत रह जाया करती थी!


हर रोज़ रात को उसका पुराना या नया मुलाक़ाती उससे कहा करता था, “सौगंधी मैं तुझसे प्रेम करता हूँ।” और सौगंधी ये जानबूझ कर भी कि वो झूट बोलता है बस मोम हो जाती थी और ऐसा महसूस करती थी जैसे सचमुच उससे प्रेम किया जा रहा है... प्रेम... कितना सुंदर बोल है!


वो चाहती थी, उसको पिघला कर अपने सारे अंगों पर मल ले उसकी मालिश करे ताकि ये सारे का सारा उसके मुसामों में रच जाये... या फिर वो ख़ुद उसके अन्दर चली जाये। सिमट सिमटा कर उसके अंदर दाख़िल हो जाये और ऊपर से ढकना बंद करदे। कभी कभी जब प्रेम किए जाने का जज़्बा उसके अंदर बहुत शिद्दत इख़्तियार कर लेता तो कई बार उसके जी में आता कि अपने पास पड़े हुए आदमी को गोद ही में लेकर थपथपाना शुरू करदे और लोरियां दे कर उसे गोद ही में सुला दे।


प्रेम कर सकने की अहलियत उसके अंदर इस क़दर ज़्यादा थी कि हर उस मर्द से जो उसके पास आता था, वो मोहब्बत कर सकती थी और फिर उसको निबाह भी सकती थी। अब तक चार मर्दों से अपना प्रेम निबाह ही तो रही थी जिनकी तस्वीरें उसके सामने दीवार पर लटक रही थीं।


हर वक़्त ये एहसास उसके दिल में मौजूद रहता था कि वो बहुत अच्छी है लेकिन ये अच्छापन मर्दों में क्यों नहीं होता। ये बात उसकी समझ में नहीं आती थी... एक बार आईना देखते हुए बेइख़्तियार उसके मुँह से निकल गया था... “सौगंधी, तुझसे ज़माने ने अच्छा सुलूक नहीं किया!”


ये ज़माना यानी पाँच बर्सों के दिन और उनकी रातें, उसके जीवन के हर तार के साथ वाबस्ता थे। गो उस ज़माने से उसको ख़ुशीनसीब नहीं हुई थी जिसकी ख़्वाहिश उसके दिल में मौजूद थी। ताहम वो चाहती थी कि यूंही उसके दिन बीतते चले जाएं, उसे कौन से महल खड़े करना थे जो रुपये-पैसे का लालच करती। दस रुपये उसका आम नर्ख़ था जिसमें से ढाई रुपये रामलाल अपनी दलाली के काट लेता था। साढ़े सात रुपये उसे रोज़ मिल ही जाया करते थे जो उसकी अकेली जान के लिए काफ़ी थे और माधव जब पूने से बक़ौल रामलाल दलाल, सौगंधी पर धावे बोलने के लिए आता था तो वो दस पंद्रह रुपये खिराज भी अदा करती थी!


ये खिराज सिर्फ़ इस बात का था कि सौगंधी को उससे कुछ वो हो गया था। रामलाल दलाल ठीक कहता था, उसमें ऐसी बात ज़रूर थी जो सौगंधी को बहुत भा गई थी। अब उसको छुपाना क्या! बता ही क्यों नहीं दें!


सौगंधी से जब माधव की पहली मुलाक़ात हुई तो उसने कहा था, “तुझे लाज नहीं आती अपना भाव करते! जानती है तू मेरे साथ किस चीज़ का सौदा कर रही है... और मैं तेरे पास क्यों आया हूँ...? छी छी छी... दस रुपये और जैसा कि तू कहती है ढाई रुपये दलाल के, बाक़ी रहे साढ़े सात, रहे न साढ़े सात...? अब इन साढ़े सात रूपों पर तू मुझे ऐसी चीज़ देने का वचन देती है जो तू दे ही नहीं सकती और मैं ऐसी चीज़ लेने आया, जो मैं ले ही नहीं सकता... मुझे औरत चाहिए पर तुझे क्या इस वक़्त इसी घड़ी मर्द चाहिए...? मुझे तो कोई औरत भी भा जाएगी पर क्या मैं तुझे जचता हूँ...! तेरा मेरा नाता ही क्या है, कुछ भी नहीं... बस ये दस रुपये, जिनमें से ढाई रुपये दलाली में चले जाएंगे और बाक़ी इधर उधर बिखर जाएंगे, तेरे और मेरे बीच में बज रहे हैं... तू भी इनका बजना सुन रही है और मैं भी। तेरा मन कुछ और सोचता है मेरा मन कुछ और... क्यों न कोई ऐसी बात करें कि तुझे मेरी ज़रूरत हो और मुझे तेरी... पूने में हवलदार हूँ, महीने में एक बार आया करूंगा। तीन-चार दिन के लिए... ये धंदा छोड़, मैं तुझे ख़र्च दे दिया करूंगा... क्या भाड़ा है इस खोली का?”


माधव ने और भी बहुत कुछ कहा था जिसका असर सौगंधी पर इस क़दर ज़्यादा हुआ था कि वो चंद लम्हात के लिए ख़ुद को हवालदारनी समझने लगी थी। बातें करने के बाद माधव ने उसके कमरे की बिखरी हुई चीज़ें करीने से रखी थीं और नंगी तस्वीरें जो सौगंधी ने अपने सिरहाने लटका रखी थीं, बिना पूछे-गछे फाड़ दी थीं और कहा था... “सौगंधी, भई मैं ऐसी तस्वीरें यहां नहीं रखने दूंगा...और पानी का ये घड़ा... देखना कितना मैला है और ये... ये चीथड़े, ये चिंदियाँ... उफ़, कितनी बुरी बॉस आती है, उठा के बाहर फेंक इनको... और तू ने अपने बालों का सत्यानास कर रखा है... और... और...”


तीन घंटे की बातचीत के बाद सौगंधी और माधव आपस में घुल मिल गए थे और सौगंधी को तो ऐसा महसूस हुआ था कि बरसों से हवालदार को जानती है, उस वक़्त तक किसी ने भी कमरे में बदबूदार चीथड़ों, मैले घड़े और नंगी तस्वीरों की मौजूदगी का ख़याल नहीं किया था और न कभी किसी ने उसको ये महसूस करने का मौक़ा दिया था कि उसका एक घर है जिसमें घरेलूपन आ सकता है।


लोग आते थे और बिस्तर तक ग़लाज़त को महसूस किए बग़ैर चले जाते थे। कोई सौगंधी से ये नहीं कहता था, “देख तो आज तेरी नाक कितनी लाल हो रही है, कहीं ज़ुकाम न हो जाये तुझे... ठहर मैं तेरे वास्ते दवा लाता हूँ।” माधव कितना अच्छा था उसकी हर बात बावन तोला और पाव-रत्ती की थी। क्या खरी खरी सुनाई थीं उसने सौगंधी को... उसे महसूस होने लगा कि उसे माधव की ज़रूरत है। चुनांचे उन दोनों का संबंध हो गया।


महीने में एक बार माधव पूने से आता था और वापस जाते हुए हमेशा सौगंधी से कहा करता था, “देख सौगंधी! अगर तू ने फिर से अपना धंदा शुरू किया तो बस तेरी मेरी टूट जाएगी... अगर तू ने एक बार भी किसी मर्द को अपने यहां ठहराया तो चुटिया से पकड़ कर बाहर निकाल दूंगा... देख इस महीने का ख़र्च मैं तुझे पूना पहुंचते ही मनी आर्डर कर दूँगा... हाँ क्या भाड़ा है इस खोली का...”


न माधव ने कभी पूना से ख़र्च भेजा था और न सौगंधी ने अपना धंदा बंद किया था। दोनों अच्छी तरह जानते थे कि क्या हो रहा है। न सौगंधी ने कभी माधव से ये कहा था कि “तू ये क्या टरटर किया करता है, एक फूटी कौड़ी भी दी है कभी तू ने?” और न माधव ने कभी सौगंधी से पूछा था, “ये माल तेरे पास कहाँ से आता है जब कि मैं तुझे कुछ देता ही नहीं...”


दोनों झूटे थे। दोनों एक मुलम्मा की हुई ज़िंदगी बसर कर रहे थे... लेकिन सौगंधी ख़ुश थी जिसको असल सोना न मिले वो मुलम्मा किए हुए गहनों ही पर राज़ी हो जाया करता है।


उस वक़्त सौगंधी थकी माँदी सो रही थी। बिजली का क़ुमक़ुमा जिसे ऑफ़ करना वो भूल गई थी उसके सर के ऊपर लटक रहा था। उसकी तेज़ रौशनी उसकी मुंदी हुई आँखों के सामने टकरा रही थी। मगर वो गहरी नींद सो रही थी।


दरवाज़े पर दस्तक हुई... रात के दो बजे ये कौन आया था? सौगंधी के ख़्वाब आलूद कानों में दस्तक भुनभुनाहट बन कर पहुंची। दरवाज़ा जब ज़ोर से खटखटाया गया तो चौंक कर उठ बैठी... दो मिली-जुली शराबों और दाँतों के रेखों में फंसे हुए मछली के रेज़ों ने उसके मुँह के अंदर ऐसा लुआब पैदा कर दिया था जो बेहद कसैला और लेसदार था। धोती के पल्लू से उसने ये बदबूदार लुआब साफ़ किया और आँखें मलने लगी।


पलंग पर वो अकेली थी। झुक कर उसने पलंग के नीचे देखा तो उसका कुत्ता सूखे हुए चप्पलों पर मुँह रखे सो रहा था और नींद में किसी ग़ैरमरई चीज़ को मुँह चिड़ा रहा था और तोता पीठ के बालों में सर दिए सो रहा था।


दरवाज़े पर दस्तक हुई। सौगंधी बिस्तर पर से उठी। सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। घड़े से पानी का एक डोंगा निकाल कर उसने कुल्ली की और दूसरा डोंगा गटा गट पी कर उसने दरवाज़े का पट थोड़ा सा खोला और कहा, “रामलाल?”


राम लाल जो बाहर दस्तक देते हुए थक गया था। भन्ना कर कहने लगा, “तुझे साँप सूंघ गया था या क्या हो गया था। एक क्लाक (घंटे) से बाहर खड़ा दरवाज़ा खटखटा रहा हूँ, कहाँ मर गई थी?” फिर आवाज़ दबा कर उसने हौले से कहा, “अंदर कोई है तो नहीं?”


जब सौगंधी ने कहा, “नहीं...” तो रामलाल की आवाज़ फिर ऊंची हो गई, “तो दरवाज़ा क्यों नहीं खोलती...? भई हद हो गई है, क्या नींद पाई है। यूं एक एक छोकरी उतारने में दो दो घंटे सर खपाना पड़े तो मैं अपना धंदा कर चुका... अब तू मेरा मुँह क्या देखती है। झटपट ये धोती उतार कर वह फूलों वाली साड़ी पहन, पावडर-वावडर लगा और चल मेरे साथ... बाहर मोटर में एक सेठ बैठे तेरा इंतिज़ार कर रहे हैं... चल चल एक दम जल्दी कर।”


सौगंधी आराम कुर्सी पर बैठ गई और रामलाल आईने के सामने अपने बालों में कंघी करने लगा।


सौगंधी ने तिपाई की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया और बाम की शीशी उठा कर उसका ढकना खोलते हुए कहा, “रामलाल आज मेरा जी अच्छा नहीं।”


रामलाल ने कंघी दीवारगीर पर रख दी और मुड़ कर कहा, “तो पहले ही कह दिया होता।” सौगंधी ने माथे और कनपटियों पर बाम से छूते हुए ग़लतफ़हमी दूर करदी।


“वो बात नहीं, रामलाल! ऐसे ही, मेरा जी अच्छा नहीं... बहुत पी गई।”


राम लाल के मुँह में पानी भर आया, “थोड़ी बची हो तो ला... ज़रा हम भी मुँह का मज़ा ठीक करलें।”


सौगंधी ने बाम की शीशी तिपाई पर रख दी और कहा, “बचाई होती तो ये मुवा सर में दर्द ही क्यों होता... देख रामलाल! वो जो बाहर मोटर में बैठा है उसे अंदर ही ले आओ।”


रामलाल ने जवाब दिय, “नहीं भई, वो अंदर नहीं आ सकते। जैंटलमैन आदमी हैं। वो तो मोटर को गली के बाहर खड़ी करते हुए घबराते थे... तू कपड़े-वपड़े पहन ले और ज़रा गली के नुक्कड़ तक चल... सब ठीक हो जाएगा।”


साढ़े सात रुपये का सौदा था। सौगंधी इस हालत में जबकि उसके सर में शिद्दत से दर्द हो रहा था, कभी क़बूल न करती मगर उसे रूपों की सख़्त ज़रूरत थी। उसकी साथ वाली खोली में एक मद्रासी औरत रहती थी जिसका ख़ाविंद मोटर के नीचे आ कर मर गया था। उस औरत को अपनी जवान लड़की समेत वतन जाना था। लेकिन उसके पास चूँकि किराया ही नहीं था इसलिए वो कसमपुर्सी की हालत में पड़ी थी। सौगंधी ने कल ही उसको ढारस दी थी और उससे कहा था, “बहन तू चिंता न कर। मेरा मर्द पूने से आने ही वाला है, मैं उससे कुछ रुपये ले कर तेरे जाने का बंदोबस्त कर दूँगी।”


माधव पूना से आने वाला था। मगर रूपों का बंदोबस्त तो सौगंधी ही को करना था। चुनांचे वो उठी और जल्दी जल्दी कपड़े तब्दील करने लगी। पाँच मिनटों में उसने धोती उतार कर फूलों वाली साड़ी पहनी और गालों पर सुर्ख़ पोडर लगा कर तैयार हो गई। घड़े के ठंडे पानी का एक और डोंगा पिया और रामलाल के साथ हो ली।


गली जो कि छोटे शहरों के बाज़ार से भी कुछ बड़ी थी। बिल्कुल ख़ामोश थी गैस के वो लैम्प जो खंबों पर जड़े थे पहले की निस्बत बहुत धुँदली रौशनी दे रहे थे। ज़ंग के बाइस उनके शीशों को गदला कर दिया गया था। इस अंधी रौशनी में गली के आख़िरी सिरे पर एक मोटर नज़र आ रही थी।


कमज़ोर रौशनी में उसे स्याह रंग की मोटर का साया सा नज़र आया और रात के पिछले पहर की भेदों भरी ख़ामोशी... सौगंधी को ऐसा लगा कि उसके सर का दर्द फ़िज़ा पर भी छा गया है। एक कसैलापन उसे हवा के अंदर भी महसूस होता था जैसे ब्रांडी और बेवड़ा की बॉस से वो बोझल हो रही है।


आगे बढ़ कर रामलाल ने मोटर के अंदर बैठते हुए आदमियों से कुछ कहा। इतने में जब सौगंधी मोटर के पास पहुंच गई तो रामलाल ने एक तरफ़ हट कर कहा, “लीजिए वो आ गई।”


“बड़ी अच्छी छोकरी है थोड़े ही दिन हुए हैं इसे धंदा शुरू किये।” फिर सौगंधी से मुख़ातिब हो कर कहा, “सौगंधी, इधर आओ सेठ जी बुलाते हैं।”


सौगंधी साड़ी का एक किनारा अपनी उंगली पर लपेटती हुई आगे बढ़ी और मोटर के दरवाज़े के पास खड़ी हो गई। सेठ साहिब ने बैट्री उसके चेहरे के पास रौशन की। एक लम्हे के लिए उस रौशनी ने सौगंधी की ख़ुमार आलूद आँखों में चकाचौंद पैदा की। बटन दबाने की आवाज़ पैदा हुई और बुझ गई। साथ ही सेठ के मुँह से “ऊंह” निकला। फिर एक मोटर का इंजन फड़फड़ाया और कार यह जा वो जा...


सौगंधी कुछ सोचने भी न पाई थी कि मोटर चल दी। उसकी आँखों में अभी तक बैट्री की तेज़ रौशनी घुसी हुई थी। वो ठीक तरह से सेठ का चेहरा भी तो न देख सकी थी। ये आख़िर हुआ क्या था। इस 'ऊंह' का क्या मतलब था। जो अभी तक उसके कानों में भिनभिना रही थी। क्या...? क्या?


रामलाल दलाल की आवाज़ सुनाई दी, “पसंद नहीं किया तुझे। दो घंटे मुफ़्त में ही बर्बाद किये।”


ये सुन कर सौगंधी की टांगों में, उसकी बाँहों में, उसके हाथों में एक ज़बरदस्त हरकत का इरादा पैदा हुआ। कहाँ थी वो मोटर... कहाँ था वो सेठ... तो 'ऊंह' का मतलब ये था कि उसने मुझे पसंद नहीं किया... उसकी...


गाली उसके पेट के अंदर उठी और ज़बान की नोक पर आ कर रुक गई। वो आख़िर गाली किसे देती, मोटर तो जा चुकी थी। उसकी दुम की सुर्ख़ बत्ती उसके सामने बाज़ार के अंधियारे में डूब रही थी और सौगंधी को ऐसा महसूस हो रहा था कि ये लाल लाल अंगारा 'ऊंह' है जो उसके सीने में बर्मे की तरह उतरा चला जा रहा है। उसके जी में आया के ज़ोर से पुकारे, “ओ सेठ, ज़रा मोटर रोकना अपनी... बस एक मिनट के लिए।” 


वो सुनसान बाज़ार में खड़ी थी। फूलों वाली साड़ी जो वो ख़ास ख़ास मौक़ों पर पहना करती थी, रात के पिछले पहर की हल्की हल्की हवा से लहरा रही थी। ये साड़ी और उसकी रेशमी सरसराहट सौगंधी को कितनी बुरी मालूम होती थी। वो चाहती थी कि इस साड़ी के चीथड़े उड़ा दे क्योंकि साड़ी हवा में लहरा लहरा कर 'ऊंह' 'ऊंह' कर रही थी।


गालों पर उसने पावडर लगाया था और होंटों पर सुर्ख़ी। जब उसे ख़याल आया कि ये सिंगार उसने अपने आपको पसंद कराने के वास्ते किया था तो शर्म के मारे उसे पसीना आ गया। ये शर्मिंदगी दूर करने के लिए उसने कुछ सोचा... मैंने इस मुए को दिखाने के लिए थोड़ी अपने आपको सजाया था। ये तो मेरी आदत है... मेरी क्या सबकी यही आदत है... पर... पर... ये रात के दो बजे और रामलाल दलाल और... ये बाज़ार... और वो मोटर और बैट्री की चमक... ये सोचते ही रौशनी के धब्बे उसकी हद्द-ए-निगाह तक फ़िज़ा में इधर उधर तैरने लगे और मोटर के इंजन की फड़फड़ाहट उसे हवा के हर झोंके में सुनाई देने लगी।


उसके माथे पर बाम का लेप जो सिंगार करने के दौरान में बिल्कुल हल्का हो गया था, पसीना आने के बाइस उसके मुसामों में दाख़िल होने लगा और सौगंधी को अपना माथा किसी और का माथा मालूम हुआ। जब हवा का एक झोंका उसके अर्क़ आलूद माथे के पास से गुज़रा तो उसे ऐसा लगा कि सर्द सर्द टीन का टुकड़ा काट कर उसके माथे के साथ चस्पाँ कर दिया गया है। सर में दर्द वैसे का वैसा मौजूद था मगर ख़्यालात की भीड़ भाड़ और उनके शोर ने इस दर्द को अपने नीचे दबा रखा था।


सौगंधी ने कई बार इस दर्द को अपने ख़यालात के नीचे से निकाल कर ऊपर लाना चाहा मगर नाकाम रही। वो चाहती थी कि किसी न किसी तरह उसका अंग अंग दुखने लगे, उसके सर में दर्द हो, उसकी टांगों में दर्द हो, उसके पेट में दर्द हो, उसकी बाँहों में दर्द हो। ऐसा दर्द कि वो सिर्फ़ दर्द ही का ख़याल करे और सब कुछ भूल जाये। ये सोचते सोचते उसके दिल में कुछ हुआ... क्या ये दर्द था? एक लम्हे के लिए उसका दिल सिकुड़ा और फिर फैल गया... ये क्या था? लानत! ये तो वही 'ऊंह' थी जो उसके दिल के अंदर कभी सिकुड़ती थी और कभी फैलती थी।


घर की तरफ़ सौगंधी के क़दम उठे ही थे कि रुक गए और वो ठहर कर सोचने लगी, राम लाल दलाल का ख़याल है कि उसे मेरी शक्ल पसंद नहीं आई... शक्ल का तो उसने ज़िक्र नहीं किया। उसने तो ये कहा था, सौगंधी तुझे पसंद नहीं किया! उसे... उसे... सिर्फ़ मेरी शक्ल ही पसंद नहीं आई तो क्या हुआ? मुझे भी तो कई आदमियों की शक्ल पसंद नहीं आती...


वो जो अमावस की रात को आया था। कितनी बुरी सूरत थी उसकी... क्या मैंने नाक-भौं नहीं चढ़ाई थी? जब वो मेरे साथ सोने लगा था तो मुझे घिन नहीं आई थी? क्या मुझे उबकाई आते आते नहीं रुक गई थी? ठीक है, पर सौगंधी... तूने उसे धुतकारा नहीं था। तूने उसको ठुकराया नहीं था... उस मोटर वाले सेठ ने तो तेरे मुँह पर थूका है... ऊंह... इस 'ऊंह' का और मतलब ही क्या है? यही कि इस छछूंदर के सर में चम्बेली का तेल... ऊंह... ये मुँह और मसूर की दाल... अरे रामलाल तू ये छिपकली कहाँ से पकड़ करले आया है... इस लौंडिया की इतनी तारीफ़ कर रहा है तू... दस रुपये और ये औरत... ख़च्चर क्या बुरी है।


सौगंधी सोच रही थी और उसके पैर के अंगूठे से लेकर सर की चोटी तक गर्म लहरें दौड़ रही थीं। उसको कभी अपने आप पर ग़ुस्सा आता था, कभी रामलाल दलाल पर जिसने रात के दो बजे उसे बेआराम किया। लेकिन फ़ौरन ही दोनों को बेक़सूर पा कर वो सेठ का ख़याल करती थी।


इस ख़याल के आते ही उसकी आँखें, उसके कान, उसकी बाँहें, उसकी टांगें, उसका सब कुछ मुड़ता था कि उस सेठ को कहीं देख पाए... उसके अंदर ख़्वाहिश बड़ी शिद्दत से पैदा हो रही थी कि जो कुछ हो चुका है एक बार फिर हो... सिर्फ़ एक बार... वो हौले-हौले मोटर की तरफ़ बढ़े। मोटर के अंदर से एक हाथ बैट्री निकाले और उसके चेहरे पर रौशनी फेंके। 'ऊंह' की आवाज़ आए और वो... सौगंधी अंधाधुंद अपने दोनों पंजों से उसका मुँह नोचना शुरू कर दे। वहशी बिल्ली की तरह झपटे और... और अपनी उंगलियों के सारे नाख़ुन जो उसने मौजूदा फ़ैशन के मुताबिक़ बढ़ा रखे थे। उस सेठ के गालों में गाड़ दे... बालों से पकड़ कर उसे बाहर घसीट ले और धड़ा धड़ मुक्के मारना शुरू कर दे और जब थक जाये... जब थक जाये तो रोना शुरू कर दे।


रोने का ख़याल सौगंधी को सिर्फ़ इसलिए आया कि उसकी आँखों में ग़ुस्से और बेबसी की शिद्दत के बाइस तीन-चार बड़े बड़े आँसू बन रहे थे। एका एकी सौगंधी ने अपनी आँखों से सवाल किया। तुम रोती क्यों हो? तुम्हें क्या हुआ है कि टपकने लगी हो? आँखों से किया हुआ सवाल चंद लम्हात तक उन आँसूओं में तैरता रहा जो अब पलकों पर काँप रहे थे। सौगंधी उन आँसुओं में से देर तक उस ख़ला को घूरती रही जिधर सेठ की मोटर गई थी।


फड़ फड़ फड़... ये आवाज़ कहाँ से आई? सौगंधी ने चौंक कर इधर उधर देखा लेकिन किसी को न पाया... अरे ये तो उसका दिल फड़ फड़ाया था। वो समझी थी मोटर का इंजन बोला है... उसका दिल... ये क्या हो गया था उसके दिल को! आज ही रोग लग गया था उसे... अच्छा भला चलता चलता एक जगह रुक कर धड़ धड़ क्यों करता था... बिल्कुल उसे घिसे हुए रिकार्ड की तरह जो सुई के नीचे एक जगह आके रुक जाता है। रात कटी गिन गिन तारे कहता कहता तारे तारे की रट लगा देता था।


आसमान तारों से अटा हुआ था। सौगंधी ने उनकी तरफ़ देखा और कहा कितने सुंदर हैं... वो चाहती थी कि अपना ध्यान किसी और तरफ़ पलट दे। पर जब उसने सुंदर कहा तो झट से ये ख़याल उसके दिमाग़ में कूदा। ये तारे सुंदर हैं पर तू कितनी भोंडी है... क्या भूल गई अभी अभी तेरी सूरत को फटकारा गया है?


सौगंधी बदसूरत तो नहीं थी। ये ख़याल आते ही वो तमाम अक्स एक एक करके उसकी आँखों के सामने आने लगे, जो इन पाँच बरसों के दौरान में वो आईने में देख चुकी थी। इसमें शक नहीं कि उसका रंग-रूप अब वो नहीं रहा था जो आज से पाँच साल पहले था जब कि वो तमाम फ़िक़्रों से आज़ाद अपने माँ-बाप के साथ रहा करती थी। लेकिन वो बदसूरत तो नहीं हो गई थी। उसकी शक्ल-ओ-सूरत उन आम औरतों की सी थी जिनकी तरफ़ मर्द गुज़रते गुज़रते घूर के देख लिया करते हैं। उसमें वो तमाम खूबियां मौजूद थीं जो सौगंधी के ख़याल में हर मर्द उस औरत में ज़रूरी समझता है जिसके साथ उसे एक दो रातें बसर करना होती हैं। वो जवान थी, उसके आज़ा मुतनासिब थे। कभी कभी नहाते वक़्त जब उसकी निगाहें अपनी रानों पर पड़ती थीं तो वो ख़ुद उनकी गोलाई और गुदगुदाहट को पसंद किया करती थी।


वो ख़ुशख़ल्क़ थी। इन पाँच बरसों के दौरान में शायद ही कोई आदमी उससे नाख़ुश हो कर गया हो... बड़ी मिलनसार थी, बड़ी रहमदिल थी। पिछले दिनों जब क्रिसमस में वो गोल पेठा में रहा करती थी, एक नौजवान लड़का उसके पास आया था। सुबह उठकर जब उसने दूसरे कमरे में जा कर खूंटी से कोट उतारा तो बटवा ग़ायब पाया। सौगंधी का नौकर ये बटवा ले उड़ा था। बेचारा बहुत परेशान हुआ। छुट्टियां गुज़ारने के लिए हैदराबाद से बंबई आया था। अब उसके पास वापस जाने के लिए दाम न थे। सौगंधी ने तरस खा कर उसे उसके दस रुपये वापस दे दिए थे...


मुझ में क्या बुराई है? सौगंधी ने ये सवाल हर उस चीज़ से किया जो उसकी आँखों के सामने थी। गैस के अंधे लैम्प, लोहे के खंबे, फुटपाथ के चौकोर पत्थर और सड़क की उखड़ी हुई बजरी... इन सब चीज़ों की तरफ़ उसने बारी बारी देखा, फिर आसमान की तरफ़ निगाहें उठाईं जो उसके ऊपर झुका हुआ था, मगर सौगंधी को कोई जवाब न मिला।


जवाब उसके अंदर मौजूद था। वो जानती थी कि वो बुरी नहीं अच्छी है, पर वो चाहती थी कि कोई उसकी ताईद करे... कोई... कोई... इस वक़्त उसके काँधों पर हाथ रख कर सिर्फ़ इतना कह दे, “सौगंधी! कौन कहता है, तू बुरी है, जो तुझे बुरा कहे वो आप बुरा है...” नहीं ये कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी। किसी का इतना कह देना काफ़ी था, “सौगंधी तू बहुत अच्छी है!”


वो सोचने लगी कि वो क्यों चाहती है कोई उसकी तारीफ़ करे। इससे पहले उसे इस बात की इतनी शिद्दत से ज़रूरत महसूस न हुई थी। आज क्यों वो बेजान चीज़ों को भी ऐसी नज़रों से देखती है जैसे उन पर अपने अच्छे होने का एहसास तारी करना चाहती है, उसके जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा क्यों माँ बन रहा है... वो माँ बन कर धरती की हर शय को अपनी गोद में लेने के लिए क्यों तैयार हो रही थी? उसका जी क्यों चाहता था कि सामने वाले गैस के आहनी खंबे के साथ चिमट जाये और उसके सर्द लोहे पर अपने गाल रख दे... अपने गर्म-गर्म गाल और उसकी सारी सर्दी चूस ले।


थोड़ी देर के लिए उसे ऐसा महसूस हुआ कि गैस के अंधे लैम्प, लोहे के खंबे, फुटपाथ के चौकोर पत्थर और हर वो शय जो रात के सन्नाटे में उसके आस पास थी। हमदर्दी की नज़रों से उसे देख रही है और उसके ऊपर झुका हुआ आसमान भी जो मटियाले रंग की ऐसी मोटी चादर मालूम होता था जिसमें बेशुमार सूराख़ हो रहे हैं, उसकी बातें समझता था और सौगंधी को भी ऐसा लगता था कि वो तारों का टिमटिमाना समझती है... लेकिन उसके अंदर क्या गड़बड़ थी? वो क्यों अपने अंदर उस मौसम की फ़िज़ा महसूस करती थी जो बारिश से पहले देखने में आया करता है... उसका जी चाहता था कि उसके जिस्म का हर मसाम खुल जाये और जो कुछ उसके अंदर उबल रहा है उनके रस्ते बाहर निकल जाये। पर ये कैसे हो... कैसे हो?


सौगंधी गली के नुक्कड़ पर ख़त डालने वाले लाल भबके के पास खड़ी थी... हवा के तेज़ झोंके से उस भबके की आहनी ज़बान जो उसके खुले हुए मुँह में लटकती रहती है, लड़खड़ाई तो सौगंधी की निगाहें यक-ब-यक उसकी तरफ़ उठीं जिधर मोटर गई थी मगर उसे कुछ नज़र न आया... उसे कितनी ज़बरदस्त आरज़ू थी कि मोटर फिर एक बार आए और... और... न आए... बला से... मैं अपनी जान क्यों बेकार हलकान करूं। घर चलते हैं और आराम से लंबी तान कर सोते हैं। इन झगड़ों में रखा ही क्या है। मुफ़्त की दर्दसरी ही तो है... चल सौगंधी घर चल... ठंडे पानी का एक डोंगा पी और थोड़ा सा बाम मल कर सो जा... फस्ट क्लास नींद आएगी और सब ठीक हो जाएगा... सेठ और उसकी मोटर की ऐसी तैसी...


ये सोचते हुए सौगंधी का बोझ हल्का हो गया। जैसे वो किसी ठंडे तालाब से नहा-धो कर बाहर निकली है। जिस तरह पूजा करने के बाद उसका जिस्म हल्का हो जाता था, उसी तरह अब भी हल्का हो गया था। घर की तरफ़ चलने लगी तो ख़यालात का बोझ न होने के बाइस उसके क़दम कई बार लड़खड़ाए।


अपने मकान के पास पहुंची तो एक टीस के साथ फिर तमाम वाक़िया उसके दिल में उठा और दर्द की तरह उसके रोएँ रोएँ पर छा गया... क़दम फिर बोझल हो गए और वो इस बात को शिद्दत के साथ महसूस करने लगी कि घर से बुला कर, बाहर बाज़ार में मुँह पर रौशनी का चांटा मार कर एक आदमी ने उसकी अभी अभी हतक की है। ये ख़याल आया तो उसने अपनी पसलियों पर किसी के सख़्त अंगूठे महसूस किए जैसे कोई उसे भेड़-बकरी की तरह दबा दबा कर देख रहा है कि आया गोश्त भी है या बाल ही बाल हैं...


उस सेठ ने... परमात्मा करे... सौगंधी ने चाहा कि उसको बददुआ दे, मगर सोचा, बददुआ देने से क्या बनेगा। मज़ा तो जब था कि वो सामने होता और वो उसके वजूद के हर ज़र्रे पर लानतें लिख देती... उसके मुँह पर कुछ ऐसे अल्फ़ाज़ कहती कि ज़िंदगी भर बेचैन रहता... कपड़े फाड़ कर उसके सामने नंगी हो जाती और कहती, “यही लेने आया था ना तू...? ले दाम दिए बिना ले जा इसे... ये जो कुछ मैं हूँ, जो कुछ मेरे अंदर छुपा हुआ है वो तू क्या, तेरा बाप भी नहीं ख़रीद सकता...”


इंतिक़ाम के नये नये तरीक़े सौगंधी के ज़ेहन में आ रहे थे। अगर उस सेठ से एक बार... सिर्फ़ एक बार उसकी मुडभेड़ हो जाये तो ये करे। नहीं ये नहीं। ये करे... यूं उससे इंतिक़ाम ले, नहीं यूं नहीं... लेकिन जब सौगंधी सोचती कि सेठ से उसका दोबारा मिलना मुहाल है तो वो उसे एक छोटी सी गाली देने ही पर ख़ुद को राज़ी कर लेती... बस सिर्फ़ एक छोटी सी गाली, जो उसकी नाक पर चिपकू मक्खी की तरह बैठ जाये और हमेशा वहीं जमी रहे।


इसी उधेड़ बुन में वो दूसरी मंज़िल पर अपनी खोली के पास पहुंच गई। चोली में से चाबी निकाल कर ताला खोलने के लिए हाथ बढ़ाया तो चाबी हवा ही में घूम कर रह गई! कुंडे में ताला नहीं था। सौगंधी ने किवाड़ अंदर की तरफ़ दबाये तो हल्की सी चिड़चिड़ाहट पैदा हुई। अंदर से कुंडी खोली गई और दरवाज़े ने जमाई ली, सौगंधी अंदर दाख़िल हो गई।


माधव मूँछों में हंसा और दरवाज़ा बंद करके सौगंधी से कहने लगा, “आज तू ने मेरा कहा मान ही लिया... सुबह की सैर तंदुरुस्ती के लिए बड़ी अच्छी होती है। हर रोज़ इस तरह सुबह उठ कर घूमने जाया करेगी तो तेरी सारी सुस्ती दूर हो जाएगी और वो तेरी कमर का दर्द भी ग़ायब हो जाएगा, जिसकी बाबत तू आए दिन शिकायत किया करती है... विक्टोरिया गार्डन तक हो आई होगी तू, क्यों?”


सौगंधी ने कोई जवाब न दिया और न माधव ने जवाब की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। दरअसल जब माधव बात किया करता था तो उसका मतलब ये नहीं होता था कि सौगंधी ज़रूर उसमें हिस्सा ले और सौगंधी जब कोई बात किया करती थी ये ज़रूरी नहीं होता था कि माधव उसमें हिस्सा ले... चूँकि कोई बात करना होती थी, इसलिए वो कह दिया करते थे।


माधव बेद की कुर्सी पर बैठ गया जिसकी पुश्त पर उसके तेल से चपड़े हुए सर ने मैल का एक बहुत बड़ा धब्बा बना रखा था और टांग पर टांग रख कर अपनी मूंछों पर उंगलियां फेरने लगा।


सौगंधी पलंग पर बैठ गई और माधव से कहने लगी, “मैं आज तेरा इंतिज़ार कर रही थी।”


माधव बड़ा सिटपिटाया, “इंतिज़ार? तुझे कैसे मालूम हुआ कि मैं आज आने वाला हूँ।”


सौगंधी के भिंचे हुए लब खुले। उन पर एक पीली मुस्कुराहट नुमूदार हुई, “मैंने रात तुझे सपने में देखा था... उठी तो कोई भी न था। सो जी ने कहा, चलो कहीं बाहर घूम आएं... और...”


माधव ख़ुश हो कर बोला, “और मैं आ गया... भई बड़े लोगों की बातें बड़ी पक्की होती हैं। किसी ने ठीक कहा है, दिल को दिल से राह होती है... तू ने ये सपना कब देखा था?”


सौगंधी ने जवाब दिया, “चार बजे के क़रीब।”


माधव कुर्सी से उठ कर सौगंधी के पास बैठ गया, “और मैंने तुझे ठीक दो बजे सपने में देखा... जैसे तू फूलों वाली साड़ी... अरे बिल्कुल यही साड़ी पहने मेरे पास खड़ी है, तेरे हाथों में... क्या था तेरे हाथों में! हाँ, तेरे हाथों में रूपों से भरी हुई थैली थी। तू ने ये थैली मेरी झोली में रख दी और कहा, माधव तू चिंता क्यों करता है...? ले ये थैली... अरे तेरे मेरे रुपये क्या दो हैं? सौगंधी तेरी जान की क़सम फ़ौरन उठा और टिकट कटा कर इधर का रुख़ किया... क्या सुनाऊं बड़ी परेशानी है! बैठे बिठाए एक केस हो गया है, अब बीस-तीस रुपये हों तो, इन्सपेक्टर की मुट्ठी गर्म करके छुटकारा मिले... थक तो नहीं गई तू? लेट जा, मेरी तरफ़ पैर करके लेट जा।”


सौगंधी लेट गई। दोनों बाँहों का तकिया बना कर वो उन पर सर रख कर लेट गई और उस लहजे में जो उसका अपना नहीं था, माधव से कहने लगी, “माधव ये किस मुए ने तुझ पर केस किया है? बेल-वेल का डर हो तो मुझ से कह दे बीस तीस क्या सौ-पच्चास भी ऐसे मौक़ों पर पुलिस के हाथ में थमा दिए जाएं तो फ़ायदा अपना ही है... जान बची लाखों पाए... बस बस अब जाने दे। थकन कुछ ज़्यादा नहीं है... मुट्ठी चापी छोड़ और मुझे सारी बात सुना... केस का नाम सुनते ही मेरा दिल धक-धक करने लगा है... वापस कब जाएगा तू?”


माधव को सौगंधी के मुँह से शराब की बॉस आई तो उसने ये मौक़ा अच्छा समझा और झट से कहा, “दोपहर की गाड़ी से वापस जाना पड़ेगा... अगर शाम तक सब इन्सपेक्टर को सौ- पच्चास न थमाए तो... ज़्यादा देने की ज़रूरत नहीं। मैं समझता हूँ पच्चास में काम चल जाएगा।”


“पच्चास!” ये कह कर सौगंधी बड़े आराम से उठी और उन चार तस्वीरों के पास आहिस्ता आहिस्ता गई जो दीवार पर लटक रही थीं। बाएं तरफ़ से तीसरे फ़्रेम में माधव की तस्वीर थी। बड़े बड़े फूलों वाले पर्दे के आगे कुर्सी पर वो दोनों रानों पर अपने हाथ रखे बैठा था। एक हाथ में गुलाब का फूल था। पास ही तिपाई पर दो मोटी मोटी किताबें धरी थीं। तस्वीर उतरवाते वक़्त तस्वीर उतरवाने का ख़याल माधव पर इस क़दर ग़ालिब था कि उसकी हर शय तस्वीर से बाहर निकल निकल कर पुकार रही थी, “हमारा फ़ोटो उतरेगा। हमारा फ़ोटो उतरेगा!”


कैमरे की तरफ़ माधव आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था और ऐसा मालूम होता था कि फ़ोटो उतरवाते वक़्त उसे बहुत तक्लीफ़ हो रही थी।


सौगंधी खिखिला कर हंस पड़ी... उसकी हंसी कुछ ऐसी तीखी और नोकीली थी कि माधव के सूईयां सी चुभीं। पलंग पर से उठ कर वह सौगंधी के पास गया, किसकी तस्वीर देख कर तू इस क़दर ज़ोर से हंसी है?”


सौगंधी ने बाएं हाथ की पहली तस्वीर की तरफ़ इशारा किया जो म्युनिसिपल के दारोग़ा-ए-सफ़ाई की थी। उसकी... मुंशी पाल्टी के दारोगा की... ज़रा देख तो इसका थोबड़ा... कहता था, एक रानी मुझ पर आशिक़ हो गई थी... ऊंह! ये मुँह और मसूर की दाल। ये कह कर सौगंधी ने फ़्रेम को इस ज़ोर से खींचा कि दीवार में से कील भी पलस्तर समेत उखड़ आई!


माधव की हैरत अभी दूर न हुई थी कि सौगंधी ने फ़्रेम को खिड़की से बाहर फेंक दिया। दो मंज़िलों से फ्रे़म नीचे ज़मीन पर गिरा और कांच टूटने की झनकार सुनाई दी। सौगंधी ने इस झनकार के साथ कहा, “रानी भंगन कचरा उठाने आएगी तो मेरे इस राजा को भी साथ ले जाएगी।”


एक बार फिर उसी नोकीली और तीखी हंसी की फ़ुवार सौगंधी के होंटों से गिरना शुरू हुई जैसे वो उन पर चाक़ू या छुरी की धार तेज़ कर रही है।


माधव बड़ी मुश्किल से मुस्कुराया, फिर हंसा, “ही ही ही...”


सौगंधी ने दूसरा फ़्रेम भी नोच लिया और खिड़की से बाहर फेंक दिया, “इस साले का यहां क्या मतलब है...? भोंडी शक्ल का कोई आदमी यहां नहीं रहेगा... क्यों माधव?”


माधव फिर बड़ी मुश्किल से मुस्कुराया और फिर हंसा, “ही ही ही।”


एक हाथ से सौगंधी ने पगड़ी वाले की तस्वीर उतारी और दूसरा हाथ उस फ़्रेम की तरफ़ बढ़ाया जिसमें माधव का फ़ोटो जुड़ा था। माधव अपनी जगह पर सिमट गया, जैसे हाथ उसकी तरफ़ बढ़ रहा है। एक सेकंड में फ़्रेम कील समेत सौगंधी के हाथ में था।


ज़ोर का क़हक़हा लगा कर उसने 'ऊंह' की और दोनों फ़्रेम एक साथ खिड़की में से बाहर फेंक दिये। दो मंज़िलों से जब फ़्रेम ज़मीन पर गिरे तो कांच टूटने की आवाज़ आई तो माधव को ऐसा मालूम हुआ कि उसके अंदर कोई चीज़ टूट गई है। बड़ी मुश्किल से उसने हंस कर कहा, “अच्छा किया? मुझे भी ये फ़ोटो पसंद नहीं था।”


आहिस्ता आहिस्ता सौगंधी माधव के पास आई और कहने लगी, “तुझे ये फ़ोटो पसंद नहीं था, पर मैं पूछती हूँ तुझमें ऐसी कौन सी चीज़ है जो किसी को पसंद आ सकती है... तेरी पकौड़ा ऐसी नाक, ये तेरा बालों भरा माथा, ये तेरे सूजे हुए नथुने। ये तेरे बढ़े हुए कान, ये तेरे मुँह की बॉस, ये तेरे बदन का मैल? तुझे अपना फ़ोटो पसंद नहीं था, 'ऊंह'... पसंद क्यों होता, तेरे ऐब जो छुपा रखे थे उसने, आजकल ज़माना ही ऐसा है जो ऐब छुपाये वही बुरा।”


माधव पीछे हटता गया। आख़िर जब वो दीवार के साथ लग गया तो उसने अपनी आवाज़ में ज़ोर पैदा करके कहा, “देख सौगंधी, मुझे ऐसा दिखाई देता है कि तू ने फिर से अपना धंदा शुरू कर दिया है... अब मैं तुझ से आख़िरी बार कहता हूँ...”


सौगंधी ने इससे आगे माधव के लहजे में कहना शुरू किया, “अगर तू ने फिर से धंदा शुरू किया तो बस तेरी मेरी टूट जाएगी। अगर तू ने फिर किसी को अपने यहां बुलाया तो चुटिया से पकड़ कर तुझे बाहर निकाल दूंगा... इस महीने का ख़र्च मैं तुझे पूना से ही मनी आर्डर कर दूँगा... हाँ क्या भाड़ा है इस खोली का?”


माधव चकरा गया।


सौगंधी ने कहना शुरू किया, “मैं बताती हूँ... पंद्रह रुपया भाड़ा है इस खोली का... और दस रुपया भाड़ा है मेरा... और जैसा तुझे मालूम है, ढाई रुपये दलाल के, बाक़ी रहे साढ़े सात। है न साढ़े सात? इन साढ़े सात रूपयों में मैंने ऐसी चीज़ देने का वचन दिया था जो मैं दे ही नहीं सकती थी। और तू ऐसी चीज़ लेने आया था जो तू ले ही नहीं सकता था... तेरा मेरा नाता ही क्या था। कुछ भी नहीं। बस ये दस रुपये तेरे और मेरे बीच में बज रहे थे, सो हम दोनों ने मिल कर ऐसी बात की कि तुझे मेरी ज़रूरत और मुझे तेरी... पहले तेरे और मेरे बीच में दस रुपये बजते थे, आज पच्चास बज रहे हैं। तू भी इनका बजना सुन रहा है और मैं भी इनका बजना सुन रही हूँ... ये तूने अपने बालों का क्या सत्यानास कर रखा है?”


ये कह कर सौगंधी ने माधव की टोपी उंगली से एक तरफ़ उड़ा दी। ये हरकत माधव को बहुत नागवार गुज़री। उसने बड़े कड़े लहजे में कहा, “सौगंधी!”


सौगंधी ने माधव की जेब से रूमाल निकाल कर सूँघा और ज़मीन पर फेंक दिया, “ये चीथड़े, ये चिन्दियाँ... उफ़ कितनी बुरी बॉस आती है, उठा के बाहर फेंक इनको...”


माधव चिल्लाया, “सौगंधी।”


सौगंधी ने तेज़ लहजे में कहा, “सौगंधी के बच्चे तू आया किसलिए है यहां? तेरी माँ रहती है इस जगह जो तुझे पच्चास रुपये देगी? या तू कोई ऐसा बड़ा गबरू जवान है जो मैं तुझ पर आशिक़ हो गई हूँ... कुत्ते, कमीने, मुझ पर रोब गांठता है? मैं तेरी दबैल हूँ क्या? भिकमंगे तू अपने आपको समझ क्या बैठा है? मैं कहती हूँ तू है कौन? चोर या गठ कतरा? इस वक़्त तू मेरे मकान में करने क्या आया है? बुलाऊं पुलिस को... पूने में तुझ पर केस हो न हो। यहां तो तुझ पर एक केस खड़ा कर दूँ...”


माधव सहम गया। दबे हुए लहजे में वो सिर्फ़ इस क़दर कह सका, “सौगंधी, तुझे क्या हो गया है?”


“मेरी माँ का सर... तू होता कौन है मुझसे ऐसे सवाल करने वाला... भाग यहां से, वर्ना...”


सौगंधी की बुलंद आवाज़ सुन कर उसका ख़ारिश ज़दा कुत्ता जो सूखे हुए चप्पलों पर मुँह रखे सो रहा था, हड़बड़ा कर उठ बैठा और माधव की तरफ़ मुँह उठा कर भोंकना शुरू कर दिया। कुत्ते के भौंकने के साथ ही सौगंधी ज़ोर से हँसने लगी।


माधव डर गया। गिरी हुई टोपी उठाने के लिए वो झुका तो सौगंधी की गरज सुनाई दी, “ख़बरदार... पड़ी रहने दे वहीं... तू जा, तेरे पूना पहुंचते ही मैं इसको मनी आर्डर कर दूँगी।”


ये कह कर वो और ज़ोर से हंसी और हंसते हंसते कुर्सी पर बैठ गई। उसके ख़ारिशज़दा कुत्ते ने भौंक-भौंक कर माधव को कमरे से बाहर निकाल दिया। सीढ़ियां उतार कर जब कुत्ता अपनी तुंड मुन्ड दुम हिलाता सौगंधी के पास आया और उसके क़दमों के पास बैठ कर कान फड़फड़ाने लगा तो सौगंधी चौंकी... उसने अपने चारों तरफ़ एक हौलनाक सन्नाटा देखा... ऐसा सन्नाटा जो उसने पहले कभी न देखा था।


उसे ऐसा लगा कि हर शय ख़ाली है... जैसे मुसाफ़िरों से लदी हुई रेलगाड़ी सब स्टेशनों पर मुसाफ़िर उतार कर अब लोहे के शैड में बिल्कुल अकेली खड़ी है। ये ख़ला जो अचानक सौगंधी के अंदर पैदा हो गया था, उसे बहुत तकलीफ़ दे रहा था। उसने काफ़ी देर तक इस ख़ला को भरने की कोशिश की। मगर बेसूद, वो एक ही वक़्त में बेशुमार ख़यालात अपने दिमाग़ में ठूंसती थी मगर बिल्कुल छलनी का सा हिसाब था। इधर दिमाग़ को पुर करती थी, उधर वो ख़ाली हो जाता था।


बहुत देर तक वो बेद की कुर्सी पर बैठी रही। सोच-बिचार के बाद भी जब उसको अपना दिल पर्चाने का कोई तरीक़ा न मिला तो उसने अपने ख़ारिशज़दा कुत्ते को गोद में उठाया और सागवान के चौड़े पलंग पर उसे पहलू में लिटा कर सो गई। 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की इरोटिक कहानियाँ
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सवाल यह हैं की जो चीज जैसी हैं उसे वैसे ही पेश क्यू ना किया जाये मैं तो बस अपनी कहानियों को एक आईना समझता हूँ जिसमें समाज अपने आपको देख सके.. अगर आप मेरी कहानियों को बर्दास्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह हैं की ये ज़माना ही नक़ाबिल-ए-बर्दास्त हैं||
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खुदकुशी का इक़दाम

23 अप्रैल 2022
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इक़बाल के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम था कि उसने अपनी जान को अपने हाथों हलाक करने की कोशिश की, गो वो इसमें नाकाम रहा। जब वो अदालत में पहली मर्तबा पेश किया गया तो उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। ऐसा मालूम होता

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औरत ज़ात

23 अप्रैल 2022
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महाराजा ग से रेस कोर्स पर अशोक की मुलाक़ात हुई। इसके बाद दोनों बेतकल्लुफ़ दोस्त बन गए। महाराजा ग को रेस के घोड़े पालने का शौक़ ही नहीं ख़ब्त था। उसके अस्तबल में अच्छी से अच्छी नस्ल का घोड़ा मौजूद था औ

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ब्लाउज़

23 अप्रैल 2022
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कुछ दिनों से मोमिन बहुत बेक़रार था। उसको ऐसा महसूस होता था कि उसका वजूद कच्चा फोड़ा सा बन गया था। काम करते वक़्त, बातें करते हुए हत्ता कि सोचने पर भी उसे एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस होता था। ऐसा दर्द

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इंक़िलाब पसंद

23 अप्रैल 2022
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मेरी और सलीम की दोस्ती को पाँच साल का अर्सा गुज़र चुका है। उस ज़माने में हम ने एक ही स्कूल से दसवीं जमात का इम्तिहान पास किया, एक ही कॉलेज में दाख़िल हूए और एक ही साथ एफ़-ए- के इम्तिहान में शामिल हो कर

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बू

23 अप्रैल 2022
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बरसात के यही दिन थे। खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे । सागवन के स्प्रिन्गदार पलंग पर, जो अब खिड़की के पास थोड़ा इधर सरका दिया गया, एक घाटन लड़की रणधीर के साथ लिपटी हुई थी। खिड़की

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अक़्ल दाढ़

23 अप्रैल 2022
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“आप मुँह सुजाये क्यों बैठे हैं?” “भई दाँत में दर्द हो रहा है... तुम तो ख़्वाह-मख़्वाह...” “ख़्वाह-मख़्वाह क्या... आपके दाँत में कभी दर्द हो ही नहीं सकता।” “वो कैसे?” “आप भूल क्यों जाते हैं क

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इज़्ज़त के लिए

23 अप्रैल 2022
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चवन्नी लाल ने अपनी मोटर साईकल स्टाल के साथ रोकी और गद्दी पर बैठे बैठे सुबह के ताज़ा अख़बारों की सुर्ख़ियों पर नज़र डाली। साईकल रुकते ही स्टाल पर बैठे हुए दोनों मुलाज़िमों ने उसे नमस्ते कही थी। जिसका जवा

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दो क़ौमें

23 अप्रैल 2022
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मुख़्तार ने शारदा को पहली मर्तबा झरनों में से देखा। वो ऊपर कोठे पर कटा हुआ पतंग लेने गया तो उसे झरनों में से एक झलक दिखाई दी। सामने वाले मकान की बालाई मंज़िल की खिड़की खुली थी। एक लड़की डोंगा हाथ में ल

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मेरा नाम राधा है

23 अप्रैल 2022
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ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं कि बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो

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चौदहवीं का चाँद

23 अप्रैल 2022
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अक्सर लोगों का तर्ज़-ए-ज़िंदगी, उनके हालात पर मुनहसिर होता है और बा’ज़ बेकार अपनी तक़दीर का रोना रोते हैं। हालाँकि इससे हासिल-वुसूल कुछ भी नहीं होता। वो समझते हैं अगर हालात बेहतर होते तो वो ज़रूर दुनिया

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ठंडा गोश्त

23 अप्रैल 2022
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ईशर सिंह जूंही होटल के कमरे में दाख़िल हुआ, कुलवंत कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज़ तेज़ आँखों से उसकी तरफ़ घूर के देखा और दरवाज़े की चटख़्नी बंद कर दी। रात के बारह बज चुके थे, शहर का मुज़ाफ़ात एक अजीब पुर-

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काली शलवार

23 अप्रैल 2022
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दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे उसके गाहक थे। उन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उनको वो आम गुफ़्तगु में इस्तेमाल नहीं करती थी लेकिन जब

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खोल दो

23 अप्रैल 2022
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अमृतसर से स्शपेशल ट्रेन दोपहर दो बजे को चली और आठ घंटों के बाद मुग़लपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। मुतअद्दिद ज़ख़्मी हुए और कुछ इधर उधर भटक गए। सुबह दस बजे कैंप की ठंडी ज़मीन पर जब सिराजुद

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टोबा टेक सिंह

23 अप्रैल 2022
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बटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदोस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुसलमान पागल, हिंदोस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें पाकिस

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1919 की एक बात

23 अप्रैल 2022
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ये 1919 ई. की बात है भाई जान, जब रूल्ट ऐक्ट के ख़िलाफ़ सारे पंजाब में एजिटेशन हो रही थी। मैं अमृतसर की बात कर रहा हूँ। सर माईकल ओडवायर ने डिफ़ेंस आफ़ इंडिया रूल्ज़ के मातहत गांधी जी का दाख़िला पंजाब में

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बेगू

24 अप्रैल 2022
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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप क

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बाँझ

24 अप्रैल 2022
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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की त

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बारिश

24 अप्रैल 2022
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मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो अपने कमरे में बैठा जल-थल देख रहा था... बाहर बहुत बड़ा लॉन था, जिसमें दो दरख़्त थे। उनके सब्ज़ पत्ते बारिश में नहा रहे थे। उसको महसूस हुआ कि वो पानी की इस यूरिश से ख़ुश ह

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औलाद

24 अप्रैल 2022
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जब ज़ुबैदा की शादी हुई तो उसकी उम्र पच्चीस बरस की थी। उसके माँ-बाप तो ये चाहते थे कि सतरह बरस के होते ही उसका ब्याह हो जाये मगर कोई मुनासिब-ओ-मौज़ूं रिश्ता मिलता ही नहीं था। अगर किसी जगह बात तय होने प

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उसका पति

24 अप्रैल 2022
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लोग कहते थे कि नत्थू का सर इसलिए गंजा हुआ है कि वो हर वक़्त सोचता रहता है। इस बयान में काफ़ी सदाक़त है क्योंकि सोचते वक़्त नत्थू सर खुजलाया करता है। उसके बाल चूँकि बहुत खुरदरे और ख़ुश्क हैं और तेल न

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नंगी आवाज़ें

24 अप्रैल 2022
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भोलू और गामा दो भाई थे, बेहद मेहनती। भोलू क़लईगर था। सुबह धौंकनी सर पर रख कर निकलता और दिन भर शहर की गलियों में “भाँडे क़लई करा लो” की सदाएं लगाता रहता। शाम को घर लौटता तो उसके तहबंद के डब में तीन चार

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आमिना

24 अप्रैल 2022
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दूर तक धान के सुनहरे खेत फैले हुए थे जुम्मे का नौजवान लड़का बिंदु कटे हुए धान के पोले उठा रहा था और साथ ही साथ गा भी रहा था; धान के पोले धर धर कांधे भर भर लाए खेत सुनहरा धन दौलत रे बिंदू

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हतक

24 अप्रैल 2022
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दिन भर की थकी मान्दी वो अभी अभी अपने बिस्तर पर लेटी थी और लेटते ही सो गई। म्युनिसिपल कमेटी का दारोग़ा सफ़ाई, जिसे वो सेठ जी के नाम से पुकारा करती थी, अभी अभी उसकी हड्डियाँ-पस्लियाँ झिंझोड़ कर शराब के

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आम

24 अप्रैल 2022
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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वज

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वह लड़की

24 अप्रैल 2022
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सवा चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उसने बालकनी में आकर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक सायादार दरख़्त की छांव में आलती पालत

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असली जिन

24 अप्रैल 2022
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लखनऊ के पहले दिनों की याद नवाब नवाज़िश अली अल्लाह को प्यारे हुए तो उनकी इकलौती लड़की की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा आठ बरस थी। इकहरे जिस्म की, बड़ी दुबली-पतली, नाज़ुक, पतले पतले नक़्शों वाली, गुड़िया सी। नाम

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जिस्म और रूह

24 अप्रैल 2022
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मुजीब ने अचानक मुझसे सवाल किया, “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?” गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इनकी तक़

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बादशाहत का ख़ात्मा

24 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और क

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ऐक्ट्रेस की आँख

24 अप्रैल 2022
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“पापों की गठड़ी” की शूटिंग तमाम शब होती रही थी, रात के थके-मांदे ऐक्टर लकड़ी के कमरे में जो कंपनी के विलेन ने अपने मेकअप के लिए ख़ासतौर पर तैयार कराया था और जिसमें फ़ुर्सत के वक़्त सब ऐक्टर और ऐक्ट्रसें

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अल्लाह दत्ता

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दो भाई थे। अल्लाह रक्खा और अल्लाह दत्ता। दोनों रियासत पटियाला के बाशिंदे थे। उनके आबा-ओ-अजदाद अलबत्ता लाहौर के थे मगर जब इन दो भाईयों का दादा मुलाज़मत की तलाश में पटियाला आया तो वहीं का हो रहा। अल

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झुमके

24 अप्रैल 2022
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सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तर

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गुरमुख सिंह की वसीयत

24 अप्रैल 2022
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पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी

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इश्क़िया कहानी

24 अप्रैल 2022
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मेरे मुतअ’ल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इ’श्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इसलिए वो बिल्कुल सपाट होते हैं। मैं अब ये इ’श्क़िया कहानी लि

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बाबू गोपीनाथ

24 अप्रैल 2022
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बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था।

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मोज़ेल

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त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आ

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एक ज़ाहिदा, एक फ़ाहिशा

24 अप्रैल 2022
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जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर। हम हर रोज़ क़रीब-क़रीब दस-बारह घंटे साथ साथ रहते। वो अपने रिश्तेदारों स

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बुर्क़े

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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है। वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड

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आँखें

24 अप्रैल 2022
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ये आँखें बिल्कुल ऐसी ही थीं जैसे अंधेरी रात में मोटर कार की हेडलाइट्स जिनको आदमी सब से पहले देखता है। आप ये न समझिएगा कि वो बहुत ख़ूबसूरत आँखें थीं, हरगिज़ नहीं। मैं ख़ूबसूरती और बदसूरती में तमीज़ क

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अनार कली

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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तन

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टेटवाल का कुत्ता

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कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिनकी आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में

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धुआँ

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वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था

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आर्टिस्ट लोग

24 अप्रैल 2022
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जमीला को पहली बार महमूद ने बाग़-ए-जिन्ना में देखा। वो अपनी दो सहेलियों के साथ चहल क़दमी कर रही थी। सबने काले बुर्के पहने थे। मगर नक़ाबें उलटी हुई थीं। महमूद सोचने लगा। ये किस क़िस्म का पर्दा है कि बुर

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