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इश्क़िया कहानी

24 अप्रैल 2022

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मेरे मुतअ’ल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इ’श्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इसलिए वो बिल्कुल सपाट होते हैं। मैं अब ये इ’श्क़िया कहानी लिख रहा हूँ ताकि लोगों की ये शिकायत किसी हद तक दूर हो जाए।


जमील का नाम अगर आपने पहले नहीं सुना तो अब सनु लीजिए। उसका तआ’रुफ़ मुख़्तसर तौर पर कराए देता हूँ। वो मेरा लँगोटिया दोस्त था। हम इकट्ठे स्कूल में पढ़े, फिर कॉलिज में एक साथ दाख़िल हुए। मैं एम.ए में फ़ेल होगया और वो पास। मैंने पढ़ाई छोड़ दी मगर उसने जारी रखी। डबल एम.ए किया और मालूम नहीं कहाँ ग़ायब होगया।


सिर्फ़ इतना सुनने में आया था कि उसने एक पाँच बच्चों वाली माँ से शादी करली थी और आबादान चला गया था। वहां से वापस आया या वहीं रहा, इसके मुतअ’ल्लिक़ मुझे कुछ मालूम नहीं।


जमील बड़ा आ’शिक़ मिज़ाज था। स्कूल के दिनों में उसका जी बेक़रार रहता था कि वो किसी लड़की की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो जाए। मुझे ऐसी गिरफ़्तारी से कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी लेकिन उस की सरगर्मीयों में जो इ’श्क़ से मुतअ’ल्लिक़ होतीं, बराबर हिस्सा लिया करता था।


जमील दराज़ क़द नहीं था मगर अच्छे ख़द्द-ओ-ख़ाल का मालिक था। मेरा मतलब है कि उसे ख़ूबसूरत न कहा जाए तो उसके क़ुबूल सूरत होने में शक-ओ-शुहबा नहीं था। रंग गोरा और सुर्ख़ी माइल, तेज़-तेज़ बातें करने वाला, बला का ज़हीन, इंसानी नफ़सियात का तालिब-ए-इल्म, बड़ा सेहत मंद।


उसके दिल-ओ-दिमाग़ में सिन-ए-बुलूग़त तक पहुंचने से कुछ अ’र्सा पहले ही इश्क़ करने की ज़बरदस्त ख़्वाहिश पैदा होगई थी। उसको ग़ालिब के इस शे’र का मफ़हूम अच्छी तरह मालूम था:


इ’श्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब


कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे


मगर इसके बर-अ’क्स वो ये आग ख़ुद अपनी माचिस से लगाना चाहता था।


उसने इस कोशिश में कई माचिसें जलाईं। मेरा मतलब है कि कई लड़कियों के इ’श्क़ में गिरफ़्तार हो जाने के लिए नित नए सूट सिलवाए, बढ़िया से बढ़िया टाईयां खरीदीं, सेंट की सैंकड़ों क़ीमती शीशियां इस्तेमाल कीं मगर ये सूट, टाईयां और सेंट उसकी कोई मदद न कर सके।


मैं और वो, दोनों शाम को कंपनी बाग़ का रुख़ करते। वो ख़ूब सजा बना होता। उसके कपड़ों से बेहतरीन ख़ुशबू निकल रही होती। बाग़ की रविशों पर मुतअद्दिद लड़कियां बदसूरत, ख़ूबसूरत, क़ुबूल सूरत मह्व-ए-ख़िराम होती थीं। वो उनमें से किसी एक को अपने इ’श्क़ के लिए मुंतख़ब करने की कोशिश करता मगर नाकाम रहता।


एक दिन उसने मुझसे कहा, “सआदत! मैंने आख़िरकार एक लड़की चुन ही ली है। ख़ुदा की क़सम चंदे आफ़ताब, चंदे माहताब है। मैं कल सुबह सैर के लिए निकला। बहुत सी लड़कियां माई के साथ स्कूल जा रही थीं। उनमें एक बुर्क़ापोश लड़की ने जो अपनी नक़ाब हटाई तो उसका चेहरा देख कर मेरी आँखें ख़ीरा होगईं। क्या हुस्न-ओ-जमाल था! बस मैंने वहीं फ़ैसला कर लिया कि जमील अब मज़ीद तग-ओ-दो छोड़ो, इस हसीना ही के इ’श्क़ में तुम्हें गिरफ़्तार होना चाहिए। होना क्या तुम हो चुके हो।”


उसने फ़ैसला कर लिया कि वो हर रोज़ सुबह उठ कर उस मक़ाम पर जहां उसने इस काफ़िर जमाल हसीना को देखा था, पहुंच जाया करेगा और उसको अपनी तरफ़ मुतवज्जा करने की कोशिश करेगा।


उसके लिए उसके ज़हीन दिमाग़ ने बहुत से प्लान सोचे थे। एक जो दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा क़ाबिल-ए-अ’मल और ज़ूद असर था, उसने मुझे बता दिया था।


उसने हिसाब लगा कर सोचा था कि दस दिन मुतवातिर उस लड़की को एक ही मक़ाम पर खड़े रह कर देखने और घूरने से इतना मालूम हो जाएगा कि उसका मतलब क्या है। यानी वो क्या चाहता है। इस मुद्दत के बाद वो उसका रद्द-ए-अ’मल मुलाहिज़ा करेगा और इस तज्ज़िए के बाद कोई फ़ैसला मुरत्तब करेगा।


ये अग़्लब था कि वो लड़की उसका देखना घूरना पसंद न करे। माई से या अपने वालिदैन से उसके ग़ैर अख़लाक़ी रवय्ये की शिकायत कर दे। ये भी मुम्किन था कि वो राज़ी हो जाती। उसकी साबित क़दमी उस पर इतना असर करती कि उसके साथ भाग जाने को तैयार हो जाती।


जमील ने तमाम पहलूओं पर अच्छी तरह ग़ौर कर लिया था। शायद ज़रूरत से ज़्यादा। इसलिए कि दूसरे रोज़ जब वो अलार्म बजने पर उठा तो उसने उस मक़ाम पर जहां उस लड़की से उसकी पहली मर्तबा मुडभेड़ हुई थी, जाने का ख़याल तर्क कर दिया।


उसने मुझसे कहा, “सआदत! मैंने ये सोचा है कि हो सकता है स्कूल में छुट्टी हो, क्योंकि जुमा है। मालूम नहीं इस्लामी स्कूल में पढ़ती है या किसी गर्वनमेंट स्कूल में। फिर ये भी मुम्किन था कि अगर मैं उसे ज़्यादा शिद्दत से घूरता तो वो भन्ना जाती। इसके अलावा इस बात की क्या ज़मानत थी कि दस दिन के अंदर अंदर मुझे उसका रद्द-ए-अ’मल यक़ीनी तौर पर मालूम हो जाएगा। ब-फ़र्ज़-ए-मुहाल वो रज़ामंद हो जाती, मेरा मतलब है मुझे बिल-मुशाफ़ा गुफ़्तुगू का मौक़ा दे देती, तो मैं उससे क्या कहता!”


मैंने कहा, “यही कि तुम उससे मोहब्बत करते हो।”


जमील संजीदा होगया, “यार, मुझसे कभी कहा न जाता... तुम सोचो न अगर ये सुन कर वो मेरे मुँह पर थप्पड़ दे मारती कि जनाब आपको इसका क्या हक़ हासिल है, तो मैं क्या जवाब देता। ज़्यादा से ज़्यादा मैं कह सकता कि हुज़ूर मोहब्बत करने का हक़ हर इंसान को हासिल है मगर वो एक और थप्पड़ मेरे मार सकती थी कि तुम बकवास करते हो, कौन कहता है कि तुम इंसान हो।”


क़िस्सा मुख़्तसर ये कि जमील उस हसीन-ओ-जमील लड़की की मोहब्बत में ख़ुद को अपनी तज्ज़िया-ए-ख़ुदी के बाइस गिरफ़्तार न करा सका। मगर उसकी ख़्वाहिश बदस्तूर मौजूद थी। एक और ख़ूबरू लड़की उसकी तलाश करने वाली निगाहों के सामने आई और उसने फ़ौरन तहय्या कर लिया कि उस से इ’श्क़ लड़ाना शुरू कर देगा।


जमील ने सोचा कि उससे ख़त-ओ-किताबत की जाए, चुनांचे उसने पहले ख़त के कई मुसव्वदे फाड़ने के बाद एक आख़िरी, इ’श्क़-ओ-मोहब्बत में शराबोर, तहरीर मुकम्मल की, जो मैं यहां मिन-ओ-अ’न नक़ल करता हूँ: 


जाने जमील!


अपने दिल की धड़कनें सलाम के तौर पर पेश करता हूँ। हैरान न होइएगा कि ये कौन है जो आपसे यूं बेधड़क हम-कलाम है। मैं अ’र्ज़ किए देता हूँ। कल शाम को सवा छः बजे... नहीं, छः बज कर ग्यारह मिनट पर जब आप अमृत सिनेमा के पास तांगे में से उतरीं तो मैंने आपको देखा। बस एक ही नज़र में उसने मुझे मस्हूर कर लिया।


आप अपनी सहेलियों के साथ पिक्चर देखने चली गईं और मैं बाहर खड़ा आपको अपनी तसव्वुर की आँखों से मुख़्तलिफ़ रूपों में देखता रहा। दो घंटे के बाद आप बाहर निकलीं। फिर ज़ियारत नसीब हुई और मैं हमेशा हमेशा के लिए आपका ग़ुलाम हो गया।


मेरी समझ में नहीं आता मैं आपको और क्या लिखूं। बस इतना पूछना चाहता हूँ क्या आप मेरी मोहब्बत को अपने हुस्न-ओ-जमाल के शायान-ए-शान समझेंगी या नहीं।


अगर आपने मुझे ठुकरा दिया तो मैं ख़ुदकुशी नहीं करूंगा, ज़िंदा रहूँगा ताकि आपके दीदार होते रहें।


आपके हुस्न-ओ-जमाल का परस्तार


जमील


ये ख़त उसने मेरे घर में एक ख़ुशबूदार काग़ज़ पर अपनी तहरीर से मुंतक़िल किया था। लिफ़ाफ़ा फूलदार और ख़ुशबूदार था जिसको जमालियाती ज़ौक़ ने पसंद नहीं किया था।


चंद रोज़ के बाद जमील मुझसे मिला तो मालूम हुआ कि उसने ये ख़त उस लड़की तक नहीं पहुंचाया।


अव्वलन इसलिए कि इ’श्क़ का आग़ाज़ ख़त से करना नामुनासिब है।


सानियन इसलिए कि इस ख़त की तहरीर बेरब्त और बेअसर है। उसने ख़ुद को लड़की मुतसव्वर करके ये ख़त पढ़ा और उसको बहुत मज़्हका-ख़ेज़ मालूम हुआ।


सालिसन इसलिए कि तफ़तीश करने के बाद उसको मालूम हुआ कि लड़की हिंदू है।


ये मरहला भी शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गया।


उसके घर में मेरा आना जाना था। मुझसे कोई पर्दा वग़ैरा नहीं था। हम घंटों बैठे पढ़ाई या गप बाज़ियों में मश्ग़ूल रहते। उसकी दो बहनें थीं, छोटी छोटी। उनसे बड़ी बचकाना क़िस्म की पुरलुत्फ़ बातें होतीं। उसकी मौसी की एक इंतिहा दर्जे की सादा-लौह लड़की अ’ज़्रा थी। उम्र यही कोई सत्रह- अठारह बरस होगी। उसका हम दोनों बहुत मज़ाक़ उड़ाया करते थे।


जमील की जब दूसरी कोशिश भी बार-आवर साबित न हुई तो वो दो महीने तक ख़ामोश रहा। इस दौरान में उसने इ’श्क़ में गिरफ़्तार होने की कोई नई कोशिश न की। लेकिन इसके बाद उसको एक दम दौरा पड़ा और उसने एक हफ़्ते के अंदर-अंदर पाँच-छः लड़कियां अपनी इ’श्क़ की बंदूक़ के लिए निशाने के तौर पर मुंतख़ब कर लीं। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। सिर्फ़ चार लड़कियों के मुतअ’ल्लिक़ मुझे उसकी इ’श्क़िया मुहिम के बारे में इ’ल्म है।


पहली ने जो उसकी दूर-दराज़ की रिश्तेदार थी, अपनी माँ के ज़रिये उसकी माँ तक ये अल्टीमेटम भिजवा दिया कि अगर जमील ने उसको फिर बुरी नज़र से देखा तो उसके हक़ में अच्छा न होगा।


दूसरी ग़ौर से देखने पर चेचक के दाग़ों वाली निकली।


तीसरी की छटे-सातवें रोज़ एक क़साई से मंगनी हो गई।


चौथी को उसने एक लंबा इ’श्क़िया ख़त लिखा जो उसकी मौसी की बेटी अ’ज़्रा के हाथ आगया। मालूम नहीं किस तरह। पहले जमील उसका मज़ाक़ उड़ाया करता था, अब उसने उड़ाना शुरू कर दिया। इतना कि जमील का नाक में दम आ गया।


जमील ने मुझे बताया, “सआदत! ये अ’ज़्रा जिसे हम बेवक़ूफ़ी की हद तक सादा-लौह समझते हैं, सख़्त ज़ालिम है, सब समझती है। जिस लड़की को मैंने ख़त लिखा था और ग़लती से अपने मेज़ के दराज़ में रख कर ये सोचने में मशग़ूल था कि वो इसका क्या जवाब लिखेगी, ये कमबख़्त जाने कैसे ले उड़ी। अब उसने मेरा नात्क़ा बंद कर दिया। बा’ज़ औक़ात ऐसी तल्ख़ बातें करती है कि मुझे रुलाती है और ख़ुद भी रोती है। मैं तो तंग आगया हूँ।”


उससे बहुत ज़्यादा तंग आकर उसने अपने इ’श्क़ की मुहिम और तेज़ कर दी। अब की उसने चौदह लड़कियां चुनीं मगर अच्छी तरह ग़ौर करने के बाद उनमें से सिर्फ़ एक बाक़ी रह गई। दस उसके मकान से बहुत दूर रहती थीं, जिनको हर रोज़ हतमी तौर पर देखने के मुतअ’ल्लिक़ उसका दिल गवाही नहीं देता था। दो ऐसी थीं, जिनका ख़ानदानी होने के बारे में उसे शुबहा था। बारह हुईं, तेरहवीं ने एक दिन ऐसी बुरी तरह घूरा कि उसके औसान ख़ता होगए।


चौदहवीं जो कि चौदहवीं का चांद थी, मुल्तफ़ित हो जाती मगर वो कमबख़्त कम्युनिस्ट थी। जमील ने सोचा कि इसका इल्तिफ़ात हासिल करने के लिए वो ज़रूर कम्युनिस्ट बन जाता, खादी के कपड़े पहन कर मज़दूरों के हक़ में दस-बारह तक़रीरें भी कर देता, मगर मुसीबत ये थी कि उसके वालिद साहब रिटायर्ड इंजीनियर थे, उनकी पैंशन यक़ीनन बंद हो जाती।


यहां से ना-उम्मीदी हुई तो उसने सोचा कि इ’श्क़बाज़ी फ़ुज़ूल है, शराफ़त यही है कि वो किसी से शादी कर ले। इसके बाद अगर तबीयत चाहे तो अपनी बीवी की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो जाए। चुनांचे उस ने मुझे इस फ़ैसले से आगाह कर दिया। तय ये हुआ कि वो अपनी अम्मी जान और अपने अब्बा जान से बात करे।


बहुत दिनों की सोच-बिचार के बाद उसने इस गुफ़्तुगू का मुसव्वदा तैयार किया... सबसे पहले उसने अपनी अम्मी से बात की। वो ख़ुश हुईं... इधर-उधर अपने अ’ज़ीज़ों में उन्होंने जमील के लिए मौज़ूं रिश्ता ढ़ूढ़ने की कोशिश की मगर नाकामी हुई।


पड़ोस में ख़ान बहादुर साहब की लड़की थी, एम.ए। बड़ी ज़हीन और तबीयत की बहुत अच्छी, मगर उसकी नाक चिप्टी थी। ख़ाला की बेटी हुस्न आरा थी पर बेहद काली। सुग़रा थी मगर उसके वालिदैन बड़े ख़सीस थे। जहेज़ में जितने जोड़े जमील की माँ चाहती थी, उससे वो आधे देने पर भी रज़ामंद नहीं थे। अज़्रा का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था।


जमील की माँ ने बड़ी कोशिशों के बाद रावलपिंडी के एक मुअ’ज़्ज़ज़ और मुतमव्वल ख़ानदान की लड़की से बातचीत तय कर ली। जमील अपनी नाकाम इ’श्क़बाज़ियों से इस क़दर तंग आगया था कि उसने अपनी माँ से ये भी न पूछा कि शक्ल-ओ-सूरत कैसी है। वैसे उसने अपने ज़िंदा तसव्वुर में इस का अंदाज़ा लगा लिया था और मुफ़स्सल तौर पर सोच लिया था कि वो उसकी मोहब्बत में किस तरह गिरफ़्तार होगा।


ये सिलसिला काफ़ी देर तक जारी रहा। मैं ख़ुश था कि जमील की शादी हो रही है। उसके मर्ज़-ए-मुतअ’ल्लिक़ा ब इ’श्क़ का एक फ़क़त यही वाहिद इलाज था।


छ: महीने गुज़र गए। आख़िर रावलपिंडी के उस मुअ’ज्ज़ज़ और मुतमव्वल खानदान जिसका नाम ग़ालिबन शरीफा था, उसकी मंगनी हो गई।


इस तक़रीब पर उसे ससुराल की तरफ़ से हीरे की अँगूठी मिली, जो वो हर वक़्त पहने रहता था। इस पर उसने एक नज़्म भी लिखी जिसका कोई शे’र मुझे याद नहीं। एक बरस तक सोचता रहा कि उसे अपनी दुल्हन को कब अपने यहां लाना चाहिए। आदमी चूँकि आज़ाद और रौशन ख़याल क़िस्म का था इसलिए उसकी ख़्वाहिश थी कि माँ-बाप से अलाहिदा अपना घर बनाए।


ये कैसा होना चाहिए, उसमें किस डिज़ाइन का फ़र्नीचर हो, नौकर कितने हों, माहवार ख़र्च कितना होगा, सास के साथ उसका क्या सुलूक होगा, इन तमाम उमूर के बारे में उसने काफ़ी सोच-बिचार की। नतीजा ये हुआ कि लड़की वाले तंग आगए। वो चाहते थे कि रुख़सती का मरहला जल्द अज़ जल्द तय हो।


जमील इस बारे में कोई फ़ैसला न कर सका। लेकिन उसकी अम्मी ने एक तारीख़ मुक़र्रर करदी। कार्ड वार्ड छप गए। वलीमे की दा’वत के लिए ज़रूरी सामान का बंदोबस्त कर लिया गया। उसके वालिद बुजुर्गवार शैख़ मुहम्मद इस्माईल साहब रिटायर्ड इंजीनियर बहुत मसरूर थे, मगर जमील बहुत परेशान था। इसलिए कि वो अपने बनने वाले घर का आख़िरी नक़्शा तैयार नहीं कर सका था।


रुख़सती की तारीख़ 9 अक्तूबर मुक़र्रर की गई थी। 8 अक्तूबर की शाम को बहुत देर तक, मेरा ख़याल है रात के दो बजे तक, उस आने वाले हादिसे के मुतअ’ल्लिक़ तबादला-ए-ख़याल करते रहे, लेकिन किसी नतीजे पर न पहुंचे। आख़िर तय ये हुआ कि जो होता है होने दिया जाये।


और ये हुआ कि 9 अक्तूबर की सुबह को मुँह अधेरे जमील मेरे पास सख़्त इज़्तिराब और कर्ब के आ’लम में आया और उसने मुझे ये ख़बर सुनाई कि उसकी मौसी की लड़की अ’ज़्रा ने जो बेवक़ूफ़ी की हद तक सादा-लौह थी, ख़ुदकुशी कर ली है, इसलिए कि उसको जमील से वालिहाना इ’श्क़ था। वो बर्दाश्त न कर सकी कि उसके महबूब-ओ-मा’बूद की शादी किसी और लड़की से हो। इस ज़िम्न में उस ने जमील के नाम ख़त लिख जिसकी इबारत बहुत दर्दनाक थी। मेरा ख़याल है कि ये तहरीर यादगार के तौर पर उसके पास महफ़ूज़ होगी। 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की इरोटिक कहानियाँ
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सवाल यह हैं की जो चीज जैसी हैं उसे वैसे ही पेश क्यू ना किया जाये मैं तो बस अपनी कहानियों को एक आईना समझता हूँ जिसमें समाज अपने आपको देख सके.. अगर आप मेरी कहानियों को बर्दास्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह हैं की ये ज़माना ही नक़ाबिल-ए-बर्दास्त हैं||
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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वज

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वह लड़की

24 अप्रैल 2022
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सवा चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उसने बालकनी में आकर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक सायादार दरख़्त की छांव में आलती पालत

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असली जिन

24 अप्रैल 2022
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लखनऊ के पहले दिनों की याद नवाब नवाज़िश अली अल्लाह को प्यारे हुए तो उनकी इकलौती लड़की की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा आठ बरस थी। इकहरे जिस्म की, बड़ी दुबली-पतली, नाज़ुक, पतले पतले नक़्शों वाली, गुड़िया सी। नाम

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जिस्म और रूह

24 अप्रैल 2022
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मुजीब ने अचानक मुझसे सवाल किया, “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?” गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इनकी तक़

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बादशाहत का ख़ात्मा

24 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और क

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ऐक्ट्रेस की आँख

24 अप्रैल 2022
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“पापों की गठड़ी” की शूटिंग तमाम शब होती रही थी, रात के थके-मांदे ऐक्टर लकड़ी के कमरे में जो कंपनी के विलेन ने अपने मेकअप के लिए ख़ासतौर पर तैयार कराया था और जिसमें फ़ुर्सत के वक़्त सब ऐक्टर और ऐक्ट्रसें

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अल्लाह दत्ता

24 अप्रैल 2022
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दो भाई थे। अल्लाह रक्खा और अल्लाह दत्ता। दोनों रियासत पटियाला के बाशिंदे थे। उनके आबा-ओ-अजदाद अलबत्ता लाहौर के थे मगर जब इन दो भाईयों का दादा मुलाज़मत की तलाश में पटियाला आया तो वहीं का हो रहा। अल

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झुमके

24 अप्रैल 2022
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सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं। झुमके चमकने लगते हैं, सुनार के पास ही एक आदमी बैठा है, झुमकों की चमक देख कर उसकी आँखें तमतमा उठती हैं। बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तर

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गुरमुख सिंह की वसीयत

24 अप्रैल 2022
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पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी

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इश्क़िया कहानी

24 अप्रैल 2022
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मेरे मुतअ’ल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इ’श्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इसलिए वो बिल्कुल सपाट होते हैं। मैं अब ये इ’श्क़िया कहानी लि

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बाबू गोपीनाथ

24 अप्रैल 2022
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बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था।

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मोज़ेल

24 अप्रैल 2022
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त्रिलोचन ने पहली मर्तबा... चार बरसों में पहली मर्तबा रात को आसमान देखा था और वो भी इसलिए कि उसकी तबीयत सख़्त घबराई हुई थी और वो महज़ खुली हवा में कुछ देर सोचने के लिए अडवानी चैंबर्ज़ के टेरिस पर चला आ

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एक ज़ाहिदा, एक फ़ाहिशा

24 अप्रैल 2022
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जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर। हम हर रोज़ क़रीब-क़रीब दस-बारह घंटे साथ साथ रहते। वो अपने रिश्तेदारों स

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बुर्क़े

24 अप्रैल 2022
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ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है। वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड

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आँखें

24 अप्रैल 2022
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ये आँखें बिल्कुल ऐसी ही थीं जैसे अंधेरी रात में मोटर कार की हेडलाइट्स जिनको आदमी सब से पहले देखता है। आप ये न समझिएगा कि वो बहुत ख़ूबसूरत आँखें थीं, हरगिज़ नहीं। मैं ख़ूबसूरती और बदसूरती में तमीज़ क

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अनार कली

24 अप्रैल 2022
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नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तन

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टेटवाल का कुत्ता

24 अप्रैल 2022
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कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह फ़ायर किए जाते जिनकी आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में

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धुआँ

24 अप्रैल 2022
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वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था

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आर्टिस्ट लोग

24 अप्रैल 2022
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जमीला को पहली बार महमूद ने बाग़-ए-जिन्ना में देखा। वो अपनी दो सहेलियों के साथ चहल क़दमी कर रही थी। सबने काले बुर्के पहने थे। मगर नक़ाबें उलटी हुई थीं। महमूद सोचने लगा। ये किस क़िस्म का पर्दा है कि बुर

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