आज सुबह जैसे ही घर से घूमने निकली तो बारिश के एक लहर बाहर मेरे स्वागत के लिए तैयार बैठी मिली। भीषण गर्मी के बाद स्वागत करने वाली बारिश की पहली पहल बूँदे मेरे तन-बदन पर क्या पड़ी कि मुझे मेरा बचपन याद आ गया। आता क्यों नहीं, पहले-पहल बारिश की बूंदों से भीगने का मजा ही कुछ और होता है। तब गर्मी के बाद जैसे ही बादल उमड़-घुमड़ कर गरज-चमक के साथ बरसते थे तो हम बच्चे घरवालों से छुपते-छुपाते घरों से निकलकर बाहर एक सामने जमा होकर बारिश की बूंदों में भीगते हुए बड़ा हो-हल्ला मचाते हुए बिना किसी की परवाह किये खूब धमाल मचाये करते थे। भीग-भाग कर जब घर आते तो फिर घरवालों से खूब डाँट पड़ती थी, लेकिन यह डाँट भीगने के सुख से आगे कुछ भी नहीं लगता था। आज भी बहुत भीगने का मन था, क्योंकि अब तो कोई रोकने-टोकने था नहीं, लेकिन दो मिनट बाद ही बारिश की बूँदें जो रूठी तो मन खट्टा हो गया। सुबह की सैर में खट्टास घुल गयी।घूमतेे-घामते रास्ते भर आसमान की ओर बार-बार देखती रही कि कुछ बूँदें बरस जाय, लेकिन बादल ऐसे हवा में उड़ चले कि उनकी खबर तक नहीं मिल पायी। मुझे तो बारिश की बूंदों का इंतज़ार है ही, किन्तु मेरे साथ ही आग उगलते सूरज के भीषण ताप को सहने वाली धरती को इसका बेसब्री से इंतज़ार हैं। यही वह धरती है जो हमें कष्ट सहने की शक्ति देता है और हमें वर्षा के आगमन पर इस बात का संकेत देती है कि दुःख के बाद सुख की प्राप्ति होती है, कठोर संघर्ष के पश्चात् ही शांति और उल्लास आता है, बताती है। वह हम प्राणियों को सीख देती है कि उसके समान ही सूरज के ताप को झेलना चाहिए। इसे रहीम दास जी ने बड़ी सटीकता से अपने एक दोहे में व्यक्त किया है कि -
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह