shabd-logo

जिस्म और रूह

8 अप्रैल 2022

25 बार देखा गया 25

मुजीब ने अचानक मुझ से सवाल क्या: “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?”

गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इन की तक़सीम कर सकते हैं। आने पाई का हिसाब चशम-ए-ज़दन में आप को बता सकते हैं।

इस गुफ़्तुगू के दौरान में मुग़नी ये कह रहा था: “इंग्लिस्तान में एक आदमी है जो एक नज़र देख लेने के बाद फ़ौरन बता देता है कि इस क़ता ज़मीन का तूल-ओ-अर्ज़ किया है रक़्बा कितना है उस ने अपने एक बयान में कहा था कि वो अपनी इस ख़ुदादाद सलाहियत से तंग आ गया है। वो जब भी कहीं बाहर खुले खेतों में निकलता है तो उन की हरियाली और उन का हुस्न उस की निगाहों से ओझल हो जाता है और वो इस क़ता ज़मीन की पैमाइश अपनी आँखों के ज़रिये शुरू कर देता है। एक मिनट के अंदर वो अंदाज़ा कर लेता है कि ज़मीन का ये टुकड़ा कितना रक़्बा रखता है, उस की लंबाई कितनी है चौड़ाई कितनी है, फिर उसे मजबूरन अपने अंदाज़े का इम्तिहान लेना पड़ता है। फीटर स्टेप के ज़रिये से उस क़ता-ए-ज़मीन को मापता और वो उस के अंदाज़े के ऐन मुताबिक़ निकलता। अगर उस का अंदाज़ा ग़लत होता तो उसे बहुत तसकीन होती। बाअज़ औक़ात फ़ातेह अपनी शिकस्त से भी ऐसी लज़्ज़त महसूस करता है जो उसे फ़तह से नहीं मिलती। असल में शिकस्त दूसरी शानदार फ़तह का पेशख़ैमा होती है।

मैंने मुग़नी से कहा: “तुम दरुस्त कहते हो दुनिया में हर क़िस्म के अजाइबात मौजूद हैं ”

मैं कुछ और कहना चाहता था कि मुजीब ने जो इस गुफ़्तुगू के दौरान काफ़ी पी रहा था, अचानक मुझ से सवाल क्या :

“क्या तुम उस आदमी को जानते हो?”

मैं सोचने लगा कि मुजीब किस आदमी के मुतअल्लिक़ मुझ से पूछ रहा है, हामिद नहीं, वो आदमी नहीं मेरा दोस्त है।

अब्बास, इस के मुतअल्लिक़ कुछ कहने सुनने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हो सकती थी। शब्बीर, इस में कोई ग़ैर-मामूली बात नहीं थी। आख़िर ये किस आदमी का हवाला दिया गया था।

मैंने मुजीब से कहा: “तुम किस आदमी का हवाला दे रहे हो?”

मुजीब मुस्कुराया : “तुम्हारा हाफ़िज़ा बहुत कमज़ोर है।”

“भई, मेरा हाफ़िज़ा तो बचपन से ही कमज़ोर रहा है। तुम पहेलियों में बातें न करो बताओ वो कौन आदमी है जिस से तुम मेरा तआरुफ़ कराना चाहते हो।”

मुजीब की मुस्कुराहट में अब एक तरह का असरार था। “बूझ लो!”

“मैं क्या बूझूंगा जबकि वो आदमी तुम्हारे पेट में है।”

आरिफ़, असग़र और मसऊद बे-इख़्तियार हंस पड़े। आरिफ़ ने मुझ से मुख़ातब हो कर कहा:

“वो आदमी अगर मुजीब के पेट में है तो आप को उस की पैदाइश का इंतिज़ार करना पड़ेगा।”

मैंने मुजीब की तरफ़ एक नज़र देखा और आरिफ़ से मुख़ातब हुआ “मैं अपनी सारी उम्र उस मह्दी की विलादत का इंतिज़ार नहीं कर सकता हूँ।”

मसऊद ने अपने सिगरेट को ऐशट्रे के क़ब्रिस्तान में दफ़न करते हुए कहा:

“देखिए साहिबान! हमें अपने दोस्त मिस्टर मुजीब की बात का मज़ाक़ नहीं उड़ाना चाहिए” ये कह कर वो मुजीब से मुख़ातब हुआ “मुजीब साहब फ़रमाईए आप को क्या कहना है हम सब बड़े ग़ौर से सुनेंगे।”

मुजीब थोड़ी देर ख़ामोश रहा। इस के बाद अपना बुझा हुआ चुर्ट सुलगा कर बोला: “माज़रत चाहता हूँ कि मैंने उस आदमी के मुतअल्लिक़ आप से पूछा जिसे आप जानते नहीं।”

मैंने कहा : “मुजीब तुम कैसी बातें करते हो, बहरहाल, तुम उस आदमी को जानते हो ”

मुजीब ने बड़े वसूक़ के साथ कहा! “बहुत अच्छी तरह जब हम दोनों बर्मा में थे तो दिन रात इकट्ठे रहते थे। अजीब-ओ-ग़रीब आदमी था।”

मसऊद ने पूछा! “किस लिहाज़ से?”

मुजीब ने जवाब दिया: “हर लिहाज़ से उस जैसा आदमी आप ने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखा होगा।”

मैंने कहा: “भई मुजीब अब बता भी दो वो कौन हज़रत थे।”

“बस हज़रत ही थे।”

आरिफ़ मुस्कुराया: “चलो, क़िस्सा ख़त्म हुआ वो हज़रत थे, और बस ”

मसऊद ये जानने के लिए बेताब था कि वो हज़रत कौन था। “भई मुजीब, तुम्हारी हर बात निराली होती है। तुम बताते क्यों नहीं हो कि वो कौन आदमी था जिस का ज़िक्र तुम ने अचानक छेड़ दिया!”

मुजीब तबअन ख़ामोशी पसंद था। उस के दोस्त अहबाब हमेशा उस की तबीयत से नालां रहते लेकिन उस की बातें जची तुली होती थीं।

थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद इस ने कहा: “माज़रत ख़ाह हूँ कि मैंने ख़्वाह-मख़्वाह आप को इस मख़म्मसे में गिरफ़्तार कर दिया बात दर असल ये है कि जब ये गुफ़्तुगू शुरू हुई तो मैं खो गया। मुझे वो ज़माना याद आगया जिस को मैं कभी नहीं भूल सकता।”

मैंने पूछा: “वो ऐसा ज़माना कौन सा था?”

मुजीब ने एक लंबी कहानी बयान करना शुरू कर दी: “अगर आप समझते हों कि उस ज़माने से मेरी ज़िंदगी के किसी रोमान का तअल्लुक़ है तो मैं आप से कहूंगा कि आप कम फ़ह्म हैं।”

मैंने मुजीब से कहा: “हम तो आप के फ़ैसले के मुंतज़िर हैं। अगर आप समझते हैं कि आप कम फ़ह्म हैं तो ठीक है। लेकिन वो आदमी।”

मुजीब मुस्कुराया : “वो आदमी आदमी था लेकिन उस में ख़ुदा ने बहुत सी क़ुव्वतें बख़्शी थीं।”

मसऊद ने पूछा: “मिसाल के तौर पर ”

“मिसाल के तौर पर ये कि वो एक नज़र देखने के बाद बता सकता था कि आप ने किस रंग का सूट पहना था, टाई कैसी थी। आप की नाक टेढ़ी थी या सीधी आप के किस गाल पर कहाँ और किस जगह तिल था। आप के नाख़ुन कैसे हैं। आप की दाहिनी आँख के नीचे ज़ख़म का निशान है। आप की भंवें मुंडी हुई हैं। मौज़े फ़ुलां साख़्त के पहने हुए थे, क़मीस पोपलीन की थी मगर घर में धुली हुई।”

ये सुन कर मैंने वाक़्यता महसूस किया कि जिस शख़्स का ज़िक्र मुजीब कर रहा है अजीब-ओ-ग़रीब हस्ती का मालिक है। चुनांचे मैंने इस से कहा : “बड़ा मार्का ख़ेज़ आदमी था।”

“जी हाँ, बल्कि इस से भी कुछ ज़्यादा उस को इस बात का ज़ोम था कि अगर वो कोई मंज़र कोई मर्द, कोई औरत सिर्फ़ एक नज़र देख ले तो उसे मिन-ओ-अन अपने अल्फ़ाज़ में बयान कर सकता है जो कभी ग़लत नहीं होंगे। और इस में कोई शक नहीं कि उस का अंदाज़ा हमेशा दरुस्त साबित होता था।”

मैंने पूछा “क्या ये वाक़ई दरुस्त था।”

“सौ फ़ीसद एक मर्तबा मैंने उस से बाज़ार में पूछा ये लड़की जो अभी अभी हमारे पास से गुज़री है, क्या तुम इस के मुतअल्लिक़ भी तफ़सीलात बयान कर सकते हो?”

मैं इस लड़की से एक घंटा पहले मिल चुका था। वो हमारे हम-साए मिस्टर लोजवाए की बेटी थी। और मेरी बीवी से सिलाई के मुस्तआर लेने आई थी। मैंने उसे ग़ौर से देखा इस लिए बग़र्ज़-ए-इम्तिहान मैंने मुजीब से ये सवाल किया था।

मुजीब मुस्कुराया : “तुम मेरा इम्तिहान लेना चाहते हो।”

“नहीं नहीं ये बात नहीं मैं मैं।”

“नहीं तुम मेरा इम्तिहान लेना चाहते हो। ख़ेर सुनो! वो लड़की जो अभी अभी हमारे पास से गुज़री है और जिसे में अच्छी तरह नहीं देख सका, मगर लिबास के मुतअल्लिक़ कुछ कहना फ़ुज़ूल है इस लिए कि हर वह शख़्स जिस की आँखें सलामत हों और होश-ओ-हवास दरुस्त हों कह सकता है कि वो किस क़िस्म का था। वैसे एक चीज़ जो मुझे उस में खासतौर पर दिखाई दी, वो इस के दाहिने हाथ की छंगुलिया थी। उस में किसी क़दर ख़म है बाएं हाथ के अंगूठे का नाख़ुन मज़रूब था। इस के लिप स्टिक लगे होंटों से ये मालूम होता है कि वो आराइश के फ़न से महिज़ कोरी है।”

मुझे बड़ी हैरत हुई कि उस ने एक मामूली सी नज़र में ये सब चीज़ें कैसे भाँप लीं मैं अभी इस हैरत में ग़र्क़ था कि मुजीब ने अपना सिलसिला-ए-कलाम जारी रखते हुए कहा “उस में जो ख़ास चीज़ मुझे नज़र आई वो उस के दाहिने गाल का दाग़ था ग़ालिबन किसी फोड़े का है।”

मुजीब का कहना दरुस्त था मैंने इस से पूछा। “ये सब बातें जो तुम इतने वसूक़ से कहते हो, तुम्हें क्योंकर मालूम हो जाती हैं?”

मुजीब मुस्कुराया: “मैं इस के मुतअल्लिक़ कुछ कह नहीं सकता। इस लिए कि में समझता हूँ हर आदमी को साहब-ए-नज़र होना चाहिए। साहब-ए-नज़र से मेरी मुराद हर उस शख़्स से है जो एक ही नज़र में दूसरे आदमी के तमाम ख़ुद्द-ओ-ख़ाल देख ले।”

मैंने उस से पूछा:

“ख़द्द-ओ-ख़ाल देखने से क्या होता है?”

“बहुत कुछ होता है ख़ुद्द-ओ-ख़ाल ही तो इंसान का सही किरदार बयान करते हैं”

“करते होंगे। मैं तुम्हारे इस नज़रिए से मुत्तफ़िक़ नहीं हूँ।”

“न हो मगर मेरा नज़रिया अपनी जगह क़ायम रहेगा।”

“रहे मुझे इस पर क्या एतराज़ होसकता है। बहरहाल, मैं ये कहे बग़ेर नहीं रह सकता कि इंसान ग़लती का पुतला है हो सकता है तुम ग़लती पर हो।”

“यार, गलतियां दुरुस्तियों से ज़्यादा दिलचस्प होती हैं”

“ये तुम्हारा अजीब फ़लसफ़ा है।”

“फ़लसफ़ा गाय का गोबर है।”

“और गोबर?”

मुजीब मुस्कुराया: “वो वो उपला कह लीजिए, जो ईंधन के काम आता है।”

हमें मालूम हुआ कि मुजीब एक लड़की के इश्क़ में गिरफ़्तार होगया है पहली ही निगाह में उस ने उस के जिस्म के हर ख़द्द-ओ-ख़ाल का सही जायज़ा ले लिया था। वो लड़की बहुत मुतअस्सिर हुई जब उसे मालूम हुआ कि दुनिया में ऐसे आदमी भी मौजूद हैं जो सिर्फ़ एक नज़र में सब चीज़ें देख जाते हैं तो वो मुजीब से शादी करने के लिए रज़ामंद होगई।

उन की शादी हो गई दुल्हन ने कैसे कपड़े पहने थे, उस की दाएं कलाई में किस डिज़ाइन की दस्त लच्छी थी इस में कितने नगीने थे

ये सब तफ़सीलात उस ने हमें बताईं।

इन तफ़सीलात का ख़ुलासा ये है कि उन दोनों में तलाक़ हो गई ।

18
रचनाएँ
सआदत हसन मंटो के बदनाम लेख
0.0
सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे।
1

ठंडा गोश्त

7 अप्रैल 2022
18
0
0

ईशर सिंह जूंही होटल के कमरे में दाख़िल हुआ, कुलवंत कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज़ तेज़ आँखों से उसकी तरफ़ घूर के देखा और दरवाज़े की चटख़्नी बंद कर दी। रात के बारह बज चुके थे, शहर का मुज़ाफ़ात एक अजीब पुर-अस

2

टोबा टेक सिंह

7 अप्रैल 2022
6
0
0

बटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदोस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुसलमान पागल, हिंदोस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें पाकिस्त

3

बू

7 अप्रैल 2022
3
0
0

बरसात के यही दिन थे। खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे। सागवान के इस स्प्रिंगदार पलंग पर जो अब खिड़की के पास से थोड़ा इधर सरका दिया गया था एक घाटन लौंडिया रणधीर के साथ चिपटी हुई थी।  खिड़की

4

खोल दो

7 अप्रैल 2022
5
0
0

अमृतसर से स्शपेशल ट्रेन दोपहर दो बजे को चली और आठ घंटों के बाद मुग़लपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। मुतअद्दिद ज़ख़्मी हुए और कुछ इधर उधर भटक गए।  सुबह दस बजे कैंप की ठंडी ज़मीन पर जब सिराजुद्दी

5

काली शलवार

7 अप्रैल 2022
3
0
0

दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे उसके गाहक थे। उन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उनको वो आम गुफ़्तगु में इस्तेमाल नहीं करती थी लेकिन जब वो

6

हिंदुस्तान को लीडरों से बचाओ

7 अप्रैल 2022
0
0
0

हम एक अर्से से ये शोर सुन रहे हैं। हिन्दुस्तान को इस चीज़ से बचाओ। उस चीज़ से बचाओ, मगर वाक़िया ये है कि हिन्दुस्तान को उन लोगों से बचाना चाहिए जो इस क़िस्म का शोर पैदा कर रहे हैं। ये लोग शोर पैदा करने के

7

सफ़ेद झूठ

7 अप्रैल 2022
0
0
0

माहवार रिसाला 'अदब-ए-लतीफ़' लाहौर के सालनामा 1942 ई. में मेरा एक अफ़्साना बा-उनवान 'काली शलवार' शाया हुआ था जिसे कुछ लोग फ़ोह्श समझते हैं। मैं उनकी ग़लत-फ़ह्मी दूर करने के लिए एक मज़मून लिख रहा हूँ।  अफ़सान

8

हिंदी और उर्दू

7 अप्रैल 2022
1
0
0

‘‘हिन्दी और उर्दू का झगड़ा एक ज़माने से जारी है। मौलवी अब्दुल-हक़ साहब, डाक्टर तारा चंद जी और महात्मा गांधी इस झगड़े को समझते हैं लेकिन मेरी समझ से ये अभी तक बालातर है। कोशिश के बावजूद इस का मतलब मेरे ज़हन

9

बातें

7 अप्रैल 2022
0
0
0

बंबई आया था कि चंद रोज़ पुराने दोस्तों के साथ गुज़ारूँगा और अपने थके हुए दिमाग़ को कुछ आराम पहुंचाऊंगा, मगर यहां पहुंचते ही वो झटके लगे कि रातों की नींद तक हराम हो गई।  सियासत से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं

10

बिन बुलाए मेहमान

7 अप्रैल 2022
0
0
0

ग़ालिब कहता है,  मैं बुलाता तो हूँ उनको मगर ए जज़्बा-ए-दिल  उन पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आए न बने  यानी अगर उसे बिन बुलाए मेहमानों से कद होती तो ये शे’र हमें उसके दीवान में हरगिज़ न मिलता। ग़ालिब कहता

11

मुझे शिकायत है

7 अप्रैल 2022
0
0
0

मुझे शिकायत है उन लोगों से जो उर्दू ज़बान के ख़ादिम बन कर माहाना, हफ़्ता या रोज़ाना पर्चा जारी करते हैं और इस 'ख़िदमत' का इश्तिहार बनकर लोगों से वसूल करते हैं मगर उन मज़मून निगारों को एक पैसा भी नहीं देते।

12

जिस्म और रूह

8 अप्रैल 2022
1
0
0

मुजीब ने अचानक मुझ से सवाल क्या: “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?” गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इन की तक़सी

13

फूलों की साज़िश

8 अप्रैल 2022
0
0
0

बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़

14

बग़ैर इजाज़त

8 अप्रैल 2022
0
0
0

नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

15

बदतमीज़ी

8 अप्रैल 2022
0
0
0

“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

16

बर्फ़ का पानी

8 अप्रैल 2022
0
0
0

“ये आप की अक़ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं” “मेरी अक़ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए थे जब मैंने तुम से शादी की भला इस की ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब कराली।” “जी हाँ आज़ादी तो आप की यक़ीनन सल्ब हूई

17

एक ख़त

20 अप्रैल 2022
0
0
0

तुम्हारा तवील ख़त मिला जिसे मैंने दो मर्तबा पढ़ा। दफ़्तर में इसके एक एक लफ़्ज़ पर मैंने ग़ौर किया और ग़ालिबन इसी वजह से उस रोज़ मुझे रात के दस बजे तक काम करना पड़ा, इसलिए कि मैंने बहुत सा वक़्त इस गौर-ओ-

18

एक ख़त

24 अप्रैल 2022
0
0
0

तुम्हारा तवील ख़त मिला जिसे मैंने दो मर्तबा पढ़ा। दफ़्तर में इसके एक एक लफ़्ज़ पर मैंने ग़ौर किया और ग़ालिबन इसी वजह से उस रोज़ मुझे रात के दस बजे तक काम करना पड़ा, इसलिए कि मैंने बहुत सा वक़्त इस गौर-ओ-

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए