कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।
पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया
धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो
किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से
काँच-कलेजे में भी करुणा
के डोरे ही से खिलते हो
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो
प्रणय और पुरुषार्थ तुम्हारा
मनमोहिनी धरा के बल हैं
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
तेरी ही छाया के छल हैं
प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
जो बलि के फूलों खिलते हो
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो