हिन्दी पट्टी के आदिवासी समाज, विशेष रूप से झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के राजनीतिक संघर्षों पर तो थोड़ा ध्यान दिया गया है, लेकिन उनकी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा, सादगी और करुणा को सामने लाने का उपक्रम प्रायः नहीं हुआ है। इधर हिन्दी के कतिपय कवियों ने ज़रूर कुछ कविताएँ लिखी हैं लेकिन उनमें बस कुछ सूचनाओं और घटनाओं को दर्ज भर किया गया है। उन सूचनाओं को जब कवि ही अपने जीवनानुभव का हिस्सा नहीं बना पाते, तो भला पाठकों की अनुभूति में वे क्या प्रवाहित होंगी! दरअसल, प्रकृतिविहीन नपी-तुली ज़िन्दगी जीने वाला तथाकथित सभ्य समाज आदिवासियों की महान सांस्कृतिक विरासत को समझ भी नहीं सकता। इससे अलग, आदिवासी समाज के संघर्ष और करुणा की गाथाएँ उनकी आदिवासी भाषाओं में तो दर्ज़ हैं ही, इधर कुछ आदिवासी कवियों ने भी हिन्दी में लिखने की पहल की है, जो स्वागत योग्य है। इसकी शुरुआत तो काफी पहले हो गयी थी, लेकिन पहली बार 1980 के दशक में रामदयाल मुंडा के कविता-संग्रह के प्रकाशन के साथ उस महान सांस्कृतिक विरासत को हिन्दी कविता के माध्यम से व्यक्त करने का उपक्रम सामने आया। बाद में सन् 2004 में रमणिका फाउंडेशन ने पहले-पहल सन्ताली कवि निर्मला पुतुल की कविताओं के हिन्दी अनुवाद का द्विभाषी संग्रह ‘अपने घर की तलाश में प्रकाशित किया। उसके बाद ही आदिवासी लेखन को लेकर हिन्दी समाज गम्भीर हुआ और यह परम्परा लगातार समृद्ध होती गयी। अनुज लुगुन की कविताओं ने तथाकथित मुख्यधारा में आदिवासी कविता को पहचान दिलाने में एक अहम भूमिका निभाई। Read more