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क़ासिम

20 अप्रैल 2022

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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररहे थे। अंगीठियों में आग की आख़िरी चिनगारियां राख में सोगई थीं। दूर कोने में क़ासिम ग्यारह बरस का लड़का बर्तन मांझने में मसरूफ़ था। ये रेलवे इन्सपैक्टर साहब का ब्वॉय था।

बर्तन साफ़ करते वक़्त ये लड़का कुछ गुनगुना रहा था। ये अल्फ़ाज़ ऐसे थे जो उस की ज़बान से बग़ैर किसी कोशिश के निकल रहे थे।

“जी आया साहब! जी आया साहब!........ बस अभी साफ़ हो जाते हैं साहब।”

अभी बर्तनों को राख से साफ़ करने के बाद उन्हें पानी से धो कर करीने से रखना भी था। और ये काम जल्दी से न हो सकता था। लड़के की आँखें नींद से बंद हुई जा रही थीं। सर सख़्त भारी होरहा था मगर काम किए बगै़र आराम.... ये क्योंकर मुम्किन था।

स्टोव बदस्तूर एक शोर के साथ नीले शोलों को अपने हलक़ से उगल रहा था। केतली का पानी उसी अंदाज़ में खिलखिला कर हंस रहा था।

दफ़अतन लड़के ने नींद के नाक़ाबिल-ए-मग़्लूब हमले को महसूस करके अपने जिस्म को एक जुंबिश दी। और “जी आया साहब” गुनगुनाता फिर काम में मशग़ूल होगया।

दीवार गेरियों पर चुने हुए बर्तन सोए हुए थे। पानी के नल से पानी की बूंदें नीचे मैली सिल पर टपक रही थीं और उदास आवाज़ पैदा कररही थीं। ऐसा मालूम होता था कि फ़िज़ा पर ग़नूदगी सी तारी है। दफ़ातन आवाज़ बुलंद हुई।

“क़ासिम!........ क़ासिम!”

“जी आया साहब!” लड़का इन ही अल्फ़ाज़ की गर्दान कररहा था भागा भागा अपने आक़ा के पास गया।

इन्सपैक्टर साहब ने गर्ज कर कहा। “बेवक़ूफ़ के बच्चे आज फिर यहां सुराही और गिलास रखना भूल गया है।”

“अभी लाया साहब........ अभी लाया साहब।”

कमरे में सुराही और गिलास रखने के बाद वो अभी बर्तन साफ़ करने के लिए गया ही था कि फिर उसी कमरे से आवाज़ आई।

“क़ासिम........क़ासिम!”

“जी आया साहब!” क़ासिम भागता हुआ फिर अपने आक़ा के पास गया।

“बंबई का पानी किस क़दर ख़राब है........ जाओ पार्सी के होटल से सोडा लेकर आओ। बस भागे जाओ। सख़्त प्यास लग रही है।”

“बहुत अच्छा साहब।”

क़ासिम भागा भागा गया और पार्सी के होटल से, जो घर से क़रीबन निस्फ़ मेल के फ़ासले पर था, सोडे की बोतल ले आया और अपने आक़ा को गिलास में डाल कर दे दी।

“अब तुम जाओ। मगर उस वक़्त तक क्या कर रहे हो? बर्तन साफ़ नहीं हुए क्या?”

“अभी साफ़ हो जाते हैं साहब!”

“बर्तन साफ़ करने के बाद मेरे दोनों काले शो पॉलिश करदेना। मगर देखना एहतियात रहे। चमड़े पर कोई ख़राश न आए। वर्ना.... ”

क़ासिम को वर्ना के बाद जुमला बख़ूबी मालूम था। “बहुत अच्छा साहब” कह कर वो बावर्चीख़ाना में चला गया और बर्तन साफ़ करने शुरू कर दिए।

अब नींद उस की आँखों में सिमटी चली आरही थी। पलकें आपस में मिली जा रही थीं, सर में पिघला हुआ सीसा उतर रहा था........ ये ख़याल करते हुए कि साहब के बूट भी अभी पॉलिश करने हैं क़ासिम ने अपने सर को ज़ोर से जुंबिश दी और वही राग अलापना शुरू कर दिया।

“जी आया साहब। जी आया साहब! बूट साफ़ हो जाते हैं साहब।”

मगर नींद का तूफ़ान हज़ार बंद बांधने पर भी न रूका। अब उसे महसूस हुआ कि नींद ज़रूर ग़ल्बा पाके रहेगी। पर अभी बर्तनों को धो कर उन्हें अपनी जगह पर रखना बाक़ी था। जब उस ने ये सोचा तो एक अजीब-ओ-ग़रीब ख़याल उस के दिमाग़ में आया। “भाड़ में जाएं बर्तन और चूल्हे में जाएं शो.... क्यों ना थोड़ी देर इसी जगह सौ जाऊं और फिर चंद लम्हा आराम करने के बाद.... ”

इस ख़याल को बाग़ियाना तसव्वुर करके क़ासिम ने तर्क कर दिया। और बर्तनों पर जल्दी जल्दी राख मलना शुरू करदी।

थोड़ी देर के बाद जब नींद फिर ग़ालिब आई तो उस के जी में आई कि उबलता हुआ पानी अपने सर पर उंडेल ले। और इस तरह इस ग़ैर मरई ताक़त से जो इस काम में हायल हो रही थी नजात पा जाये........ मगर पानी इतना गर्म था कि उस के भेजे तक को पिघला देता। चुनांचे मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मार मार कर उस ने बाक़ीमांदा बर्तन साफ़ किए। ये काम करने के बाद उस ने इत्मिनान का सांस लिया। अब वो आराम से सौ सकता था और नींद.... वो नींद, जिस के लिए उस की आँखें और दिमाग़ इस शिद्दत से इंतिज़ार कर रहे थे अब बिलकुल नज़दीक थी।

बावर्चीख़ाने की रोशनी गुल करने के बाद क़ासिम ने बाहर बरामदे में अपना बिस्तर बिछा लिया और लेट गया। इस से पहले कि नींद उसे अपने नरम नरम बाज़ूओं में थाम ले इस के कान शो शो की आवाज़ से गूंज उठे।

“बहुत अच्छा साहब। अभी पालिश करता हूँ। क़ासिम हड़बड़ा के उठ बैठा।”

अभी क़ासिम शू का एक पैर भी अच्छी तरह पॉलिश करने न पाया था कि नींद के ग़ल्बा ने उसे वहीं सुला दिया।

सूरज की लाल लाल किरणें मकान के शीशों से नमूदार हुईं। मगर क़ासिम सोया रहा।

जब इन्सपैक्टर साहब ने अपने नौकर को बाहर बरामदे में अपने काले जूतों के पास सोया देखा तो उसे ठोकर मार के जगाते हुए कहा। “ये सुवर की तरह यहां बेहोश पड़ा है और मुझे ख़याल था कि इस ने शो साफ़ कर लिए होंगे.... ”

“नमक हराम!.... अबे क़ासिम।”

“जी आया साहब!”

क़ासिम फ़ौरन उठ बैठा। हाथ में जब उस ने पॉलिश करने का बरशश देखा और रात के अंधेरे की बजाय दिन की रोशनी देखी तो उस की जान ख़ता होगई।

“मैं सौ गया था साहब! मगर.... मगर शू अभी पॉलिश हो जाते हैं साहब।”

ये कह कर उस ने जल्दी जल्दी पॉलिश करना शुरू कर दिया।

पॉलिश करने के बाद उस ने अपना बिसतरबंद किया और उसे ऊपर के कमरे में रखने चला गया।

“क़ासिम!”

“जी आया साहब!”

क़ासिम भागा हुआ नीचे आया। और अपने आक़ा के पास खड़ा होगया।

“देखो आज हमारे यहां मेहमान आयेंगे इस लिए बावर्चीख़ाना के तमाम बर्तन अच्छी तरह साफ़ कर रखना। फ़र्श धुला हुआ होना चाहिए। इस के इलावा तुम्हें ड्राइंगरूम की तस्वीरें, मेज़ें और कुर्सियां भी साफ़ करना होंगी........ समझे! ख़याल रहे मेरी मेज़ पर एक तेज़ धार वाला चाक़ू पड़ा है, उसे मत छेड़ना! मैं अब दफ़्तर जा रहा हूँ। मगर ये काम दो घंटे से पहले पहले हो जाये।”

“बहुत बेहतर साहब।”

इन्सपैक्टर साहब दफ़्तर चले गए। क़ासिम बावर्चीख़ाना साफ़ करने में मशग़ूल होगया।

डेढ़ घंटे की अनथक मेहनत के बाद उस ने बावर्चीख़ाना का सारा काम ख़त्म कर दिया। और हाथ पांव साफ़ करने के बाद झाड़न लेकर ड्राइंगरूम में चला गया।

वो अभी कुर्सीयों को झाड़न से साफ़ कर रहा था कि उस के थके हुए दिमाग़ में एक तस्वीर सी खिच गई। क्या देखता है कि इस के गिर्द बर्तन ही बर्तन पड़े हैं और पास ही राख का एक ढेर लग रहा है। हवा ज़ोरों पर चल रही है जिस से वो राख उड़ उड़ कर फ़िज़ा को ख़ाकसतरी बना रही है। यकायक इस ज़ुल्मत में एक सुर्ख़ आफ़ताब नुमूदार हुआ जिस की किरणें सुर्ख़ बरछियों की तरह हर बर्तन के सीने में घुस गईं। ज़मीन ख़ून से शराबोर होगई।

क़ासिम दहश्त ज़दा हो गया। और इस वहशत नाक तसव्वुर को दिमाग़ से झटक कर “जी आया साहब, जी आया साहब” कहता फिर अपने काम में मशग़ूल होगया।

थोड़ी देर के बाद उस के तसव्वुर में एक और मुंतज़िर रक़्स करने लगा। छोटे छोटे लड़के आपस में कोई खेल खेल रहे थे। दफ़अतन आंधी चलने लगी जिस के साथ ही एक बद-नुमा और भयानक देव नुमूदार हुआ। ये दीवान सब लड़कों को निगल गया। क़ासिम ने ख़याल कि वो देव इस के आक़ा के हमशकल था। गो कि क़द-ओ-क़ामत के लिहाज़ से वो उस से कहीं बड़ा था। अब उस देव ने ज़ोर ज़ोर से डकारना शुरू किया। क़ासिम सर से पैर तक लरज़ गया।

अभी तमाम कमरा साफ़ करना था। और वक़्त बहुत कम रह गया था। चुनांचे क़ासिम ने जल्दी जल्दी कुर्सीयों पर झाड़न मारना शुरू किया। कुर्सीयों का काम ख़त्म करने के बाद वो मेज़ साफ़ करने के लिए बढ़ा तो उसे ख़याल आया। आज मेहमान आरहे हैं। ख़ुदा मालूम कितने बर्तन साफ़ करना पड़ेंगे। नींद कम्बख़्त फिर सताएगी। मुझ से तो कुछ भी न हो सकेगा....

वो ये सोच रहा था और मेज़ पर रखी हुई चीज़ों को पूंछ रहा था। अचानक उसे क़लमदान के पास एक खुला हुआ चाक़ू नज़र आया........ वही चाक़ू जिस के मुतअल्लिक़ उस के आक़ा ने कहा था बहुत तेज़ है, चाक़ू का देखना था कि उस की ज़बान पर ये लफ़्ज़ ख़ुदबख़ुद जारी होगए........ चाक़ू तेज़ धार चाक़ू! यही तुम्हारी मुसीबत ख़त्म कर सकता है।

कुछ और सोचे बग़ैर क़ासिम ने तेज़ धार चाक़ू उठा के अपनी उंगली पर फेर लिया। अब वो शाम को बर्तन साफ़ करने की ज़हमत से बहुत दूर था और नींद.... प्यारी प्यारी नींद उसे बाआसानी नसीब हो सकती थी।

उंगली से ख़ून की सुर्ख़ धार बह रही थी। सामने वाली दवात की सुर्ख़ रोशनाई से कहीं चमकीली। क़ासिम इस ख़ून की धार को मुसर्रत भरी नज़रों से देख रहा था। और मुँह में गुनगुना रहा था। “नींद, नींद........ प्यारी नींद।”

थोड़ी देर बाद वो भागा हुआ अपने आक़ा की बीवी के पास गया जो ज़नानखाना में बैठी सिलाई कर रही थी। और अपनी उंगली दिखा कर कहने लगा.... “देखिए बीबी जी”

“अरे क़ासिम ये तू ने क्या क्या?........ कमबख़्त, साहब के चाक़ू को छेड़ा होगा तू ने!”

क़ासिम मुस्कुरा दिया। बीबी जी........ बस मेज़ साफ़ कर रहा था कि उस ने काट खाया।”

“सुवर अब हँसता है, इधर आ, मैं इस पर कपड़ा बांध दूं........ पर अब ये तो बता कि आज ये बर्तन तेरा बाप साफ़ करेगा?”

क़ासिम अपनी फ़तह पर जी ही जी में बहुत ख़ुश हुआ।

उंगली पर पट्टी बंधवा कर क़ासिम फिर कमरे में चला आया। मेज़ पर से ख़ून के धब्बे साफ़ करने के बाद उस ने ख़ुशी ख़ुशी अपना काम ख़त्म कर दिया। सामने तोते का पिंजरा लटक रहा था। उस की तरफ़ देख कर क़ासिम ने मुसर्रत भरे लहजा में कहा। “अब उस नमक हराम बावर्ची को बर्तन साफ़ करने होंगे........और ज़रूर साफ़ करने होंगे। क्यों मियां मिट्ठू?”

शाम के वक़्त मेहमान आए और चले गए। बावर्चीख़ाना में झूटे बर्तनों का एक तोमार सा लग गया। इन्सपैक्टर साहब क़ासिम की उंगली देख कर बहुत बरसे और जी खोल कर उसे गालियां दीं। मगर उसे मजबूर न कर सके........ शायद इस वजह से कि एक बार उन की अपनी उंगली में क़लम तराश चुभ जाने से बहुत दर्द हुआ था।

आक़ा की ख़फ़्गी आने वाली मुसर्रत ने भुला दी और क़ासिम कूदता फाँदता अपने बिस्तर पर जा लेटा। तीन चार रोज़ तक वो बर्तन साफ़ करने की ज़हमत से बचा रहा। मगर इस के बाद उंगली का ज़ख़म भर आया........ अब वही मुसीबत फिर नुमूदार होगई।

“क़ासिम........ साहब की जुराबें और क़मीज़ धो डालो।”

“बहुत अच्छा बीबी जी।”

क़ासिम इस कमरे का फ़र्श कितना मेला हो रहा है। पानी लाकर अभी साफ़ करो। देखना कोई दाग़ धब्बा बाक़ी न रहे!

“बहुत अच्छा साहब।”

“क़ासिम, शीशे के गिलास कितने चिकने हो रहे हैं, इन्हें नमक से अभी अभी साफ़ करो।”

“अभी करता हूँ बीबी जी।”

“क़ासिम, अभी भंगन आ रही है। तुम पानी डालते जाना। वो सीढ़ीयां धो डालेगी।”

“बहुत अच्छा साहब।”

“क़ासिम ज़रा भाग के एक आना का दही तो ले आना!”

“अभी चला बीबी जी।”

“पाँच रोज़ इस क़िस्म के अहकाम सुनने में गुज़र गए। क़ासिम काम की ज़्यादती और आराम के क़हत से तंग आगया। हर रोज़ उसे निस्फ़ शब तक काम करना पड़ता। फिर भी अलस्सुबाह चार बजे के क़रीब बेदार हो कर नाशते के लिए चाय तैय्यार करना पड़ती। ये काम क़ासिम की उम्र के लड़के के लिए बहुत ज़्यादा था।

एक रोज़ इन्सपैक्टर साहब की मेज़ साफ़ करते वक़्त इस का हाथ ख़ुदबख़ुद चाक़ू की तरफ़ बढ़ा। और एक लम्हा के बाद उस की अगली से ख़ून बहने लगा। इन्सपैक्टर साहब और उन की बीवी क़ासिम की इस हरकत पर सख़्त ख़फ़ा हुए। चुनांचे सज़ा की सूरत में उसे शाम का खाना न दिया गया। मगर क़ासिम ख़ुश था........ एक वक़्त रोटी न मिली। उंगली पर मामूली सा ज़ख़म आगया। मगर बर्तनों का अंबार साफ़ करने से तो नजात मिली गई........ ये सौदा क्या बुरा है?

चंद दिनों के बाद उस की उंगली का ज़ख़्म ठीक होगया। अब फिर काम की वही भरमार थी। पंद्रह बीस रोज़ गिद्धों की सी मशक़्क़त में गुज़र गए। इस अर्सा में क़ासिम ने बार-हा इरादा किया कि चाक़ू से फिर उंगली ज़ख़्मी करले। मगर अब मेज़ पर से वो चाक़ू उठा लिया गया था और बावर्चीख़ाना वाली छुरी कुन्द थी।

एक रोज़ बावर्ची बीमार पड़ गया। अब क़ासिम को हरवक़्त बावर्चीख़ाना में रहना पड़ा। कभी मिर्चें पीसता, कभी आटा गूँधता, कभी कोइले सुलगाता, ग़र्ज़ सुबह से लेकर शाम तक उस के कानों में “अबे क़ासिम ये कर! अबे क़ासिम वो कर!” की सदा गूंजती रहती।

बावर्ची दो रोज़ तक न आया.... क़ासिम की नन्ही सी जान और हिम्मत जवाब दे गई। मगर सिवाए काम के और चारा ही किया था।

एक रोज़ इन्सपैक्टर साहब ने उसे अलमारी साफ़ करने को कहा। जिस में अदवियात की शीशियां और मुख़्तलिफ़ चीज़ें पड़ी थीं। अलमारी साफ़ करते वक़्त उसे दाढ़ी मूंडने का एक ब्लेड नज़र आया। ब्लेड पकड़ते ही इस ने अपनी उंगली पर फेर लिया। धार थी बहुत तेज़ उंगली में दूर तक चली गई। जिस से बहुत बड़ा ज़ख़्म बन गया....

क़ासिम ने बहुत कोशिश की कि ख़ून निकलना बंद हो जाये मगर ज़ख़्म का मुँह बड़ा था। सैरों ख़ून पानी की तरह बह गया। ये देख कर क़ासिम का रंग काग़ज़ की मानिंद सपैद होगया। भागा हुआ इन्सपैक्टर साहब की बीवी के पास गया........

“बीबी जी, मेरी उंगली में साहब का उस्तरा लग गया है।”

जब इन्सपैक्टर साहब की बीवी ने क़ासिम की उंगली को तीसरी मर्तबा ज़ख़्मी देखा तो फ़ौरन मुआमले को समझ गई। चुपचाप उठी और कपड़ा निकाल कर उस की उंगली पर बांध दिया और कहा। “क़ासिम! अब तुम हमारे घर में नहीं रह सकते।”

“क्यों बीबी जी।”

“ये साहब से पूछना।”

साहब का नाम सुनते ही क़ासिम का रंग और पीला पड़ गया।

चार बजे के क़रीब इन्सपैक्टर साहब दफ़्तर से लौटे और अपनी बीवी से क़ासिम की नई हरकत सनु कर उसे फ़ौरन अपने पास बुलाया।

“क्यों मियां ये उंगली हर रोज़ ज़ख़्मी करने के क्या मानी?”

क़ासिम ख़ामोश खड़ा रहा।

“तुम नौकर लोग ये समझते हो कि हम अंधे हैं और हमें बार बार धोका दिया जा सकता है........ अपना बोरिया बिस्तर दबा कर नाक की सीध में यहां से भाग जाओ। हमें तुम जैसे नौकरों की ज़रूरत नहीं है........ समझे!”

“मगर........ मगर साहब।”

“साहब का बच्चा........ भाग जा यहां से, तेरी बक़ाया तनख़्वाह का एक पैसा भी नहीं दिया जाएगा........ अब में और कुछ नहीं सुनना चाहता.... ”

क़ासिम को अफ़सोस न हुआ बल्कि उसे ख़ुशी महसूस हुई कि चलो काम से कुछ देर के लिए छुट्टी मिल गई। घर से निकल वो अपनी ज़ख़्मी उंगली से बेपर्वा सीधा चौपाटी पहुंचा और वहां साहिल के पास एक बंच पर लेट गया और ख़ूब सोया।

चंद दिनों के बाद उस की उंगली का ज़ख़्म बद एहतियाती के बाइस सेप़्टिक होगया। सारा हाथ सूज गया। जिस दोस्त के पास वो ठहरा था उस ने अपनी दानिस्त के मुताबिक़ इस का बेहतर ईलाज किया मगर तकलीफ़ बढ़ती गई। आख़िर क़ासिम ख़ैराती हस्पताल में दाख़िल होगया। जहां उस का हाथ काट दिया गया।

अब जब कभी क़ासिम अपना कटा हुआ टिंड मुंड हाथ बढ़ा कर फ्लोरा फ़ाओनटीन के पास लोगों से भीक मांगता है तो उसे वो ब्लेड याद आजाता है जिस ने उसे बहुत बड़ी मुसीबत से नजात दिलाई। अब वो जिस वक़्त चाहे सर के नीचे अपनी गुदड़ी रख कर फुटपाथ पर सो सकता है। उस के पास टीन का एक छोटा सा भभका है जिस को कभी नहीं मांझता, इस लिए कि उसे इन्सपैक्टर साहब के घर के वो बर्तन याद आजाते हैं जो कभी ख़त्म होने में नहीं आते थे

(1941)
 

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गर्म सूट

20 अप्रैल 2022
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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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चन्द मुकालमे

20 अप्रैल 2022
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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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गोली

20 अप्रैल 2022
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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

20 अप्रैल 2022
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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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चोरी

20 अप्रैल 2022
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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

20 अप्रैल 2022
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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

20 अप्रैल 2022
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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

20 अप्रैल 2022
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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

20 अप्रैल 2022
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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

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क़ासिम

20 अप्रैल 2022
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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

20 अप्रैल 2022
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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

20 अप्रैल 2022
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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

20 अप्रैल 2022
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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

20 अप्रैल 2022
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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

20 अप्रैल 2022
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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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