shabd-logo

कौसानी तक की यात्रा का वर्णन

28 फरवरी 2022

411 बार देखा गया 411

लेखक ने यह बात अपने निबंध के शीर्षक के बारे में कही। लेखक अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ पान की दुकान पर खड़ा था। वहाँ एक बर्फ वाला ठेले पर बर्फ की सिल्लियाँ लाद कर लाया। बर्फ में से भाप उड़ रही थी। लेखक के मित्र अल्मोड़ा के रहने वाले थे। वे बोले-यह बर्फ तो हिमालय की शोभा है। सुनते ही लेखक ने तुरन्त अपने लेख’ का शीर्षक ‘ठेले पर हिमालय’ रख दिया।
लेखक नैनीताल से रानी खेत, मझकाली होते हुए कोसी पहुँचा। रास्ते में भयानक मोड़ थे। रास्ता बहुत कष्टपूर्ण, सूखा और कुरूप था। पहाड़ सूखे थे। रास्ते में कहीं पानी का निशान भी नहीं था। कहीं हरियाली भी नहीं थी। ढालों को काटकर बनाया गया रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा था। वहाँ से एक सड़क अल्मोड़ा तथा दूसरी कौसानी जाती थी। लेखक की बस अल्मोड़ा जा रही थी। उसको कौसानी जाना था। अत: वह कोसी उतर गया।
शुक्ल जी ने लेखक को कौसानी जाने के लिए उत्साहित किया था। वह भी कौसानी जा रहे थे। कोसी में बस से उतरे तो उनका चेहरा प्रसन्नता से भरा था। उनके चेहरे पर कभी थकान और सुस्ती दिखाई नहीं देती थी उनको देखते ही लेखक की थकान और सुस्ती दूर हो गई। लेखक ने कहा है कि शुक्ल जी जैसा सफर का साथी पिछले जन्म के पुण्यों से मिलता है।
शुक्ल जी के साथ एक अन्य व्यक्ति भी कोसी में बस से उतरा। वह दुबला-पतला था। उसका चेहरा पतला और साँवला था । उसने एमिल जोला-सी दाढ़ी रखी हुई थी। वह ढीला-ढाला पतलून पहने था। उसके कंधे पर जर्किन पड़ी थी। उसके बगल में थर्मस अथवा कैमरा अथवा बाइनाकुलर लटका हुआ था। वह मशहूर चित्रकार सेन था। उसका स्वभाव मधुर था।
कोसी तक का रास्ता अच्छा नहीं था। कोसी से बस चली तो रास्ते का दृश्य बदल गया, पत्थरों पर कल-कल करती हुई कोसो बह रही थी। उसके किनारे छोटे-छोटे गाँव और हरे-भरे खेत थे। सोमेश्वर की वह घाटी बहुत सुन्दर थी। मार्ग में कोसी नदी तथा उसमें गिरने वाले नदीनालों के पुल थे। एक के बाद एक बस स्टेशन, पहाड़ी, डाकखाने, चाय की दुकानें आदि भी रास्ते में मिले। कहीं-कहीं सड़क निर्जन चीड़ के जंगलों से गुजरी। सड़क टेढ़ी-मेढ़ी, ऊँची-नीची तथा केंकरीली थी। उस पर बस धीरे-धीरे चल रही थी। रास्ता सुहाना था।
कोसी से अठारह मील दूर निकल आने पर भी लेखक को कहीं बर्फ दिखाई नहीं दी थी। कौसानी केवल छ: मील दूर हो रह गया था। लेखक को बताया गया था कि कौसानी बहुत सुन्दर है। वहाँ स्विट्जरलैंड का आभास होता है। वह कश्मीर से अधिक मनोहर है। वह इतनी प्रशंसा के योग्य नहीं था। लेखक को संदेह था कि वहाँ बर्फ दिखाई देगी भी या नहीं। यही बात लेखक ने शुक्ल जी से कही थी।
बस कौसानी के अड्डे पर रुकी। वह एक छोटा और उजड़ा-सा गाँव था। वहाँ बर्फ का नामोनिशान भी नहीं था ! लेखक बर्फ को निकट से देखने के इरादे से कौसानी गया था। उसने कौसानी की बहुत तारीफ सुनी थी। उसके मित्रों ने उसको कश्मीर से भी सुन्दर बताया था। अत: लेखक को लगा कि उसने लोगों की बातों पर विश्वास करके गलती की। उसके अनुसार वह बुरी तरह ठगा गया था।
जब कौसानी के बस-अड्डे पर बस से उतरा तो वह अत्यन्त खिन्न था। जहाँ वह बस से उतरा था, वहाँ से उसकी निगाह एक ओर पड़ी। उसने देखा कि सामने की घाटी अपार प्राकृतिक सौन्दर्य से भरी थी। पचासों मील चौड़ी इस घाटी में लाल-लाल रास्ते थे। ये गेरू की शिलाओं के काटने से बने थे। उनके किनारे सफेद थे। उसमें अनेक नदियाँ बह रही थीं। उसमें हरे-भरे खेत थे। पूरी घाटी अत्यन्त सुन्दर थी। लेखक उसे देखता ही रह गया और जहाँ था वहाँ पर ही स्तब्ध खड़ा रह गया।
कौसानी के बस-अड्डे से लेखक ने कल्यूर की सुन्दर घाटी को देखा । दूर क्षितिज के पास कुछ धुंधले छोटे पर्वतों का उसे आभास हुआ। उसके बाद बादल थे। अकस्मात बादलों के बीच उसको कुछ दिखाई दिया। बादल के टुकड़े जैसी कोई अटल वस्तु थी । उसका रंग न नीला था, न रुपहला, न सफेद था। वह तीनों का मिलाजुला रंग था। लेखक ने सोचा-यह है क्या? बर्फ नहीं है तो क्या है? अचानक उसको ध्यान आया कि इसी घाटी के पार हिमालय पर्वत है, जो बादलों से ढका है। वह समझ गया कि उसने बर्फ से ढके किसी छोटे शिखर को देखा है। वह प्रसन्नता के साथ चिल्ला उठा ‘बर्फ, वह देखो।’
एक क्षण के हिम-दर्शन का लेखक पर अद्भुत प्रभाव पड़ा। उसका सारी खिन्नता, निराशा और थकावट दूर हो गई। वह बादलों के छटने के बाद आवरणहीन हिमाच्छादित हिमालय को देखने की कल्पना से अत्यन्त रोमांचित हो उठा। उसका हृदय तेजी से धड़कने लगा । यदि मैं लेखक के साथ होता तो संभवत: मेरी दशा भी ऐसी ही होती अथवा.मैं शुक्ल जी की तरह शांत रहता और लेखक के समान उत्तेजित नहीं होता।
क्षणभर अपनी झलक दिखाकर हिमावृत्त शिखर गायब हो गया था। लेखक और उसके साथी बर्फ देखना चाहते थे। उन्होंने डाकबंगले में अपना सामान रखा और बिना चाय पिये ही सामने के बरामदे में बैठे रहे। वे एकटक सामने देखते रहे। बादल धीरे-धीरे छैटते जा रहे थे और एक-एक करके नए-नए शिखरों पर जमी बर्फ दिखाई दे रही थी। फिर बादल पूरी तरह हट गए और हिम शिखरों की पूरी श्रृंखला दिखाई देनी लगी।
लेखक ने हिमालय के शिखरों को देखा। उसको अपने माथे पर शीतलता की अनुभूति हो रही थी। उसकी समझ में आ रहा था कि पुराने ऋषि-मुनि हिमालय पर क्यों आते थे तथा यहाँ आने पर दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किस तरह नष्ट हो जाते थे। लेखक के सारे अन्तर्द्वन्द्व, सारे संघर्ष और सारे ताप इन शिखरों को देखकर मिट गए थे।
अचानक लेखक के मन में विचार आया कि हिमालय पर जमी बर्फ कितनी पुरानी है। कुछ विदेशियों ने इसको चिरंतन हिम कहा है अर्थात् यह बहुत पुराने समय से हिमालय पर जमी है। लेखक सोच रहा था कि क्या कभी मनुष्यों ने इन शिखरों पर अपने पैर रखे हैं अथवा अनादि काल से हिमालय पर बर्फीले तूफान उठते रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दे सकता। मैं जानता हूँ कि संसार के समस्त पर्वतों में हिमालय पर्वत श्रृंखला नवीनतम है तथा अभी उसके निर्माण की प्रक्रिया चल ही रही है। तथापि यह मनुष्य जाति के धरती पर पदार्पण से भी अधिक पुरातन है।।
सूरज डूबने लगा। उसकी पीली-पीली किरणें हिमालय पर पड़ रही थीं। धीरे-धीरे ग्लेशियरों के श्वेत हिम का रंग बदल रहा था। उनमें पीली केसर बहती प्रतीत हो रही थी। बर्फ का रंग सफेद से लाल हो गया था। उसमें लाल कमल खिले हुए प्रतीत हो रहे थे। पूरी घटी गहरे पीले रंग में रँग गई थी।
चन्द्रमा निकलने पर आरामकुर्सी पर बैठकर लेखक हिमालय के शिखरों को देख रहा था। उसके मन में कविता की कोई भी पंक्ति उत्पन्न नहीं हो रही थी। यह छोटी बात थी। वह हिमालय की महानता के बारे में सोच रहा था । हिमालय उसको ऊपर उठने और महान् बनने की प्रेरणा दे रहा था। वह उसे स्नेहभरी चुनौती दे रहा था- हिम्मत है तो मेरे समान ऊँचे उठो, महान बनो।
हिमालय को देखकर चित्रकार सेन सव्रसे ज्यादा खुश थी। वह बच्चों की तरह चंचल और चिड़ियों की तरह चहकता हुआ दिखाई दे रहा था। वह कवीन्द्र रवीन्द्र की कोई कविता गा रहा था। अकस्मात् वह शीर्षासन करने लगा। कहने लगा-‘सब जीनियस लोग शीर का बल खड़ा होकर दुनियाँ को देखता है। इसी से हम भी शीर का बल हिमालय देखता है।
दूसरे दिन लेखक सभी के साथ घाटी में उतरकर बारह मील दूर बैजनाथ पहुँचा। वहाँ गोमती नदी बहती थी। गोमती नदी की जलराशि अत्यन्त स्वच्छ थी। उसमें हिमालय पर्वत की बर्फ से ढंकी हुई चोटियों की छाया पड़ रही थी। लेखक ने पानी में बनी हिमालय की चोटियों को जी भरकर निहारा। वह उस दृश्य में डूबा रहा। उसने सोचा कि इन चोटियों पर कभी वह पहुँचेगा भी अथवा नहीं?
हिमालय की उन बर्फीली चोटियों की स्मृति आज भी जब लेखक को होती है तो उसका मन एक अज्ञात पीड़ा से भर उठता है। वह उस पीड़ा से मुक्ति चाहता है तो ठेले पर लदी हुई बर्फ की सिलों को देखकर अपना मन बहला लेता है। उनको देखकर हिमालय की बर्फ की याद ताजा कर लेता है। ठेले पर हिमालय’ कहकर वह हँसता है। उसकी यह हँसी उस पीड़ा को भुलाने का बहाना है।
लेखक ने तुलसीदास की विनयपत्रिका के एक पद की पंक्ति कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो’ का उल्लेख किया है। तुलसी सांसारिक माया-मोह की लघुता से ऊपर उठकर हिमालय के समान उच्च संत-स्वभाव को धारण करना चाहते हैं। लेखक ने इस पंक्ति को उल्लेख करके हिमालय को उच्च मानवीय भावों की ओर बढ़ने का प्रेरणास्रोत बताया है।
लेखक का मन हिमालय की ऊँची, श्वेत, पवित्र और बर्फ से ढकी हुई चोटियों में ही रमता है। ये चोटियाँ उच्च मानवीय गुणों तथा मनोभावों की सूचक हैं। संसार की क्षुद्र बातों में पड़कर अपना जीवन नष्ट करना लेखक को उचित नहीं लगता। वह मानव जीवन के पवित्र और उच्च लक्ष्य-श्रेष्ठ मानवीय गुणों-के साथ ही अपना जीवन बिताना चाहता है। मैं भी सोचता हूँ कि मनुष्य को छोटी-छोटी अर्थहीन बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए। उसको उच्च मानवीय आदर्शों के लिए स्वयं को अर्पित कर देना चाहिए।
ठेले पर लदी बर्फ की सिल्लियाँ भौतिक जीवन तथा सांसारिक उलझनों का प्रतीक हैं। इसके विपरीत हिमालय की ऊँची पर्वत-श्रेणियों पर जमी बर्फ जीवन के श्रेष्ठ और उच्चतम आदर्शों की सूचक है। वह श्रेष्ठतम मानवीय गुणों और चेतना की व्यंजक हैं। मनुष्य होने के नाते मुझे इनमें से पश्चात्वर्ती अर्थात् हिमालय पर जमी बर्फ ही पसंद है। मैं उच्च मानवीय गुणों को अपनाकर ही जीना अच्छा समझता हूँ।


लेखक और उसके मित्र कौसानी बर्फ देखने गए थे। नैनीताल, रानीखेत और मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करके वे बस द्वारा कोसी पहुँचे। रास्ता कष्टप्रद, भयानक तथा सूखा था। कहीं हरियाली नहीं थी। ऊबड़-खाबड़ सड़क पर नौसिखिया ड्राइवर लापरवाही से बस चला रहा था। कोसी पहुँचने तक सबके चेहरे पीले पड़ गए थे। बस अल्मोड़ा जा रही थी। कौसानी के लिए कोसी से दूसरी बस मिलती थी। लेखक अपने एक साथी के साथ कोसी में ही बस से उतर गयो। दो घण्टे बाद आई दूसरी बस से शुक्ल जी तथा चित्रकार सेन उतरे। शुक्ल जी का चेहरा प्रफुल्लित था। उनको देखकर लेखक की भी सारी थकान दूर हो गई । सेन का स्वभाव अत्यन्त मधुर था। वह शीघ्र ही सबके साथ घुल-मिल गया। कोसी से चारों लोग कौसानी के लिए बस में सवार हुए। अब रास्ते का दृश्य बदला हुआ था। कल-कल करके बहती कोसी नदी, उसके किनारे स्थिर हरे-भरे खेत और सुन्दर गाँव आकर्षक लग रहे थे। रास्ते में अनेक बस-स्टेशन, डाकघर तथा चाय की दुकानें थीं। कोसी तथा उसमें मिलने वाले नदी-नालों के पुल थे तथा चीड़ के निर्जन वन भी थे। टेढ़ी-मेढ़ी कंकरीली सड़क पर बस धीरे-धीरे चल रही थी। वहाँ तक बर्फ के दर्शन नहीं हुए थे। अत: लेखक कुछ निराश और खिन्न था।

सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में ऊँची पर्वतमाला के शिखर पर कौसानी बसा था। वह एक छोटा-सा गाँव-था। बस अड्डे पर उतरते ही अकस्मात् लेखक की निगाह कल्यूर की रंग-बिरंगी घाटी पर पड़ी। पचासों मील चौड़ी यह घाटी हरे-भरे खेतों, लाल-लाल रास्तों, नदियों आदि के कारण बहुत खूबसूरत लग रही थी। दूर घाटी के पार बादलों में हिमालय की बर्फीली चोटियाँ छिपी थीं। अचानक लेखक ने बादल छटने पर एक छोटे बर्फीले शिखर को देखा। वह प्रसन्नता से चिल्लाया -‘वह देखो बर्फ’। फिर सभी डाकबंगले में अपना सामान रखकर बिना चाय पिये ही बैठ गए और बादलों के हटने का इंतजार करने लगे। धीरे-धीरे बादल छैटे तो उनको हिम से ढंके हिमालय के दर्शन हुए।
लेखक अपने एक साथी के साथ नैनीताल से कौसानी के लिए बस से चला। उनको कोसी में उतरना था। वहाँ से शुक्ल जी को साथ लेकर कौसानी जाना था। कोसी तक का रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड़, सूखा तथा कष्टप्रद था। बस का नौसिखिया ड्राइवर लापरवाही से बस चला रहा था। रास्ते में न पानी था, न हरियाली । लेखक तथा अन्य यात्रियों के चेहरे थकावट और परेशानी से पीले पड़े गए थे।

कोसी पहुँचने पर वे दोनों उतर गए। वहाँ शुक्ल जी तथा चित्रकार सेन उनसे मिले। वे सभी एक अन्य बस से कौसानी के लिए रवाना हुए। कोसी से 18 मील चले आने के बाद भी उनको बर्फ के दर्शन नहीं हुए थे। कौसानी यहाँ से छ: मील ही दूर था। लेखक से कौसानी की बड़ी तारीफ की गई थी। उसके मित्र ने उससे कहा था कि कौसानी कश्मीर से भी ज्यादा खूबसूरत है। गाँधी जी ने कहा था, कौसानी में स्विटजरलैंड का आभास मिलता है। परन्तु लेखक को कौसानी में प्राकृतिक सुन्दरता का कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा था। अत: वह खिन्न हो उठा था। कौसानी के बस स्टैण्ड पर वह अन्यमनस्कता की मन:स्थिति में बस से उतरा। सहसा वहाँ कल्यूर की मनोरम घाटी को देखकर वह जड़वत् रह गया। यह घाटी अत्यन्त सुन्दर थी। उसके हरे-भरे खेत, गेरू की चट्टानों को काटकर बनाए गए लाल-लाल रास्ते, बहती हुई अनेक नदियाँ उसको अपूर्व मनोरमता प्रदान कर रहे थे। घाटी में दूर तक बादल छाये थे। उनके पीछे हिमालय छिपा हुआ था। सहसा उसको हिमालय की एक बर्फ से ढकी चोटी दिखाई दी। बर्फ देखने से वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसकी सारी थकान, असंतोष, खिन्नती और निराशा गायब हो गई। फिर बादल छंटने पर उनको बर्फ से ढंकी पर्वत श्रृंखला के दर्शन हुए। हिम-दर्शन की उनकी कामना, पूर्ण हो गई थी।

कौसानी की पर्वतमाला के अंचल में कल्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपी थी। उसमें यह घाटी पचासों मील चौड़ी थी। अनेक हरे-भरे खेत, एक-दूसरे में मिलती अनेक नदियाँ, गेरू की चट्टानों से बने सफेद किनारों वाले रास्ते थे, जो उसकी सुन्दरता को बढ़ा रहे थे। यह घाटी इतनी सुन्दर, पवित्र और निष्कलंक थी कि लेखक का जी चाहा कि वह जूते उतारकर और अपने पैर पोंछकर उस पर कदम रखे। दूर क्षितिज के पास घाटी का सम्पूर्ण दृश्य नीले कोहरे में डूबा था। वहाँ लेखक को छोटे पर्वतों का आभास हुआ। इसके बाद बादल थे और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।

लेखक बादलों पर दृष्टि जमाये था कि सहसा उसको बादलों के हटने पर कुछ दिखाई दिया जो वहाँ अटल था। वह एक छोटे-से बादल के टुकड़े-सा कुछ था। उसका रंग सफेद, रूपहले तथा हल्के नीले रंग का मिश्रण था। लेखक ने सोचा, यह क्या है? फिर उसे ध्यान आया कि बादलों के पीछे हिमालय छिपा है। यह उसका एक छोटा बर्फ से ढंका शिखर है। यह देखकर वह प्रसन्नता से चिल्लाया-वह देखो बर्फ। बादल छंटने पर उसने देखा हिमालय की पूरी पर्वतमाला बर्फ से ढंकी थी और सुन्दर लग रही थी।
लेखक हिम से ढंके पर्वत-शिखरों को देखने कौसानी गया था। उसके साथ उसका उपन्यासकार मित्र, शुक्ल जी तथा चित्रकार सेन भी थे। कौसानी पहुँचने के बाद उन्होंने विस्तृत सुन्दर कल्यूर की घाटी में क्षितिज के पास एक छोटी बर्फ से ढंकी पर्वत-श्रेणी को देखा। बादलों के एक क्षण हटने पर वे अनायास बहुत कम समय के लिए उसको देख सके। इस हिम दर्शन का लेखक, शुक्ल जी तथा सेन पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा। उपन्यासकार मित्रे पर क्या प्रभाव हुआ, इसका उल्लेख इस लेख में नहीं है।

लेखक को हिम शिखरे को देखने के बाद हल्का-सा विस्मय हुआ। फिर यह निश्चय होने पर कि वह बर्फ ही थी, वह हर्षातिरेक से चिल्ला उठा। उसकी खिन्नता, निराशा तथा थकावट सब छूमंतर हो गई। वह व्याकुल हो उठा और उसका हृदय धड़कने लगा । शुक्ल जी पर इसका कोई उत्तेजक प्रभाव नहीं पड़ा। वह शांत रहे। वह लेखक की ओर देखकर मुस्करा रहे थे। चित्रकार सेन बहुत प्रसन्न था। वह बच्चों की तरह चंचल हो उठा था और चिड़ियों की तरह चहक रहा था। वह रवीन्द्र की कोई की पंक्ति गा रहा था। सहसा वह शीर्षासन करने लगा और कहने लगा –

‘हम शीर का बल हिमालय देखता है।’
यदि मैं लेखक के साथ होता तो हिम-दर्शन का आनन्द शांत चित्त से लेता तथा शुक्ल जी की तरह नियंत्रित रहकर प्रसन्न मुद्रा में हिमदर्शन करता।
कौसानी पहुँचकर लेखक ने बर्फ से ढंकी हुई हिमालय की पर्वत श्रृंखला को देखा। उस समय उसके मन में क्या भावनाएँ उठ रही थीं; यह तो वह नहीं बता सकता किन्तु उसके माथे पर हिमालय की शीतलता की अनुभूति हो रही थी। उसके मन के सभी संघर्ष, ताप तथा अन्तर्द्वन्द्व नष्ट हो रहे थे।

लेखक को यह बात पहली बार समझ में आ रही थी कि पुराने ऋषि एवं मुनियों तपस्वियों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप क्यों कहा है। वे उनको शांत करने के लिए हिमालय क्यों जाते थे। प्राचीन ऋषियों ने तीन तापों का उल्लेख किया है तथा उनको मनुष्य के लिए दु:खदायी बताया है। दैहिक ताप वे दुर्गुण हैं जिनका सम्बन्ध मनुष्य के शरीर से होता है। ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, काम, परपीड़न इत्यादि दुर्गुण मनुष्य के मन (शरीर) में ही जन्म लेते हैं। हिमालय का शांत वातावरण उनके शमन में सहायक होता है। दैविक ताप पारलौकिक कष्ट हैं। तपस्वी उनके बारे में जानने और उनसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए हिमालय को पावन भूमि पर ध्यानस्थ होते थे। भौतिक अर्थात् सांसारिक ताप शरीर से सम्बन्धित हैं। ये शारीरिक रोग भी हैं। हिमालय का प्रदूषण मुक्त निर्मल वातावरण तथा वहाँ की जड़ी-बूटियाँ रोग मुक्ति में सहायक होती थीं।।

हिमालय भारत के उत्तर में स्थित है। भारतीय उपमहाद्वीप के निर्माण में हिमालय का बतुत बड़ा योगदान है। उससे निकलने वाली नदियों से उत्तर भारत के मैदान की रचना हुई है। इस भू-भाग से उत्पन्न धन-धान्य से इस क्षेत्र के मनुष्यों तथा जीव-जन्तुओं का पालन-पोषण होता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों का जल पीने, सिंचाई करने तथा अन्य अनेक कामों में प्रयुक्त होता है। हिमालय तथा उससे निकलने वाली नदियों के आसपास घने वन हैं। उनमें अनेक जीव-जन्तु रहते हैं तथा उनसे लकड़ी, शहद, औषधियाँ आदि अनेक चीजें प्राप्त होती हैं, जिनकी हमारे लिए गहरी उपयोगिता है। हिमालय उत्तर से आने वाली शीतल हवाओं से हमको बचाता है तथा देश की जलवायु को मनुष्यों के रहने लायक बनाता है। हिमालय बहुत समय से उत्तरी सीमा पर एक प्रहरी की तरह खड़ा रहकर विदेशी आक्रमणकारियों से हमारी रक्षा करता रहा है।

हिमालय को देवताओं का स्थान कहा गया है। देवादिदेव महादेव शिव का आवास कैलाश हिमालय में ही स्थित है। यहाँ अनेक देवता निवास करते हैं। तपस्वी यहाँ आकर तपस्या करते हैं तथा सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने से सफल होते हैं। वहाँ का शांत और निर्मल वातावरण मनुष्य के चित्त को निर्मल तथा निष्पाप बनाता है। इस प्रकार भौतिक जीवन में ही नहीं आध्यात्मिक जीवन में भी हिमालय हमारे लिए उपयोगी है।
हिमालय एक पर्वत ही नहीं हमारे लिए वह एक वरदान भी है। उसका हमारे लिए भौतिक ही नहीं आध्यात्मिक महत्त्व भी है। वह भारत की भूमि, सभ्यता तथा संस्कृति का जनक है।

हिमालय विश्व का सर्वोच्च शिखर है। हिमालय पर जमी श्वेत बर्फ मानव जीवन में स्वच्छता और पवित्रता की प्रेरक है। उसकी ऊँची चोटियाँ मनुष्य को अपने जीवन में ऊँचा उठने का आह्वान करती हैं। हिमालय कठोर झंझावातों के टकराने से भी विचलित नहीं होता और अडिग, अटल खड़ा रहकर उनको परास्त करता है। अपने इस स्वरूप से वह हमको प्रेरणा देता है कि हमें जीवन में आने वाली कठिनाइयों, प्रलोभनों, आतंक, भय आदि के सामने झुकें नहीं, उनसे निरन्तर संघर्ष करें और आगे बढ़ते रहें। हिमालय अपने स्वच्छ, पवित्र वातावरण द्वारा हमको पृथ्वी को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए कहता है। हिमालय की सतत् प्रवाहिनी नदियाँ हमको जीवन का संदेश देती हैं तथा निरन्तर चलते रहने के लिए प्रेरित करती हैं।

हिमालय हमको पुकारता है, चुनौती देता है और उत्साहित करता है कि डरो नहीं, झुको नहीं, रुको नहीं, निरन्तर आगे बढ़ो, संघर्ष करो और ऊँचे उठो।

ठेले पर हिमालय लेखक-परिचय
धर्मवीर भारती का जीवन-परिचय देकर उनकी साहित्य-सेवा पर प्रकाश डालिए।
जीवन-परिचय-डॉ. धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1926 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था। आपकी शिक्षा इलाहाबाद में ही हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आपने एम. ए. पीएच. डी. किया। आप कुछ समय ‘संगम’ के सम्पादक रहे। इसके पश्चात् इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गए। सन् 1959 में आप ‘धर्मयुग’ के प्रधान सम्पादक बने। सन् 1972 में आपको भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अलंकृत किया गया। सन् 1997 में आपका देहावसान हो गया।

साहित्यिक परिचय-डॉ. भारती विद्यार्थी जीवन से ही लेखन-कार्य करने लगे थे। कहानी, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, निबन्ध आदि गद्य-विधाओं पर आपने कुशलतापूर्वक लेखनी चलाई है। आपने सम्पादक के रूप में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। आपके सम्पादक काल में ‘धर्मयुग’ की उत्तरोत्तर हुई उन्नति इसका प्रमाण है। आपकी भाषा परिमार्जित है, बोधगम्य है। आपकी भाषा तत्सम, तद्भव, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी शब्दों तथा मुहावरों के कारण समृद्ध है। आपने वर्णनात्मक, भावात्मक, समीक्षात्मक, हास्यव्यंग्यात्मक आदि शैलियों का प्रयोग किया है।

उपन्यास-गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश। कहानी-संग्रह-चाँद और टूटे हुए लोग, बन्द गली का आखिरी मकान, गाँव, स्वर्ग और पृथ्वी। नाटक-एकांकी-नदी प्यासी थी, नीली झील। निबन्ध-कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय, पश्यन्ति। आलोचना-मानव मूल्य और साहित्य काव्य-ठंडा लोहा, कनुप्रिया, सात गीत वर्ष, अन्धायुग। सम्पादन-संगम, धर्मयुग। अनुवाद-देशान्तर।

ठेले पर हिमालय पाठ-सारांश
परिचय–’ठेले पर हिमालय’ डॉ. धर्मवीर भारती के इसी शीर्षक निबन्ध संग्रह से लिया गया है। यह एक यात्रा वृत्तांत है। इसमें कौसानी की यात्रा तथा वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन हुआ है।

दिलचस्प शीर्षक-‘ठेले पर हिमालय’ एक दिलचस्प शीर्षक है। लेखक अपने एक उपन्यासकार मित्र के साथ पान की दुकान पर खड़ा था। वहाँ एक बर्फवाला बर्फ की सिल्लियाँ ठेले पर लादकर लाया। उन्हें देखकर उसके अल्मोड़ा निवासी मित्र ने कहा-बर्फ तो हिमालय की शोभा है। तभी अनायास लेखक को यह शीर्षक प्राप्त हो गया। बर्फ को देखकर लेखक के मन में अनेक विचार आए। उनके बारे में उसने अपने मित्र को भी बताया। यह सत्य है कि हिमाच्छादित हिमालय की शोभा अनुपम है तथा दूर से ही मनोहर लगती है।

कौसानी की माया-बर्फ को निकट से देखने के लिए लेखक कौसानी गया था। वह नैनीताल, रानीखेत, मझकोली होते हुए बस से कोसी पहुँचा। कोसी से एक सड़क अल्मोड़ा तथा दूसरी कौसानी जाती है। रास्ता सूखा, कुरूप और ऊबड़-खाबड़ था। बस का ड्राइवर नौसिखिया और लापरवाह था। उसके कारण यात्रियों के चेहरे पीले पड़ गए थे। बस अल्मोड़ा चली गई। लेखक अपने साथियों सहित कोसी उतर गया। वहाँ शुक्ल जी भी पहुंचे। वह एक उत्साही साथी थे। कौसानी जाने के लिए उन्होंने ही लेखक को उत्साहित किया था। उनके साथ एक दुबला-पतला व्यक्ति भी था। उसका नाम सेन था। वह चित्रकार था।

कोसी से कौसानी-बस कौसानी के लिए चल दी। कल-कल करती कोसी तट पर के छोटे-छोटे गाँव, मखमली खेत तथा सुन्दर सोमेश्वर घाटी थी। मार्ग सुन्दर और हरा-भरा था। परन्तु लेखक का मन निराश हो रहा था। वे लोग अट्ठारह मील चलकर कौसानी के पास पहुँच चुके थे। अभी भी कौसानी छ: मील दूर था। कौसानी की सुन्दरता के बारे में जैसा बताया गया था, वैसा कुछ भी देखने को नहीं मिला था, उसको कश्मीर से भी अधिक सुन्दर बताया गया था। लेखक ने अपने संशय के बारे में शुक्ल जी को बताया पर वह चुप थे। बस कौसानी के अड्डे पर रुकी। सोमेश्वर घाटी के उत्तर में पर्वत के शिखर पर छोटा-सा गाँव कौसानी बसा था। उसको देखकर लेखक को लगा कि उसको ठगा गया है।

घाटी का सौन्दर्य-लेखक अनमना-सा बस से उतरा किन्तु घाटी के सौन्दर्य को देखकर स्तब्ध रह गया। पर्वतीय अंचल में पचास मील चौड़ी कल्यूर की सुन्दर घाटी फैली थी। उसके मखमली खेत, शिलाओं को काटकर बनाए गए लाल-लाल रास्ते, उनके सफेद किनारे, उलझी हुई बेलों जैसी नदियाँ आकर्षक थीं। लेखक ने सोचा-यक्ष और किन्नर यहीं रहते होंगे। वह सौन्दर्य इतना निष्कलंक था कि लेखक ने सोचा कि जूते उतारकर पाँव पोंछकर ही धरती पर रखने चाहिए। दूर क्षितिज तक फैले खेत, वन, नदियों के बाद धुंधले नीले कोहरे में छोटे-छोटे पर्वत थे। उसके बाद बादल थे। धीरे-धीरे बादलों के हटने पर लेखक ने बर्फ को देखा। बादलों से एक छोटा-सा बर्फ से ढंका शिखर दिखाई दे रहा था। उसने प्रसन्नता के साथ चिल्लाकर कहा-बर्फ! वह देखो! शुक्ल जी, सेन सभी ने देखा, फिर वह लुप्त हो गया।

हिमदर्शन-हिमदर्शन से एक क्षण में लेखक की खिन्नता और थकावट दूर हो गई। वे सब व्याकुल हो उठे। वे सोच रहे थे कि बादलों के छटने पर हिमालय का अनावृत्त सौन्दर्य उनके सामने होगा। शुक्ल जी शांत थे। जैसे मुस्कराकर कह रहे हों-बड़े अधीर हो रहे थे, देखा यहाँ का जादू? सामान डांक बँगले में रखकर बिना चाय पिये ही सब बरामदे में बैठे रहे। धीरे-धीरे बादल छंटने लगे। एक-एक करके नए बर्फ से ढंके पर्वत शिखर दिखाई देने लगे। फिर सब कुछ खुल गया। बाईं ओर से दाईं ओर जाती हिमशिखरों की ऊबड़-खाबड़, रहस्यमयी, रोमांचक श्रृंखला दिखाई दे रही थी। हिमालय की शीतलता माथे को छू रही थी तथा सारे संघर्ष, सारे अन्तर्द्वन्द्व, सारे ताप नष्ट हो रहे थे। तब समझ आया कि पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों का ताप क्यों कहा था तथा उनसे मुक्त होने वे हिमालय पर क्यों जाते थे। यह बर्फ अत्यन्त पुरानी है। विदेशियों ने इसको चिरंतन हिम अर्थात् एटर्नल स्नो कहा है। सूरज ढलने लगा था। उसके प्रकाश में सुदूर शिखरों के दर्रे, ग्लेशियर, जल, घाटियाँ आदि दिखाई दे रही थीं। लेखक सोच रहा था कि वे सदैव बर्फ से ढके रहे हैं या कभी मनुष्य के पैर भी वहाँ पड़े हैं। डूबते सूर्य के प्रकाश में ग्लेशियर और घाटियाँ पीली हो गई थीं। लेखक और उसके साथी उठे और हाथ मुँह-धोकर चाय पीने लगे।

कुछ समय बाद चाँद निकला चारों तरफ शांति थी। लेखक आरामकुर्सी पर बैठा था। वह सोच रहा था कि उसका मन कल्पनाहीन क्यों हो गया है। हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़कर उसे उत्साहित कर रहा है-हिम्मत है! ऊँचे उठोगे!। तभी सेन रवीन्द्र की कोई पंक्ति गा उठा। वह बहुत प्रसन्न था। वह शीर्षासन कर रहा था। कह रहा था- हम सिर के बल खड़े होकर हिमालय देखेंगे। अगले दिन हम बारह मील चलकर बैजनाथ पहुंचे। यहाँ गोमती नदी बहती है। उसके जल में हिमालय की छाया तैर रही थी। ठेले पर बर्फ देखकर लेखक के मित्र हिमालय की स्मृतियों में डूब गए थे। लेखक उनके मन के दर्द को समझता है। हिमालय के शिखरों पर जमी बर्फ बार-बार बुलाती है। लेखक उनको लौटकर आने का वचन देता है। उन्हीं ऊँचाइयों पर उसका आवास है। उसका मन वहीं रमता है।  

3
रचनाएँ
ठेले पर हिमालय
0.0
ठेले पर हिमालय डॉ० धर्मवीर भारती द्वारा लिखित यात्रावृत्तांत श्रेणी का संस्मरणात्मक निबंध है। इसमें लेखक ने नैनीताल से कौसानी तक की यात्रा का रोचक वर्णन किया है। इस निबंध के माध्यम से लेखक ने जीवन के उच्च शिखरों तक पहुँचने का जो संदेश दिया है, वह भी अभिनंदनीय है। लेखक एक दिन जब अपने गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ पान की दुकान पर खड़े थे तब ठेले पर लदी बर्फ की सिल्लियों को देखकर उन्हें हिमालय पर्वत को ढके हिमराशि की याद आई क्योंकि उन्होंने उस राशि को पास से देखा था, जिसकी याद उनके मन पर एक खरोंच सी छोड़ देती है। इस बर्फ को पास से देखने के लिए ही लेखक अपनी पत्नी के साथ कौसानी गए थे। नैनीताल से रानीखेत व मझकाली के भयानक मोड़ों को पारकर वे कोसी पहुँंचे। कोसी में उन्हें उनके सहयात्री शुक्ल जी व चित्रकार सेन मिले जो हृदय से बहुत सरल थे। कोसी से कौसानी के लिए चलने पर उन्हें सोमेश्वर घाटी के अद्भुत सौंदर्य के दर्शन हुए। जो बहुत ही सुहाने थे, परंतु मार्ग में आगे बढ़ते जाने पर यह सुंदरता खोती जा रही थी, जिससे लेखक के मन में निराशा उत्पन्न हो रही थी क्योंकि लेखक के एक सहयोगी के अनुसार कौसानी स्विट्जरलैंड से भी अधिक सुंदर था तथा महात्मा गाँधी जी ने भी अपनी पुस्तक अनासक्तियोग की रचना यहीं की थी।
1

ठेले पर हिमालय

28 फरवरी 2022
22
1
0

ठेले पर हिमालय' - खासा दिलचस्‍प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्‍यासकार मित्र के साथ खड़ा था क

2

ठेले पर हिमालय महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ

28 फरवरी 2022
8
2
0

1. ‘ठेले पर हिमालय’-खासा दिलचस्प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाये मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दुकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था क

3

कौसानी तक की यात्रा का वर्णन

28 फरवरी 2022
6
0
0

लेखक ने यह बात अपने निबंध के शीर्षक के बारे में कही। लेखक अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ पान की दुकान पर खड़ा था। वहाँ एक बर्फ वाला ठेले पर बर्फ की सिल्लियाँ लाद कर लाया। बर्फ में से भाप उड़ र

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए