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कविता का भविष्य

22 फरवरी 2022

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हिन्दी के तीन महाकवियों की प्रतिभा से चमत्कृत होकर कोई एक चैथा कवि बोल उठा :

सूर सूर, तुलसी ससी, उडुगन केसवदास।

अब के कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करहिं प्रकास॥

जब मनुष्य कोई बड़ा आश्चर्य देखता है, तब वह सोचने लगता है कि आश्चर्य की रचना करनेवाली कला का यह चरम चमत्कार है। इससे बड़ा अब और क्या होगा? प्रस्तुत दोहे के रचयिता ने भी इसी भाव से अभिभूत होकर यह सूक्ति कही होगी, जिसका लक्ष्य कविता नहीं, प्रत्युत, कवि की सम्भाव्य असमर्थता की व्यंजना है।

फिर उर्दू में कोई शायर आया और सब कुछ देख–सुनकर उसने घोषणा कर दी :

शायरी मर चुकी जिन्दा नहीं होगी यारो!

किन्तु, कविता के सौभाग्य से रवीन्द्रनाथ और इकबाल, दोनों ही महाकवि, उर्दू के शायर और हिन्दी के इस दोहाकार के बाद जन्मे और अपनी कृतियों से उन्होंने सिद्ध कर दिया कि कविता की भूमि अभी भी उर्वर है तथा उसके हृदय से प्रकाश के फव्वारे अभी भी फूट सकते हैं।

यह तो हुई अपने देश की बात, जहाँ वैज्ञानिकता के व्यापक प्रचार के बहुत पहले ही लोगों को कविता के कदम डगमगाते दिखाई पड़े। किन्तु, जिन देशों में वैज्ञानिक सभ्यता ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है, वहाँ के कवि और काव्य–प्रेमी आलोचक तो आज, सचमुच ही, बेचैन हैं कि कविता की सत्ता कैसे अक्षुण्ण रखी जाए और जनता के भीतर कैसे यह विश्वास जमाया जाए कि कविता का रसास्वादन भी मनुष्य के चैकोर व्यक्तित्व के निर्माण के लिए आवश्यक है।

काव्यकला के सामने आज दो प्रकार की बाधाएँ उपस्थित हैं। एक बाधा तो यह है कि मनुष्य के संस्कार बड़े ही वेग से रूपान्तरित हो रहे हैं और कल्पना–सेवी सम्प्रदाय के लिए इस प्रगति के कदम–से–कदम मिलाकर चलना जरा कठिन हो रहा है। मानव–जीवन के वृत्त में पड़नेवाले विभिन्न उपकरण यानी पेड़, पौधे, पर्वत, पशु, नदी, आकाश, ग्रह, नक्षत्र आदि को कविता अपने भीतर भली भाँति पचा चुकी थी और जीवन के प्रसंग में उनकी बहुविध व्याख्या करने में उसे कोई खास मशक्कत भी नहीं होती थी! किन्तु अब रेल, मोटरकार, पुतलीघर, वायुयान, अणुबम तथा एलेक्ट्रोंस और प्रोटोंस जीवन के वृत्त में एकबारगी घुस पड़े हैं और इन नवागन्तुकों ने मिल–जुलकर कुछ ऐसा कोलाहल मचा रखा है कि न तो कवि को ही यह सुविधा प्राप्त है कि एकान्त में बैठकर वह इनके साथ अपना रागात्मक सामंजस्य स्थापित करे और न जनता ही उसे फुर्सत में मिलती है कि कवि उसके साथ बैठकर इस सामंजस्य की दिशा निर्धारित करे। सभी दौड़ रहे हैं। सभी व्यस्त हैं। विज्ञान का चक्र जोरों से घूम रहा है और उसके साथ ही मनुष्य की बुद्धि भी चक्कर खा रही है। कवि किसको देखे और किससे बातें करे? वह तो सिर्फ हृदय से बातें कर सकता था मगर मानव का हृदय भी आज बुद्धि की गुलामी कर रहा है। अखाड़ा विज्ञान के हाथ में है और विज्ञान अपने औद्धत्य में किसी से कुछ बात करने को तैयार नहीं है। इस स्थिति से आजिज आकर इंग्लैंड के एक कवि ने कहा कि विज्ञान में जो गर्जन है, उसे चुराए बिना हमारा काम नहीं चलेगा। मगर, यह चोरी तो सभी के सामने करनी होगीय क्योंकि सारी दुनिया ही आज विज्ञान का पहरेदार बन गई है।

दूसरी बाधा, बहुत कुछ, पहली ही बाधा का स्वाभाविक परिणाम है। जब कविता और जीवन के बीच विज्ञान का कोलाहल और संस्कृति के रूपान्तरित होने का रोर छा गया और इस कोलाहल में कविता की सत्ता विलीन होने लगी, तब स्वभावत: ही कवि के व्यक्तित्व पर भी, इस प्रक्रिया का अनिष्टकारी प्रभाव पड़ा और लोग सोचने लगे कि जैसे ईश्वर और धर्म पर प्रश्न के बड़े–बड़े चिह्न लटक गए हैं, उसी प्रकार, शायद, कवि का आदर भी जनता के भ्रम के ही कारण था।

कवि ईश्वर और धर्म के बहुत समीप रहा भी था। अतएव, दोनों के साथ वह भी दंडित किया जा रहा है। जिन लोगों ने ईश्वर और धर्म का बहिष्कार किया, वे कवि का भी बहिष्कार कर देते, किन्तु, उन्हें एक बात सूझ गई कि ईश्वर और धर्म के समान कवि निराकार और बिलकुल अनुपयोगी चीज नहीं है! उसके रक्त, मांस और चेतना भी होती है। अतएव निर्दिष्ट दिशा की ओर निरत करके उसका थोड़ा–बहुत उपयोग किया जा सकता है।

किन्तु जिन लोगों ने ईश्वर और धर्म का बहिष्कार नहीं किया, सिर्फ श्रद्धा और तिरस्कार के बीच उन्हें त्रिशंकु बनाकर रोकने को छोड़ दिया है, उनके बीच का कवि भी त्रिशंकु की तरह ही डोल रहा है।

संसार के बहुसंख्यक देशों में प्राचीन विश्वास की परम्परा हिल गई है, किन्तु नया विश्वास अभी अपनी जड़ें नहीं जमा रहा है। परिणामत: अधिकांश देशों के लोग अभी यह निर्णय ही नहीं कर पाए हैं कि ईश्वर, धर्म और कविता से वे कोई काम लेंगे अथवा इन्हें त्याग ही देंगे।

ईश्वर, धर्म और कविता को एक साथ गिनने का कारण यह है कि भिन्नता के होते हुए भी इन तीनों के बीच एक प्रकार की मौलिक समता रही है। कहते हैं कि कविता का जन्म धर्म की गोद में हुआ था। किन्तु इससे अधिक उपयुक्त तो यह कहना होगा कि धर्म का उदय कविता की कुक्षि में हुआ होगा।

कविता विस्मय से उद्भूत हुई और तब उसने मनुष्य में जिज्ञासा को प्रेरित किया और जिज्ञासा से ईश्वर की कल्पना और धर्म की परम्परा आरम्भ हुई।

मनुष्य के भीतर जो एक सूक्ष्म आध्यात्मिक व्यक्तित्व है, उसी ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम खोजते हुए कविता का आश्रय लिया और इसी जीवन को अभिव्यक्त करने के लिए कविता प्रादुर्भूत हुई। मस्तिष्क में जो गुण हैं, बुद्धि में जो चमत्कार हैं, वे मनुष्य के स्थूल जीवन को सजाते, सँवारते और व्यक्त करते हैं। किन्तु मनुष्य के भीतरवाला मनुष्य इनकी पकड़ में नहीं आता। उसे पकड़ने के लिए भावना का जाल और हृदय की जंजीर चाहिए। और अनन्त काल से मनुष्य अपने इस आध्यात्मिक व्यक्तित्व को हृदय की भावनाओं में अभिव्यक्त करता आया है। अतएव ईश्वर, धर्म और काव्य–ये तीनों ही मनुष्य के भीतरवाले मनुष्य को प्रसार देते रहे हैं। तो क्या जिस प्रकार, ईश्वर और धर्म गौण होते जा रहे हैं, उसी प्रकार कविता को भी गौण होना ही पड़ेगा? और अगर किसी दिन मनुष्यों ने मिलकर ईश्वर और धर्म को आखिरी बन्दगी दे दी, तो क्या उस दिन कविता को भी मनुष्य से विदाई ले लेनी पड़ेगी? तो फिर मनुष्य के भीतरवाले मनुष्य का क्या होगा? क्या उसकी सत्ता है ही नहीं? अथवा इतने दिनों में हम जो अपने सूक्ष्म व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के नाम पर विभिन्न ललित कलाओं का आश्रय ले रहे थे, वह कोई रोग था, जिससे मनुष्य मुक्ति पाने जा रहा है?

नवयुग के नबी और मसीहा ऐसे प्रश्नों का सामना करना नहीं चाहते, यह और भी दुर्भाग्य की बात है। और इन तमाम असंगतियों के बीच कविता जारी है। अगरचे उसके कदम धीरे–धीरे उठते हैं, मगर जो अटल है, उसके अस्तित्व को उसने स्वीकार कर लिया है तथा विज्ञान के नगर में वह उसका गर्जन सीखने को आ पहुँची है।

मगर समाज के हृदय में प्रवेश करने की राह उसे नहीं मिल रही हैय अथवा हृदय पर खड़ी होकर वह मनुष्य के मस्तिष्क को अपने सामने झुकाने में असमर्थ है। जीवन का जो एक नया महल तैयार हो रहा है, उसमें मनुष्य सभी विद्याओं से सहायता ले रहा है। सिर्फ एक कविता ही है, जिसकी सहायता की उसे कोई जरूरत महसूस नहीं होती। परिणामत: कविता और कवि, दोनों ही उपेक्षा के पात्र हो रहे हैं।

प्रशंसा और प्रोत्साहन–ये कवि–प्रतिभा के आहार हैं। किन्तु प्रशंसा कौन करे? और प्रोत्साहन कौन दे? हिन्दुस्तान में इन दोनों की प्राप्ति पहले दरबारों से होती थी। किन्तु बहुत दिन हुए कि दरबार उजड़ गए और जहाँ पहले राजा और नवाब थे, वहाँ अब जनता आसीन है। और जनता को यह अधिकार तथा गौरव तब मिला, जब विज्ञान ने उसकी भावनाओं में एक विचित्र प्रकार की हलचल मचा दी। युवराज जब सिंहासन पर आने लगे, तब बीच ही में किसी ने उनके कानों में कह दिया कि असल ताकत फौज है। वीणा और सितार से जरा वाजिबी–वाजिबी ही।

हमारे देश में हमारी स्वामिनी अशिक्षित है, यह बात तो है ही। मगर जो लोग शिक्षित और सुसंस्कृत हैं, उनका क्या हाल है? बी–बी–सी– के माध्यम से अभिनव अंग्रेजी कविताओं का व्यापक प्रसार करने की चेष्टा आज कई वर्षों से चल रही है। और यहाँ हिन्दुस्तान में तो कवि–सम्मेलनों और मुशायरों की बहुत बड़ी माँग है। किन्तु परिणाम में हम क्या देखते हैं? क्या अभिनव कविता का इंग्लैंड या हिन्दुस्तान में कोई वास्तविक प्रचार हो रहा है? तालियों की गड़गड़ाहट और महज सिर हिलाने को हम कविता के लोकप्रिय होने का प्रमाण नहीं मान सकते। हम तो यह जानना चाहते हैं कि समाज में फैली हुई अन्य विद्याओं से लोग जो प्रेरणा ग्रहण करते हैं, वह प्रेरणा वे कविता से लेते हैं या नहीं? अखबारवाले अपने मत की पुष्टि में राजनीतिज्ञों और वैज्ञानिकों के अनुभवों का प्रमाण देते हैं किन्तु कवि की अनुभूति का अवतरण देकर अपने पक्ष की पुष्टि करने की आवश्यकता वे नहीं समझते। पार्लियामेंटों और विधायिका सभाओं में सदस्य जब बोलने लगते हैं, तब उन्हें भी उद्धरणों की आवश्यकता होती है। किन्तु ये उद्धरण साहित्य के कोश से नहीं लिये जाते। यहाँ तक कि जो राजनीतिक दल (जिसमें राजनीति के, प्राय:, सभी दल सम्मिलित हैं) साहित्य को ढोल बनाकर अपना प्रचार करते हैं, वे भी जब गम्भीरता से अपने पक्ष की स्थापना करने लगते हैं, तब उन्हें साहित्यकार की उक्ति और अनुभूति के उद्धरणों की आवश्यकता नहीं होती।

ऐसी आलोचनाएँ सुनकर समाज का संचालन करनेवाले लोग कुपित होकर कह बैठेंगे कि यदि यह चाहते हो, तो जीवन के सान्निध्य में आओ। हम फूल–पत्ती और चिड़िया–चुनमुन की चर्चा किसलिए करें?

किन्तु क्या कवि जीवन से दूर है? क्या हमारी रचनाओं के भीतर जीवन की आर्द्रता और उसका दाह मौजूद है? क्या हम जो कुछ सोच या लिख रहे हैं, वह समाज के काम की चीज नहीं है?

दरअसल, कारण कुछ और है। संसार बड़े वेग से उपादेयता की ओर मुड़ा है और उपादेयता की परिभाषा भी नये स्थूल जीवन से बाँध दी गई है। आनन्द उपेक्षित हो गया है और सारी प्रमुखता सुखों को दी जा रही है। दो रोटियाँ मनुष्य की दोनों आँखों के अत्यन्त समीप आकर खड़ी हो गई हैं। इतना समीप कि उनसे आगे मनुष्य कुछ देख ही नहीं सकता। जो नौकरी दिलवाए, जो व्यवसाय में वृद्धि का कारण हो और जो खेतों की उर्वरा शक्ति को तेज करे, आज मनुष्य सिर्फ उसी विद्या की कामना से पीड़ित हो रहा है। हृदय से हृदय को मापने और मन को मन से थाहने की वृत्ति का लोप हो गया है और आदमी के हाथ में आज उपयोगितावाद का एक स्थूल गज मौजूद है, जिससे वह शरीर ही नहीं, बल्कि आत्मा को भी मापने की कोशिश कर रहा है।

उससे मनुष्य के सूक्ष्म जीवन की चर्चा मत करोय क्योंकि सूक्ष्म जीवन तो गज की माप में आएगा नहीं।

उससे यह मत कहो कि रोटियों में जो मजा है, वैसा ही मजा भाव–चिन्तन में भी होता हैय क्योंकि यह बात उसकी समझ में नहीं आएगी।

उससे यह भी मत कहो कि जिस दुनिया पर सोच–सोचकर राजनीति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के पंडित नई–नई बातों की ईजाद किया करते हैं, उस दुनिया का एक और पक्ष है, जिस पर चिन्ता करनेवाले लोगों की उक्ति गीत, कविता, उपन्यास और नाटक कहलाती हैय क्योंकि तुरन्त ही वह कह उठेगा कि यह तो निरी कविता की बात है।

कविता का एक बुरा अर्थ भी हैय जैसाकि एक बुरा अर्थ राजनीति, अर्थशास्त्र और विज्ञान का भी हो सकता है। और इन पंक्तियों का क्षुद्र लेखक उन लोगों में से है, जो विषयों के इन बुरे अर्थों से घबराते हैं तथा जो कच्ची भावुकता से पीड़ित इस महान देश को कविता की अवस्था से निकालकर विज्ञान की अवस्था में पहुँचाना चाहते हैं। अच्छे अर्थ में विज्ञान सुस्पष्टता का द्योतक होता है। विज्ञान वह कला है, जिससे मनुष्य हर चीज को प्रमाण के साथ उसके सही रूप में समझना सीखता है। विज्ञान अतिरंजन का विरोधी और भावुकता का शत्रु है। वह मनुष्य को सत्य से दूर जाने देना नहीं चाहता।

किन्तु कविता भी अतिरंजन और कोरी भावुकता को दुर्गुण मानती है और सत्य से दूर तो वह कभी जाती ही नहीं :

देखो ये हैं हरी हरी घासें,

मानो, ये हैं बड़ी–बड़ी गाछें।

यह कविता नहीं है। कविता है :

रूखी री यह डार वसन वासंती लेगी।

कविता कोई हवाई चीज नहीं है। योगी, वैज्ञानिक अथवा समाजशास्त्री सत्य की खोज करने के लिए जितनी गहरी समाधि लगाता है, उतनी गहरी समाधि लगाये बिना कवि भी सत्य को नहीं पा सकता। किन्तु कवि और वैज्ञानिक के सत्यों में भेद है। विज्ञान स्थूलता की कला है। वह एक चीज से दूसरी चीज की दूरी मापता है और हर चीज को अपनी काठ की उँगलियों से छूकर यह बतलाता है कि वह कड़ी या मुलायम है। किन्तु कविता वस्तुओं के सूक्ष्म रूप का मूल्य ढूँढ़ती है, वह उनके उन पक्षों का विश्लेषण करती है जो गणित की भाषा में व्यक्त नहीं किये जा सकते। और चूँकि बुद्धि भी गणित को छोड़कर और भाषा समझ नहीं सकतीय इसलिए कविता अपने विश्लेषण का परिणाम बुद्धि नहीं, बल्कि हृदय के सामने निवेदित करती हैय क्योंकि हृदय उन संकेतों को समझ सकता है, जिनके माध्यम से कवि अदृश्य और अनिर्वचनीय का वर्णन करता है।

ऐसी अवस्था में, निरी कविता कहकर जो लोग कविता को आसानी से बर्खास्त कर देना चाहते हैं, उन्हें यों ही नहीं छोड़ देना चाहिए। आखिर किस गुण या दुर्गुण के कारण कविता इस अनादर के साथ बर्खास्त कर दी जाएगी? कविता का प्रधान गुण उक्ति या वर्णन का सौन्दर्य है। कविता में शब्दों की लड़ी संगीतपूर्ण होती है और उसके भीतर एक मोहक चित्र होता है, जो आनन्द के प्रवाह में मनुष्य के मन को बहा ले जाता है। जो लोग कठोर वस्तुवादी हैं, वे कहते हैं कि यह आनन्द एक प्रकार की मदिरा है, जो हमें अपने नशे से मतवाला बनाकर हमारा ध्यान जीवन की ठोस घटनाओं और क्रियाओं से अलग ले जाकर हमें कल्पना में निमग्न कर देती है। हमें उस दुनिया में भटकने को मजबूर करती है, जो सच्ची नहीं है, जहाँ रोटी कमाने का काम नहीं चल सकता, जहाँ निन्नानवे को सौ में परिणत करने का कोई उपाय नहीं है।

मैं अपने को वस्तुवादी मानता हुआ भी वस्तुवादियों की बहुत–सी झड़पें झेल चुका हूँ। किन्तु, आज भी मुझे यह शंका ग्रसित किये हुए है कि अगर सौन्दर्य को हम कविता का पहला गुण नहीं मानें, तो फिर उसका और कौन गुण प्रथम स्थान पर रखा जा सकता है? फूल, चाँद, नदी, वन, पर्वत, जलप्रपात, तारे और आकाश–इनका भी पहला गुण सौन्दर्य ही है। हम मानते हैं कि प्रकृति के इन विविध उपकरणों का कोई–न–कोई वैज्ञानिक उपयोग भी है या कालक्रम में हो सकता है। किन्तु मनुष्य को वे उपयोगों के कारण प्यारे नहीं हैं। प्रिय तो वे सिर्फ इसलिए हैं चूँकि उनमें सौन्दर्य है। और बच्चों के बारे में हमारा क्या विचार हो सकता है? क्या माँ–बाप उन्हें इसलिए प्यार करते हैं कि वे बड़े होने पर उन्हें कमाकर खिलाएँगे? तो फिर जवाहरलाल जी दिल्ली–भर के बच्चों को बुलाकर अपना समय क्यों बर्बाद करते हैं?

एक लेखक ने अभी हाल में कविता की तुलना सुन्दरियों से की है। कविता की तरह स्त्रियाँ भी सुन्दर होती हैं, किन्तु, सुन्दर कविता से परहेज करनेवाले लोग सुन्दर स्त्रियों की उपेक्षा नहीं करते और न कभी वे यही कहते हैं कि स्त्रियों को सौन्दर्य–परिहार के लिए प्रयत्न करना चाहिएय क्योंकि उनकी रूप–मदिरा से समाज के कर्मठ लोग ‘ठोस घटनाओं’ से विमुख हो रहे हैं। यह ठीक है कि यदा–कदा नारी–सौन्दर्य का प्रभाव वैयक्तिक शैथिल्य अथवा वैराग्य का कारण हुआ है, किन्तु उसे हम नियम नहीं, अपवाद ही कहेंगे। सच तो यह है कि जिस प्रकार पुरुष और नारी के अंगों में अभिव्यक्त सौन्दर्य सच्चा और मूल्यवान है, उसी प्रकार पुरुष और नारी के द्वारा विरचित काव्य से फूटनेवाला सौन्दर्य भी सच्चा और मूल्यवान होता है।

मनुष्य हर चीज को इसलिए प्यार नहीं करता चूँकि वह उपयोगी होती है। चीजें एक साथ ही प्यारी और उपयोगी हो सकती हैं, किन्तु पहले उपयोग और पीछे प्यार, यह क्रम दुनिया में नहीं देखा जाता। फूल देवता पर चढ़ाये जाते हैं और उनसे इत्र और सेंट भी निकाली जाती है। मगर हम फूलों को सिर्फ इसीलिए नहीं चाहते क्योंकि वे हमें इत्र और सेंट देते हैं।

एक बात और है कि वस्तुओं का सौन्दर्य–तत्त्व उनके स्थूल उपयोग से एक भिन्न गुण है। बहिन, बेटी, माता, पत्नी, मित्र और समाज की सदस्या के रूप में स्त्रियों का उपयोग है। किन्तु इस उपयोग से स्त्रियों के सौन्दर्य का क्या सम्बन्ध हो सकता है? बेटे तो कुरूप और रूपवती, दोनों ही प्रकार की नारियों के होते हैं। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि नारियों का सौन्दर्य हमारे उपयोग की चीज है और उस सौन्दर्य से हम इसीलिए प्रभावित होते हैं चूँकि वह उपयोगी है?

किन्तु एक भिन्न दृष्टि से देखने पर सौन्दर्य भी उपयोगी समझा जा सकता है। फूल, नदी, पर्वत, बच्चे, कविता और नारी–सभी के सौन्दर्य में एक अलक्षित प्रभाव है, जो हमारे भीतरी जीवन को पूर्ण करता है। प्रत्येक प्रकार के सौन्दर्य को देखकर हमारे हृदयों में एक विशिष्ट प्रकार की अनुभूति उत्पन्न होती है, जिससे हमारा जीवन समृद्ध होता है। सुन्दरता का प्रभाव सिर्फ सनसनीवाला हलका आनन्द नहीं है। प्रत्युत, सौन्दर्य को देखकर हम अपने स्तर से कुछ ऊँचा उठते हैं और हमारे भीतर जो विस्मय की आनन्दमयी अनुभूति जगती है, वह हमें एक अपर लोक में पहुँचा देती है। इस प्रकार, सौन्दर्य के उपभोग से मनुष्य की आत्मा विस्तृत होती है तथा उसके आन्तरिक व्यक्तित्व को फैलाव मिलता है।

प्रश्न यह है कि अभिनव मनुष्य उस सूक्ष्म जीवन की सत्ता स्वीकार करता है या नहीं, जिसे हम आत्मा अथवा आभ्यन्तर व्यक्तित्व कहकर व्यक्त करते हैं? अगर वह इस आन्तरिक व्यक्तित्व को मिथ्या कल्पना मानता है, तो निश्चय ही अन्य सभी चीजों की तरह कविता भी उसकी रोटी का साधन, उपकरण और श्रृंगार बनकर रह जाएगी। किन्तु यह मनुष्य के मानने और नहीं मानने का सवाल नहीं है। मनुष्य के भीतर कोई एक और मनुष्य है, जो अभावों में भी संतुष्ट और समृद्धियों के बीच भी भूख से व्याकुल रहता है! उसका आहार रोटी और दाल नहीं, बल्कि, फूल, नदी, पर्वत, भाव और विचारों का सौन्दर्य है। जीवन की परिधि में जो भी उपकरण प्रवेश करते हैं, उनका एक उपयोग तो स्थूल मनुष्य करता है और दूसरा वह सूक्ष्म मनुष्य, जो स्थूल के भीतर निहित है। कहते हैं, देवता ग्रास नहीं, गन्ध के प्रेमी होते हैं। विज्ञान स्थूल मनुष्य का ग्रास है। सूक्ष्म मनुष्य खोज रहा है कि उसकी गन्ध कहाँ है। और सूक्ष्म मनुष्य को समाधान देने के लिए या तो कविता को विज्ञान को आत्मसात करना होगा अथवा कविता की पकड़ में आने के लिए विज्ञान को ही संशोधन स्वीकार करना पड़ेगाय क्योंकि सूक्ष्म के अनशन से स्थूल की आयु बढ़ती नहीं, न क्षीण होती।

('अर्धनारीश्वर' पुस्तक से)

 

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अर्धनारीश्वर
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अर्धनारीश्वर के निबंधकार रामधारी सिंह दिनकर है। अर्धनारीश्वर शंकर और पार्वती का कल्पित रूप है , जिसका आधा अंग पुरुष और आधा अंग नारी का होता है | निबंधकार कहते है कि नारी-पुरुष गुणों की दृष्टि से सामान है| एक का गुण दूसरे का दोष नहीं है। प्रत्येक नर के अंदर नारी का गुण होता है , परंतु पुरुष स्त्रैण कहे जाने की डर से दबाये रखता है|अगर नारों में वे विशेषताएँ आ जाये जैसे दया, ममता, सेवा आदि तो उनका व्यक्तित्व धूमिल नहीं बनता बल्कि और अधिक निखर जाता है। इसी तरह प्रत्येक स्त्री में पुरुष का तत्व होता है
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