अनजान समझा जिन्हें, वो मेरा अपना ही था। दर्द गहरे थे उनको, जख्म अपना ही था।। . रोते थे वो मेरी खातिर, सोता था मैं भूल उनको। गिरा जब अर्श से नीचे, संभाला उनने ही था।। . भूल कर फिर उनको, दगा
कुछ पल अधूरे-अनचाहे-अनजान से, शायद मुझको भी पता नहीं कि क्यों। क्या पता-क्या चाहता हूं मैं, जो मुझको मिल नहीं पाया अब तक। क्या कहूं-क्या सुनूं मैं जानता नहीं, बस जो भी भा जाये, जान लेता हूं अब।
हूँ सहज भावो का संगम,स्वर समेटे मौन हूँ मैं।सिंधु भर ले नीर नैना,पूछते है कौन हूँ मै।धरती अम्बर का मिलन हूँ,दूर क्षितिज का मौन हूँ मैं।शून्य में भी शून्य रचता,पूछते हैं कौन हूँ मैं।हूँ सकल, शाश्वत, सन
यह जीवन का मरुभूमि है। पथ पर चलने बाले, चलता-चल। निर्णय करने को समय खड़ा। तुम तो निज स्वभाव में ढलता-चल। होने को जो हो, जीत-हार को रहने दे। ओ पथिक, तुम दीपक सा जलता-चल।। माना कि लंबा बियाबान डगर है। प
ये बात जरा है गहरी दिल ओ दिमाग में भी है ठहरी शांत मन से तुम पढ़ना सोच और जज़्बात के दायरों में फिर गढ़ना गलत लगे तो कहना बात दिल और दिमाग में अटकाए ना रहना रिश्ते टूटने की जब कोई वाजिब वजह बन जाए रिश
तुम भी तो हो वसुधा के मानव। निहित कर्तव्य निभाओ जीवन का। खिल भी लो पुष्प नव नूतन सा। चहको भी कुंजर बन उपवन का। जीवन की उपमानों को कर आलेखित। इसकी धारा के अनुरूप भाव कर लो।। मानो नहीं नियम, कोई बात नह
जीवन, उस घट में रखे सुधा बिंदु को। तनिक ठहरो! मैं मंथन तो कर लूं। प्यासा भी हूं, होंठों पर तो धर लूं। तुम ठहरो तनिक, मन की अपनी कर लूं। तुम जीवन, मेरे द्वंद्व पर ऐसे ही मुसकाओगे। मैं अपनी बात बताऊंगा,
आईना टूटा ही निकलातेरी चाहत काकिसे दिखाते अपनी सूरतक्योंकिदेखने वाले के पास भीचाहत को देखने कीनज़र चाहिये,कही वो भी हमें मोहराबनाकर सिर्फ इस्तेमाल नकर ले इस इरादे सेदिल के दरवाजे बंद हैंमगर अपने ज़मीर क
इंसानकभी गलत नही होताउसका वक्त गलत होता है,मगर लोग इंसान को गलत कहते हैंजैसेपतंग कभी नही कटती,कटता तो सिर्फ “धागा” ही हैफिर भी लोग कहते हैं “पतंग” कटी,ऐसे समाज के नज़रिये में जिंदगीकब तक क़ाबिलियत को उप
रोज़ गिरता हूं किसी न किसी के हाथों से ,पानी की तरह मेरा रंग सबके लिए एक हैचाहे जिसके भी हाथों से गिरूंहिंदू हो या मुसलमान सिख हो या ईसाईमैं तो पानी हूँ भाईतुमने ये धर्म की दीवार खड़ी कर दीमगर
ये न्याय का मंदिर हैंयहाँ सभी अपनी पुकार लेकर आते हैंसभी इंसाफ की घन्टीजोर से बजाते हैंमगर ज़मीर कीआवाज़ जल्दी कोईसुनता नहीं हैं,सच की बाती जलती नहींऔर झूठ घी में तैरता हैंअपनी पुकार का मामलारफ़ा दफ
वो जरा अलग है औरो सेतुम उससे साधारण स्तर से मिलोगेतो तुम्हे वो पूरा नही मिलेगा लेकिन तुम अपने कलात्मकनज़रिये से मिले तो तुमसे मेरामुकम्मल अस्तित्व मिल पायेगाअब मिलने वाले को सोचना हैं किउसे एक ही
किसी तर्क के कथन से निकलेहर शब्द की गूंजझकझोरती हैं मेरे जहन को,हर हर्फ़ हँसता हैं मेरे वजूद परन जाने क्यों जन्म कीबुनियाद में,गुलामी के रंजिशों के दागविरासत में मिलेहुनरमंद होकर भीहमें समाज मेहैस
जब से जज़्बातको पढ़ा मैंने,सब कुछ आँखों सेबहाया मैंने,जब तक बनानहीं समुंदर तब तक अपनेवजूद का दरियाबहाया हमनेजैसा रुख था हवाओं कावैसे ही मुड़े हमज़िंदगी तेरे हर एहसासोमें डूबे हम।अजय निदान9630819356सर
एक लम्हें में मैं सिमटा हुआऔरएक लम्हें मेंतुम सिमटी हुईदोनो ही सदी के सफर में,प्रभावित होकरएक दूजे के लिएतबाह किये दिल के लिए,पनाह कही भी नहींप्यार के लिए,ये मुमकिन नही पलतेरे-मेर
मैं कहाँ हूं किस वजह से हूंऔर किसके लिए कसूरवार हूँयहाँ किसी भी गलती के लिएमेरा वजूद जिम्मेदार नही हैंऐसा इसलिए क्योकि हालात तो पूर्व निर्मित हैंऔर मुक्कमल नहीं हैं,काबिलियत के लिएअब रिश्वत की हव
ख़ता कर अतीत कीबदनामी को पीछे छोड़ करनये वर्तमान की दहलीज कोलाँघ कर बढ़ गया,वो अपने भविष्य को सँवारने के लिए,मगर ऐसे बने इत्तेफाक मोहरे हो गये हालातऔरवो उन्हीं हालातोंका शिकार हैंजो आज की तारीख
समा जाना चाहता हूँकिसी एक माध्यम सेमग़र कोई सार्थक आधार नहींक्योकि आधारों की शिला मेंदरारें हैंऔर संपूर्णता में समाने के लिएमूलतत्त्व पूर्ण चाहिएमुझे उस माध्यम औरआधारों की तलाश हैंजो बहुत ही कम इं
जीवन की धग-धग जलती मरुधरा। पथ पर कभी अधिक तीव्र होता है ताप। कभी हृदय कुंज में चुभता है संताप। कभी तो विकल हो करता है आलाप। पर क्यों इतना हलचल है,धैर्य का ले-लो संबल। अरे ओ राही, पथ पर धीरे-धीरे चल।।
कनक प्रभा की आभाओं में लिपटा। जीवन की आशाएँ फिर सींचित हो। स्वप्न लोक की सजीव हुई भाव भंगिमा। जीवन्त हुआ फिर स्वर गुंजित हो। जो ठान लिया मन में, किया कर्म के द्वारा। मानव वह ,पथ पर नहीं कभी है हारा।।