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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022

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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?”

“ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ”

“तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ”

“ये तुम्हारी बद-एहतियातियों की वजह से होता है वर्ना आदमी को कम अज़ कम साल भर में दस महीने तो तंदरुस्त रहना चाहिए ”

आप तो बारह महीने तंदरुस्त रहते हैं, अभी पिछले दिनों दो महीने हस्पताल में रहे मेरा ख़याल है अब फिर आप का वहीं जाने का इरादा हो रहा है।”

“हस्पताल में जाने का इरादा कौन करता है?”

“आप ऐसे आदमी और किस का दिमाग़ फिरा है कि वो बीमार हो कर वहां पर जाये और अपने अज़ीज़ों की जान का अज़ाब बन जाये ”

“तो गोया मैं अपने सब रिश्तेदारों की जान का अज़ाब बना बैठा हूँ मेरा तो ये नज़रिया है कि हर रिश्तेदार ख़ुद जान का बहुत बड़ा अज़ाब होता है”

“आप को तो रिश्तेदारों की कोई पर्वा नहीं हालाँकि वही हमेशा आप के आड़े वक़्त में काम आते रहे हैं ”

“कौन से आड़े वक़्त में काम आते रहे हैं ”

“पिछले बरस जब आप बीमार हुए तो किस ने आप के ईलाज पर रुपया ख़र्च किया था।”

“मुझे मालूम नहीं मेरा ख़याल है तुम्हीं ने क्या होगा ”

“आप का हाफ़िज़ा कमज़ोर हो गया है या आप जानबूझ कर अपने रिश्तेदारों की मदद को फ़रामोश कर रहे हैं ”

“मैं अपने किसी रिश्तेदार की इमदाद का मुहताज नहीं रहा और न रहूँगा अच्छा ख़ासा कमा लेता हूँ खाता हूँ पीता हूँ ”

“जितना खा सकता हूँ खाता हूँ जितनी पी सकता हूँ पीता हूँ ”

“आप को मालूम नहीं कि पीना हराम है ”

“मालूम है आजकल तो जीना भी हराम है मगर चचा ग़ालिब कह गए हैं ”

मय से ग़र्ज़ निशात है किस रूसयाह को

एक गौना बे-खु़दी मुझे दिन रात चाहिए

“ये चचा ग़ालिब कौन थे ज़िंदा हैं या मर गए हैं मैंने तो आज पहली मर्तबा इन का नाम सुना है ”

“वो सब के चचा थे बहुत बड़े शायर ”

“शाइरों पर ख़ुदा की लानत बेड़ा ग़र्क़ करते हैं लोगों का ”

“बेगम! ये तुम क्या कह रही हो उन्ही के दम से तो ज़िंदगी की रौनक क़ायम है ये न हों तो चारों तरफ़ ख़ुश्की ख़ुश्की ही नज़र आए ये लोग फूल होते हैं साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ पानी के धारे होते हैं जो इंसानों के ज़ेहन की आबयारी करते हैं ये न हों तो हमारी ज़िंदगी बे-नमक हो जाये”

“बे-नमक हो जाये कैसे बे-नमक हो जाये यहां नमक की कोई कमी है जितना चाहे, ले लीजिए और वो भी सस्ते दामों पर उन लोगों को जिन्हें आप शायर कहते हैं मैं तो चाहती हूँ कि उन को खीवड़े की किसी कान में ज़िंदा दफ़न कर दिया जाये, ताकि वो भी नमक बन जाएं और आप उन को चाटते रहें ”

“ये आज तुम ने कैसे पर पुर्ज़े निकाल लिए ”

“पर पुर्ज़ों के मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं जानती मैं तो इतना जानती हूँ कि जब आप से कोई मुआमले की बात करे तो आप भिन्ना जाते हैं मालूम नहीं क्यों मैंने कभी आप की ज़ात पर तो हमला नहीं क्या हमेशा सीधी सादी बात कर दी ”

“तुम्हारी सीधी बातें हमेशा टेढ़ी होती हैं मेरी समझ में नहीं आता तुम्हें हो किया गया है दो बरस से तुम हर वक़्त मेरे सर पर सवार रहती हो।”

“इन बरसों में मुझे आप ने क्या सुख पहुंचाया है ”

“भई माफ़ करो मुझे मैं सोना चाहता हूँ सारी रात ही जागता रहा हूँ।”

“क्या तकलीफ़ थी आप को? मुझे भी तो कुछ इस का इल्म हो ”

“तुम्हें अगर इस का इल्म भी हो जाये तो इस का मदावा क्या करोगी ”

“मैं तो सख़्त ना-अहल हूँ किसी काम की भी नहीं बस एक सिर्फ़ आप हैं जो दुनिया की सारी हिक्मत जानते हैं ”

“भई मैंने कभी ये दावा नहीं किया लेकिन औरत ज़ात हमेशा ख़ुद को अफ़ज़ल समझती है हालाँकि वो आम तौर पर कम-अक़्ल होती है।”

“देखिए, आप तान तरोज़ पर उतर आए ये कहाँ की अक़्लमंदी है।”

“मैं माफ़ी चाहता हूँ तुम ने चूँकि मुझे उकसाया तो ये लफ़्ज़ मेरी ज़बान से निकल गए, वर्ना तुम जानती हो कि मैं गुफ़्तुगू के मुआमले में बड़ा मुहतात रहता हूँ।”

“जी हाँ रहते होंगे मुझ से तो आप ने हमेशा ही नौकरानियों का सा सुलूक किया ”

“ये सरासर बोहतान है तुम तो मेरी मल्का हो ”

“आप बादशाह कैसे बन बैठे आप की सलतनत कहाँ है?”

“मेरी सलतनत ये मेरा घर है।”

“और आप यहां के शहनशाह हैं ”

“इस में क्या शक है तुम ने तंज़न कहा है, लेकिन हक़ीक़त में इस सलतनत का हुकमरान मैं ही हूँ ”

“हुकमरान तो मैं हूँ इस लिए कि इस घर का सारा बंद-ओ-बस्त मुझे ही करना पड़ता है सब देख भाल मुझे ही करना पड़ती है ”

“तुम मेरी मल्का हो और मल्का को हाथ पर हाथ धरे बैठ नहीं रहना चाहिए अपनी मिल्कियत का ध्यान रखना चाहिए इस लिए तुम भी यहां की हुकमरान हो, इस लिए कि तुम इस का नज़्म बरक़रार रखती हो नौकरों की देख भाल वग़ैरा, अच्छे से अच्छा खाना पकवाना

सारा दिन पलंग पर लेटी आराम करती रहती हो ”

“मैं तो जो आराम करती हूँ, सौ करती हूँ पर आप मुझे ये बताईए ”

“क्या ”

“कुछ नहीं आप इस घर के हुकमरान हैं अब मैं आप से क्या कहूं ”

“तुम जो कुछ कहना चाहती हो, बिला ख़ौफ़-ओ-ख़तर कहो तुम्हें अंदेशा किस बात का है ”

“कहीं जहांपनाह बिगड़ न जाएं ”

“मज़ाक़ बरतरफ़ रक्खो ये बताओ तुम कहना क्या चाहती हो ”

“कहना तो मैं बहुत कुछ चाहती हूँ मगर आप में ठंडे दिल से सुनने का माद्दा ही कहाँ है ”

“मादा तो तुम हो मैं नर हूँ ”

“अब आप ने वाहियात क़िस्म की गुफ़्तुगू शुरू कर दी ”

“कभी कभी मुँह का ज़ायक़ा बदलने के लिए ऐसी बातें भी कर लेनी चाहिऐं इस लिए कि तबीयत में इन्क़िबाज़ पैदा न हो ”

“आप की तबीयत में कई दिनों से इन्क़िबाज़ है सीधे मुँह कोई बात ही नहीं करते।”

“मैं तो चंगा भला हूँ मुझे ऐसी कोई शिकायत नहीं है हो सकता है कि तुम्हारे नफ़्स ने बहुत ऊंची परवाज़ की हो अगर ऐसा ही है तो कोई मसहल तजवीज़ कर दो ताकि तुम्हारी तशफ़्फी होजाए।”

“मैं आप से बहस करना नहीं चाहती सिर्फ़ इतना पूछना चाहती हूँ।”

“भई पूछ लो जो कुछ पूछना है मुझे अब ज़्यादा तंग न करो।”

“आप तो ज़रासी बात पर तंग आ जाते हैं ”

“ये ज़रा सी बात है कि तुम ने मुझ से इतनी बकवास कराई यही वक़्त में कहीं सर्फ़ करता तो कुछ फ़ायदा भी होता ”

“क्या फ़ायदा होता बड़े लाखों कमा लिए हैं आप ने, बग़ैर इस बकवास के ”

“कमाए तो हैं लेकिन तुम ये बताओ कि कहना क्या चाहती हो ”

“मैं कहना चाहती थी कि जब से नई नौकरानी आई है, आप की तबीयत क्यों ख़राब रहने लगी है।”

“नई नौकरानी को कोई बीमारी है ”

“जी नहीं बीमारी तो नहीं लेकिन मैंने उसे आज रुख़स्त कर दिया है ”

“क्यों वो तो बड़ी अच्छी थी ”

“आप की नज़रों में होगी मैं तो सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि वो बीस रुपय माहवार में इतने अच्छे कपड़े कैसे पहन सकती थी बालों में ख़ुशबूदार तेल कहाँ से डालती थी।”

“मुझे क्या मालूम ”

“आप को सब कुछ मालूम है आप के बालों से भी उसी तेल की ख़ुशबू आती है मालूम नहीं ये तेल आप ने कहाँ छिपा रखा है!”
 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
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सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
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बाँझ

7 अप्रैल 2022
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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहे

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बदसूरती

7 अप्रैल 2022
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साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी।  उनके माँ-बाप को ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश शक्ल थी

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बादशाहत का ख़ात्मा

7 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...”  दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और किता

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फूजा हराम दा

7 अप्रैल 2022
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हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था

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फुसफुसी कहानी

7 अप्रैल 2022
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सख़्त सर्दी थी। रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी। गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी हुई थी। सड़क के दो रवैय्या पस्

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बर्फ़ का पानी

7 अप्रैल 2022
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“ये आप की अक़ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं” “मेरी अक़ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए थे जब मैंने तुम से शादी की भला इस की ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब कराली।” “जी हाँ आज़ादी तो आप की यक़ीनन सल्ब हूई

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बलवंत सिंह

7 अप्रैल 2022
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शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

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बाई बाई

7 अप्रैल 2022
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नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थ

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बचनी

7 अप्रैल 2022
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भंगिनों की बातें हो रही थीं। खासतौर पर उन की जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरिया और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ

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फ़ूभा बाई

7 अप्रैल 2022
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हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा। “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।” हनीफ़ को मालूम था कि वो मु

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फूलों की साज़िश

7 अप्रैल 2022
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बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़

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फुंदने

7 अप्रैल 2022
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कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेर

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फाहा

7 अप्रैल 2022
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गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

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बग़ैर इजाज़त

7 अप्रैल 2022
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नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

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बदतमीज़ी

7 अप्रैल 2022
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“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

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पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
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वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

20 अप्रैल 2022
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डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

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ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

20 अप्रैल 2022
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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

20 अप्रैल 2022
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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

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गर्म सूट

20 अप्रैल 2022
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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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चन्द मुकालमे

20 अप्रैल 2022
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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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गोली

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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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चोरी

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

20 अप्रैल 2022
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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

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क़ासिम

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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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