किसी एक की नहीं
यह कीर्ति,
समस्त मानवता की है !
पूर्व पश्चिम से मुक्त
जन भू की प्रतिभू
मानवता की ।
शस्य बालियों भरी,
आम्र मंजरियों सजी
मुकुट नहीं कीर्ति,
मन की
व्यक्तित्व की
विभा है !
कोयल कूक रही !
तरु लता वन में
तरुण रुधिर दौड़ रहा !
किरणों से अनुराग
सुनहला पराग
बरस रहा !
सृजन क्रांति यह,
रचना रूपांतर !
जीवन शोभा का सिन्धु
हिल्लोलित हो उठा,
दृगों को नयी दृष्टि
कानों को अर्थ बोध के
नये स्वर मिल गए !
ओ नयी आग,
बाहुओं वक्षों में
जघनों योनियों में
नया आनंद कूद रहा !
भाल से, भ्रुनों से
कपोलों अधरों से
नया लावण्य निखर रहा !
औ शुभ्र शक्तिमत्ते,
रस की नयी चेतने,
व्यक्ति तुम्हें बंदी नहीं वना सकेगा,
ममता कलुषित नहीं करेगी !
तुम नयी शक्ति, नयी वेदना,
शील स्वच्छ
नयी सामाजिकता हो !
रक्त मांस की
सुनहली शिखा,
नयी प्राणेच्छा
प्रणयेच्छा बन
नयी एकता, नये बोध के
प्राण बीज बो
नव यौवन आग भरी
भू जीवन अनुराग हरी
मानवता की सौम्य पीढ़ी
उपजाएगी !
नयी मानसिकता की धात्री,
रचना मंगल का
स्वर्णिम तोरण बनेगी !
उसी मानवता की है
विश्व कीर्ति,
स्वप्न बालियों भरी
गीत मंजरियों गुंथी !