नित आँख-मिचौनी खेल रहा, जग अमर तरुण है वृद्ध नहीं
इच्छाएँ क्षण-कुण्ठिता नहीं, लीलाएँ क्षण-आबद्ध नहीं ।
सब ओर गुरुत्वाकर्षण है, यह है पृथिवी का चिर-स्वभाव
उर पर ऊगे से विमल भाव, नन्हें बच्चों से अमर दांव ।
कैसी अनहोनी अँगड़ाई, पतझर हो या होवे वसन्त
इस कविता की अनबना आदि, इस कथनी का कब सुना अन्त ।
घुलते आराधन-केंद्रों पर, धुलते से इन्द्रधनुष लटके
क्षण बनते, क्षण-क्षण मिट जाते, उपमान बने घूंघट पटके।।
यह कैसी आँखमिचौनी है, किसने मून्दी, क्यों खोल रहा ?
जो गीत गगन के खग गाते, क्यों सांस-सांस पर बोल रहा ।
तुम सदा अछूते रहो नेह ! प्रलयंकर क्षण भी रहें शान्त
बहती पुतली पर तुम आओ तब भी गा उट्ठे प्राण-प्रान्त
कितनी मौलिक जीवन की द्युति, कितने मौलिक जग के बन्धन
जितनी अनुपम हों मनुहारें, उतना अविनाशी हो स्पन्दन ।।