अब तो निभायां सरेगी बाँह गहे की लाज।
समरथ शरण तुम्हारी सैयां सरब सुधारण काज।।
भवसागर संसार अपरबल जामे तुम हो जहाज।
गिरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज।।
जुग जुग भीर हरी भगतन की दीनी मोक्ष समाज।
"मीरा" शरण गही चरणन की लाज रखो महाराज।।
18 जून 2022
अब तो निभायां सरेगी बाँह गहे की लाज।
समरथ शरण तुम्हारी सैयां सरब सुधारण काज।।
भवसागर संसार अपरबल जामे तुम हो जहाज।
गिरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज।।
जुग जुग भीर हरी भगतन की दीनी मोक्ष समाज।
"मीरा" शरण गही चरणन की लाज रखो महाराज।।
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मीराबाई का जन्म सन 1498 में मेवाड़ के कुर्की गांव में हुआ था। इनके पिता जी का नाम राव रत्नसी एवं उनकी माता जी का नाम वीरकुमारी था । मीराबाई राजपूत परिवार में से थी।मीराबाई को बचपन से ही कृष्ण भक्ति में रुचि थी । मीराबाई की शिक्षा संगीत और धर्म के साथ-साथ राजनीति व प्रशासन भी शामिल थे बचपन में उन्हें एक साधु ने भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति दी और जब से उनकी कृष्ण भक्ति की शुरुआत हो गई जिनकी वह प्रेम पूर्वक रूप से आराधना करती थी।मीरा बाई के पति की मृत्यु के बाद सती जैसी रहने लगी और धीरे-धीरे वे संसार से अलग हो गई और साधु संतो के साथ भजन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगी। मीराबाई की भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति- मीराबाई बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी उन्होंने शुरू से ही भगवान कृष्ण को अपना पति स्वीकार कर लिया था।पति के निधन के बाद मीराबाई संसार मोह माया से अलग होकर उन्होंने भक्ति कीर्तन करना चालू कर दिया। सन 1539 में मीराबाई की वृंदावन में गोस्वामी जी से मिली रस-योजना - मीराबाई के काव्य में प्राय: श्रृंगार रस की अभिव्यंजना हुई है। श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग तथा वियोग का अपने पदों में उन्होंने सुंदर निरूपण किया है। उनके भक्ति तथा विनय संबंधी पदों में शांत रस का प्रयोग है। पदों में मुख्य रूप से माधुर्य तथा प्रसाद गुण है ये पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आँसुओं से भरे ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में श्रृंगार रस और शांत रस का प्रयोग विशेष रूप से किया है। मीरा बाई भगवान श्रीकृष्ण की सबसे बड़ी भक्त मानी जाती है। मीरा बाई ने जीवनभर भगवान कृष्ण की भक्ति की और कहा जाता है कि उनकी मृत्यु भी भगवान की मूर्ति में समा कर हुई थी। कृष्ण-प्रेम के विषय में मीरा बताती है कि उसने अपने आँसुओं से कृष्ण प्रेम रूपी बेल को सींचा अब वह बेल बड़ी हो गई है और उसमें आनंद-फल लगने लगे हैं। मीरा भक्तों को देखकर प्रसन्न होती हैं तथा संसार के अज्ञान व दुर्दशा को देखकर रोती हैं। कृष्ण को अपनाने के लिए मीरा ने अपने परिवार की मर्यादा व समाज की लाज को खोया है। D