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लालटेन

20 अप्रैल 2022

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये न भूलेगी... क्या दिन थे! बार-बार मेरे दिल की गहराईयों से ये आवाज़ बलंद होती है और मैं कई कई घंटे इसके ज़ेर-ए-असर बेखु़द-ओ-मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ या’नी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजेक्शन के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूँ।

जो कल हुआ था उसे अगर आज देखा जाये तो उसके और हमारे दरमियान सदियों का फ़ासला नज़र आएगा और जो कल होना ही है उसके मुतअ’ल्लिक़ हम कुछ नहीं जानते और न जान सकते हैं। आज से पूरे चार महीने की तरफ़ देखा जाये तो बटोत में मेरी ज़िंदगी एक अफ़साना मालूम होती है। ऐसा अफ़साना जिसका मसविदा साफ़ न किया गया हो।

इस खोई हुई चीज़ को हासिल करना दूसरे इंसानों की तरह मेरे बस में भी नहीं। जब में इस्तक़बाल के आईना में अपनी आने वाली ज़िंदगी का अ’क्स देखना चाहता हूँ तो इसमें मुझे हाल ही की तस्वीर नज़र आती है और कभी कभी इस तस्वीर के पस-ए-मंज़र में माज़ी के धुँदले नुक़ूश नज़र आ जाते हैं। इनमें बा’ज़ नक़्श इस क़दर तीखे और शोख़ रंग हैं कि शायद ही उन्हें ज़माने का हाथ मुकम्मल तौर पर मिटा सके।

ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े को मैं इस वक़्त ज़माने के हाथ में देख रहा हूँ जो शरीर बच्चे की तरह मुझे बार बार उसकी झलक दिखा कर अपनी पीठ पीछे छुपा लेता है... और मैं इस खेल ही से ख़ुश हूँ। इसी को ग़नीमत समझता हूँ।

ऐसे वाक़ियात को जिनकी याद मेरे ज़ेहन में अब तक ताज़ा है, मैं आम तौर पर दुहराता रहता हूँ, ताकि उनकी तमाम शिद्दत बरक़रार रहे और इस ग़रज़ के लिए मैं कई तरीक़े इस्तेममाल करता रहता हूँ। बा’ज़ औक़ात मैं ये बीते हुए वाक़ियात अपने दोस्तों को सुना कर अपना मतलब हल कर लेता हूँ। अगर आप को मेरे उन दोस्तों से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हो तो वो आपसे यक़ीनन यही कहेंगे कि मैं क़िस्सा-गोई और आप बीतियां सुनाने का बिल्कुल सलीक़ा नहीं रखता।

ये मैं इसलिए कह रहा हूँ कि दास्तान सुनाने के दौरान में मुझे सामईन के तेवरों से हमेशा इस बात का एहसास हुआ है कि मेरा बयान ग़ैर मरबूत है। और मैं जानता हूँ कि चूँकि मेरी दास्तान में हमवारी कम और झटके ज़्यादा होते हैं इसलिए मैं अपने महसूसात को अच्छी तरह किसी के दिमाग़ पर मुंतक़िल नहीं कर सकता और मुझे अंदेशा है कि मैं ऐसा शायद ही कर सकूं।

इसकी ख़ास वजह ये है कि मैं अक्सर औक़ात अपनी दास्तान सुनाते सुनाते जब ऐसे मुक़ाम पर पहुंचता हूँ जिसकी याद मेरे ज़ेहन में मौजूद न थी और वो ख़यालात की रौ में ख़ुद-बख़ुद बह कर चली आई थी तो मैं ग़ैर इरादी तौर पर इस नई याद की गहराईयों में गुम हो जाता हूँ और इसका नतीजा ये होता है कि मेरे बयान का तसलसुल यकलख़्त मुंतशिर हो जाता है और जब मैं इन गहराईयों से निकल कर दास्तान के टूटे हुए धागे को जोड़ना चाहता हूँ तो उजलत में वो ठीक तौर से नहीं जुड़ता।

कभी कभी मैं ये दास्तानें रात को सोते वक़्त अपने ज़ेहन की ज़बानी ख़ुद सुनता हूँ, लेकिन इस दौरान में मुझे बहुत तकलीफ़ उठाना पड़ती है। मेरे ज़ेहन की ज़बान बहुत तेज़ है और उसको क़ाबू में रखना बहुत मुश्किल हो जाता है।

बा’ज़ औक़ात छोटे छोटे वाक़ियात इतनी तफ़सील के साथ ख़ुद-बख़ुद बयान होना शुरू हो जाते हैं कि तबीयत उकता जाती है और बा’ज़ औक़ात ऐसा होता है कि एक वाक़िया की याद किसी दूसरे वाक़िया की याद ताज़ा कर देती है और इसका एहसास किसी दूसरे एहसास को अपने साथ ले आता है और फिर एहसासात-ओ-अफ़्क़ार की बारिश ज़ोरों पर शुरू हो जाती है और इतना शोर मचता है कि नींद हराम हो जाती है। जिस रोज़ सुबह को मेरी आँखों के नीचे स्याह हलक़े नज़र आएं आप समझ लिया करें कि सारी रात मैं अपने ज़ेहन की क़िस्सा गोई का शिकार बना रहा हूँ।

जब मुझे किसी बीते हुए वाक़िए को उसकी तमाम शिद्दतों समेत महफ़ूज़ करना होता है तो मैं क़लम उठाता हूँ और किसी गोशे में बैठ कर काग़ज़ पर अपनी ज़िंदगी के उस टुकड़े की तस्वीर खींच देता हूँ। ये तस्वीर भद्दी होती है या ख़ूबसूरत, इसके मुतअ’ल्लिक़ मैं कुछ नहीं कह सकता और मुझे ये भी मालूम नहीं कि हमारे अदबी नक़्क़ाद मेरी इन क़लमी तस्वीरों के मुतअ’ल्लिक़ क्या राय मुरत्तब करते हैं। दरअसल मुझे उन लोगों से कोई वास्ता ही नहीं।

अगर मेरी तस्वीरकशी सक़ीम और ख़ाम है तो हुआ करे, मुझे इससे क्या और अगर ये उनके मुक़र्रर कर्दा मे’यार पर पूरा उतरती है तो भी मुझे इससे क्या सरोकार हो सकता है। मैं ये कहानियां सिर्फ़ इसलिए लिखता हूँ कि मुझे कुछ लिखना होता है। जिस तरह आदी शराबखोर दिन ढले शराबख़ाना का रुख़ करता है ठीक उसी तरह मेरी उंगलियां बेइख़्तियार क़लम की तरफ़ बढ़ती हैं और मैं लिखना शुरू कर देता हूँ। मेरा रू-ए-सुख़न या तो अपनी तरफ़ होता या उन चंद अफ़राद की तरफ़ जो मेरी तहरीरों में दिलचस्पी लेते हैं। मैं अदब से दूर और ज़िंदगी के नज़दीक तर हूँ।

ज़िंदगी... ज़िंदगी... आह ज़िंदगी!

मैं ज़िंदगी ज़िंदगी पुकारता हूँ मगर मुझ में ज़िंदगी कहाँ? और शायद यही वजह है कि मैं अपनी उम्र की पिटारी खोल कर उसकी सारी चीज़ें बाहर निकालता हूँ और झाड़ पोंछ कर बड़े क़रीने से एक क़तार में रखता हूँ और उस आदमी की तरह जिसके घर में बहुत थोड़ा सामान हो उनकी नुमाइश करता हूँ।

बा’ज़ औक़ात मुझे अपना ये फ़े’ल बहुत बुरा मालूम होता है। लेकिन मैं क्या करूं, मजबूर हूँ। मेरे पास अगर ज़्यादा नहीं है तो इस में मेरा क्या क़सूर है। अगर मुझ में सिफ़्लापन पैदा होगया है तो इसका ज़िम्मेदार मैं कैसे होbसकता हूँ। मेरे पास थोड़ा बहुत जो कुछ भी है ग़नीमत है। दुनिया में तो ऐसे लोग भी होंगे जिनकी ज़िंदगी चटियल मैदान की तरह ख़ुश्क है और मेरी ज़िंदगी के रेगिस्तान पर तो एक बार बारिश हो चुकी है।

गो मेरा शबाब हमेशा के लिए रुख़सत हो चुका है मगर मैं उन दिनों की याद पर जी रहा हूँ जब मैं जवान था। मुझे मालूम है कि ये सारा भी किसी रोज़ जवाब दे जाएगा और इसके बाद जो कुछ होगा, मैं बता नहीं सकता। लेकिन अपने मौजूदा इंतिशार को देख कर मुझे ऐसा महसूस होता है कि मेरा अंजाम चश्म-ए-फ़लक को भी नमनाक कर देगा। आह ख़राबा-ए-फ़िक्र का अंजाम!

वो शख़्स जिसे अंजामकार अपने वज़नी अफ़्क़ार के नीचे पिस जाना है ये सुतूर लिख रहा है और मज़े की बात ये है कि वो ऐसी और बहुत सी सतरें लिखने की तमन्ना अपने दिल में रखता है।

मैं हमेशा मग़्मूम-ओ-मलूल रहा हूँ। लेकिन शब्बीर जानता है कि बटोत में मेरी आहों की ज़र्दी और तपिश के साथ साथ एक ख़ुशगवार मसर्रत की सुर्ख़ी और ठंडक भी थी। वो आब-ओ-आतिश के इस बाहमी मिलाप को देख कर मुतअ’ज्जिब होता था और ग़ालिबन यही चीज़ थी जिसने उसकी निगाहों में मेरे वजूद को एक मुअ’म्मा बना दिया था।

कभी कभी मुझे वो समझने की कोशिश करता था और इस कोशिश में वो मेरे क़रीब भी आ जाता था। मगर दफ़अ’तन कोई ऐसा हादसा वक़ूअ-पज़ीर होता जिसके बाइस उसे फिर परे हटना पड़ता था और इस तरह वो नई शिद्दत से मुझे पुरअसरार और कभी पुरतसन्नो इंसान समझने लगता।

इकराम साहब हैरान थे कि बटोत जैसी ग़ैरआबाद और ग़ैर दिलचस्प देहात में पड़े रहने से मेरा क्या मक़सद है। वो ऐसा क्यों सोचते थे? इसकी वजह मेरे ख़याल में सिर्फ़ ये है कि उनके पास सोचने के लिए और कुछ नहीं था। चुनांचे वो इसी मसले पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करते रहते थे।

वज़ीर का घर उनके बंगले के सामने बलंद पहाड़ी पर था और जब उन्होंने अपने नौकर की ज़बानी ये सुना कि मैं इस पहाड़ी लड़की के साथ पहरों बातें करता रहता हूँ। तो उन्होंने ये समझा कि मेरी दुखती हुई रग उनके हाथ आगई है और उन्होंने एक ऐसा राज़ मालूम कर लिया है जिसके इफ़्शा पर तमाम दुनिया के दरवाज़े मुझ पर बंद हो जाऐंगे। लोगों से जब वो इस मसले पर बातें करते थे तो ये कहा करते थे मैं तअ’य्युश पसंद हुँ और एक भोली भाली लड़की को फांस रहा हूँ और एक बार जब उन्होंने मुझसे बात की तो कहा, “देखिए ये पहाड़ी लौंडिया बड़ी ख़तरनाक है। ऐसा न हो कि आप उस के जाल में फंस जाएं।”

मेरी समझ में नहीं आता था कि उन्हें या किसी और को मेरे मुआ’मलात से क्या दिलचस्पी हो सकती थी। वज़ीर का करेक्टर बहुत ख़राब था और मेरा करेक्टर भी कोई ख़ास अच्छा नहीं था। लेकिन सवाल ये है कि लोग क्यों मेरी फ़िक्र में मुब्तला थे और फिर जो उनके मन में था साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहते थे। वज़ीर पर मेरा कोई हक़ नहीं था और न वो मेरे दबाव में थी। इकराम साहब या कोई और साहब अगर उससे दोस्ताना पैदा करना चाहते तो मुझे इसमें क्या ए’तराज़ हो सकता था। दरअसल हमारी तहज़ीब-ओ-मुआ’शरत ही कुछ इस क़िस्म की है कि आम तौर पर साफ़गोई को मा’यूब ख़याल किया जाता है। खुल कर बात ही नहीं की जाती और किसी के मुतअ’ल्लिक़ अगर इज़हार-ए-ख़याल किया भी जाता है तो ग़िलाफ़ चढ़ा कर।

मैंने साफ़गोई से काम लिया और उस पहाड़ी लौंडिया से जिसे बड़ा ख़तरनाक कहा जाता, अपनी दिलचस्पी का ए’तराफ़ किया। लेकिन चूँकि ये लोग अपने दिल की आवाज़ को दिल ही में दबा देने के आदी थे इसलिए मेरी सच्ची बातें उनको बिल्कुल झूटी मालूम हुई और उनका शक बदस्तूर क़ायम रहा।

मैं उन्हें कैसे यक़ीन दिलाता कि मैं अगर वज़ीर से दिलचस्पी लेता हूँ तो इसका बाइ’स ये है कि मेरा माज़ी-ओ-हाल तारीक है। मुझे उससे मोहब्बत नहीं थी इसी लिए मैं उससे ज़्यादा वाबस्ता था। वज़ीर से मेरी दिलचस्पी उस मोहब्बत का रिहर्सल थी जो मेरे दिल में उस औरत के लिए मौजूद है जो अभी मेरी ज़िंदगी में नहीं आई। मेरी ज़िंदगी की अँगूठी में वज़ीर एक झूटा नगीना थी लेकिन ये नगीना मुझे अ’ज़ीज़ था इसलिए कि उसकी तराश, उसका माप बिल्कुल उस असली नगीने के मुताबिक़ था जिसकी तलाश में मैं हमेशा नाकाम रहा हूँ।

वज़ीर से मेरी दिल-बस्तगी बेग़रज़ नहीं थी इसलिए मैं ग़रज़मंद था। वो शख़्स जो अपने ग़मअफ़्ज़ा माहौल को किसी के वजूद से रौनक़ बख्शना चाहता हो, उससे ज़्यादा ख़ुदग़रज़ और कौन हो सकता है? इस लिहाज़ से मैं वज़ीर का ममनून भी था और ख़ुदा गवाह है कि मैं जब कभी उसको याद करता हूँ तो बे-इख़्तियार मेरा दिल उसका शुक्रिया अदा करता है।

शहर में मुझे सिर्फ़ एक काम था... अपने माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल के घुप अंधेरे को आँखें फाड़ फाड़ कर देखते रहना और बस! मगर बटोत में इस तारीकी के अंदर रोशनी की एक शुआ थी। वज़ीर की लालटेन!

भटियारे के यहां रात को खाना खाने के बाद मैं और शब्बीर टहलते टहलते इकराम साहब के बंगले के पास पहुंच जाते। ये बंगला होटल से क़रीबन तीन जरीब के फ़ासले पर था। रात की ख़ुन्क और नीम मरतूब हवा में इस चहलक़दमी का बहुत लुत्फ़ आता था। सड़क के दाएं बाएं पहाड़ों और ढलवानों पर मकई के खेत रात के धुँदलके में ख़ाकस्तरी रंग के बड़े बड़े क़ालीन मालूम होते थे और जब हवा के झोंके मई के पौदों में लरज़िश पैदा करदेते तो ऐसा मालूम होता कि आसमान से बहुत सी परियां इन क़ालीनों पर उतर आई हैं और हौले-हौले नाच रही हैं।

आधा रास्ता तय करने पर जब हम सड़क के बाएं हाथ एक छोटे से दो मंज़िला चोबी मकान के क़रीब पहुंचते तो शब्बीर अपनी मख़सूस धुन में ये शे’र गाता है,

हर क़दम फ़ित्ना है क़ियामत है

आसमाँ तेरी चाल किया जाने

ये शे’र गाने की ख़ास वजह ये थी। इस चोबी मकान के रहने वाले इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला थे कि मेरे और वज़ीर के तअ’ल्लुक़ात अख़लाक़ी नुक़्त-ए-निगाह से ठीक नहीं, हालाँकि वो अख़लाक़ के मआ’नी से बिल्कुल नाआशना थे। ये लोग मुझ से और शब्बीर से बहुत दिलचस्पी लेते थे और मेरी नक़ल-ओ-हरकत पर ख़ासतौर पर निगरानी रखते थे।

वो तफ़रीह की ग़रज़ से बटोत आए हुए थे और उन्हें तफ़रीह का काफ़ी सामान मिल गया था। शब्बीर ऊपर वाला शे’र गा कर उनकी तफ़रीह में मज़ीद इज़ाफ़ा किया करता था। उसको छेड़छाड़ में ख़ास लुत्फ़ आता था। यही वजह है कि उन लोगों की रिहाइशगाह के ऐ’न सामने पहुंच कर उसको ये शे’र याद आजाता था और वो फ़ौरन उसे बलंद आवाज़ में गा दिया करता था। रफ़्ता रफ़्ता वो इसका आदी हो गया था।

ये शे’र किसी ख़ास वाक़िए या तअस्सुर से मुतअ’ल्लिक़ न था। मेरा ख़याल है कि उसे सिर्फ़ यही शे’र याद था, या हो सकता है कि वो सिर्फ़ उसी शे’र को गा सकता था, वर्ना कोई वजह न थी कि वो बार बार यही शे’र दुहराता।

शुरू शुरू में अंधेरी रातों में सुनसान सड़क पर हमारी चहल क़दमी चोबी मकान के चोबी साकिनों पर (वो ग़ैरमामूली तौर पर उजड और गंवार वाक़ा हुए थे) कोई असर पैदा न कर सकी। मगर कुछ दिनों के बाद उनके बालाई कमरे में रोशनी नज़र आने लगी और वो हमारी आमद के मुंतज़िर रहने लगे और जब एक रोज़ उन में से एक ने अंधेरे में हमारा रुख़ मालूम करने के लिए बैट्री रोशन की तो मैंने शब्बीर से कहा, “आज हमारा रुमान मुकम्मल होगया है।” मगर मैंने दिल में उन लोगों की क़ाबिल-ए-रहम हालत पर बहुत अफ़सोस किया, क्योंकि वो बेकार दो-दो, तीन-तीन घंटे तक जागते रहते थे।

हस्ब-ए-मा’मूल एक रात शब्बीर ने उस मकान के पास पहुंच कर शे’र गाया और हम आगे बढ़ गए। बैट्री की रोशनी हस्ब-ए-मा’मूल चमकी और हम बातें करते हुए इकराम साहब के बंगले के पास पहुंच गए। उस वक़्त रात के दस बजे होंगे, हू का आलम था, हर तरफ़ तारीकी ही तारीकी थी, आसमान हम पर मर्तबान के ढकने की तरह झुका हुआ था और मैं ये महसूस कर रहा था कि हम किसी बंद बोतल में चल फिर रहे हैं। सुकूत अपनी आख़िरी हद तक पहुंच कर मुतकल्लिम हो गया था।

बंगले के बाहर बरामदे में एक छोटी सी मेज़ पर लैम्प जल रहा था और पास ही पलंग पर इकराम साहब लेटे किसी किताब के मुताले में मसरूफ़ थे। शब्बीर ने दूर से उनकी तरफ़ देखा और दफ़अ’तन साधुओं का मख़सूस नारा-ए-मस्ताना ‘अलख निरंजन’ बलंद किया।

इस ग़ैर मुतवक़्क़े शोर ने मुझे और इकराम साहब दोनों को चौंका दिया। शब्बीर खिलखिला कर हंस पड़ा। फिर हम दोनों बरामदे में दाख़िल हो कर इकराम साहब के पास बैठ गए। मेरा मुँह सड़क की जानिब था। ऐ’न उस वक़्त जब मैंने हुक़्क़ा की नय मुँह में दबाई। मुझे सामने सड़क के ऊपर तारीकी में रोशनी की एक झलक दिखाई दी। फिर एक मुतहर्रिक साया नज़र आया और इसके बाद रोशनी एक जगह साकिन हो गई।

मैंने ख़याल किया कि शायद वज़ीर का भाई अपने कुत्ते को ढूंढ रहा है। चुनांचे उधर देखना छोड़कर मैं शब्बीर और इकराम साहब के साथ बातें करने में मशग़ूल हो गया।

दूसरे रोज़ शब्बीर के नारा बुलंद करने बाद फिर अखरोट के दरख़्त के अ’क़ब में रोशनी नुमूदार हुई और साया हरकत करता हुआ नज़र आया। तीसरे रोज़ भी ऐसा हुआ। चौथे रोज़ सुबह को मैं और शब्बीर चश्मे पर ग़ुस्ल को जा रहे थे कि ऊपर से एक कंकर गिरा, मैंने बयक-वक़्त सड़क के ऊपर झाड़ियों की तरफ़ देखा। वज़ीर सर पर पानी का घड़ा उठाए हमारी तरफ़ देख कर मुस्कुरा रही थी।

वो अपने मख़सूस अंदाज़ में हंसी और शब्बीर से कहने लगी, “क्यों जनाब, ये आप ने क्या वतीरा इख़्तियार किया है कि हर रोज़ हमारी नींद ख़राब करें।”

शब्बीर हैरतज़दा हो कर मेरी तरफ़ देखने लगा। मैं वज़ीर का मतलब समझ गया था। शब्बीर ने उस से कहा “आज आप पहेलियों में बात कर रही हैं।”

वज़ीर ने सर पर घड़े का तवाज़ुन क़ायम रखने की कोशिश करते हुए कहा, “मैं इतनी इतनी देर तक लालटेन जला कर अख़रोट के नीचे बैठी रहती हूँ और आप से इतना भी नहीं होता कि फूटे मुँह से शुक्रिया ही अदा कर दें। भला आप की जूती को क्या ग़रज़ पड़ी है... ये चौकीदारी तो मेरे ही ज़िम्मे है। आप टहलने को निकलें और इकराम साहब के बंगले में घंटों बातें करते रहें और मैं सामने लालटेन लिए ऊँघती रहूं।”

शब्बीर ने मुझसे मुख़ातिब हो कर कहा, “ये क्या कह रही हैं। भई मैं तो कुछ न समझा, ये किस धुन में अलाप रही हैं?”

मैंने शब्बीर को जवाब न दिया और वज़ीर से कहा, “हम कई दिनों से रात गए इकराम साहब के यहां आते हैं। दो-तीन मर्तबा मैंने अखरोट के पीछे तुम्हारी लालटेन देखी, पर मुझे ये मालूम नहीं था कि तुम ख़ास हमारे लिए आती हो। इसकी क्या ज़रूरत है, तुम नाहक़ अपनी नींद क्यों ख़राब करती हो?”

वज़ीर ने शब्बीर को मुख़ातिब करके कहा, “आपके दोस्त बड़े ही नाशुकरे हैं, एक तो मैं उनकी हिफ़ाज़त करूं और ऊपर से यही मुझ पर अपना एहसान जताएं। उनको अपनी जान प्यारी न हो पर...” वो कुछ कहते कहते रुक गई और बात का रुख़ यूं बदल दिया, “आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि यहां उनके बहुत दुश्मन पैदा हो गए हैं। फिर आप उन्हें क्यों नहीं समझाते कि रात को बाहर न निकला करें।”

वज़ीर को वाक़ई मेरी बहुत फ़िक्र थी। बा’ज़ औक़ात वो मुझे बिल्कुल बच्चा समझ कर मेरी हिफ़ाज़त की तदबीरें सोचा करती थी, जैसे वो ख़ुद महफ़ूज़-ओ-मामून है और मैं बहुत सी बलाओं में घिरा हुआ हूँ। मैंने उसे कभी न टोका था इसलिए कि मैं नहीं चाहता था कि उसे उस शग़ल से बाज़ रखूं जिस से वो लुत्फ़ उठाती है। उसकी और मेरी हालत बऐ’निही एक जैसी थी। हम दोनों एक ही मंज़िल की तरफ़ जाने वाले मुसाफ़िर थे जो एक लक़-ओ-दक़ सहरा में एक दूसरे से मिल गए थे। उसे मेरी ज़रूरत थी और मुझे उसकी, ताकि हमारा सफ़र अच्छी तरह कट सके। मेरा और उसका सिर्फ़ ये रिश्ता था जो किसी की समझ में नहीं आता था।

हम हर शब मुक़र्ररा वक़्त पर टहलने को निकलते। शब्बीर चोबी मकान के पास पहुंच कर शे’र गाता, फिर इकराम साहब के बंगले से कुछ दूर खड़े हो कर नारा बुलंद करता, वज़ीर लालटेन रोशन करती और उसकी रोशनी को हवा में लहरा कर एक झाड़ी के पीछे बैठ जाती। शब्बीर और इकराम साहब बातें करने में मशग़ूल हो जाते और में लालटेन की रोशनी में उस रोशनी के ज़र्रे ढूंढता रहता जिससे मेरी ज़िंदगी मुनव्वर हो सकती थी। वज़ीर झाड़ियों के पीछे बैठी न जाने क्या सोचती रहती?
 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
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सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
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7 अप्रैल 2022
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“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

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पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
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वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

20 अप्रैल 2022
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डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

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ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

20 अप्रैल 2022
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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

20 अप्रैल 2022
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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

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गर्म सूट

20 अप्रैल 2022
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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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चन्द मुकालमे

20 अप्रैल 2022
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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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गोली

20 अप्रैल 2022
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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

20 अप्रैल 2022
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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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चोरी

20 अप्रैल 2022
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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

20 अप्रैल 2022
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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

20 अप्रैल 2022
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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

20 अप्रैल 2022
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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

20 अप्रैल 2022
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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

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क़ासिम

20 अप्रैल 2022
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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

20 अप्रैल 2022
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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

20 अप्रैल 2022
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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

20 अप्रैल 2022
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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

20 अप्रैल 2022
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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

20 अप्रैल 2022
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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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