सन् 2004 के ऐतिहासिक चुनाव से पहले लिखी गयी यह पुस्तक अपनी भविष्य-दृष्टि के कारण अचरज में डाल देती है। इसमें बड़े प्रभावशाली तरीके से साबित कर दिया गया है कि भारतीय लोकतन्त्र अब अभिजनों के अभिभावकत्व का मोहताज नहीं रह गया है। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया गहन होकर अपनी निजी स्वायत्तता से सम्पन्न हो गयी है। उसकी तमाम समस्याएँ अपनी जगह हैं, पर उसने समाज के भीतर कदम जमा लिए हैं। आज जनता लोकतन्त्र कमजोर करने की मंशा रखने वालों से उसे बचाने के लिए कमर कस चुकी है। आपातकाल के बाद भी जनता ने यही करके दिखाया था, और 2004 के चुनावों में भी उन्होंने यही करके दिखाया है। गठजोड़ की राजनीति अब अस्थायी किस्म का उपाय नहीं रह गयी है। उसे अस्थिरता के दौर की शुरुआत की तरह यानी लोकतन्त्र के लिए संकट के तौर पर देखना बन्द कर दिया गया है। लोकतन्त्र की मृत्यु की भविष्यवाणी करते रहने वालों को अब उसकी चिन्ता करना छोड़ देनी चाहिए। Read more