shabd-logo

महमूदा

8 अप्रैल 2022

30 बार देखा गया 30

मुस्तक़ीम ने महमूदा को पहली मर्तबा अपनी शादी पर देखा। आरसी मसहफ़ की रस्म अदा हो रही थी कि अचानक उस को दो बड़ी बड़ी.......ग़ैर-मामूली तौर पर बड़ी आँखें दिखाई दीं.......ये महमूदा की आँखें थीं जो अभी तक कुंवारी थीं।

मुस्तक़ीम, औरतों और लड़कियों के झुरमुट में घिरा था....... महमूदा की आँखें देखने के बाद उसे क़तअन महसूस न हुआ कि आरसी मसहफ़ की रस्म कब शुरू हुई और कब ख़त्म हुई। उस की दुल्हन कैसी थी, ये बताने के लिए उस को मौक़ा दिया गया था। मगर महमूदा की आँखें उस की दुल्हन और उस के दरमयान एक साया मख़मलें पर्दे के मानिंदा हाएल हो गईं।

उस ने चोरी चोरी कई मर्तबा महमूदा की तरफ़ देखा। उस की हमउम्र लड़कियां सब चहचहा रही थी। मुस्तक़ीम से बड़े ज़ोरों पर छेड़ख़ानी हो रही थी। मगर वो अलग थलग, खिड़की के पास घुटनों पर ठोढ़ी जमाए, ख़ामोश बैठी थी।

उस का रंग गोरा था। बाल तख़्तियों पर लिखने वाली सियाही के मानिंद काले और चमकीले थे। उस ने सीधी मांग निकाल रखी थी जो इस के बैज़वी चेहरे पर बहुत सजती थी। मुस्तक़ीम का अंदाज़ा था कि उस का क़द छोटा है चुनांचे जब वो उठी तो उस की तस्दीक़ हो गई।

लिबास बहुत मामूली किस्म का था। दुपट्टा जब उस के सर से ढलका और फ़र्श तक जा पहुंचा तो मुस्तक़ीम ने देखा कि उस का सीना बहुत ठोस और मज़बूत था। भरा भरा जिस्म, तीखी नाक, चौड़ी पेशानी, छोटा सा लब-ए-दहान....... और आँखें....... जो देखने वाले को सब से पहले दिखाई देती थी।

मुस्तक़ीम अपनी दुल्हन घर ले आया। दो तीन महीने गुज़र गए। वो ख़ुश था, इस लिए कि उस की बीवी ख़ूबसूरत और बा-सलीक़ा थी....... लेकिन वो महमूदा की आँखें अभी नहीं भूल सका था। उस को ऐसा महसूस होता था कि वो उस की दिल-ओ-दिमाग़ पर मुर्तसिम हो गई हैं।

मुस्तक़ीम को महमूदा का नाम मालूम नहीं था....... एक दिन उस ने अपनी बीवी, कुलसूम से बरसबील-ए-तज़्किरा पूछा। “वो....... वो लड़की कौन थी हमारी शादी पर....... जब आरसी मसहफ़ की रस्म अदा हो रही थी, वो एक कोने में खिड़की के पास बैठी हुई थी।”

कुलसूम ने जवाब दिया। “मैं क्या कह सकती हूँ....... उस वक़्त कई लड़कियाँ थीं। मालूम नहीं आप किस के मुतअल्लिक़ पूछ रहे हैं।”

मुस्तक़ीम ने कहा। “वो....... वो जिस की ये बड़ी बड़ी आँखें थीं।”

कुलसूम समझ गई। “ओह....... आप का मतलब महमूदा से है.......हाँ, वाक़ई उस की आँखें बहुत बड़ी हैं, लेकिन बुरी नहीं लगतीं....... ग़रीब घराने की लड़की है। बहुत कमगो और शरीफ़....... कल ही उस की शादी हुई है।”

मुस्तक़ीम को ग़ैर इरादी तौर पर एक धचका सा लगा। “उस की शादी हो गई कल?”

“हाँ.......मैं कल वहीं तो गई थी....... मैं ने आप से कहा नहीं था कि मैं ने उस को एक अँगूठी दी है?”

“हाँ हाँ.......मुझे याद आ गया.......लेकिन मुझे ये मालूम नहीं था कि तुम जिस सहेली की शादी पर जा रही हो, वही लड़की है, बड़ी बड़ी आँखों वाली.......कहाँ शादी हुई है उस की?”

कुलसूम ने गिलोरी बना कर अपने ख़ावंद को देते हुए कहा। “अपने अज़ीज़ों में....... ख़ावंद उस का रेलवे वर्कशॉप में काम करता है, डेढ़ सौ रुपया माहवार तनख़्वाह है....... सुना है बेहद शरीफ़ आदमी है।”

मुस्तक़ीम ने गिलोरी किल्ले के नीचे दबाई। “चलो, अच्छा हो गया है....... लड़की भी, जैसा कि तुम कहती हो, शरीफ़ है।”

कुलसूम से न रहा। उसे तअज्जुब था कि उस का ख़ाविंद महमूदा में इतनी दिलचस्पी क्यूँ ले रहा है। “हैरत है कि आप ने उस को महज़ एक नज़र देखने पर भी याद रखा।”

मुस्तक़ीम ने कहा। “उस की आँखें कुछ ऐसी हैं कि आदमी उन्हें भूल नहीं सकता....... क्या मैं झूट कहता हूँ?”

कुलसूम दूसरा पान बना रही थी। थोड़े से वक़्फ़े के बाद वो अपने ख़ावंद से मुख़ातब हुई। “मैं उस के मुतअल्लिक़ कुछ कह नहीं सकती। मुझे तो उस की आँखों में कोई कशिश नज़र नहीं आती....... मर्द जाने किन निगाहों से देखते हैं।”

मुस्तक़ीम ने मुनासिब ख़याल किया कि इस मौज़ू पर अब मज़ीद गुफ़्तुगू नहीं होनी चाहिए। चुनांचे जवाब मुस्कुरा कर वो उठा और अपने कमरे में चला गया....... इतवार की छुट्टी थी। हसब-ए-मामूल उसे अपनी बीवी के साथ मैटिनी शो देखने जाना चाहिए था, मगर महमूदा का ज़िक्र छेड़कर उस ने अपनी तबीअत मुकद्दर कर ली थी।

उस ने आराम-कुर्सी पर लेट कर तिपाई पर से एक किताब उठाई जिसे वो दो मर्तबा पढ़ चुका था। पहला वरक़ निकाला और पढ़ने लगा, मगर हर्फ़ गड-मड हो कर महमूदा की आँखें बिन जाये। मुस्तक़ीम ने सोचा। “शायद कुलसूम ठीक कहती थी कि उसे महमूदा की आँखों में कोई कशिश नज़र नहीं आती....... हो सकता है किसी और मर्द को भी नज़र न आए।

एक सिर्फ़ मैं हूँ जिसे दिखाई दी है.......पर क्यूँ....... मैं ने ऐसा कोई इरादा नहीं किया था....... मेरी ऐसी कोई ख़्वाहिश नहीं थी कि वो मेरे लिए पुर-कशिश बन जाएं.......एक लहज़े की तो बात थी। बस मैं ने एक नज़र देखा और वो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर छा गईं। इस में न उन आँखों का क़ुसूर है, न मेरी आँखों का जिन से मैं ने उन्हें देखा था।”

इस के बाद मुस्तक़ीम ने महमूदा की शादी के मुतअल्लिक़ सोचना शुरू किया। “तो हो गई उस की शादी.......चलो अच्छा हुआ....... लेकिन दोस्त ये क्या बात है कि तुम्हारे दिल में हल्की सी टीस उठती है....... क्या तुम चाहते थे कि उस की शादी न हो.......सदा कुंवारी रहे, क्यूँ कि तुम्हारे दिल में उस से शादी करने की ख़्वाहिश तो कभी पैदा नहीं हुई, तुम ने उस के मुतअल्लिक़ कभी एक लहज़े के लिए भी नहीं सोचा, फिर जलन कैसी....... इतनी देर तुम्हें उसे देखने का कभी ख़याल न आया, पर अब तुम क्यूँ उसे देखना चाहते हो.......ब-फ़र्ज़-ए-मुहाल देख भी लो तो क्या कर लोगे, उसे उठा कर अपनी जेब में रख लोगे....... उस की बड़ी बड़ी आँखें नोच कर अपने बटवे में डाल लोगे....... बोलो-ना, क्या करोगे?”

मुस्तक़ीम के पास इस का कोई जवाब नहीं था। असल में उसे मालूम ही नहीं था कि वो क्या चाहता है। अगर कुछ चाहता भी है तो क्यूँ चाहता है।

महमूदा की शादी हो चुकी थी, और वो भी सिर्फ़ एक रोज़ पहले। यानी उस वक़्त जब कि मुस्तक़ीम किताब की वरक़ गर्दानी कर रहा था, महमूदा यक़ीनन दुल्हनों के लिबास में या तो अपने मैके या अपनी ससुराल में शर्माई लजाई बैठी थी.......वो ख़ुद शरीफ़ थी, उस का शौहर भी शरीफ़ था, रेलवे वर्कशॉप में मुलाज़िम था और डेढ़ सौ रुपये माहवार तनख़्वाह पाता था....... बड़ी ख़ुशी की बात थी। मुस्तक़ीम की दिली ख़्वाहिश थी कि वो ख़ुश रहे.......सारी उम्र ख़ुश रहे....... लेकिन उस के दिल में जाने क्यूँ एक टीस सी उठती थी और उसे बे-क़रार बना जाती थी।

मुस्तक़ीम आख़िर इस नतीजे पर पहुंचा कि ये सब बकवास है। उसे महमूदा के मुतअल्लिक़ क़तअन सोचना नहीं चाहिए....... दो बरस गुज़र गए। इस दौरान में उसे महमूदा के मुतअल्लिक़ कुछ मालूम न हुआ और न उस ने मालूम करने की कोशिश की। हालाँ कि वो और उस का ख़ावंद बंबई में डोंगरी की एक गली में रहते थे....... मुस्तक़ीम गो डोंगरी से बहुत दूर माहिम में रहता था, लेकिन अगर वो चाहता तो बड़ी आसानी से महमूदा को देख सकता था।

एक दिन कुलसूम ही ने उस से कहा। “आप की उस बड़ी बड़ी आँखों वाली महमूदा के नसीब बहुत बुरे निकले!”

चौंक कर मुस्तक़ीम ने तशवीश भरे लहजे में पूछा। “क्यों क्या हुआ?”

कुलसूम ने गिलोरी बनाते हुए कहा। “उस का ख़ावंद एक दम मौलवी हो गया है।”

“तो उस से क्या हुआ?”

“आप सुन तो लीजिए....... हर-वक़्त मज़हब की बातें करता रहता है....... लेकिन बड़ी ऊटपटांग क़िस्म की। वज़ीफ़े करता है, चिल्ले काटता है और महमूदा को मजबूर करता है कि वो भी ऐसा करे। फ़क़ीरों के पास घंटों बैठता रहता है। घर बार से बिलकुल ग़ाफ़िल हो गया है।

दाढ़ी बढ़ा ली है। हाथ में हर-वक़्त तस्बीह होती है। काम पर कभी जाता है , कभी नहीं जाता....... कई कई दिन ग़ायब रहता है....... वो बे-चारी कुढ़ती रहती है। घर में खाने को कुछ होता नहीं, इस लिए फ़ाक़े करती है। जब उस से शिकायत करती है तो आगे से जवाब ये होता है....... फ़ाक़ा-कशी अल्लाह तबारक-ओ-ताला को बहुत प्यारी है।” कुलसूम ने ये सब कुछ एक सांस में कहा।

मुस्तक़ीम ने पंदनिया में से थोड़ी सी छालीया उठा कर मुँह में डाली। “कहीं दिमाग़ तो नहीं चल गया उस का?”

कुलसूम ने कहा। “महमूदा का तो यही ख़याल है....... ख़याल क्या, उस को यक़ीन है। गले में बड़े बड़े मनक्कों वाली माला डाले फिरता है। कभी कभी सफ़ेद रंग का चोला भी पहनता है।”

मुस्तक़ीम गिलोरी लेकर अपने कमरे में चला गया और आराम कुर्सी में लेट कर सोचने लगा। “ये क्या हुआ.......ऐसा शौहर तो वबाल-ए-जान होता है....... ग़रीब किस मुसीबत में फंस गई है। मेरा ख़याल है कि पागलपन के जरासीम उस के शौहर में शुरू ही से मौजूद होंगे जो अब एक दम ज़ाहिर हुए हैं....... लेकिन सवाल ये है कि अब महमूदा क्या करेगी। उस का यहां कोई रिश्तेदार भी नहीं। कुछ शादी करने लाहौर से आए थे और वापस चले गए थे.......क्या महमूदा ने अपने वालदैन को लिखा होगा.......नहीं, उस के माँ बाप तो जैसा कि कुलसूम ने एक मर्तबा कहा था उस के बचपन ही में मर गए थे। शादी उस के चचा ने की थी। डोंगरी....... डूंगरी में शायद उस की जान पहचान का कोई हो.......नहीं, जान पहचान का कोई होता तो वो फ़ाक़े क्यूँ करती.......कुलसूम क्यूँ न उसे अपने यहां ले आए.......पागल हुए हो मुस्तक़ीम.......होश के नाख़ुन लो।”

मुस्तक़ीम ने एक बार फिर इरादा कर लिया कि वो महमूदा के मुतअल्लिक़ नहीं सोचेगा, इस लिए कि उस का कोई फ़ाएदा नहीं था, बे-कार की मग़ज़-पाशी थी।

बहुत दिनों के बाद कुलसूम ने एक रोज़ उसे बताया कि महमूदा का शौहर जिस का नाम जमील था, क़रीब क़रीब पागल हो गया है।

मुस्तक़ीम ने पूछा। “क्या मतलब?”

कुलसूम ने जवाब दिया। “मतलब ये कि अब वो रात को एक सेकेण्ड के लिए नहीं सोता। जहां खड़ा है, बस वहीं घंटों ख़ामोश खड़ा रहता है....... महमूदा ग़रीब रोती रहती है..... मैं कल उस के पास गई थी। बे-चारी को कई दिन का फ़ाक़ा था। मैं बीस रुपय दे आई क्यूँ कि मेरे पास उतने ही थे।”

मुस्तक़ीम ने कहा। “बहुत अच्छा किया तुम ने....... जब तक उस का ख़ावंद ठीक नहीं होता, कुछ ना कुछ दे आया करो ताकि ग़रीब को फ़ाक़ों की नौबत न आए।”

कुलसूम ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद अजीब-ओ-गरीब लहजे में कहा। “असल में बात कुछ और है।”

“क्या मतलब?”

“महमूदा का ख़याल है कि जमील ने महज़ एक ढ़ोंग रचा रखा है। वो पागल वागल हरगिज़ नहीं....... बात ये है कि वो....... ”

“वो किया?”

“वो.......औरत के क़ाबिल नहीं....... नुक़्स दूर करने के लिए वो फ़क़ीरों और सन्यासियों से टोने टोटके लेता रहता है।”

मुस्तक़ीम ने कहा। “ये बात तो पागल होने से ज़्यादा अफ़्सोस-नाक है....... महमूदा के लिए तो ये समझो कि इज़दवाजी ज़िंदगी एक खला बन कर रह गई है।”

मुस्तक़ीम अपने कमरे में चला गया। वो बैठ कर महमूदा की हालत-ए-ज़ार के मुतअल्लिक़ सोचने लगा। “ऐसी औरत की ज़िंदगी क्या होगी जिस का शौहर बिलकुल सिफ़र हो। कितने अरमान होंगे उस के सीने में। उस की जवानी ने कितने कपकपा देने वाले ख़्वाब देखे होंगे। उस ने अपनी सहेलियों से क्या कुछ नहीं सुना होगा....... कितनी ना-उम्मीदी हुई होगी ग़रीब को, जब उसे चारों तरफ़ ख़ला ही ख़ला नज़र आया होगा....... उस ने अपनी गोद हरी होने के मुतअल्लिक़ भी कई बार सोचा होगा....... जब डोंगरी में किसी के हाँ बच्चा पैदा होने की इत्तिला उसे मिलती होगी तो बेचारी के दिल पर एक घूँसा सा लगता होगा.......अब क्या करेगी....... ऐसा न हो ख़ुद-कशी कर ले....... दो बरस तक उस ने किसी को ये राज़ न बताया मगर उस का सीना फट पड़ा। ख़ुदा उस के हाल पर रहम करे!”

बहुत दिन गुज़र गए। मुस्तक़ीम और कुलसूम छुट्टियों में पंचगनी चले गए। वहां ढाई महीने रहे। वापस आए तो एक महीने के बाद कुलसूम के हाँ लड़का पैदा हुआ....... वो महमूदा के हाँ न जा सकी। लेकिन एक दिन उस की एक सहेली जो महमूदा को जानती थी, उस को मुबारकबाद देने के लिए आई। उस ने बातों बातों में कुलसूम से कहा। “कुछ सुना तुम ने....... वो महमूदा है ना, बड़ी बड़ी आँखों वाली!”

कुलसूम ने कहा। “हाँ हाँ....... डोंगरी में रहती है।”

“ख़ावंद की बे-पर्वाई ने ग़रीब को बुरी बातों पर मजबूर कर दिया। कुलसूम की सहेली की आवाज़ में दर्द था।”

कुलसूम ने बड़े दुख से पूछा। “कैसी बुरी बातों पर? ”

“अब उस के यहां ग़ैर मर्दों का आना जाना हो गया है।”

“झूट!” कुलसूम का दिल धक धक करने लगा।

कुलसूम की सहेली ने कहा। “नहीं कुलसूम, मैं झूट नहीं कहती....... मैं परसों उस से मिलने गई थी। दरवाज़े पर दस्तक देने ही वाली थी कि अंदर से एक नौजवान मर्द जो मैमन मालूम होता था , बाहर निकला और तेज़ी से नीचे उतर गया। मैं ने अब उस से मिलना मुनासिब न समझा और वापस चली आई।”

“ये तुम ने बहुत बुरी ख़बर सुनाई....... ख़ुदा उस को गुनाह के रास्ते से बचाए रखे....... हो सकता है वो मैमन उस के ख़ाविंद का कोई दोस्त हो।” कुलसूम ने ख़ुद को फ़रेब देते हुए कहा।

उस की सहेली मुस्कुराई। “दोस्त, चोरों की तरह दरवाज़ा खोल कर भागा नहीं करते।”

कुलसूम ने अपने ख़ावंद से बात की तो उसे बहुत दुख हुआ। वो कभी रोया नहीं था पर जब कुलसूम ने उसे ये अंदोह-नाक बात बताई कि महमूदा ने गुनाह का रास्ता इख़्तियार कर लिया है तो उस की आँखों में आँसू आ गए। इस ने उसी वक़्त तहय्या कर लिया कि महमूदा उन के यहां रहेगी, चुनांचे उस ने अपनी बीवी से कहा। “ये बड़ी ख़ौफ़-नाक बात है....... तुम ऐसा करो, अभी जाओ और महमूदा को यहां ले आओ!”

कुलसूम ने बड़े रूखेपन से कहा “मैं उसे अपने घर में नहीं रख सकती!”

“क्यूँ?” मुस्तक़ीम के लहजे में हैरत थी।

“बस, मेरी मर्ज़ी....... वो मेरे घर में क्यूँ रहे....... इस लिए कि आप को उस की आँखें पसंद हैं?” कुलसूम के बोलने का अंदाज़ बहुत ज़हरीला और तंज़िया था।

मुस्तक़ीम को बहुत ग़ुस्सा आया, मगर पी गया। कुलसूम से बहस करना बिलकुल फ़ुज़ूल था। एक सिर्फ़ यही हो सकता था कि वो कुलसूम को निकाल कर महमूदा को ले आए....... मगर वो ऐसे इक़्दाम के मुतअल्लिक़ सोच ही नहीं सकता था। मुस्तक़ीम की नियत क़तअन नेक थी। उस को ख़ुद इस का एहसास था। दरअसल उस ने किसी गंदे ज़ाविय-ए-निगाह से महमूदा को देखा ही नहीं था....... अलबत्ता उस की आँखें उस को वाक़ई पसंद थीं। इतनी कि वो बयान नहीं कर सकता था।

वो गुनाह का रास्ता इख़्तियार कर चुकी थी। अभी उस ने सिर्फ़ चंद क़दम ही उठाए थे। उस को तबाही के ग़ार से बचाया जा सकता था.......मुस्तक़ीम ने कभी नमाज़ नहीं पढ़ी थी, कभी रोज़ा नहीं रखा था, कभी ख़ैरात नहीं दी थी....... ख़ुदा ने उस को कितना अच्छा मौक़ा दिया था कि वो महमूदा को गुनाह के रस्ते पर से घसीट कर ले आए और तलाक़ वग़ैरा दिलवा कर उस की किसी और से शादी करा दे....... मगर वो ये सवाब का काम नहीं कर सकता था। इस लिए कि वो बीवी का दबैल था।

बहुत देर तक मुस्तक़ीम का ज़मीर उस को सरज़निश करता रहा। एक दो मर्तबा उस ने कोशिश कि उस की बीवी रज़ा मंद हो जाये। मगर जैसा कि मुस्तक़ीम को मालूम था, ऐसी कोशिशें ला हासिल थीं।

मुस्तक़ीम का ख़्याल था कि और कुछ नहीं तो कुलसूम, महमूदा से मिलने ज़रूर जाएगी। मगर उस को ना-उम्मीदी हुई। कुलसूम ने उस रोज़ के बाद महमूदा का नाम तक न लिया।

अब क्या हो सकता था....... मुस्तक़ीम ख़ामोश रहा।

क़रीब क़रीब दो बरस गुज़र गए। एक दिन घर से निकल कर मुस्तक़ीम ऐसे ही तफ़रीहन फुटपाथ पर चहलक़दमी कर रहा था कि उस ने कसाइयों की बिल्डिंग की ग्रांऊड फ़्लोर की खोली के बाहर, थड़े पर महमूदा की आँखों की झलक देखी। मुस्तक़ीम दो क़दम आगे निकल गया था। फ़ौरन मुड़ कर उस ने ग़ौर से देखा....... महमूदा ही थी। वही बड़ी बड़ी आँखें....... वो एक यहूदन के साथ जो उस खोली में रहती थी, बातें करने में मसरूफ़ थी।

उस यहूदन को सारा माहिम जानता था। अधेड़ उम्र की औरत थी। उस का काम अय्याश मर्दों के लिए जवान लड़कियां मुहय्या करना था। उस की अपनी दो जवान लड़कियां थीं जिन से वो पेशा करवाती थी.......मुस्तक़ीम ने जब महमूदा का चेहरा निहायत ही बेहूदा तौर पर मेकअप्प किया हुआ देखा तो वो लरज़ उठा। ज़्यादा देर तक ये अंदोह-नाक मंज़र देखने की ताब उस में नहीं थी....... वहां से फ़ौरन चल दिया।

घर पहुंच कर उस ने कुलसूम से उस वाक़िए का ज़िक्र न किया....... क्यूँ कि उस की अब ज़रूरत ही नहीं रही थी। महमूदा अब मुकम्मल इस्मत-फ़रोश औरत बन चुकी थी.......मुस्तक़ीम के सामने जब भी उस का बे-हूदा और फ़हश तौर पर मेक-अप किया हुआ चेहरा आता तो उस की आँखों में आँसू आ जाते। उस का ज़मीर उस से कहता “मुस्तक़ीम! जो कुछ तुम ने देखा है, उस का बाइस तुम हो.......क्या हुआ था अगर तुम अपनी बीवी की चंद रोज़ा नाराज़ी और ख़फ़गी बर्दाश्त कर लेते। ज़्यादा से ज़्यादा वो ग़ुस्से में आ कर अपने मैके चली जाती....... मगर महमूदा की ज़िंदगी इस गंदगी से तो बच जाती जिस में वो इस वक़्त धंसी हुई है.......क्या तुम्हारी नीय्यत नेक नहीं थी....... अगर तुम सच्चाई पर थे और सच्चाई पर रहते तो कुलसूम एक न एक दिन अपने आप ठीक हो जाती....... तुम ने बड़ा ज़ुल्म किया.......बहुत बड़ा गुनाह किया।”

मुस्तक़ीम अब क्या कर सकता था....... कुछ भी नहीं। पानी सर से गुज़र चुका था। चिड़ियाँ सारा खेत चुग गई थीं। अब कुछ नहीं हो सकता था। मरते हुए मरीज़ को दम-ए-आख़िर ऑक्सीजन सुंघाने वाली बात थी।

थोड़े दिनों के बाद बंबई की फ़िज़ा फ़िरक़ा-वाराना फ़सादाद के बाइस बड़ी ख़तरनाक हो गई। बटवारे के बाइस मुल्क के तूल-ओ-अर्ज़ में तबाही और ग़ारतगरी का बाज़ार गर्म था। लोग धड़ाधड़ हिंदूस्तान छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे। कुलसूम ने मुस्तक़ीम को मजबूर किया कि वो भी बंबई छोड़ दे..... चुनांचे जो पहला जहाज़ मिला, उस की सीटें बुक करा के मियां बीवी कराची पहुंच गए और छोटा मोटा कारोबार शुरू कर दिया।

ढाई बरस के बाद ये कारोबार तरक़्क़ी कर गया, इस लिए मुस्तक़ीम ने मुलाज़िमत का ख़याल तर्क कर दिया.......एक रोज़ शाम को दुकान से उठ कर वो टहलता टहलता सदर जा निकला....... जी चाहा कि एक पान खाए। बीस तीस क़दम के फ़ासले पर उसे एक दुकान नज़र आई जिस पर काफ़ी भीड़ थी। आगे बढ़ कर वो दुकान के पास पहुंचा....... क्या देखता है कि महमूदा पान लगा रही है। झुलसे हुए चेहरे पर उसी किस्म का फ़हश मेक-अप था। लोग उस से गंदे गंदे मज़ाक़ कर रहे थे और वो हंस रही है.......मुस्तक़ीम के होश वो हवास ग़ाएब हो गए। क़रीब था कि वहां से भाग जाये कि महमूदा ने उसे पुकारा। “इधर आओ दुल्हा मियां.......तुम्हें एक फस्ट क्लास पान खिलाएँ....... हम तुम्हारी शादी में शरीक थे!” मुस्तक़ीम बिलकुल पथरा गया।

61
रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की लोकप्रिय कहानियाँ
0.0
मंटो की लोकप्रिय कहानियाँ उतनी महत्वपूर्ण है कि मंटो ने इतने बरस पहले जो कुछ लिखा उसमें आज की हकीकत सिमटी नजर आती है मंटो की लोकप्रिय कहानियाँ उतनी महत्वपूर्ण है कि मंटो ने इतने बरस पहले जो कुछ लिखा उसमें आज की हकीकत सिमटी नजर आती है
1

शो शो

8 अप्रैल 2022
7
0
0

घर में बड़ी चहल पहल थी। तमाम कमरे लड़के लड़कियों, बच्चे बच्चियों और औरतों से भरे थे। और वो शोर बरपा हो रहा था। कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई ना देती थी। अगर उस कमरे में दो तीन बच्चे अपनी माओं से लिपटे दूध पीने क

2

सहाय

8 अप्रैल 2022
2
0
0

“ये मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुस्लमान मरे हैं...... ये कहो कि दो लाख इंसान मरे हैं...... और ये इतनी बड़ी ट्रेजडी नहीं कि दो लाख इंसान मरे हैं, ट्रेजडी अस्ल में ये है कि मारने और मरने वाले किसी

3

हरनाम कौर

8 अप्रैल 2022
0
0
0

निहाल सिंह को बहुत ही उलझन हो रही थी। स्याह-व-सफ़ैद और पत्ली मूंछों का एक गुच्छा अपने मुँह में चूसते हुए वो बराबर दो ढाई घंटे से अपने जवान बेटे बहादुर की बाबत सोच रहा था। निहाल सिंह की अधेड़ मगर तेज़

4

हामिद का बच्चा

8 अप्रैल 2022
0
0
0

लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा ना घाट का। उन्हों ने आते ही हामिद से कहा। “लो भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंद-ओ-बस्त करो।” हामिद ने कहा। “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए ह

5

सोने कि अंगूठी

8 अप्रैल 2022
1
0
0

सोने कि अंगूठी सआदत हसन मंटो “छत्ते का छत्ता होगया आप के सर पर मेरी समझ में नहीं आता कि बाल न कटवाना कहाँ का फ़ैशन है ” “फ़ैशन वेशन कुछ नहीं तुम्हें अगर बाल कटवाने पड़ें तो क़दर-ए-आफ़ियत मालूम हो जाये

6

हाफ़िज़ हुसैन दीन

8 अप्रैल 2022
0
0
0

हाफ़िज़ हुसैन दीन जो दोनों आँखों से अंधा था, ज़फ़र शाह के घर में आया। पटियाले का एक दोस्त रमज़ान अली था, जिस ने ज़फ़र शाह से उस का तआरुफ़ कराया। वो हाफ़िज़ साहिब से मिल कर बहुत मुतअस्सिर हुआ। गो उन की

7

हारता चला गया

8 अप्रैल 2022
0
0
0

लोगों को सिर्फ़ जीतने में मज़ा आता है। लेकिन उसे जीत कर हार देने में लुत्फ़ आता है। जीतने में उसे कभी इतनी दिक़्क़त महसूस नहीं हुई। लेकिन हारने में अलबत्ता उसे कई दफ़ा काफ़ी तग-ओ-दो करना पड़ी। शुरू शुर

8

अंजाम-ए-नजीर

8 अप्रैल 2022
0
0
0

बटवारे के बाद जब फ़िर्का-वाराना फ़सादात शिद्दत इख़्तियार कर गए और जगह जगह हिंदूओं और मुस्लमानों के ख़ून से ज़मीन रंगी जाने लगी तो नसीम अख़तर जो दिल्ली की नौ-ख़ेज़ तवाइफ़ थी अपनी बूढ़ी माँ से कहा “चलो माँ यहां

9

अब्जी डूडू

8 अप्रैल 2022
0
0
0

“मुझे मत सताईए....... ख़ुदा की क़सम, मैं आप से कहती हूँ, मुझे मत सताईए” “तुम बहुत ज़ुल्म कर रही हो आजकल!” “जी हाँ बहुत ज़ुल्म कर रही हूँ” “ये तो कोई जवाब नहीं” “मेरी तरफ़ से साफ़ जवाब है और ये मैं आप

10

इज़्ज़त के लिए

8 अप्रैल 2022
0
0
0

चवन्नी लाल ने अपनी मोटर साईकल स्टाल के साथ रोकी और गद्दी पर बैठे बैठे सुबह के ताज़ा अख़्बारों की सुर्ख़ियों पर नज़र डाली। साईकल रुकते ही स्टाल पर बैठे हुए दोनों मुलाज़िमों ने उसे नमस्ते कही थी। जिस का जवा

11

इफ़्शा-ए-राज़

8 अप्रैल 2022
0
0
0

“मेरी लगदी किसे न वेखी वे ते टुटदी नूँ जग जाणदा” “ये आप ने गाना क्यों शुरू कर दिया है” “हर आदमी गाता और रोता है कौनसा गुनाह किया है?” “कल आप ग़ुसल-ख़ाने में भी यही गीत गा रहे थे” “ग़ुसल-ख़ाने में तो ह

12

क़ब्ज़

8 अप्रैल 2022
0
0
0

नए लिखे हुए मुकालमे का काग़ज़ मेरे हाथ में था। ऐक्टर और डायरेक्टर कैमरे के पास सामने खड़े थे। शूटिंग में अभी कुछ देर थी। इस लिए कि स्टूडीयो के साथ वाला साबुन का कारख़ाना चल रहा था। हर रोज़ इस कारख़ाने के

13

कुत्ते की दुआ

8 अप्रैल 2022
0
0
0

“आप यक़ीन नहीं करेंगे। मगर ये वाक़िया जो मैं आप को सुनाने वाला हूँ, बिलकुल सही है।” ये कह कर शेख़ साहब ने बीड़ी सुलगाई। दो तीन ज़ोर के कश लेकर उसे फेंक दिया और अपनी दास्तान सुनाना शुरू की। शेख़ साहब के म

14

कोट पतलून

8 अप्रैल 2022
0
0
0

नाज़िम जब बांद्रा में मुंतक़िल हुआ तो उसे ख़ुशक़िसमती से किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे मिल गए। इस बिल्डिंग में जो बंबई की ज़बान में चाली कहलाती है, निचले दर्जे के लोग रहते थे। छोटी छोटी (बंबई की ज़बान

15

ख़ालिद मियां

8 अप्रैल 2022
1
0
0

मुमताज़ ने सुबह सवेरे उठ कर हसब-ए-मामूल तीनों कमरे में झाड़ू दी। कोने खद्दरों से सिगरटों के टुकड़े, माचिस की जली हुई तीलियां और इसी तरह की और चीज़ें ढूंढ ढूंढ कर निकालें। जब तीनों कमरे अच्छी तरह साफ़ होगए

16

ख़ुदकुशी

8 अप्रैल 2022
0
0
0

ज़ाहिद सिर्फ़ नाम ही का ज़ाहिद नहीं था, उस के ज़ुहद-ओ-तक़वा के सब क़ाइल थे, उस ने बीस पच्चीस बरस की उम्र में शादी की, उस ज़माने में उस के पास दस हज़ार के क़रीब रुपय थे, शादी पर पाँच हज़ार सर्फ़ हो गए, उतनी ह

17

गिलगित ख़ान

8 अप्रैल 2022
0
0
0

शहबाज़ ख़ान ने एक दिन अपने मुलाज़िम जहांगीर को जो उस के होटल में अंदर बाहर का काम करता था उस की सुस्त-रवी से तंग आकर बर-तरफ़ कर दिया। असल में वो सुस्त-रो नहीं था। इस क़दर तेज़ था कि उस की हर हरकत शहबाज़ ख़ान

18

घोगा

8 अप्रैल 2022
0
0
0

मैं जब हस्पताल में दाख़िल हुआ तो छट्ठे रोज़ मेरी हालत बहुत ग़ैर होगई। कई रोज़ तक बे-होश रहा। डाक्टर जवाब दे चुके थे लेकिन ख़ुदा ने अपना करम किया और मेरी तबीयत सँभलने लगी। इस दौरान की मुझे अक्सर बातें या

19

चुग़द

8 अप्रैल 2022
0
0
0

लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा। सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लचर

20

जानकी

8 अप्रैल 2022
0
0
0

पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पिशावर से अज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उस को या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा

21

तरक़्क़ी पसंद

8 अप्रैल 2022
0
0
0

जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शाइरों को अपने घर बुलाए और उन की दावत करे। उस का ख़याल था कि यूं उस की शौहरत और मक़बूलियत और भी ज़्

22

दीवाना शायर

8 अप्रैल 2022
0
0
0

[अगर मुक़द्दस हक़ दुनिया की मुतजस्सिस निगाहों से ओझल कर दिया जाये। तो रहमत हो उस दीवाने पर जो इंसानी दिमाग़ पर सुनहरा ख़्वाब तारी कर दे।] मैं आहों का ब्योपारी हूँ, लहू की शायरी मेरा काम है, चमन की मा

23

निक्की

8 अप्रैल 2022
0
0
0

तलाक़ लेने के बाद वो बिलकुल नचनत होगई थी। अब वो हर रोज़ की वानिता कुल कुल और मार कटाई नहीं थे। निक्की बड़े आराम-ओ-इत्मिनान से अपना गुज़र औक़ात कर रही थी। ये तलाक़ पूरे दस बरस के बाद हुई थी। निक्की का श

24

परी

8 अप्रैल 2022
0
0
0

कश्मीरी गेट दिल्ली के एक फ़्लैट में अनवर की मुलाक़ात परवेज़ से हुई। वो क़तअन मुतअस्सिर न हुआ। परवेज़ निहायत ही बेजान चीज़ थी। अनवर ने जब उस की तरफ़ देखा और उस को आदाब अर्ज़ कहा तो उस ने सोचा “ये क्या है औरत

25

पसीना

8 अप्रैल 2022
0
0
0

“मेरे अल्लाह!............... आप तो पसीने में शराबोर हो रहे हैं।” “नहीं। कोई इतना ज़्यादा तो पसीना नहीं आया।” “ठहरिए में तौलिया ले कर आऊं।” “तौलिए तो सारे धोबी के हाँ गए हुए हैं।” “तो मैं अपने दोपट्

26

पढ़े कलिमा

8 अप्रैल 2022
0
0
0

ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह...... आप मुस्लमान हैं यक़ीन करें मैं जो कुछ कहूंगा, सच्च कहूंगा। पाकिस्तान का इस मुआमले से कोई तअल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्नाह के लिए मैं जान देने के लिए तैय

27

पीरन

8 अप्रैल 2022
0
0
0

ये उस ज़माने की बात है जब मैं बेहद मुफ़लिस था। बंबई में नौ रुपये माहवार की एक खोली में रहता था जिस में पानी का नल था न बिजली। एक निहायत ही ग़लीज़ कोठड़ी थी जिस की छत पर से हज़ारहा खटमल मेरे ऊपर गिरा करते थ

28

पढ़े कलिमा

8 अप्रैल 2022
0
0
0

ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह...... आप मुस्लमान हैं यक़ीन करें मैं जो कुछ कहूंगा, सच्च कहूंगा। पाकिस्तान का इस मुआमले से कोई तअल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्नाह के लिए मैं जान देने के लिए तैय

29

फ़रिश्ता

8 अप्रैल 2022
0
0
0

सुर्ख़ खुरदरे कम्बल में अताउल्लाह ने बड़ी मुश्किल से करवट बदली और अपनी मुंदी हुई आँखें आहिस्ता आहिस्ता खोलीं। कुहरे की दबीज़ चादर में कई चीज़ें लिपटी हुई थीं जिन के सही ख़द्द-ओ-ख़ाल नज़र नहीं आते थे। एक लं

30

फाहा

8 अप्रैल 2022
0
0
0

गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

31

फुंदने

8 अप्रैल 2022
0
0
0

कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेर

32

बलवंत सिंह मजीठिया

8 अप्रैल 2022
0
0
0

शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

33

बाई बाई

8 अप्रैल 2022
0
0
0

नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थ

34

बादशाहत का ख़ात्मा

8 अप्रैल 2022
0
0
0

टेलीफ़ोन की घंटी बिजी। मनमोहन पास ही बैठा था। उस ने रीसीवर उठाया और कहा “हेलो....... फ़ौर फ़ौर फ़ौर फाईव सेवन” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई। “सोरी....... रोंग नंबर” मनमोहन ने रीसीवर रख दिया और

35

बिलाउज़

8 अप्रैल 2022
0
0
0

कुछ दिनों से मोमिन बहुत बेक़रार था। उस को ऐसा महसूस होता था कि इस का वजूद कच्चा फोड़ा सा बन गया था। काम करते वक़्त, बातें करते हुए हत्ता कि सोचने पर भी उसे एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस होता था। ऐसा दर्द

36

सरकण्डों के पीछे

8 अप्रैल 2022
0
0
0

कौन सा शहर था, इस के मुतअल्लिक़ जहां तक में समझता हूँ, आप को मालूम करने और मुझे बताने की कोई ज़रूरत नहीं ।बस इतना ही कह देना काफ़ी है कि वो जगह जो इस कहानी से मुतअल्लिक़ है, पेशावर के मुज़ाफ़ात में थी। सरहद

37

मिसिज़ गुल

8 अप्रैल 2022
1
0
0

मैंने जब उस औरत को पहली मर्तबा देखा तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने लेमूँ निचोड़ ने वाला खटका देखा है। बहुत दुबली पतली, लेकिन बला की तेज़। उस का सारा जिस्म सिवाए आँखों के इंतिहाई ग़ैर निस्वानी था। ये आँख

38

मलबे का ढेर

8 अप्रैल 2022
0
0
0

कामिनी के ब्याह को अभी एक साल भी न हुआ था कि उस का पति दिल के आरिज़े की वजह से मर गया और अपनी सारी जायदाद उस के लिए छोड़ गया। कामिनी को बहुत सदमा पहुंचा, इस लिए कि वो जवानी ही में बेवा हो गई थी। उस की

39

महमूदा

8 अप्रैल 2022
0
0
0

मुस्तक़ीम ने महमूदा को पहली मर्तबा अपनी शादी पर देखा। आरसी मसहफ़ की रस्म अदा हो रही थी कि अचानक उस को दो बड़ी बड़ी.......ग़ैर-मामूली तौर पर बड़ी आँखें दिखाई दीं.......ये महमूदा की आँखें थीं जो अभी तक कुंवार

40

मिसेज़ डी सिल्वा

8 अप्रैल 2022
1
0
0

बिलकुल आमने सामने फ़्लैट थे। हमारे फ़्लैट का नंबर तेरह था। उस के फ़्लैट का चौदह। कभी कोई सामने का दरवाज़ा खटखटाता तो मुझे यही मालूम होता कि हमारे दरवाज़े पर दस्तक होरही है। इसी ग़लतफ़हमी में जब मैंने एक

41

मेरा हमसफ़र

9 अप्रैल 2022
0
0
0

प्लेटफार्म पर शहाब, सईद और अब्बास ने एक शोर मचा रखा था। ये सब दोस्त मुझे स्टेशन पर छोड़ने के लिए आए थे, गाड़ी प्लेटफार्म को छोड़ कर आहिस्ता आहिस्ता चल रही थी कि शहाब ने बढ़ कर पाएदान पर चढ़ते हुए मुझ से

42

मेरा और उसका इंतिक़ाम

9 अप्रैल 2022
0
0
0

घर में मेरे सिवा कोई मौजूद नहीं था। पिता जी कचहरी में थे और शाम से पहले कभी घर आने के आदी न थे। माता जी लाहौर में थीं और मेरी बहन बिमला अपनी किसी सहेली के हाँ गई थी! मैं तन्हा अपने कमरे में बैठा किताब

43

वह लड़की

9 अप्रैल 2022
0
0
0

सवा-चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उस ने बालकनी में आ कर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक साया-दार दरख़्त की छांव में आलती पाल

44

वो ख़त जो पोस्ट न किये गए

9 अप्रैल 2022
0
0
0

हव्वा की एक बेटी के चंद ख़ुतूत जो उस ने फ़ुर्सत के वक़्त मुहल्ले के चंद लोगों को लिखे। मगर इन वजूह की बिना पर पोस्ट न किए गए जो इन ख़ुतूत में नुमायां नज़र आती हैं। (नाम और मुक़ाम फ़र्ज़ी हैं) पहला ख़त म

45

शादी

9 अप्रैल 2022
0
0
0

जमील को अपना शैफर लाइफ-टाइम क़लम मरम्मत के लिए देना था। उस ने टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में शैफर कंपनी का नंबर तलाश किया। फ़ोन करने से मालूम हुआ कि उन के एजेंट मैसर्ज़ डी, जे, समतोइर हैं जिन का दफ़्तर ग्रीन

46

सड़क के किनारे

9 अप्रैल 2022
0
0
0

“यही दिन थे......... आसमान उस की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है। धुला हुआ, निथरा हुआ......... और धूप भी ऐसी ही कनकनी थी......... सुहाने ख़्वाबों की तरह। मिट्टी की बॉस भी ऐसी ही थी जैसी कि इ

47

शारदा

9 अप्रैल 2022
0
0
0

नज़ीर ब्लैक मार्कीट से विस्की की बोतल लाने गया। बड़क डाकख़ाने से कुछ आगे बंदरगाह के फाटक से कुछ इधर सिगरेट वाले की दुकान से उस को स्काच मुनासिब दामों पर मिल जाती थी। जब उस ने पैंतीस रुपये अदा करके काग़

48

सिराज

9 अप्रैल 2022
0
0
0

नागपाड़ा पुलिस चौकी के उस तरफ़ जो छोटा सा बाग़ है। उस के बिलकुल सामने ईरानी के होटल के बाहर, बिजली के खंबे के साथ लग कर ढूंढ़ो खड़ा था। दिन ढले, मुक़र्ररा वक़्त पर वो यहां आ जाता और सुबह चार बजे तक अपने धंद

49

हज्ज-ए-अकबर

9 अप्रैल 2022
0
0
0

इम्तियाज़ और सग़ीर की शादी हुई तो शहर भर में धूम मच गई। आतिश बाज़ियों का रिवाज बाक़ी नहीं रहा था मगर दूल्हे के बाप ने इस पुरानी अय्याशी पर बे-दरेग़ रुपया सर्फ़ किया। जब सग़ीर ज़ेवरों से लदे फंदे सफ़ैद बुर्र

50

सजदा

9 अप्रैल 2022
0
0
0

गिलास पर बोतल झुकी तो एक दम हमीद की तबीयत पर बोझ सा पड़ गया। मलिक जो उसके सामने तीसरा पैग पी रहा था फ़ौरन ताड़ गया कि हमीद के अंदर रुहानी कश्मकश पैदा होगई है। वो हमीद को सात बरस से जानता था, और इन सात बर

51

लाइसेंस

9 अप्रैल 2022
0
0
0

अब्बू कोचवान बड़ा छैल छबीला था। उस का ताँगा घोड़ा भी शहर में नंबर वन था। कभी मामूली सवारी नहीं बिठाता था। उस के लगे बंधे गाहक थे जिन से उस को रोज़ाना दस पंद्रह रुपय वसूल हो जाते थे जो अब्बू के लिए काफ़ी थ

52

हाफ़िज़ हुसैन दीन

9 अप्रैल 2022
0
0
0

हाफ़िज़ हुसैन दीन जो दोनों आँखों से अंधा था, ज़फ़र शाह के घर में आया। पटियाले का एक दोस्त रमज़ान अली था, जिस ने ज़फ़र शाह से उस का तआरुफ़ कराया। वो हाफ़िज़ साहिब से मिल कर बहुत मुतअस्सिर हुआ। गो उन की

53

संतर पंच

9 अप्रैल 2022
0
0
0

मैं लाहौर के एक स्टूडियो में मुलाज़िम हुआ जिस का मालिक मेरा बंबई का दोस्त था उस ने मेरा इस्तिक़बाल क्या मैं उस की गाड़ी में स्टूडियो पहुंचा था बग़लगीर होने के बाद उस ने अपनी शराफ़त भरी मोंछों को जो ग़ालिबन

54

शैदा

9 अप्रैल 2022
0
0
0

शैदे के मुतअल्लिक़ अमृतसर में ये मशहूर था कि वो चट्टान से भी टक्कर ले सकता है उस में बला की फुर्ती और ताक़त थी गो तन-ओ-तोश के लिहाज़ से वो एक कमज़ोर इंसान दिखाई देता था लेकिन अमृतसर के सारे गुंडे उस से ख़ौ

55

राम खेलावन

9 अप्रैल 2022
0
0
0

खटमल मारने के बाद में ट्रंक में पुराने काग़ज़ात देख रहा था कि सईद भाई जान की तस्वीर मिल गई। मेज़ पर एक ख़ाली फ़्रेम पड़ा था....... मैंने इस तस्वीर से उस को पुर कर दिया और कुर्सी पर बैठ कर धोबी का इंतिज़ार

56

रहमत-ए-खुदा-वंदी के फूल

9 अप्रैल 2022
0
0
0

ज़मींदार, अख़बार में जब डाक्टर राथर पर रहमत-ए-ख़ुदा-वंदी के फूल बरसते थे तो यार दोस्तों ने ग़ुलाम रसूल का नाम डाक्टर राथर रख दिया। मालूम नहीं क्यूँ, इस लिए कि ग़ुलाम रसूल को डाक्टर राथर से कोई निसबत नह

57

मिस फ़र्या

9 अप्रैल 2022
0
0
0

शादी के एक महीने बाद सुहेल परेशान होगया। उस की रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो गया। उस का ख़याल था कि बच्चा कम अज़ कम तीन साल के बाद पैदा होगा मगर अब एक दम ये मालूम करके उस के पांव तले की ज़मीन निक

58

मिस अडना जैक्सन

9 अप्रैल 2022
0
0
0

कॉलिज की पुरानी प्रिंसिपल के तबादले का एलान हुआ, तालिबात ने बड़ा शोर मचाया। वो नहीं चाहती थीं कि उन की महबूब प्रिंसिपल उन के कॉलेज से कहीं और चली जाये। बड़ा एहतिजाज हुआ। यहाँ तक कि चंद लड़कियों ने भूक हड़

59

बुड्ढ़ा खूसट

9 अप्रैल 2022
0
0
0

ये जंग-ए-अज़ीम के ख़ातमे के बाद की बात है जब मेरा अज़ीज़ तरीन दोस्त लैफ़्टीनैंट कर्नल मोहम्मद सलीम शेख़ (अब) ईरान इराक़ और दूसरे महाज़ों से होता हुआ बमबई पहुंचा। उस को अच्छी तरह मालूम था, मेरा फ़्लैट कहाँ ह

60

शह नशीं पर

9 अप्रैल 2022
0
0
0

वो सफ़ैद सलमा लगी साड़ी में शह-नशीन पर आई और ऐसा मालूम हुआ कि किसी ने नक़रई तारों वाला अनार छोड़ दिया है। साड़ी के थिरकते हूए रेशमी कपड़े पर जब जगह जगह सलमा का काम टिमटिमाने लगता तो मुझे जिस्म पर वो तमाम

61

चुग़द

9 अप्रैल 2022
2
0
0

लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा। सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लचर

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए