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मन्दिर और राजभवन

22 फरवरी 2022

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मन्दिर है उपासना का स्थल, जहाँ मनुष्य अपने–आपको ढूँढ़ता है।

राजभवन है दंड–विधान का आवास, जहाँ मनुष्यों को शान्त रहने का पाठ पढ़ाया जाता है।

मन्दिर कहता है–आओ, हमारी गोद में आते समय आवरण की क्या आवश्यकता? पारस और लोहे के बीच कागज का एक टुकड़ा भी नहीं रहना चाहिएय अन्यथा लोहा लोहा ही रह जाएगा।

और राजभवन कहता है–हम और तुम समान नहीं हैं। हम प्रताप की पोशाक पहने हुए हैंय तुम अधीनता की चादर लपेटे आओय क्योंकि हम शासक हैं और तुम शासित। हम तुम्हें गोद में नहीं बिठा सकते, अधिक–से–अधिक अपनी कुर्सी के पास स्थान दे सकते हैं।

मन्दिर कहता है–लोग संसार में लिप्त हैंय वासना के रोगों से पीड़ित हैंय हम उन्हें संसार से विरक्त करेंगे जिससे दंड–विधान की जरूरत ही नहीं रह जाए।

राजभवन कहता है–लोग संसार में अनुरक्त हैं। और जब तक वे अनुरक्त हैं, तब तक उन पर पहरा देने के लिए एक सत्ता की जरूरत है। वह सत्ता हम हैं।

मन्दिर कहता है, हम मनुष्यों को सुधारेंगे।

राजभवन कहता है, हम मनुष्यों पर शासन करेंगे।

गांधी जी अहिंसा सिखाते–सिखाते स्वयं हिंसा के शिकार हो गए। मन्दिर गिर गया और राजभवन का दंड–विधान अपनी जन्मपत्री में अपना भविष्य देख रहा है।

गांधी जी की मृत्यु के साथ संसार की एक पुरातन समस्या, मनुष्य–जाति का एक प्राचीन प्रश्न फिर अपनी विकरालता के साथ हमारे सामने आया है।

संतों, अवतारों और भविष्य को देखनेवालों की दृष्टि कानून बनानेवालों, शासकों और राजपुरुषों के कार्यों से किस प्रकार सम्बद्ध है? दोनों के बीच कौन–सा नाता है? जो मनुष्य के स्वभाव पर पहरा देते हैं, क्या उनकी आत्मा का मेल उन लोगों से कभी नहीं बैठेगा, जो मनुष्य के स्वभाव को बदलने के लिए आया करते हैं? मन्दिर की स्थापना क्या राजभवन में नहीं ही होगी? अथवा राजभवन क्या मन्दिर में कभी भी नहीं समाएगा?

मन्दिर और राजभवन के बीच कोई प्रच्छन्न संघर्ष है जो बहुत दिनों से चल रहा है और जिसका कोई–न–कोई हल निकालना ही होगाय क्योंकि मनुष्य को बदलना भी जरूरी है और उसे अनुशासन के भीतर रखना भी आवश्यक है।

जो कानून बनाते हैं, जो शासन करते हैं, उनका दृष्टिकोण वर्तमान से सम्बद्ध रहता है। उनके कार्यों की भूमि ही वर्तमान काल है। मनुष्य अभी जैसा है, उसके सम्बन्ध में उनकी जैसी धारणा है, अपनी भावना, इच्छा और प्रवृत्तियों से शासक उसे जैसा समझते हैं, उसके साथ वैसा ही व्यवहार भी करते हैं। वे अदृश्य में प्रवेश नहीं कर सकते। उनके सामने मनुष्य का जो निश्चित, स्थूल रूप है और जिसे वे आसानी से समझ सकते हैं, वही उनके अंकुश का लक्ष्य होता है।

इसके विपरीत, जो नबी और अवतार हैं, जो भविष्य–द्रष्टा, सुधारक और संत हैं, वे मनुष्य के उसी रूप को नहीं देखते, जो उसका वर्तमान रूप है, वरन् उनकी दृष्टि मनुष्य के भीतर छिपी हुई सम्भावनाओं पर भी जाती है। भ्रमों और मलों का केंचुल उतार फेंकने पर मनुष्य कितना नवीन और मोहक हो सकता है, यह उनकी सहानुभूति के फैलने का कारण हो जाता है। नबी और अवतार उन अनुभूतियों को जगाना चाहते हैं जो अभी इनसानों को मिल नहीं सकी हैं। जो हाथ से दूर है, जो तुरत पकड़ में नहीं आ सकता, जो अदृश्य और अनुपलब्ध है, भविष्य को देखनेवाले संत उसे ही समीप लाना चाहते हैं और उसे समीप लाने के प्रयास में वे जो कुछ करते या बोलते हैं, वह साधारण मनुष्य की समझ में ठीक से नहीं आता। रहस्यवादियों की वाणी धुँधली और क्रिया आलोचना से परे होती है, जैसीकि बापू की थी। और इतर मनुष्य इस क्रिया और इस वाणी के सामने किंकर्तव्यविमूढ़–से खड़े रहते हैं।

राजमहल चाहता है कि प्रतिरोध और प्रताप, सम्पत्ति, शक्ति और विशालता। हम कुबेर हैं, हम सूर्य हैं, हम अर्जुन और भीम हैं, हम दहकते हुए अंगारे हैं और जो कोई हमारा स्पर्श करेगा, वह जल जाएगा। भला कौन कह सकता है कि राजमहल के उद्देश्य हीन हैं?

मगर मन्दिर सिखाता है अनवरोधय मन्दिर सिखाता है विनयशीलताय मन्दिर सिखाता है अपरिग्रह, दीनता और ब्रह्मचर्य।

शंकालु कहते हैं–ब्रह्मचर्य के अखंड पालन से मनुष्य–जाति समाप्त हो जाएगी।

अपरिग्रह और दीनता की प्रशंसा करते–करते हम ऐसी विपत्तियों में पड़ जाएँगे, जिनसे निस्तार पाना कठिन होगा।

विनयशीलता और अनवरोध को अगर हमने अपना जीवन–सिद्धान्त बनाया तो इसका परिणाम तो जघन्य शक्तियों की विजय और विकास ही होगा।

तब क्या संतों, नबियों, अवतारों और सुधारकों ने इस अत्यन्त स्पष्ट सत्य को ही नहीं समझा और आँख मूँदकर अपने प्रभाव में आए हुए मानव–समुदाय को आत्मघात करने की शिक्षा दे दी?

हम नहीं मानते कि एक मोटी बात जो सबकी समझ में आती है, सिर्फ संतों की ही समझ में नहीं आई। और न हम यही मानते हैं कि नबियों ने हमसे यह आग्रह किया है कि जो कुछ मैं कहता हूँ, तुम उसे अपने आचरण का कठोर नियम बना लो।

जब बापू चान्दपुर (नोआखाली) गए, उनसे कुछ बंगाली नवयुवकों ने वहाँ की विपत्ति की कहानियाँ सुनाईं और कहा कि आप जो अहिंसा सिखाते हैं, वह यहाँ एकदम असफल होगी। कोई युवती जीभ काटकर मर जाए या जहर खा ले, इससे दूसरी युवती का सतीत्व नहीं बच सकता और न अनुनय, विनय और अहिंसा तथा प्रेम का साँपों और भेड़ियों पर कोई प्रभाव ही पड़ता है।

राजमहल ने समझा था कि मन्दिर पराजित और निरुत्तर हो जाएगा। मगर मन्दिर निरुत्तर कैसे हो? जो भविष्य को देखता और समझता है, वह क्या वर्तमान को ही नहीं समझ सकता?

हठ और जिद तो अधकचरे दिमाग के लक्षण हैं। सत्य को खोजनेवाला पुरुष तो बराबर यही सोचता है कि सम्भव है, किसी बात में मैं ही गलत और दूसरे लोग ही ठीक हों! जब हम सत्य की ओर बढ़नेवाली सीधी राह पर आ जाते हैं, तब हमारी भावना उदार हो जाती है और हम किसी बात पर जिद नहीं करते। 1942 में गांधी जी ने लुई फिशर से कहा था कि ‘मैं, प्रधानत:, समझौतों में विश्वास करनेवाला जीव हूँय क्योंकि मुझे कभी भी यकीन नहीं रहता कि जो कुछ मैं कर रहा हूँ, वह ठीक ही है।’

किसी समय चटगाँव के शस्त्रागार पर छापा मारनेवाले नोआखाली के इन नौजवानों से बापू ने कहा, ‘मैं यह हठ करने के लिए नहीं आया हूँ कि तुम उसी वीरता का प्रयोग करो, जिसका मैं अभ्यासी हूँ, तुम परम्परागत वीरता से भी काम ले सकते हो। किन्तु स्मरण रहे कि मैं चटगाँव के शस्त्रागार पर छापा मारनेवालों के बीच हथियार बाँटने को यहाँ नहीं आया हूँ।’

मन्दिर हठ नहीं करता। मन्दिर यह नहीं कहता कि मेरी तमाम लकीरें तुम्हारे जीवन की पगडंडियाँ हैं और उन्हें छोड़कर तुम्हें और कहीं नहीं जाना चाहिए। ये तो रोशनी की छोटी–बड़ी शलाकाएँ हैं जिन्हें लेकर हमें जीवन के मर्म को समझना है।

ज्ञान और साधना के चरम शिखर पर बैठा हुआ संत यह नहीं कहता कि मैं तुम्हारे दैनिक जीवन के क्षण–क्षण के आचरणों के नियम बोलता हूँ, वरन यह कि मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सोच–समझकर तुम यह निश्चय करो कि जीवन के ये कौन–से उद्देश्य हैं, कौन–सी दिशाएँ हैं, जिनके प्रति तुम्हें वफादार रहना चाहिए?

संत कहते हैं कि तुम्हारे जिम्मे जिसका जो पावना है, उसे वह अदा कर दोय किन्तु अपनी अन्तिम भक्ति और आखिरी वफादारी उसके चरणों में अर्पित मत करो।

और अब नबियों की धुँधली वाणी के भेद हम पर खुल सकते हैं कि :

विनयशीलता का अर्थ इतना ही है कि दलीलों की घाटियों से होते हुए जब तुम विश्वास की चोटी पर जा पहुँचो, तब भी दुराग्रही मत बनो। तब भी तुम एक प्रकार के विरल संशय को अपने आसपास मँडराते रहने दो कि मुमकिन है कि दूसरी चोटियाँ भी ठीक हों।

अपरिग्रह का आशय इतना ही है कि अधिकार के मद में मत भूलो। समृद्धि, सुयश और सम्मान के बीच भी विराग ही तुम्हारी सबसे बड़ी शोभा है।

और अनवरोध का तात्पर्य यह है कि दुनिया में खड्गहस्त लोगों के बीच जो स्पर्धा और द्वन्द्व मचा हुआ है, हिंसा की जो भीषण घुड़दौड़ चल रही है, उसके अग्रगणी तुम मत बनो।

('अर्धनारीश्वर' पुस्तक से) 

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