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मुक्तक

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"मुक्तक"सु-लोहड़ी खिचड़ी गई, अब शुभ प्रयाग स्नान।गंगा जी के धाम में, बिन आधार न दान।बिनु कोरोना जाँच के, सुखी न संगम द्वार-रोज सभाएँ हो रहीं, धरना धर्म किसान।।-1बंधन हिंदू धर्म पर, लगता है चहुँ ओर।बिनु मुर्गे की बाग के, कहाँ द्वार पर भोर।पौराणिक मेला स्वयं, भरता है प्रति वर्ष-अब संगम भय खा रहा, कोरोना

गणतंत्र दिवस पर वीर सपूतों को सादर नमन, जय हिंद, जय माँ भारती......! "चौपाई मुक्तक "उड़ता हुआ भारती झंडा, भागा चीन देखकर डंडा। बहुत दिनों के बाद मिले तुम, सुन ले घटिया तेरा पंडा। वीर हमारे कुल के थाती, बच के रहना री उतपाती-मारेंगे रोने ना देंगे, फूटा चीन तुम्हारा भंडा।। महातम मिश्र 'गौतम' गोरखपुरी

सुलगते आग को मै इश्क़ बता देता हूँइस तरह लफ्ज़ों का मै जाल बना देता हूँजो मेरे इश्क में पतंगों से जल गये यारोंउन्ही को आज से आशिक करार देता हूँ ©®डॉ नरेन्द्र कुमार पटेल

मरीजों सा हुआ है अब, हमारा हाल कुछ ऐसा ।सुने हर बात दिल की जो, हमारा यार है ऐसा ।।गयी क्यों फेर के नजरें, ज़माने के बहाने से ।इशारो में दिया उसने, मुझे पैगाम कुछ ऐसा ।।

हिंदी दिवस की हार्दिक बधाई ( "हिंदी है पहचान हमारी" शब्द साधना सबसे न्यारी" "मुक्तक"हिंदी ही पहचान है, हिंदी ही अभिमान।कई सहेली बोलियाँ, मिलजुल करती गान।राग पंथ कितने यहाँ, फिर भी भारत एक-एक सूत्र मनके कई, हिंदी हुनर महान।।-1एक वृक्ष है बाग का, डाल डाल फलदार।एक शब्द है ब्रम्ह का, पढ़ न सका संसार।पूज

"मुक्तक"राखी में इसबार प्रिय, नहीं गलेगी दाल।जाऊँगी मयके सजन, लेकर राखी लाल।बना रखी हूँ राखियाँ, वीरों से है प्यार-चाल चीन की पातकी, फुला रहा है गाल।।सीमा पर भाई खड़े, घर में मातर धाम।वर्षा ऋतु राखी लिए, बुला रही ले नाम।भैया अपने हाथ से, बाँध रही हूँ स्नेह-क्या कर लेगा चाइना, कर दो काम तमाम।।महातम मि

"मुक्तक"चलो अब जा मिलें उनसे जो यादों में विचरते हैं।कभी अपने रहें होंगे तभी दर पर भटकते हैं।सुना है वक्त अपने आप भर देता है जख्मों को-मगर निशान हैं अपने जो उड़ उड़ कर दहकते हैं।।गर्वित है यह दिन सखे, गर्वित है यह रात।इसी निशा के गर्भ में, थी स्वतंत्र सौगात।पंद्रह को लाली खिली, माह अगस्त विराट-नमन सपू

"मुक्तक"बादल वर्षा ले गया, हर्षित लाली व्योम।रविकर की अद्भुत छटा, चिपका तन में रोम।हरियाली गदगद हुई, आयी भाद्री तीज-राधे चित मुस्कान मुख, ऋतु अनुलोम विलोम।।सजनी साजन के लिए, है निर्जल उपवास।प्यास लगी मन जोर की, पति पूजा है खास।बिन साजन पावस कहाँ, पत्नी बिनु कहँ चैन-माँ भारत की गोंद में, व्रत सुखकर अ

"मुक्तक"आज गर्मी ने किया बेहाल है।रे कोरोना अब तेरा क्या हाल है।घूम आया विश्व में कुंहराम कर-देख भारत में रुकी वह चाल है।।सिर झुका कर जा जहाँ से आया था।रे कोरोना जा जहाँ तू जाया था।आदमी को आश्रय देता भारत है-चीन बौना है तुझे भरमाया था।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

"मुक्तकसुनते रहिये गीत गायकी अपने अपने घर में।धोते रहिए हाथ हमेशा साबुन अपने घर में।आना जाना छोड़ कहीं भी धीरज के संग रहिए-पानी गरम गला तर रखिए हँसिए अपने घर में।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

मुक्तक जी करता है जी भर नाचूँ, जीवन में झनकार लिए।सारे गुण की भरी गागरी, हर पन का फनकार लिए।सभी वाद्य बजने को आतुर, आए कोई वादक तो-शहनाई वीणा औ डमरू, सुरभित स्वर संसार लिए।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुर

"मुक्तक" बहुत दिनों के बाद मिला है बच्चों ऐसा मौका।होली में हुडदंग नहीं है नहीं सचिन का चौका।मोबाइल में मस्त हैं सारे राग फाग फगुहारे-ढोलक और मंजीरा तरसे तरसे पायल झुमका।।पिचकारी में रंग नहीं है नहीं अबीर गुलाला।मलो न मुख पर रोग करोना दूर करो विष प्याला।चीन हीन का नया खिलौना है मानव का वैरी-बंदकरो ज

"मुक्तक"व्यंग ढंग का हो अगर, तो करता बहुमान।कहने को यह बात है, पर करता पहचान।भागे भागे क्यों फिरे, अपने घर से आप-और दुहाई दे रहे, मान मुझे मेहमान।।बनी बनाई रोटियाँ, खाता आया पाक।अब क्या तोड़ेगा सखे, लकड़ी जल भइ खाक।जाति-पाति के नाम पर, चला रहा है राज-कहाँ अन्य को दे दिया, अपने जैसी धाक।।महातम मिश्र, ग

"मुक्तक"व्यंग ढंग का हो अगर, तो करता बहुमान।कहने को यह बात है, पर करता पहचान।भागे भागे क्यों फिरे, अपने घर से आप-और दुहाई दे रहे, मान मुझे मेहमान।।बनी बनाई रोटियाँ, खाता आया पाक।अब क्या तोड़ेगा सखे, लकड़ी जल भइ खाक।जाति-पाति के नाम पर, चला रहा है राज-कहाँ अन्य को दे दिया, अपने जैसी धाक।।महातम मिश्र, ग

"मुक्तक" नया सवेरा हो रहा, फिर क्यों मूर्छित फूल।कुछ रहस्य इसमें छुपा, मत करना फिर भूल।बासी खाना देखकर, क्यों ललचायें जीव-बुझ जाएगी चाँदनी, शूल समाहित मूल।।नित नव राह दिखा रहे, कुंठा में हैं लोग।बिना कर्म के चाहते, मिल जाए मन भोग।सही बात पर चीखते, झूठों के सरदार-समझ न आए नियम तो, कर लें थोड़ा योग।।मह

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"साहिल"साहिल बहुत है दूरकिश्ती डगमगा रही हैबालू का आशियाना,हवा धमका रही हैडॉ. कवि कुमार निर्मल

"मुक्तक"नहीं किनारे नाव है, नहीं हाथ पतवार।सूख रहा जल का सतह, नहीं उदधि में धार।नयन हुए निर्लज्ज जब, मन के भाव कुभाव-स्वारथ की नव प्रीति है, नहीं हृदय में प्यार।।1जल प्रवाह में कट रहे, वर्षों खड़े कगार।आर-पार नौका चली, तट पर भीड़ अपार।कैसा खेवनहार यह, नई नवेली नाव-डर लगता है री सखी, है साजन उस पार।।-2

"मुक्तक" भाग्य बिना होते नहीं, साजन कोई कर्म।कर्म कीजिये लगन से, यही भाग्य का मर्म।क्या छोटा क्या है बड़ा, दें रोजी को मान-लग जाओ प्रिय जान से, इसमें कैसी शर्म।।सब नसीब का खेल है, चढ़ता पंगु पहाड़।पत्थर जैसा फल लिए, खड़े डगर पर ताड़।न छाया नहीं रस मधुर, न लकड़ी नहीं दाम-नशा लिए बहका रहा, पीते हैं सब माड़।।

"मुक्तक"बहुत अरमान था दिल में कि इक दिलदार मिल जाए।मेरे इस बाग में भी फूल इक गुच्छदार खिल जाए।समय की डोर पकड़े चल रहा था ढूढ़ता मंजिल-मिला दो दिल सनम ऐसे कि पथ पतवार हिल जाए।।बहुत अहसान होगा आप का मान मिल जाए।तरस नयनों की मिट जाए परत पहचान मिल जाए।गिरी बूँदें जमी पर आँसुओं को पी नहीं सकते-अगर गुरबत न

'मुक्तक चार पंक्तियाँ भार सम,मुक्तक का सिद्धांत lपंक्ति तृतीयं मुक्तता , तजि सामंत पदांत llव्यंग्य और वक्रोक्ति में , साधें शेर सदृश्य lपंक्ति तृतीयं सार है , निष्कर्षं परिदृश्य llराजकिशोर मिश्र राज प्रतापगढ़ी

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