[कूफ़ा का वक्त। कूफ़ा का एक गांव। नसीमा खजूर के बाग में जमीन पर बैठी हुई गाती है।]
गीत
दबे हुओं को दबाती है ऐ जमीने-लहद,
यह जानती है कि दम जिस्म नातवां में नहीं।
क़फस में जी नहीं लगता है आह! फिर भी मेरा,
यह जानता हूं कि तिनका भी आशियां में नहीं।
उजाड़ दे कोई या फूंक दे उसे बिजली,
यह जानता हूं कि रहना अब आशियां में नहीं।
खुदा अपने दिल से मेरा हाल पूछा लो सारा,
मेरी जवां से मजा मेरी दास्तां में नहीं।
करेंगे आज से हम जब्त, चाहे जो कुछ नहीं।
यह क्या कि लब पै फुगां और असर फुगां में नहीं।
खयाल करके खुदा अपनी किए को रोता हूं,
तबाहियों के सिवा कुछ मेरे मकां में नहीं।
[वहब का प्रवेश]
नसीमा– बड़ी देर की। अकेले बैठे-बैठे जी उकता गया। कुछ उन लोगों की खबर मिली?
वहब– हां नसीमा, मिली। तभी तो देर हुई। तुम्हारा खयाल सही निकला। हज़रत हुसैन के साथ है।
नसीम– क्या हज़रत-हुसैन की फौज़ आ गई?
वहब– कैसी फौज़? कुल बूढ़े, जवान और बच्चे मिलाकर ७२ आदमी हैं। दस-पांच आदमी कूफ़ा से भी आ गए हैं। कर्बला के बेपनाह मैदान में उनके खेमे पड़े हैं। जालिम जियाद ने बीस-पच्चीस हजार आदमियों से उन्हें घेर रखा है। न कहीं जाने देता है, न कोई बात मानता है, यहां तक कि दरिया से पानी भी नहीं लेने देता। पांच हजार जवान दरिया की हिफा़जत के लिये तैनात कर दिए हैं। शायद कल तक जंग शुरू हो जाये।
नसीमा– मुट्ठी-भर आदमियों के लिये २०-२५ हजार सिपाही! कितनी ग़जब! ऐसा गुस्सा आता है, जिया को पाऊं, तो सिर कुचल दूं।
वहब– बस, उसकी यही जिद है कि यजीद की बैयत कबूल करो। हजरत हुसैन कहते हैं, यह मुझसे न होगा।
नसीमा– हजरत हुसैन नबी के बेटे है, कौल पर जान देते हैं। मैं होती तो जियाद को ऐसा जुल देती कि वह भी याद करता। कहती– हां, मुझे बैयत कबूल है। वहां से आकर बड़ी फ़ौज जमा करती, और यजीद के दांत खट्टे कर देती। रसूल पाक को शरआ मैं ऐसी आफ़तों के मौके के लिये कुछ रियासत रखनी चाहिए थी। तो हजरत की फौज़ में बड़ी घबराहट फैली होगी?
वहब– मुतलक नहीं नसीमा। सब लोग शहादत के शौक में मतवाले हो रहे हैं। सबसे ज्यादा तकलीफ पानी की है। जरा-जरा से बच्चे प्यासे तड़प रहे हैं।
नसीमा– आह जालिम! तुझसे खुदा समझे।
वहब– नसीमा, मुझे रुखसत करो। अब दिल नहीं मानता, मैं भी हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार होने जाता हूं। आओ, गले मिल ले। शायद फिर मुलाकात न हो।
नसीमा– हाय वहब! क्या मुझे छोड़ जाओगे। मैं भी चलूंगी।
वहब– नहीं नसीमा, उस लू के झोंको में यह फूल मुरझा जायेगा। (नसीमा को गले लगाकर) फिर दिल कमजोर हुआ जाता है। सारी राह कंबख्त को समझाता आया था। नसीमा, तुम मुझे दुत्कार दो। खुदा, तूने मुहब्बत को नाहक पैदा किया।
नसीमा– रोकर वहब, फूल किस काम आएगा। कौन इसको सूंघेगा, कौन इसे दिल से लगाएगा? मैं भी हजरत जैनब के क़दमों पर निसार हूंगी।
वहब– वह प्यास की शिद्दत, वह गरमी की तकलीफ, वह हंगामे, कैसे ले जाऊं?
नसीमा– जिन तकलीफों को सैदानियां झेल सकती है, क्या मैं न झेल सकूंगी? हीले मत करो वहब, मैं तुम्हें तनहा न जाने दूंगी।
वहब– नसीमा, तुम्हें निगाहों से देखते हुए मेरे कदम मैदान की तरफ न उठेंगे।
नसीमा– (वहब के कंधे पर सिर रखकर) प्यारे! क्यों किसी ऐसी जगह नहीं चलते, जहां एक गोशे में बैठकर इस जिंदगी का लुप्त उठाएं। तुम चले जाओगे, खुदा न ख्वास्ता दुश्मनों को कुछ हो गया, तो मेरी जिन्दगी रोते ही गुजरेगी। क्या हमारी जिंदगी रोने ही के लिये है? मेरा दिल अभी दुनिया की लज्जतों का भूखा है। जन्नत की खुशियों की उम्मीद पर इस जिंदगी को कुर्बान नहीं करते बनता। हज़रत हुसैन की फतह तो होने से रही। पच्चीस हज़ार के सामने जैसे सौ, वैसे ही एक सौ एक।
वहब– आह नसीमा। तुमने दिल के सबसे नाजुक हिस्से पर निशाना मारा। मेरी यही दिली तमन्ना है कि हम किसी आफ़ियत के गोशे में बैठकर जिंदगी की बहार लूटें। पर जालिम की यह बेदर्दी देखकर खून में जोश आ जाता है, और दिल बेअख्तियार यही चाहता है कि चलकर हजरत हुसैन की हिमायत में शहीद हो जाऊं। जो आदमी अपनी आंखों से जुल्म होते देखकर जालिम का हाथ नहीं रोकता, वह भी खुदा की निगाहों में जालिम का शरीक है।
नसीमा– मैं अपनी आंखें तुम पर सदके करूं, मुझे अजाब व सवाब के मुखमसों में मत डालो। सोचो, क्या यह सितम नहीं है कि हमारी जिंदगी की बहार इतनी जल्द रुखसत हो जाये? अभी मेरे उरूसी कपड़े भी नहीं मैले हुए, हिना का रंग भी नहीं फीका पड़ा, तुम्हें मुझ पर जरा भी तर्स नहीं आता? क्या ये आंखें रोने के लिये बनाई गई हैं? क्या ये हाथ दिल को दबाने के लिये बनाए गए हैं? यही मेरी जिंदगी का अंजाम है?
[वहब के गले में हाथ डाल देती है।]
वहब– (स्वगत) खुदा संभालियों, अब तेरा ही भरोसा है। यह आशिक की दिल बहलानेवाली इल्तजा नहीं मालूम का ईमान ग़ारत करने वाला तकाजा है।
[साहसराय की सेना सामने से चली आ रही है।]
नसीमा– अरे! यह फौज कहां से आ रही है? सिपाहियों का ऐसा अनोखा लिबास तो कहीं नहीं देखा। इनके माथों पर ये लाल-लाल बेल-बूटे कैसे बने हैं? कसम है इन आंखों की, ऐसे सजीले, कसे हसीन जवान आज तक मेरी नजर से नहीं गुजरे।
वहब– मैं जाकर पूछता हूं, कौन लोग है। (आगे बढ़कर एक सिपाही से पूछता है) ऐ जवानों! तुम फरिश्ते हो या इंसान? अरब में तो हमने आदमी नहीं देखे। तुम्हारें चेहरों से जलाल बरस रहा है। इधर कहां जा रहे हो?
सिपाही– तुमने सुलतान साहसराय का नाम सुना है। हम उन्हीं के सेवक हैं, और हजरत हुसैन की सहायता करने जा रहे हैं, जो इस वक्त कर्बला के मैदान में घिरे हुए हैं। तुमने यजीद की बैयत ली है या नहीं?
वहब– मैं उस जालिम की बैयत क्यों कबूल करने लगा था।
सिपाही– तो आश्चर्य है कि तुम हज़रत हुसैन की फौज में क्यों नहीं हो। तुम सूरत से मनचले जवान मालूम होते हो, फिर यह कायरता कैसी?
वहब– (शरमाते हुए) हम वहीं जा रहे हैं।
सिपाही– तो फिर आओ, साथ चले।
वहब– मेरे साथ मस्तूरात भी हैं। तुम लोग बढ़ो, हम भी आते हैं।
[फ़ौज चली जाती है।]
नसीमा– यह साहसराय कौन है?
वहब– यह तो नहीं कह सकता, पर इतना कह सकता हूं कि ऐसा हक़परस्त दिलेर, इंसान पर निसार होने वाला आदमी दुनिया में न होगा। वेकसों की हिमायत में कभी उसे पीछे कदम हटाते नहीं देखा। मालूम नहीं, किस मजहब का आदमी है, पर जिस मजहब और जिस क़ौम में ऐसी पाक रूहें पैदा हों, वह दुनिया के लिये बरकत है।
नसीमा– इनके भी बाल बच्चे होंगे?
वहब– बहुत बड़ा खानदान है। सात तो भाई भी हैं।
नसीमा– और मुसलमान न होते हुए भी ये लोग हजरत हुसैन की इमदाद के लिए जा रहे हैं?
वहब– हां, और क्या!
नसीमा– तो हमारे लिये कितनी शर्म की बात है कि हम यों पहलूतिही करें।
वहब– प्यारी नसीमा, चले चलेंगे। दो-चार दिन तो जिदंगी की बहार लूट लें।
नसीमा– नहीं वहब, एक लम्हें की भी देर न करो। खुदा हमें जन्नत में फिर मिलाएगा, और अब अब्द तक जिंदगी की बहार लूटेंगे।
वहब– नसीमा आज और सब्र करो।
नसीमा– एक लम्हा भी नहीं। वहब, अब इम्तहान में न डालो, सांडनी लाओ, फौरन चलो।