ढोलक बनाने व कचरा बीनने वाले समुदाय के लिए इंटरनेट लाभदायी हो सकता है या यह उन पर अतिरिक्त आर्थिक भार डालेगा? इसके अलावा इंटरनेट पर बढ़ती अश्लीलता क्या इन युवाओं को और अधिक उग्र व नशे का आदी नहीं बनाएगी? जिनके पास इंटरनेट की सुविधा नहीं होगी तो क्या उनकी स्थिति और खराब नहीं होगी? परंतु कहा जाता है कि सिक्के के दो पहलू होते हैं। हम इस आलेख में वही दूसरा पहलू देखने का प्रयास कर रहे हैं। भोपाल शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर जाटखेड़ी की ढोलक बस्ती के ज्यादातर लड़के ढोलक बनाकर बेचने या फिर कबाड़ का धंधा करते हैं। दिनभर की मेहनत का मुआवजा 'सेठÓ तय करता है। इनमें से कुछेक लड़कों के पास स्मार्टफोन हैं, लेकिन उसका केवल उपयोग गाना सुनने और वीडियो देखने के लिए करते हैं। अधिकांश के अशिक्षित होने से उन्हें सोषल मीडिया से ज्यादा लगाव नहीं है। इंटरनेट जैसी नई तकनीक के धुर विरोधी भी अब मानने लगे हैं कि लोगों को जोडऩे में इसकी कोई सानी नहीं। इसमें नवाचार की बड़ी गुंजाइश है। मिसाल के लिए भोपाल के ही अनुराग असाटी को लें, जिन्हें जब अपने घर का कबाड़ बेचने की जरूरत पड़ी और बड़ी कोशिशों के बाद भी उन्हें सही दाम देने वाला नहीं मिला तो उन्हें द कबाड़ीवाला डॉट कॉम के नाम से एक वेबसाइट शुरू कर दी। ऐसे प्रयोग दिल्ली, चेन्नई, नागपुर और मुंबई में भी हुए हैं। इन शहरों के कबाड़ बेचने वाले स्मार्टफोन की मदद से उन घरों को तलाशते हैं, जहां कबाड़ मौजूद हो। लोग भी इस तरह की वेबसाइटों में अपना रजिस्ट्रेशन करवाकर घर में मौजूद कबाड़ का मुफ्त विज्ञापन करते हैं। बिग बाजार जैसी बड़ी रिटेल कंपनियां भी कबाड़ के धंधे में उतर आई हैं। इन कंपनियों के नुमाइंदे खुद डिजिटल तौल कांटा लेकर उन घरों तक जाते हैं, जहां कबाड़ हो और बाजार भाव से खरीदते हैं। कबाड़ जैसी बेकार मानी जाने वाली चीज को भी इंटरनेट ने काम का बना दिया है। बिग बाजार के बड़े आउटलेट्स में आपको इस्तेमाल किए हुए सामान के बदले नए उत्पाद और छूट का फायदा भी मिल रहा है। सारा खेल नवाचार का है। नया सोचने वालों के लिए मौकों की कमी नहीं है। बाजार तैयार है आपकी नवाचार भरी सोच को हाथों-हाथ लेने के लिए। इंटरनेट ने इसे दोतरफ ा कमाई का माध्यम बना दिया है। अगर किसी कबाड़वाले ने घर के रद्दी सामान का इको-फ्रेंडली इस्तेमाल करने वाली किसी कंपनी से समझौता कर लिया तो उसे तीन गुना ज्यादा दाम भी मिल जाते हैं। इस तरह विक्रेता, खरीदार और कबाड़ को नए सिरे से प्रसंस्कृत करने वाली कंपनियों के बीच की कड़ी बना है इंटरनेट। चेन्नई में इन दिनों कुप्पाथोटी डॉट कॉम खासा लोकप्रिय है। शहर भर के कबाडिय़ों से इक_ा किए गए सामान को उन कंपनियों तक पहुंचा दिया जाता है, जो इसे रिसायकल कर नए उत्पाद बनाती हैं। कंपनियों ने कबाडिय़ों को वर्दी, डिजिटल तौल कांटे और कबाड़ को उसकी उपयोगिता के हिसाब से अलग-अलग करने के साथ ही इंटरनेट इस्तेमाल का प्रषिक्षण भी दिया है। भोपाल स्थित जाटखेड़ी के विक्रम जैसे युवा कबाड़ वालों को ऐसे प्रशिक्षण से काफी फ ायदा हो सकता है। सवाल उन्हें इंटरनेट से जोडऩे का है। जाटखेड़ी विस्थापितों की बस्ती है। ये वे लोग हैं, जिन्हें मुख्य शहर से दूर लाकर पटका दिया गया। इंटरनेट इन वंचित, सुविधाविहीन लोगों के लिए भी है बिना किसी भेदभाव और पक्षधरता के। एसोचैम के मुताबिक, अगले दो साल में देश का कबाड़ बाजार 17 अरब डॉलर का हो जाएगा। फि लहाल भारत में सालाना डेढ़ करोड़ टन कूड़ा-कबाड़ पैदा होता है। इसमें से 20 फ ीसदी ही रिसायकल हो पाता है, क्योंकि कबाड़ का धंधा करने वाले अधिकांष असंगठित क्षेत्र के अकुशल लोग हैं। इसके मुकाबले जर्मनी को देखें तो वहां 80 प्रतिशत कबाड़ पुर्नचक्रित हो जाता है, क्योंकि नेटवर्किंग की बदौलत उसे सही हाथों तक पहुंचाया जाता है। स्वच्छ भारत अभियान में विक्रम और कबाड़ का काम करने वाले उसके दोस्त इंटरनेट का कारगर इस्तेमाल कर जिंदगी में बड़ा बदलाव ला सकते हैं। यह न केवल पर्यावरण को अनुकूल बनाने में, बल्कि अपनी आमदनी को बढ़ाने में भी सहायक हो सकता है। दूसरी ओर दिक्कत यह है कि महीने में बमुष्किल 5000 रुपए कमाने वाले विक्रम के लिए इंटरनेट महज मनोरंजन का साधन है। उसे यकीन नहीं होता कि यह तकनीक उसके और परिवार का जीवनस्तर सुधार सकती है। असल में सूचना-संचार की इस नायाब तकनीक ने उस जैसे अशिक्षित युवाओं को विकास की मुख्य धारा से जोडऩे की कोशिश ही नहीं की। पुणे और दिल्ली की तरह न तो उसे अपने स्मार्टफोन पर कबाड़ के ताजा भाव मिलते हैं और न ही इस बात की कोई जानकारी कि घर-घर फेरी लगाकर जुटाए गए कबाड़ को कहां पर बेचने से उसे ज्यादा फायदा हो सकता है। दूरसंचार कंपनियों के लिए विक्रम की बेहतरी का कोई माकूल रास्ता भले न हो, लेकिन अनुराग जैसे युवाओं के पास जरूर है, जो इंटरनेट की मदद से लोगों को जोडऩे का काम कर रहे हैं। दूरसंचार कंपनियों के लिए अभी इस बात की सौ फीसदी गुंजाइश है कि वे अपनी मूल्य संर्विधत सेवाओं में वंचित और कमजोर तबके की जरूरत की सेवाओं को जोड़कर उनकी मदद कर सकते हैं। लेकिन बजाय इसके, सरकार और दूरसंचार कंपनियां इंटरनेट की सर्वव्यापकता और निरपेक्षता को अपने फायदे के लिए खत्म करने की बहस में उलझी हैं। इन बहस-मुबाहिसों से न तो विक्रम जैसे युवाओं के जीवन में कोई खास बदलाव आएगा और न ही अनुराग जैसे नवाचारी युवाओं को कुछ और नया सोचने की प्रेरणा मिलेगी।